एकादश समुल्लास

उत्तरार्द्धः

अनुभूमिका (१)

 

यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई भी मत न था, क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ। इनकी अप्रवृत्ति से अविद्याऽन्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया, वैसा मत चलाया।

उन सब मतों में ४ चार मत अर्थात् जो वेदविरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी, और कुरानी सभी मतों के मूल हैं, वे क्रम से एक के पीछे दूसरा तीसरा चौथा चला है। अब इन चारों की शाखा एक सहस्र से कम नहीं हैं। इन सब मतवादियों, इनके चेलों और अन्य सबको परस्पर सत्याऽसत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम न हो, इसलिये यह ग्रन्थ बनाया है। जो-जो इसमें सत्य-मत का मण्डन और असत्य का खण्डन लिखा है, वह सबको जनाना ही प्रयोजन समझा गया है। इसमें जैसी मेरी बुद्धि, जितनी विद्या और जितना इन चारों मतों के मूल ग्रन्थ देखने से बोध हुआ है, उसको सबके आगे निवेदित कर देना मैंने उत्तम समझा है, क्योंकि विज्ञान गुप्त हुए का पुनर्मिलना सहज नहीं है। पक्षपात छोड़कर इसको देखने से सत्याऽसत्य मत सबको विदित हो जायगा। पश्चात् सबको अपनी-अपनी समझ के अनुसार सत्य मत का ग्रहण करना और असत्य मत को छोड़ना सहज होगा। इनमें से जो पुराणादि ग्रन्थों से शाखा-शाखान्तररूप मत आर्य्यावर्त्त देश में चले हैं, उनका संक्षेप से गुण-दोष इस ११वें समुल्लास में दिखाया जाता है।

इस मेरे कर्म से यदि उपकार न मानें तो विरोध भी न करें। क्योंकि मेरा तात्पर्य्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने-कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य-जन्म का होना सत्याऽसत्य के निर्णय करने-कराने के लिये है, न कि वादविवाद, विरोध करने-कराने के लिये।

इसी मतमतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और होंगे उनको पक्षपातरहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब-तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्धवाद न छूटेगा तब-तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्याद्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना-कराना चाहैं तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।

यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सबको विरोध-जाल में फसा रक्खा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इसके होने की युक्ति इस ग्रन्थ की पूर्त्ति में लिखेंगे। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों के आत्माओं में प्रकाशित करे।

 

॥ अलमतिविस्तरेण विपश्चिद्वरशिरोमणिषु॥

 

अथैकादशसमुल्लासारम्भः

अथाऽऽर्य्यावर्त्तीयमतखण्डनमण्डने विधास्यामः

अब आर्य्य लोगों के जो कि आर्य्यावर्त्त देश में वसनेवाले हैं, उनके मत का खण्डन तथा मण्डन का विधान करेंगे।

यह आर्य्यावर्त्त देश ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिये इस भूमि का नाम सुवर्णभूमि है, क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिये सृष्टि की आदि में आर्य्य लोग इसी देश में आकर वसे। इसलिये हम सृष्टिविषय में कह आये हैं कि आर्य्य नाम उत्तम पुरुषों का है और आर्य्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है। जितने भूगोल में देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं। पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है, परन्तु आर्य्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही ‘सुवर्ण’ अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥     —मनु॰ [२।२०]॥

सृष्टि से ले के पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का ‘सार्वभौम चक्रवर्ती’ अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देश में ‘माण्डलिक’ अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव-पाण्डव पर्यन्त यहां के राजा और राजशासन में सब भूगोल के सब राजा और प्रजा चलते थे, क्योंकि यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है, उसका प्रमाण है—‘इसी आर्य्यावर्त्त में उत्पन्न हुए ‘ब्राह्मण’ अर्थात् विद्वानों से भूगोल के सब मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि अपने-अपने योग्य विद्या, चरित्रों की शिक्षा और विद्याभ्यास करें। और महाराजे युधिष्ठिरजी के राजसूय-यज्ञ और महाभारतयुद्धपर्यन्त यहां के राज्याधीन सब राज्य थे। सुनो! चीन का ‘भगदत्त’, अमेरिका का ‘बब्रुवाहन’, यूरोप के ‘विडालाक्ष’ अर्थात् मार्जार के सदृश आँखवाले, ‘यवन’ जिसको यूनान कह आये और ईरान का ‘शल्य’ आदि सब राजा राजसूय-यज्ञ और महाभारत युद्ध में आज्ञाऽनुसार आये थे। जब रघुगण राजा थे, तब रावण भी यहां के आधीन था। जब रामचन्द्र के समय में विरुद्ध हो गया, तो उसको रामचन्द्र ने दण्ड देकर राज्य से नष्ट कर उसके भाई विभीषण को राज्य दिया।

स्वायंभुव राजा से लेकर पाण्डवपर्यन्त आर्य्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। तत्पश्चात् आपस के विरोध से लड़कर नष्ट हो गये। क्योंकि इस परमात्मा की सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान् लोगों का राज्य बहुत दिन नहीं चलता। और यह संसार की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जब बहुत-सा धन असंख्य प्रयोजन से अधिक होता है तब आलस्य, पुरुषार्थरहितता, ईर्ष्या-द्वेष, विषयासक्ति और प्रमाद बढ़ता है। इससे देश में विद्या सुशिक्षा नष्ट होकर दुर्गुण और दुष्ट व्यसन बढ़ जाते हैं, जैसे कि मद्य-मांस सेवन, बाल्यावस्था में विवाह और स्वेच्छाचारादि दोष बढ़ जाते हैं। और जब युद्धविभाग में युद्धविद्या का कौशल और सेना इतनी बढ़े कि जिसका सामना करने वाला भूगोल में दूसरा न हो, तब उन लोगों में पक्षपात, अभिमान बढ़ कर अन्याय बढ़ जाता है। जब ये दोष हो जाते हैं तब आपस में विरोध होकर अथवा उनसे अधिक दूसरे छोटे कुलों में से कोई ऐसा समर्थ पुरुष खड़ा होता है कि उनका पराजय करने में समर्थ होवे। जैसे मुसलमानों की बादशाही के सामने ‘शिवाजी’, ‘गोविन्दसिंहजी’ ने खड़े होकर मुसलमानों के राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया।

अथ किमेतैर्वा परेऽन्ये महाधनुर्धराश्चक्रवर्त्तिनः केचित् सुद्युम्नभूरिद्युम्नेन्द्र-द्युम्नकुवलयाश्वयौवनाश्ववद्ध्र्यश्वाश्वपतिशशविन्दुहरिश्चन्द्राऽम्बरीषननक्तु-शर्यातिययात्यनरण्याक्षसेनादयः। अथ मरुत्तभरतप्रभृतयो राजानः॥

—मैत्र्युपनि॰ [प्रपा॰ १। खं॰ ४]

इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि सृष्टि से लेकर महाभारतपर्यन्त चक्रवर्त्ती सार्वभौम राजा आर्य्यकुल में ही हुए थे। अब इनके सन्तानों का अभाग्योदय होने से राजभ्रष्ट होकर विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहे हैं। जैसे यहां सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्ध्र्यश्व, अश्वपति, शशविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीष, ननक्तु, शर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत्त और भरत ‘सार्वभौम’ सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्त्ती राजाओं के नाम लिखे हैं, वैसे स्वायम्भुवादि चक्रवर्त्ती राजाओं के नाम स्पष्ट मनुस्मृति, महाभारतादि ग्रन्थों में लिखे हैं। इसको मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है।

प्रश्न—जो आग्नेयास्त्र आदि विद्या लिखी है, सो सच है वा नहीं? और तोप तथा बन्दूक उस समय में थीं, वा नहीं?

उत्तर—यह बात सच्ची है, ये शस्त्र भी थे। क्योंकि पदार्थविद्या से इन सब बातों का सम्भव है।

प्रश्न—क्या ये देवताओं के मन्त्रों से सिद्ध होते थे?

उत्तर—नहीं। ये सब अस्त्र पदार्थों से सिद्ध करते थे। वे ‘मन्त्र’ अर्थात् विचार से सिद्ध करते और चलाते थे। और जो ‘मन्त्र’ शब्दमय होता है, उससे कोई द्रव्य उत्पन्न नहीं होता। और जो कोई कहे कि मन्त्र से अग्नि उत्पन्न होता है तो वह मन्त्र के जप करने वाले के हृदय और जीभ में मन्त्र से अग्नि उत्पन्न होकर हृदय और जिह्वा को भस्म कर देवे। ‘मारने जाय शत्रु को और मर रहे आप’। इसलिये ‘मन्त्र’ नाम है विचार का, जैसा ‘राजमन्त्री’ अर्थात् राजकर्मों का विचार करने वाला कहाता है, वैसा ‘मन्त्र’ अर्थात् विचार से सब सृष्टि के पदार्थों का प्रथम ज्ञान और पश्चात् क्रिया करने से अनेक प्रकार के पदार्थ और क्रियाकौशल उत्पन्न होते हैं।

जैसे कोई एक लोहे का बाण वा गोला बनाकर उसमें ऐसे पदार्थ रक्खे कि जो अग्नि के लगाने से वायु में धुआं फैलने और सूर्य की किरण वा वायु के स्पर्श होने से अग्नि जल उठे, इसी का नाम ‘आग्नेयास्त्र’ है। जब दूसरा इसका निवारण करना चाहे तो उसी पर ‘वारुणास्त्र’ छोड़ दे। अर्थात् जैसे शत्रु ने शत्रु की सेना पर आग्नेयास्त्र छोड़कर नष्ट करना चाहा, वैसे ही अपनी सेना के रक्षार्थ सेनापति वारुणास्त्र से आग्नेयास्त्र का निवारण करे। वह ऐसे द्रव्यों के योग से होता है जिसका धुआं वायु के स्पर्श होते ही बद्दल होके झट बर्षने लग जावे, अग्नि को बुझा देवे। ऐसे ही ‘नागपाश’ अर्थात् जो शत्रु पर छोड़ने से उसके अङ्गों को जकड़ के बांध लेता है। वैसे ही एक ‘मोहनास्त्र’ अर्थात् जिसमें नशे की चीज डालने से जिसके धुएँ के लगने से, सब शत्रु की सेना ‘निद्रास्थ’ अर्थात् मूर्छित हो जाय। इसी प्रकार सब शस्त्रास्त्र होते थे। और एक तार से, वा सीसे से अथवा किसी और पदार्थ से विद्युत् उत्पन्न करके शत्रुओं का नाश करते थे, उसको भी ‘आग्नेयास्त्र’ तथा ‘पाशुपतास्त्र’ कहते हैं। ‘तोप’ और ‘बन्दूक’ नाम अन्य देश का है, यह संस्कृत और आर्य्यावर्त्तीय भाषा के नहीं। किन्तु जिसको विदेशी लोग तोप कहते हैं, संस्कृत और भाषा में उसी का नाम ‘शतघ्नी’, और जिसको बन्दूक कहते हैं, उसका नाम संस्कृत और आर्य्यभाषा में ‘भुशुण्डी’ कहते हैं। जो संस्कृत विद्या को नहीं पढ़े और इस देश की भाषा को भी ठीक-ठीक नहीं जानते, वे भ्रम में पड़ कर कुछ का कुछ लिखते और कुछ का कुछ बकते हैं। उसका बुद्धिमान् लोग प्रमाण नहीं कर सकते।

और जितनी विद्या भूगोल में फैली है, वह सब आर्य्यावर्त्त देश से मिश्रवालों, उनसे यूनानी, उनसे रूम और उनसे यूरोप देश में, उनसे अमेरिका आदि में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्य्यावर्त्त देश में है उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मनदेश में संस्कृत का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहनेमात्र है। क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मानते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा-सा पढ़ा, वही उस देश के लिए अधिक है। परन्तु आर्य्यावर्त्त की ओर देखें, तो उनकी बहूत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मन देश के—एक ‘प्रिन्सिपल’ के पत्र से जाना कि जर्मन देश में संस्कृत-चिट्ठी का पूर्ण अर्थ करनेवाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहब के संस्कृत-साहित्य और थोड़ी-सी वेद की व्याख्या देखकर मुझको विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब इधर-उधर आर्य्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका देखकर कुछ-कुछ यथा-तथा लिखते हैं। जैसा कि—

‘यु॒ञ्जन्ति ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑।

रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥’      [ऋ॰ १.६.१]

इस मन्त्र का अर्थ ‘घोड़ा’ किया है। इससे तो जो सायणाचार्य्य ने ‘सूर्य्य’ अर्थ किया है सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ ‘परमात्मा’ है, सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। उसमें इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है। इतने ही से जान लीजिये कि जर्मन देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत-विद्या का कितना पाण्डित्य है।

यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्य्यावर्त्त देश ही से प्रचरित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहब पेरिस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी ‘बायबिल इन इण्डिया’ में लिखते हैं कि—“सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्य्यावर्त्त देश है और सब विद्या तथा मत इसी देश से फैले हैं” और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि “हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्य्यावर्त्त देश की पूर्व काल में थी, वैसी ही हमारे देश की कीजिये”, सो उस ग्रन्थ में देख लो। तथा ‘दाराशिकोह’ बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है, वैसी किसी भाषा में नहीं। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि—“मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषा पढ़ीं, परन्तु मेरे मन का सन्देह छूट कर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब निःसन्देह होकर मुझको बड़ा आनन्द हुआ है।” देखो, काशी के ‘मानमन्दिर’ में शशिमालचक्र को कि जिसकी पूरी रक्षा भी नहीं रही है, तो भी कितना उत्तम है कि जिसमें अब तक भी खगोल का बहुत सा वृत्तान्त विदित होता है। जो ‘सवाई जयपुराधीश’ उसकी सम्भाल और फूटे-टूटे को बनवाया करेंगे तो बहुत अच्छा होगा। परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत के युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह?

विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥

[चाणक्यनीतिदर्पण अ॰ १६। श्लो॰ ५]॥

यह किसी कवि का वचन ठीक है कि—जब नाश होने का समय निकट आता है तब उलटी बुद्धि होकर उलटे काम करते हैं। कोई उनको सूधा समझावे तो उलटा मानें और उलटी समझावें उसको सूधी मानें। जब बड़े-बड़े विद्वान्, राजे, महाराजे, ऋषि, महर्षि लोग महाभारत युद्ध में बहुत से मारे गये और बहुत से मर गये, तब का विद्या का और वेदोक्त धर्म का प्रचार नष्ट होता चला। ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान आपस में करने लगे। जो बलवान् हुआ वह देश को दाब कर राजा बन बैठा। वैसे ही सर्वत्र आर्यावर्त्त देश में खण्ड-बण्ड राज्य हो गया। पुनः द्वीप-द्वीपान्तर के राज्य की व्यवस्था कौन करे?

जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन हुए तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के तो अविद्वान् होने में कथा ही क्या कहनी? जो परम्परा से वेदादि शास्त्रों का अर्थसहित पढ़ने का प्रचार था, वह भी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे, सो पाठमात्र भी क्षत्रिय आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान् हुए गुरु बन गये, तब छल, कपट, अधर्म भी उनमें बढ़ता चला। ब्राह्मणों ने विचारा कि अपनी जीविका का प्रबन्ध बाँधना चाहिये। सम्मति करके यही निश्चय कर क्षत्रिय आदि को उपदेश करने लगे कि हम ही तुम्हारे पूज्यदेव हैं। विना हमारी सेवा किये तुमको स्वर्ग वा मुक्ति न मिलेगी। किन्तु जो तुम हमारी सेवा न करोगे, तो घोर नरक में पड़ोगे। जो-जो पूर्ण विद्यावाले धार्मिकों का नाम ब्राह्मण और पूजनीय, वेद और ऋषि-मुनियों के शास्त्र में लिखा था, उनको अपने मूर्ख, विषयी, कपटी, लम्पट, अधर्मियों पर घटा बैठे। भला वे आप्त विद्वानों के लक्षण इन मूर्खों में कब घट सकते हैं? परन्तु जब क्षत्रियादि यजमान संस्कृत-विद्या से अत्यन्तहीन=रहित हुए, तब उनके सामने जो-जो गप्प मारे, सो-सो बिचारों ने सब मान लिये। जब मान लिये, तब इन नाममात्र ब्राह्मणों की बन पड़ी। सबको अपने वचन-जाल में बाँध कर वशीभूत कर लिये और कहने लगे कि—

ब्रह्मवाक्यं जनार्दनः॥

अर्थात् जो ब्राह्मणों के मुख में से वचन निकलता है, वह जानो साक्षात् भगवान् के मुख से निकला है। जब क्षत्रियादि वर्ण ‘आंख के अन्धे और गांठ के पूरे’ अर्थात् भीतर विद्या की आँख फूटी हुई और जिनके पास धन पुष्कल है, ऐसे चेले मिले, फिर इन व्यर्थ ब्राह्मण नाम वालों को विषयानन्द का उपवन मिल गया। यह भी उन लोगों ने प्रसिद्ध किया कि जो कुछ पृथिवी में उत्तम पदार्थ हैं, वे सब ब्राह्मण के लिये हैं। अर्थात् जो गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राह्मणादि वर्णव्यवस्था थी, उसको तोड़ कर जन्म पर रक्खी और मृतक [तथा] स्त्री पर्यन्त का भी दान यजमानों से लेने लगे। जैसी अपनी इच्छा हुई वैसा करते चले। यहां तक किया कि ‘हम भूदेव हैं’ हमारी सेवा के विना देवलोक किसी को नहीं मिल सकता। इनसे पूछना चाहिये कि तुम किस लोक में पधारोगे? तुम्हारे काम तो घोर नरक भोगने के हैं; कृमि, कीट बनोगे। तब तो बड़े क्रोधित होकर कहते हैं—“हम ‘शाप’ देंगे, तुम्हारा नाश हो जाएगा, क्योंकि लिखा है ‘ब्रह्मद्वेषी विनश्यति’ ब्राह्मणों से द्वेष करने वाला नष्ट हो जाता है।” हाँ, यह बात तो सच्ची है कि सम्पूर्ण वेद, और परमात्मा को जाननेवाले, धर्मात्मा, सब जगत् के उपकारक पुरुषों से जो कोई द्वेष करेगा, वह अवश्य नष्ट होगा। परन्तु जो ब्राह्मण नहीं हों, उनका न ब्राह्मण नाम और न उनकी सेवा करनी योग्य है। परन्तु तुम तो ब्राह्मण नहीं हो।

प्रश्न—तो हम कौन हैं?

उत्तर—तुम ‘पोप’ हो।

प्रश्न—‘पोप’ किसको कहते हैं?

उत्तर—असल इसकी सूचना रूमन् भाषा में तो बड़ा और पिता का नाम ‘पोप’ है, परन्तु अब छल-कपट से दूसरे को ठग कर अपना प्रयोजन साधनेवाले को ‘पोप’ कहते हैं।

प्रश्न—हम तो ब्राह्मण और साधु हैं। क्योंकि हमारा पिता ब्राह्मण और माता ब्राह्मणी तथा हम अमुक साधु के चेले हैं।

उत्तर—यह सच है, परन्तु सुनो भाई! मा-बाप ब्राह्मणी-ब्राह्मण होने से और किसी साधु के शिष्य होने पर ब्राह्मण वा साधु नहीं हो सकते, किन्तु ब्राह्मण और साधु अपने उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से होते हैं, जो कि परोपकारी हों।

सुना है कि जैसे रूम के ‘पोप’ अपने चेलों को कहते थे कि तुम अपने पाप हमारे सामने कहोगे, तो हम क्षमा कर देंगे। विना हमारी सेवा और आज्ञा के कोई भी स्वर्ग में नहीं जा सकता। जो तुम स्वर्ग में जाना चाहो तो हमारे पास जितने रुपये जमा करोगे उतनी ही सामग्री स्वर्ग में तुमको मिलेगी। जब कोई लाख रुपया के स्वर्ग की इच्छा करके ‘पोपजी’ को देता था, तब वह ‘पोपजी’ ईसा और मरियम की मूर्त्ति के सामने हुण्डी लिखकर ऐसी देता था—

“हे खुदावन्द ईसामसी! अमुक मनुष्य ने तेरे नाम पर लाख रुपये स्वर्ग में आने के लिये हमारे पास जमा कर दिये हैं। जब वह स्वर्ग में आवे तब तू अपने पिता के स्वर्ग के राज्य में पच्चीस सहस्र रुपयों में बाग-बगीचे, मकान; पच्चीस सहस्र में सवारी, नौकर-चाकर; पच्चीस सहस्र में खाने-पीने, कपड़ा, सोने-बैठने का सब सराजाम और पच्चीस सहस्र इसके इष्ट मित्रों की जियाफ़त (=खातरी) आदि के वास्ते दिला देना। वैसे हुंडी सिकार देना।”    —सही पोपजी की।

फिर उस हुण्डी के नीचे पोप जी आप सही करके हुण्डी उसको देकर कहते थे कि—जब तू मरे तब यह हुण्डी भी कब्र में गड़े। [और इसे अपने] सिरहाने धर लेने के लिये अपने कुटुम्ब को कह रखना। जब फरिश्ते आवेंगे तब तुझको और हुण्डी को ले जायंगे और लिखे प्रमाणे चीजें तुझे दिला देंगे।

जानो स्वर्ग के ठेकेदार पोपजी ही हैं। जब-तक यूरोप में मूर्खता थी, तब तक वहां पोपलीला चलती थी। अब विद्या के होने से झूठी लीला बहुत करके नहीं चलती, किन्तु निर्मूल भी नहीं हुई।

वैसे ही आर्य्यावर्त्त देश में भी पोपजी जानो लाखों अवतार लेकर लीला फैला रहे हैं अर्थात् राजा और प्रजा को विद्या न पढ़ने, अच्छे पुरुषों का सत्सङ्ग होने न देने, रात-दिन बहकाने के सिवाय दूसरा कुछ भी काम नहीं करते। परन्तु यह ध्यान में रखना कि जो-जो कपट छल की लीला करते हैं, वे ही पोप कहाते हैं। जो उनमें भी धार्मिक विद्वान् परोपकारी हैं, वे सच्चे ब्राह्मण और साधु हैं। अब उन्हीं पोपों अर्थात् छली-कपटी स्वार्थी लोगों, “मनुष्यों को ठग कर अपने प्रयोजन सिद्ध करने वालों”, ही का ग्रहण ‘पोप’ शब्द से करना और ‘ब्राह्मण’ तथा ‘साधु’ नाम से उत्तम पुरुषों का स्वीकार करना योग्य है।

देखो! जो कोई भी उत्तम ब्राह्मण वा साधु न होता, तो वेदादिशास्त्रों के पुस्तक स्वरसहित का पठन-पाठन, जैन, मुसलमान और ईसाई आदि से बचाकर आर्यों को वेदादि शास्त्र में प्रीतियुक्त और वर्णाश्रम में रखना कौन कर सकता?

‘विषादप्यमृतं ग्राह्यम्।’     —मनु॰ [२।२३९]॥

विष से भी अमृत के ग्रहण करने के समान पोपलीला से बहकाने में से भी आर्यों का जैन आदि मतों से बच रहना विष में अमृत के समान गुण समझना चाहिये।

जब यजमान विद्याहीन हुए और आप कुछ पाठ-पूजा पढ़ कर, अभिमान में आके, सब लोगों ने सम्मति करके राजा आदि से कहा कि ब्राह्मण और साधु अदण्ड्य हैं, देखो! ‘ब्राह्मणो न हन्तव्यः’ ‘साधुर्न हन्तव्यः’ ऐसे-ऐसे वचन जो कि सच्चे ब्राह्मण और सच्चे साधुओं के विषय में थे, सो पोपों ने अपने पर घटा लिये। और बहुत से झूठे-झूठे वचनयुक्त ग्रन्थ बना कर उनमें ऋषि-मुनियों के नाम धर के, उन्हीं के नाम से सुनाते रहे। उन प्रतिष्ठित ऋषि-महर्षियों के नाम से अविद्वान् लोग मानने लगे। पश्चात् जब अपने पर से दण्ड की व्यवस्था उठवा दी, पुनः यथेष्टाचार करने लगे, अर्थात् ऐसे करड़े नियम चलाये कि उन पोपों की आज्ञा के विना सोना, आना, जाना आदि भी नहीं कर सकते थे। राजाओं को ऐसा निश्चय कराया कि पोपसंज्ञक कहनेमात्र के ब्राह्मण साधु चाहे सो करें, कभी दण्ड न देना अर्थात् उन पर मन में दण्ड देने की इच्छा न करनी चाहिये। जब ऐसी मूर्खता हुई, तब जैसी पोपों की इच्छा हुई, वैसा करने कराने लगे। अर्थात् इस बिगाड़ के मूल महाभारत युद्ध से पूर्व एक सहस्र वर्ष से प्रवृत्त हुए थे। क्योंकि उस समय में ऋषि-मुनि भी थे तथापि कुछ-कुछ आलस्य, प्रमाद, ईर्ष्या, द्वेष के अंकुर उगे थे, वे बढ़ते-बढ़ते वृक्ष हो गये। जब सच्चा उपदेश न रहा तब आर्य्यावर्त्त में अविद्या फैलकर आपस में लड़ने लगे। क्योंकि—

उपदेश्योपदेष्टृत्वात् तत्सिद्धिः॥ इतरथान्धपरम्परा॥

—सांख्यसूत्र [अ॰ ३। सू॰ ७९, ८१] है॥

जब उत्तम-उत्तम उपदेशक होते हैं तब अच्छे प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। और जब उत्तम उपदेशक और श्रोता नहीं रहते तब अन्धपरम्परा चलती है। फिर भी जब सत्पुरुष होकर सत्योपदेश होता है, तभी अन्धपरम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है। पुनः वे पोप लोग अपनी, अपने चरणों की पूजा कराने लगे और कहने लगे कि इसी में तुम्हारा कल्याण है। जब ये लोग इनके वश में हो गये, तब प्रमाद और विषयासक्ति में निमग्न होकर गड़रिये के समान झूठे गुरु और चेले फसे। विद्या, बल, बुद्धि, पराक्रम, शूरवीरतादि शुभगुण सब नष्ट होते चले। पश्चात् जब विषयासक्त हुए तो मांस मद्य का सेवन गुप्त-गुप्त करने लगे। पश्चात् एक वाममार्ग खड़ा किया। ‘शिव उवाच’ ‘पार्वत्युवाच’ ‘भैरव उवाच’ इत्यादि नाम लिखकर उनका तन्त्र नाम धरा। उनमें ऐसी-ऐसी बातें लिखीं कि—

मद्यं मांसं च मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।

एते पञ्च मकाराः स्युर्मोक्षदा हि युगे युगे॥१॥

[—महानिर्वाणतन्त्र पञ्चमोल्लास; कालीतन्त्रादि]॥

प्रवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णा द्विजातयः।

निवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णाः पृथक्-पृथक्॥२॥

[—कुलार्णव तन्त्र ८।९६]॥

पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत्पतति भूतले।

पुनरुत्थाय वै पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥३॥

[—कुलार्णव तन्त्र ७।१००]॥

मातृयोनिं परित्यज्य विहरेत् सर्वयोनिषु॥४॥

वेदशास्त्रपुराणानि सामान्यगणिका इव।

एकैव शाम्भवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव॥५॥

[—ज्ञानसंकलनी तन्त्र; हठयोग प्रदीपिका उपदेश ४।३५]॥

देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला कि जो वेदविरुद्ध महा अधर्म के काम हैं उन्हीं को श्रेष्ठ, वाममार्गियों ने माना। मद्य, मांस, मीन अर्थात् मच्छी, मुद्रा पूरी, बड़े, रोटा आदि चर्वण, योनि और पात्राधार मुद्रा और पांचवां मैथुन अर्थात् पुरुष सब शिव और स्त्री सब पार्वती के समान मान कर—

अहं भैरवस्त्वं भैरवी ह्यावयोरस्तु सङ्गमः॥

[—कुलार्णवतन्त्र उल्लास ८।९७, १०२]॥

चाहे कोई पुरुष वा स्त्री हो इस ऊट-पटांग वचन को पढ़ के समागम करने में वे वाममार्गी दोष नहीं मानते। अर्थात् जिन नीच स्त्रियों को छूना नहीं, उनको अति पवित्र उन्होंने माना है। जैसे शास्त्रों में रजस्वला आदि स्त्रियों के स्पर्श का निषेध है, उनको वाममार्गियों ने अतिपवित्र माना है। सुनो! इनका श्लोक खण्ड बण्ड—

रजस्वला पुष्करं तीर्थं चाण्डाली तु स्वयं काशी

चर्मकारी प्रयागः स्याद्रजकी मथुरा मता।

अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता॥          —इत्यादि [—रुद्रयामल तन्त्र]॥

रजस्वला के साथ समागम करने से जानो पुष्कर का स्नान, चाण्डाली से समागम में काशी की यात्रा, चमारी से समागम करने से मानो प्रयागस्नान, धोबी की स्त्री के साथ मेल में मथुरायात्रा और कंजरी के साथ लीला करने से मानो अयोध्या-तीर्थ कर आये। मद्य का नाम ‘तीर्थ’, मांस का नाम ‘शुद्धि’ और ‘पुष्प’, मच्छी का नाम ‘तृतीया’ और ‘जलतुम्बिका’, मुद्रा का नाम ‘चतुर्थी’, मैथुन का नाम ‘पञ्चमी’। इसलिये ये नाम रक्खे हैं कि जिससे दूसरा न समझ सके। अपने कौल, आर्द्र, वीर, शाम्भव और गण आदि नाम रक्खे हैं। और जो वाममार्ग मत में नहीं हैं, उनका ‘कण्टक’, ‘विमुख’, ‘शुष्कपशु’ आदि नाम धरा है॥१॥

और कहते हैं कि जब भैरवीचक्र हो तब उसमें ब्राह्मण से लेकर चाण्डालपर्यन्त का नाम द्विज हो जाता है और जब भैरवी चक्र से अलग हों तब सब अपने-अपने वर्णस्थ हो जायं। भैरवीचक्र में वाममार्गी लोग भूमि वा पट्टे पर एक बिन्दु, त्रिकोण, चतुष्कोण, वर्त्तुलाकार बनाकर उसपर मद्य का घड़ा रखके उसकी पूजा करते हैं, फिर ऐसा मन्त्र पढ़ते हैं—

‘ब्रह्मशापं विमोचथ’

हे मद्य! तू ब्रह्मा आदि के शाप से रहित हो। एक गुप्त स्थान में कि जहां सिवाय वाममार्गी के दूसरे को नहीं आने देते, वहां स्त्री और पुरुष इकट्ठे होते हैं। एक स्त्री को नङ्गी कर पूजते और स्त्री लोग किसी पुरुष को नङ्गा कर पूजती हैं। पुनः कोई किसी की स्त्री, कोई अपनी वा दूसरे की कन्या, कोई किसी की वा अपनी माता, भगिनी, पूत्रवधू आदि आती हैं। पश्चात् एक पात्र में मद्य भरके मांस और बड़े आदि एक स्थाली में धर रखते हैं। उस मद्य के प्याले को जो कि उनका आचार्य्य होता है, हाथ में लेकर ‘भैरवोऽहम्’ ‘शिवोऽहम्’ ‘मैं भैरव वा शिव हूँ’ बोल के पीता है। उसी जूंठे पात्र से सब पीते हैं। और जब किसी की स्त्री वा वेश्या नङ्गी कर अथवा किसी पुरुष को नङ्गा कर हाथ में तलवार दे के उसका नाम देवी और पुरुष का नाम महादेव धरते हैं, उनके उपस्थ इन्द्रिय की पूजा करते हैं, तब उस देवी वा शिव को मद्य का प्याला पिलाकर, उसी जूंठे पात्र से सब लोग एक-एक प्याला पीते। फिर उसी प्रकार क्रम से पी-पी के उन्मत्त होकर, चाहे कोई किसी की बहिन, कन्या वा माता हो, जिसके साथ जिसकी इच्छा हो, कुकर्म करते हैं। कभी-कभी बहुत नशा चढ़ने से जूते, लात, मुष्टा-मुष्टि, केशा-केशि आपस में लड़ते हैं। किसी-किसी को वहीं वमन होता है। उनमें जो पहुँचा हुआ ‘अघोरी’ अर्थात् सब में सिद्ध गिना जाता है, वह वमन हुई चीज को भी खा लेता है। अर्थात् इनके सबसे बड़े सिद्ध की ये बातें हैं कि—

हालां पिबति दीक्षितस्य मन्दिरे, सुप्तो निशायां गणिकागृहेषु।

विराजते कौलवचक्रवर्ती॥    [—कुलार्णवतन्त्र, उल्लास ९]॥

जो ‘दीक्षित’ अर्थात् कलार के घर में जाके बोतल पर बोतल चढ़ावे। रण्डियों के घर में जाके उनसे कुकर्म करके सोवे, जो इत्यादि कर्म निर्लज्ज, निःशङ्क होकर करे, वही वाममार्गियों में सर्वोपरि मुख्य चक्रवर्ती राजा के समान माना जाता है। अर्थात् जो बड़ा कुकर्मी वही उनमें बड़ा, और जो अच्छे काम करे और बुरे कामों से डरे वही छोटा। क्योंकि—

पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः सदा शिवः॥

[—ज्ञानसंकलनी तन्त्र, श्लो॰ ४३]॥

ऐसा तन्त्र में कहते हैं कि जो लोकलज्जा, शास्त्रलज्जा, कुललज्जा, देशलज्जा आदि पाशों में बँधा है वह ‘जीव’, और जो निर्लज्ज होकर बुरे काम करे, वही सदा ‘शिव’ है॥२॥

‘उड्डीस’ तन्त्र आदि में एक प्रयोग लिखा है कि एक घर में चारों ओर आलय हों। उनमें मद्य के बोतल भरके धर देवे। इस आलय से एक बोतल पीवे, दूसरे आलय पर जावे। उसमें से पी तीसरे और तीसरे में से पीके, चौथे आलय में जावे। खड़ा-खड़ा तब तक मद्य पीवे कि जब तक लकड़ी के तुल्य पृथिवी में न गिर पड़े। फिर जब नशा उतरे तब उसी प्रकार पीवे, गिर पड़े। और पुनः तीसरी वार इसी प्रकार पीके, गिरके उठे, तो उसका पुनर्जन्म न हो, अर्थात् सच तो यह है कि ऐसे मनुष्यों का पुनः मनुष्यजन्म होना ही कठिन है, किन्तु नीच योनि में बहुकालपर्यन्त पड़ा रहेगा॥३॥

वामियों के तन्त्र-ग्रन्थों में यह नियम है कि एक माता को छोड़ के किसी स्त्री को न छोड़ना चाहिये अर्थात् चाहे कन्या हो वा भगिनी आदि क्यों न हो, सबके साथ संगम करना चाहिये। इन वाममार्गियों में दश महाविद्या प्रसिद्ध हैं, उनमें से एक मातङ्गी विद्यावाला कहता है कि ‘मातरमपि न त्यजेत्’ अर्थात् माता को भी समागम किये विना न छोड़ना चाहिये। और स्त्री पुरुष के समागम समय में मन्त्र जपते हैं कि हमको सिद्धि प्राप्त हो जाय। ऐसे पागल मनुष्य भी संसार में बहुत न्यून होंगे॥४॥

जो मनुष्य झूठ चलाना चाहता है, वह सत्य की निन्दा अवश्य ही करता है। देखो! ये वाममार्गी क्या कहते हैं? वेद शास्त्र, और पुराण ये सब सामान्य वेश्याओं के तुल्य हैं और जो यह शाम्भवी वाममार्ग की मुद्रा है, वह गुप्त कुल की स्त्री के तुल्य है॥५॥

इसीलिये इन लोगों ने सर्वथा वेदविरुद्ध मत खड़ा किया है। पश्चात् इन लोगों का मत बहुत चला। तब धूर्त्तता करके वेदों के नाम से भी वाममार्ग की लीला थोड़ी-थोड़ी चलाई। अर्थात्—

सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्।

[तु॰ शत॰ ब्रा॰ कां॰ १२।३।५।२ तथा ब॰ ४। कं॰ ५]॥

प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसम्।       [मनु॰ ५।२७]॥

वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति॥१॥     [तुलना—मनु॰ ५।४४]॥

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने।

प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥२॥       —मनु॰ [५।५६]

‘सौत्रामणी’ यज्ञ में मद्य पिये, इसका अर्थ तो यह है कि सौत्रामणी यज्ञ में ‘सोमरस’ अर्थात् सोमवल्ली का रस पिये।

‘प्रोक्षित’ अर्थात् यज्ञ में मांस खाने में दोष नहीं, ऐसी पामरपन की बातें वाममार्गियों ने चलाई हैं।

उनसे पूछना चाहिये कि जो वैदिकी हिंसा हिंसा न हो तो तुझ और तेरे कुटुम्ब को मार के होम कर डालें तो क्या चिन्ता है?॥१॥

मांसभक्षण करने, मद्य पीने, परस्त्रीगमन करने आदि में दोष नहीं है, यह कहना छोकरपन है। क्योंकि विना प्राणियों को पीड़ा दिये मांस प्राप्त ही नहीं होता, और विना अपराध के पीड़ा देना धर्म का काम नहीं। मद्यपान का तो सर्वथा निषेध ही है, क्योंकि अब तक वाममार्गियों के विना किसी ग्रन्थ में नहीं लिखा, किन्तु सर्वत्र निषेध है। और विना विवाह के मैथुन में भी दोष है, इसको निर्दोष कहनेवाला सदोष है॥२॥

ऐसे-ऐसे वचन भी ऋषियों के ग्रन्थ में डालके कितने ही ऋषि-मुनियों के नाम से ग्रन्थ बनाकर ‘गोमेध’, ‘अश्वमेध’ नाम के यज्ञ भी कराने लगे थे। अर्थात् ‘इन पशुओं को मारके होम करने से यजमान और पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है’ ऐसी प्रसिद्धि की। निश्चय तो यह है कि जो ब्राह्मणग्रन्थों में अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्द हैं, उनका ठीक-ठीक अर्थ नहीं जाना है, क्योंकि जो जानते तो ऐसा अनर्थ क्यों करते?

प्रश्न—अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्दों का अर्थ क्या है?

उत्तर—इनका अर्थ यह है कि—

राष्ट्रं वा अश्वमेधः॥ [१३।१।६।३]॥

अन्नꣳहि गौः॥     [४।३।१।२५]॥

अग्निर्वा अश्वः॥    [३।५।१।५]॥

आज्यं मेधः॥     —शतपथब्राह्मणे [तु॰—१३।२।११।२]॥

घोड़े, गाय आदि पशु तथा मनुष्य मारके होम करना कहीं नहीं लिखा सिवाय वाममार्गियों के। किन्तु यह भी बात वाममार्गियों ने चलाई और जहां-जहां लेख है, वह-वह भी वाममार्गियों ने प्रक्षेप किया है। देखो! राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादि का देनेहारा यजमान और अग्नि में घी आदि का होम करना ‘अश्वमेध’; अन्न, इन्द्रियाँ, किरण, पृथिवी आदि को पवित्र रखना ‘गोमेध’; जब मनुष्य मर जाय, तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना ‘नरमेध’ कहाता है।

प्रश्न—यज्ञकर्त्ता कहते हैं कि यज्ञ करने से यजमान और पशु स्वर्गगामी; तथा होम करके फिर पशु को जीता करते थे, यह बात सच्ची है वा नहीं?

उत्तर—नहीं! जो स्वर्ग को जाते हों तो ऐसी बात कहनेवाले को मार, होमकर, स्वर्ग में पहुँचाना चाहिये वा उसके प्रिय माता, पिता, स्त्री और पुत्रादि को मार होमकर स्वर्ग में क्यों नहीं पहुँचाते? वा वेदी में से पुनः क्यों नहीं जिलाते?

प्रश्न—जब यज्ञ करते हैं तब वेदों के मन्त्र पढ़ते हैं। जो वेद में न होता तो कहां से पढ़ते?

उत्तर—मन्त्र किसी को कहीं पढ़ने से नहीं रोकता, क्योंकि वह एक शब्द है। परन्तु उनका अर्थ ऐसा नहीं है कि पशु को मारके होम करना। जैसे ‘अग्नये स्वाहा’ इत्यादि मन्त्रों का अर्थ-‘अग्नि में हवि, पुष्ट्यादिकारक घृतादि उत्तम पदार्थों के होम करने से वायु, वृष्टि, जल शुद्ध होकर जगत् को सुखकारक होते हैं’, परन्तु इन सत्य अर्थों को वे मूढ़ नहीं समझते थे। क्योंकि जो स्वार्थबुद्धि होते हैं, वे अपने स्वार्थ करने के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं जानते, मानते। जब इन पोपों का ऐसा अनाचार देखा और दूसरा मरे का तर्पण, श्राद्धादि करने को देखकर एक महाभयङ्कर वेदादि-शास्त्रनिन्दक, बौद्ध वा जैन मत प्रचलित हुआ है। सुनते हैं कि एक इसी देश में गोरखपुर का राजा था, उससे पोपों ने यज्ञ कराया। उसकी प्रिय राणी का समागम घोड़े के साथ कराने से मरने पर, वैराग्यवान् होकर अपने पुत्र को राज्य दे, साधु हो, पोपों की पोल निकालने लगा। इसी की शाखारूप ‘चारवाक’ और ‘आभाणक’ मत भी हुआ था। उन्होंने इस प्रकार श्लोक बनाये हैं—

पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।

स्वपिता यजमानेन तत्र कथं न हिंस्यते॥ १॥

मृतानामिह जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्।

गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्॥ २॥

[सर्वदर्शनसंग्रह—चारवाक दर्शन, श्लो॰ ४-५]॥

जो मारकर अग्नि में होम करने से पशु स्वर्ग को जाता है तो यजमान अपने पिता आदि को मारके स्वर्ग में क्यों नहीं भेजता॥१॥

जो मरे हुए मनुष्यों की तृप्ति के लिये श्राद्ध और तर्प्पण होता है तो विदेश में जानेवाले मनुष्य को मार्ग का खर्च खाने-पीने के लिये बाँधना व्यर्थ है॥ २॥ क्योंकि जब मृतक को श्राद्ध-तर्पण से अन्न-जल पहुंचता है, तो जीते हुए परदेश में रहनेवाले वा मार्ग में चलनेहारों को घर में रसोई बनी हुई का पत्तल परोस, लोटा भरके उसके नाम पर रखने से क्यों नहीं पहुंचता? जो जीते हुए दूर देश अथवा दश हाथ पर दूर बैठे हुये को दिया हुआ नहीं पहुंचता तो मरे हुए के पास किसी प्रकार नहीं पहुँच सकता।

उनके ऐसे युक्तिसिद्ध उपदेशों को मानने लगे और उनका मत बढ़ने लगा। जब बहुत से राजा रईस (भूमिये)उनके मत में हुए, तब पोपजी भी उनकी ओर झुके, क्योंकि इनको जिधर गप्फा अच्छा मिले, वहीं चले जायें। झट जैन बनते चले। जैन में भी और प्रकार की पोपलीला बहुत है, सो १२वें समुल्लास में लिखेंगे। बहुतों ने इनका मत स्वीकार किया परन्तु कितनेक ही जो पर्वत, काशी, कन्नौज, पश्चिम, दक्षिण देशवाले थे, उन्होंने जैनों का मत स्वीकार नहीं किया था। वे जैनी वेद का अर्थ न जानकर बाहर की पोपलीला को भ्रान्ति से वेद पर मानकर, वेदों की भी निन्दा करने लगे। उसके पठनपाठन, यज्ञोपवीतादि और ब्रह्मचर्य्यादि नियमों को भी नाश किया। जहाँ जितने पुस्तक वेदादि के पाये, नष्ट किये। आर्य्यों पर बहुत-सी राजसत्ता भी चलाई, दुःख दिया। जब उनको भय, शङ्का न रही, तब अपने मतवाले गृहस्थ और साधुओं की प्रतिष्ठा और वेदमार्गियों का अपमान और पक्षपात से दण्ड भी देने लगे। और आप ऐश-आराम और घमण्ड में आ, फूलकर फिरने लगे। ऋषभदेव से लेके महावीर-पर्यन्त अपने तीर्थंङ्करों की बड़ी-बड़ी मूर्त्तियाँ बनाकर पूजा करने लगे अर्थात् पाषाणादि मूर्त्तिपूजा की जड़ जैनियों से चली। परमेश्वर का मानना न्यून हुआ, पाषाणादि मूर्तिपूजा में लगे। ऐसा तीन सौ वर्ष पर्यन्त आर्यावर्त्त में जैनों का राज रहा। प्रायः आर्य लोग उनमें मिलकर शूद्रप्रायः वेदार्थ-ज्ञान से शून्य हो गये थे। इस बात को अनुमान से कोई अढ़ाई सहस्र वर्ष व्यतीत हुए होंगे।

बाइस सौ वर्ष हुए कि एक ‘शङ्कराचार्य’ द्रविणदेशोत्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मचर्य से व्याकरणादि सब शास्त्रों को पढ़ कर सोचने लगे कि अहह! सत्य आस्तिक वेद मत का छूटना और जैन नास्तिक मत का चलना, बड़ी ही हानि की बात हुई है, इनको हठाना चाहिये। शङ्कराचार्य्य शास्त्र तो पढ़े ही थे। परन्तु जैन मत के भी पुस्तक पढ़े थे और उनकी युक्ति भी बहुत प्रबल थी। उन्होंने विचारा कि इनको किस प्रकार हठावें? निश्चय हुआ कि उपदेश और शास्त्रार्थ करने से ये लोग हठेंगे। ऐसा विचार कर उज्जैन में आये। वहाँ उस समय ‘सुधन्वा’ राजा था, जो जैनियों के ग्रन्थ और कुछ संस्कृत भी पढ़ा था। वहाँ जाकर वेद का उपदेश करने लगे और राजा से मिलकर कहा कि आप संस्कृत और जैनियों के भी ग्रन्थों को पढ़े हो, जैन मत को मानते हो, इसलिये मैं आपको कहता हूँ कि जैनियों के पण्डितों के साथ मेरा शास्त्रार्थ कराइये, इस प्रतिज्ञा पर—‘जो हारे सो जीतनेवाले का मत स्वीकार करले और आप भी जीतनेवाले का मत स्वीकार कीजियेगा।’

यद्यपि सुधन्वा जैन मत में थे तथापि संस्कृत ग्रन्थ पढ़ने से उनकी आँख कुछ खुली थी। इससे उनके मन में अत्यन्त पशुता नहीं छाई थी क्योंकि जो विद्वान् होता है, वह सत्य और असत्य की परीक्षा करके, सत्य को मानता और असत्य को छोड़ देता है। जब तक सुधन्वा राजा को बड़ा विद्वान् उपदेशक नहीं मिला था, तब तक सन्देह में थे कि इनमें कौन-सा सत्य और कौन-सा असत्य है? जब शङ्कराचार्य्य की यह बात सुनी, बड़ी प्रसन्नता के साथ बोले कि हम शास्त्रार्थ कराके सत्याऽसत्य का निर्णय अवश्य करावेंगे। जैनियों के पण्डितों को दूर-दूर से बुलाकर सभा कराई। उसमें शङ्कराचार्य का वेदमत और जैनियों का वेदविरुद्ध मत था। अर्थात् शङ्कराचार्य्य का पक्ष वेदमत का स्थापन और जैनियों का खण्डन; जैनियों का अपने मत का स्थापन और वेद का खण्डन पक्ष था। शास्त्रार्थ कई दिनों तक हुआ। जैनियों का मत यह था कि—‘सृष्टि का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं; यह जगत् और जीव अनादि हैं, इन दोनों की उत्पत्ति और नाश कभी नहीं होता।’ इससे विरुद्ध शङ्कराचार्य्य का मत था कि—‘अनादि सिद्ध परमात्मा ही जगत् का कर्त्ता है; यह जगत् और जीव झूठा है; क्योंकि उसी परमेश्वर ने अपनी माया से जगत् बनाया; वही धारण और प्रलयकर्त्ता है; और यह जीव और प्रपञ्च स्वप्नवत् हैं; परमेश्वर आप ही सब रूप होकर लीला कर रहा है।’

बहुत दिन तक शास्त्रार्थ होता रहा। परन्तु अन्त में युक्ति और प्रमाण से जैनियों का मत खण्डित और शङ्कराचार्य्य का मत अखण्डित रहा। तब उन जैनियों के पण्डित और सुधन्वा राजा ने वेदमत का स्वीकार कर लिया, जैनमत को छोड़ दिया। पुनः बड़ा हल्ला हुआ और सुधन्वा ने अपने मित्र राजाओं को लिखकर [शङ्कराचार्य से] शास्त्रार्थ कराया। परन्तु जैन का पराजय समय होने से पराजित होते गये।

पश्चात् शङ्कराचार्य्य के सर्वत्र आर्यावर्त्त में घूमने का प्रबन्ध सुधन्वादि राजाओं ने कर दिया और उनकी रक्षा के लिये साथ नौकर-चाकर भी रख दिये। उसी समय से सबके यज्ञोपवीत होने लगे और वेदों का पठनपाठन भी चला। दश वर्ष के भीतर सर्वत्र आर्यावर्त्त में घूमकर जैनियों का खण्डन और वेदों का मण्डन किया। परन्तु शंकराचर्य्य के समय में ‘जैन-विध्वंस’ अर्थात् जितनी मूर्तियाँ जैनियों की टूटी हुई निकलती हैं, वे शङ्कराचार्य्य के समय में टूटी थीं। और जो विना टूटी निकलती हैं, वे जैनियों ने भूमि में गाड़ दी थीं कि तोड़ी न जायें। वे अब तक कहीं भूमि में से निकलती हैं।

शङ्कराचार्य्य के पूर्व शैवमत भी थोड़ा सा था, उसका भी खण्डन किया। वाममार्ग का खण्डन किया। उस समय इस देश में धन बहुत था और स्वदेशभक्ति भी थी। जैनियों के मन्दिर शङ्कराचार्य्य और सुधन्वा ने नहीं तुड़वाये थे क्योंकि उनमें वेदादि की पाठशाला करने की इच्छा थी। जब वेदमत का स्थापन हो चुका, और विद्या-प्रचार करने का विचार करते ही थे, उतने में दो जैन ऊपर से वेदमत और भीतर से कट्टर जैन थे, अर्थात् कपटमुनि थे, शंकराचार्य्य उन पर अति प्रसन्न थे, उन दोनों ने अवसर पाकर शंकराचार्य्य को ऐसी विषयुक्त वस्तु खिलाई कि उनकी भूख मन्द हो गई। पश्चात् शरीर में बहुत-से फोड़े-फुन्सी होकर छः महीने के भीतर शरीर छूट गया। तब सब निरुत्साहित हो गये और जो विद्या का प्रचार होनेवाला था, वह भी न होने पाया।

जो-जो उन्होंने शारीरक-भाष्यादि बनाये थे, उनका प्रचार शंकराचार्य्य के शिष्य करने लगे। अर्थात् जो जैनियों के खण्डन के लिये ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या और जीव ब्रह्म की एकता’ कथन की थी, उसका उपदेश करने लगे। दक्षिण में शृङ्गेरी, पूर्व में भूगोवर्धन, उत्तर में जोशी और द्वारिका में शारदामठ बाँध कर शंकराचार्य के शिष्य महन्त बन कर और श्रीमान् होकर आनन्द करने लगे, क्योंकि शंकराचार्य के पश्चात् उनके शिष्यों की बड़ी प्रतिष्ठा होने लगी।

अब इसमें विचार करना चाहिए कि जो ‘जीव ब्रह्म की एकता, जगत् मिथ्या’ शङ्कराचार्य्य का निज मत था, तो वह अच्छा मत नहीं। और जो जैनियों के खण्डन के लिये उस मत का स्वीकार किया हो, तो कुछ अच्छा है।

नवीन वेदान्तियों का मत ऐसा है—

प्रश्न—जगत् स्वप्नवत्, रज्जू में सर्प, सीप में चाँदी, मृगतृष्णिका में जल, गन्धर्वनगर, इन्द्रजालवत् यह संसार झूठा है। एक ब्रह्म ही सच्चा है।

सिद्धान्ती—‘झूठा’ तुम किसको कहते हो?

नवीन वेदान्ती—जो वस्तु न हो और प्रतीत होवे।

सिद्धान्ती—जो वस्तु ही नहीं, उसकी प्रतीति कैसे हो सकती है?

नवीन॰—अध्यारोप से।

सिद्धान्ती—अध्यारोप किसको कहते हो?

नवीन॰—‘वस्तुन्यवस्त्वारोपणमध्यासः’

[तु॰—सदानन्दविरचित वेदान्तसार खण्ड ६]

‘अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते’।

[विद्यारण्यविरचित अनुभूतिप्रकाश अ॰ १। श्लो॰ १८]

पदार्थ कुछ और हो, उसमें अन्य वस्तु का आरोपण करना अध्यास, अध्यारोप; और उसका निराकरण करना अपवाद कहाता है। इन दोनों से प्रपञ्चरहित ब्रह्म में प्रपञ्चरूप जगत् विस्तार करते हैं।

सिद्धान्ती—तुम रज्जू को वस्तु और सर्प को अवस्तु मान कर इस भ्रमजाल में पड़े हो। क्या सर्प वस्तु नहीं है? जो कहो कि रज्जू में नहीं तो देशान्तर में और उसका संस्कार मात्र हृदय में है। फिर वह सर्प भी अवस्तु नहीं रहा। वैसे ही स्थाणु में पुरुष, सीप में चांदी आदि की व्यवस्था समझ लेना। और स्वप्न में भी जिनका भान होता है, वे देशान्तर में हैं और उनका संस्कार आत्मा में भी है। इसलिये वह स्वप्न भी वस्तु में अवस्तु के आरोपण के समान नहीं।

नवीन॰—जो कभी न देखा, न सुना, जैसा कि अपना शिर कटा है और आप रोता है, जल की धारा ऊपर चली जाती है, जो कभी नहीं हुआ था, देखा जाता है, वह सत्य क्योंकर हो सके?

सिद्धान्ती—यह भी दृष्टान्त तुम्हारे पक्ष को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि विना देखे सुने संस्कार नहीं होता। संस्कार के विना स्मृति और स्मृति के विना साक्षात् अनुभव नहीं होता। जब किसी से सुना वा देखा कि अमुक का शिर कटा और उसका भाई वा बाप रोता था वा लड़ाई में प्रत्यक्ष रोते देखा और फौहारे का जल ऊपर चढ़ते देखा वा सुना उसका संस्कार उसी के आत्मा में होता है। जब यह जाग्रत् के पदार्थ से अलग होके देखता है तब अपने आत्मा में उन्हीं पदार्थों को, जिनको देखा वा सुना होता, देखता है। जब अपने ही में देखता है तब जानो अपना शिर कटा, आप रोता और ऊपर जाती जल की धारा को देखता है। यह भी वस्तु में अवस्तु के आरोपण के सदृश नहीं, किन्तु जैसे नक़्शा निकालनेवाले पूर्व दृष्ट, श्रुत वा किये हुओं को आत्मा में से निकालकर कागज पर लिख देते हैं अथवा प्रतिबिम्ब का उतारनेवाला बिम्ब को देख, आत्मा में आकृति को धर, बराबर लिख देता है।

हां! इतना है कि कभी-कभी स्वप्न में स्मरणयुक्त प्रतीति जैसा कि अपने अध्यापक को देखता है और कभी बहुत काल देखने और सुनने में अतीत ज्ञान को साक्षात्कार करता है, तब स्मरण नहीं रहता कि जो मैंने उस समय देखा, सुना वा किया था उसीको देखता, सुनता वा करता हूं। जैसा जाग्रत् में स्मरण करता है, वैसा स्वप्न में नियमपूर्वक नहीं होता। देखो! जन्मान्ध को रूप का स्वप्न नहीं आता। इसलिये तुम्हारा अध्यास और आरोप का लक्षण झूठा है। और जो वेदान्ती लोग ‘विवर्त्तवाद’ अर्थात् रज्जू में सर्पादि के भान होने का दृष्टान्त, ब्रह्म में जगत् के भान होने में देते हैं, वह भी ठीक नहीं।

नवीन॰—अधिष्ठान के विना अध्यस्त प्रतीत नहीं होता। जैसे रज्जू न हो तो सर्प का भी भान नहीं हो सकता। जैसे रज्जू में सर्प्प तीन काल में नहीं है परन्तु अन्धकार और कुछ प्रकाश के मेल में अकस्मात् रज्जू को देखने से सर्प का भ्रम होकर भय से कँपता है। जब उसको दीप आदि से देख लेता है, उसी समय भ्रम और भय निवृत्त हो जाता है। वैसे ब्रह्म में जो जगत् की मिथ्या प्रतीति हुई है, वह ब्रह्म के साक्षात्कार होने में उस जगत् की निवृत्ति और ब्रह्म की प्रतीति, जैसी कि सर्प की निवृत्ति और रज्जू की प्रतीति होती है।

सिद्धान्ती—इन वेदान्तियों से पूछना चाहिये कि ब्रह्म में जगत् का भान किसको हुआ?

नवीन॰—जीव को।

सिद्धान्ती—जीव कहाँ से हुआ?

नवीन॰—अज्ञान से।

सिद्धान्ती—अज्ञान कहां से हुआ और कहां रहता है?

नवीन॰—अज्ञान अनादि और ब्रह्म में रहता है।

सिद्धान्ती—ब्रह्म में ब्रह्म का अज्ञान हुआ वा किसी अन्य का? और वह अज्ञान किसको हुआ?

नवीन॰—चिदाभास को।

सिद्धान्ती—चिदाभास का स्वरूप क्या है?

नवीन॰—ब्रह्म। ब्रह्म को ब्रह्म का अज्ञान अर्थात् अपने स्वरूप को आप ही भूल जाता है।

सिद्धान्ती—उसके भूलने में निमित्त क्या है?

नवीन॰—अविद्या।

सिद्धान्ती—अविद्या सर्वव्यापी सर्वज्ञ का गुण है, वा अल्पज्ञ का?

नवीन॰—अल्पज्ञ का।

सिद्धान्ती—तो तुम्हारे मत में विना एक अनन्त सर्वज्ञ चेतन के दूसरा कोई चेतन है वा नहीं? और अल्पज्ञ कहां से आया? हां, जो अल्पज्ञ चेतन ब्रह्म से भिन्न मानो तो ठीक है। जब एक ठिकाने ब्रह्म को अपने स्वरूप का अज्ञान हो तो सर्वत्र अज्ञान फैल जाय। जैसे शरीर में फोड़े की पीड़ा सब शरीर के अवयवों को निकम्मा कर देती है, इसी प्रकार ब्रह्म भी एकदेश में अज्ञानी और क्लेशयुक्त हो तो सब ब्रह्म अज्ञानी और पीडा के अनुभवयुक्त हो जाय।

नवीन॰—यह सब उपाधि का धर्म है, ब्रह्म का नहीं।

सिद्धान्ती—उपाधि जड़ है वा चेतन? और सत्य है वा असत्य?

नवीन॰—अनिर्वचनीय है। अर्थात् जिसको जड़ वा चेतन, सत्य वा असत्य नहीं कह सकते।

सिद्धान्ती—यह तुम्हारा कहना ‘वदतो व्याघातः’ के तुल्य है क्योंकि कहते हो अविद्या है जिसको जड़, चेतन, सत्, असत् नहीं कह सकते। यह ऐसी बात है कि जैसे सोने में पीतल मिला हो, उसको सर्राफ के पास परीक्षा करावे कि यह सोना है वा पीतल। तब यही कहेगा कि इसको हम न सोना न पीतल कह सकते हैं किन्तु इसमें दोनों धातु मिली हैं।

नवीन॰—देखो! जैसे घटाकाश, मठाकाश, मेघाकाश और महदाकाशोपाधि अर्थात् घड़ा, घर और मेघ के होने से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, वास्तव में महदाकाश ही है; ऐसे ही माया, अविद्या, समष्टि, व्यष्टि और अन्तःकरणों की उपाधियों से ब्रह्म अज्ञानियों को पृथक्-पृथक् प्रतीत हो रहा है; वास्तव में एक ही है। देखो! अग्रिम प्रमाण में क्या कहा है—

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च॥

[कठ उ॰ वल्ली ५। मं॰ ९]॥

जैसे अग्नि लम्बे, चौड़े, गोल, छोटे, बड़े सब आकृतिवाले पदार्थों में व्यापक होकर तदाकार दीखता है और उनसे पृथक् है, वैसे सर्वव्यापक परमात्मा अन्तःकरणों में व्यापक होके अन्तःकरणाऽऽकार हो रहा है, परन्तु उनसे अलग है।

सिद्धान्ती—यह भी तुम्हारा कहना व्यर्थ है। क्योंकि जैसे घट, मठ, मेघों और आकाश को भिन्न मानते हो, वैसे कारणकार्य्यरूप जगत् और जीव को ब्रह्म से और ब्रह्म को इनसे भिन्न मान लो।

नवीन॰—जैसा अग्नि सब में प्रविष्ट होकर देखने में तदाकार दीखता है, इसी प्रकार परमात्मा जड़ और जीव में व्यापक होकर जड़ और जीवाकार अज्ञानियों को दीखता है। वास्तव में ब्रह्म न जड़ और न जीव है। जैसे सहस्र जल के कूंडे धरे हों, उनमें सूर्य्य के सहस्र प्रतिबिम्ब दीखते हैं, वस्तुतः सय्ूर्य एक है। कूंडों के नष्ट होने से, जल के चलने वा फैलने से सूर्य्य न नष्ट होता, न चलता और न फैलता; इसी प्रकार अन्तःकरणों में ब्रह्म का आभास जिसको चिदाभास कहते हैं, पड़ा है। जब तक अन्तःकरण है, तभी तक जीव है। जब अन्तःकरण ज्ञान से नष्ट होता है, तब जीव ब्रह्मस्वरूप है, इस चिदाभास को अपने ब्रह्मस्वरूप का अज्ञान-कर्त्ता-भोक्ता, सुखी-दुःखी, पापी-पुण्यात्मा, जन्म-मरण अपने में आरोपित करता है, तब-तक संसार के बन्धनों से नहीं छूटता।

सिद्धान्ती—यह दृष्टान्त तुम्हारा व्यर्थ है। क्योंकि सूर्य आकारवाला, जल-कूंडे भी साकार, सूर्य्य जल-कूंडे से भिन्न और सूर्य से जल-कूंडे भिन्न हैं, तभी प्रतिबिम्ब पड़ता है। यदि निराकार होते तो उनका प्रतिबिम्ब कभी न होता। और जैसे परमेश्वर निराकार, सर्वत्र आकाशवत् व्यापक होने से ब्रह्म से कोई पदार्थ वा पदार्थों से ब्रह्म पृथक् नहीं हो सकता और व्याप्यव्यापक सम्बन्ध से एक भी नहीं हो सकते। अर्थात् अन्वयव्यतिरेकभाव से देखने से व्याप्यव्यापक मिले हुए और सदा पृथक् रहते हैं। जो एक हो तो अपने में व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध कभी नहीं घट सकता। सो बृहदारण्यक के अन्तर्यामी ब्राह्मण [अ॰ ३।ब्रा॰ ७। कं॰ ३-२३] में स्पष्ट लिखा है। और ब्रह्म का आभास भी नहीं पड़ सकता, क्योंकि विना आकार के आभास का होना असम्भव है।

जो अन्तःकरणोपाधि से ब्रह्म को जीव मानते हो, सो तुम्हारी बात बालक के समान है, क्योंकि अन्तःकरण चलायमान, खण्ड-खण्ड और ब्रह्म अचल और अखण्ड है। यदि तुम ब्रह्म और जीव को पृथक्-पृथक् न मानोगे तो इसका उत्तर दीजिये कि जहाँ-जहाँ अन्तःकरण चलता जायेगा, वहाँ का ब्रह्म अज्ञानी और जिस-जिस देश को छोड़ेगा, वहाँ के ब्रह्म को ज्ञानी कर देवेगा वा नहीं? जैसे छाता प्रकाश के बीच में जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ के प्रकाश को आवरणयुक्त और जहाँ-जहाँ से हठता है वहाँ-वहाँ का प्रकाश आवरणरहित कर देता है, वैसे ही अन्तःकरण ब्रह्म को क्षण-क्षण में ज्ञानी, अज्ञानी, बद्ध और मुक्त करता जायगा। अखण्ड ब्रह्म के एकदेश में आवरण का प्रभाव सर्वदेश में होने से सब ब्रह्म अज्ञानी हो जायगा, क्योंकि वह चेतन है।

और मथुरा में अन्तःकरणस्थ जिस ब्रह्म ने जो वस्तु देखी उसका स्मरण उसी अन्तःकरणस्थ से काशी में नहीं हो सकता। क्योंकि—

‘अन्यदृष्टमन्यो न स्मरतीति न्यायात्’।

[योगदर्शन विभूतिपाद सूत्र १४ व्यासभाष्य]

और के देखे का स्मरण और को नहीं होता। जिस चिदाभास ने मथुरा में देखा वही चिदाभास काशी में नहीं रहता, किन्तु जो मथुरास्थ अन्तःकरण का प्रकाशक है, वह काशीस्थ ब्रह्म नहीं होता। जो ब्रह्म ही जीव है, पृथक् नहीं; तो सब जीव को सर्वज्ञ होना चाहिये। यदि ब्रह्म का प्रतिबिम्ब पृथक् है तो ‘प्रत्यभिज्ञा’ अर्थात् पूर्व दृष्ट, श्रुत का ज्ञान किसी को नहीं हो सकेगा। जो कहो कि ब्रह्म एक है इसलिये स्मरण होता है तो एक ठिकाने अज्ञान वा दुःख होने से सब ब्रह्म को अज्ञान वा दुःख हो जाना चाहिये। और ऐसे दृष्टान्तों से नित्य-शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव ब्रह्म को तुमने अशुद्ध, अज्ञानी और बद्ध कर दिया है, और अखण्ड को खण्ड-खण्ड कर दिया।

नवीन॰—निराकार का भी आभास होता है, जैसा कि दर्पण वा जलादि में आकाश का आभास पड़ता है। वह नीला वा किसी अन्य प्रकार का गम्भीर गहरा दीखता है, वैसे ब्रह्म का भी सब अन्तःकरणों में आभास पड़ता है।

सिद्धान्ती—जब आकाश में रूप ही नहीं है तो उसको आँख से कोई भी नहीं देख सकता। जो पदार्थ दीखता ही नहीं, वह दर्पण और जलादि में कैसे दीखेगा? गहरा वा छिदरा साकार वस्तु दीखता है, निराकार नहीं।

नवीन॰—तो फिर जो यह ऊपर नीला सा दीखता है, वही आदर्श वा जल में भान होता है, वह क्या पदार्थ है?

सिद्धान्ती—वह पृथिवी से उड़कर जल, पृथिवी और अग्नि के त्रसरेणु हैं। जहाँ से वर्षा होती है, वहाँ जल न हो तो वर्षा कहाँ से होवे? इसलिये जो दूर-दूर तम्बू के समान दीखता है, वह जल का चक्र है। जैसे कुहिर दूर से घनाकार दीखता है और निकट से छिदिरा और डेरे के समान भी दीखता है, वैसा आकाश में जल दीखता है।

नवीन॰—क्या हमारे रज्जु, सर्प और स्वप्नादि के दृष्टान्त मिथ्या हैं?

सिद्धान्ती—नहीं। तुम्हारी समझ मिथ्या है, सो हमने पूर्व लिख दिया। भला यह तो कहो कि प्रथम अज्ञान किसको होता है?

नवीन॰—ब्रह्म को।

सिद्धान्ती—ब्रह्म अल्पज्ञ है वा सर्वज्ञ?

नवीन॰—न सर्वज्ञ और न अल्पज्ञ। क्योंकि सर्वज्ञता और अल्पज्ञता उपाधिसहित में होती है।

सिद्धान्ती—उपाधि से सहित कौन है?

नवीन॰—ब्रह्म।

सिद्धान्ती—तो ब्रह्म ही सर्वज्ञ और अल्पज्ञ हुआ। तो तुमने सर्वज्ञ और अल्पज्ञ का निषेध क्यों किया था? जो कहो कि उपाधि कल्पित अर्थात् मिथ्या है तो ‘कल्पक’ अर्थात् कल्पना करने वाला कौन है?

नवीन॰—जीव ब्रह्म है, वा अन्य?

सिद्धान्ती—अन्य है। क्योंकि जो ब्रह्मस्वरूप है तो जिसने मिथ्या कल्पना की, वह ब्रह्म ही नहीं हो सकता। जिसकी कल्पना मिथ्या है, वह सच्चा कब हो सकता है?

नवीन॰—हम सत्य और असत्य को झूठ मानते हैं और वाणी से बोलना भी मिथ्या है।

सिद्धान्ती—जब तुम झूठ कहने और माननेवाले हो, तो झूठे क्यों नहीं?

नवीन॰—रहो। झूठ और सच हमारे ही में कल्पित है और हम दोनों के साक्षी अधिष्ठान हैं।

सिद्धान्ती—जब तुम सत्य और झूठ के आधार हुए तो साहूकार और चोर के सदृश तुम्हीं हुए। इससे तुम प्रामाणिक भी नहीं रहे। क्योंकि प्रामाणिक वह होता है, जो सर्वदा सत्य माने, सत्य बोले, सत्य करे; झूठ न माने, झूठ न बोले, झूठ न करे। जब तुम अपनी बात को आप ही झूठ करते हो तो तुम अनाप्त मिथ्यावादी हो।

नवीन॰—अनादि माया जो कि ब्रह्म के आश्रय और ब्रह्म ही का आवरण करती है, उसको मानते हो, वा नहीं?

सिद्धान्ती—नहीं मानते। क्योंकि तुम माया का अर्थ ऐसा करते हो कि जो वस्तु न हो और भासे है, तो इस बात को वह मानेगा जिसके हृदय की आँख फूट गई हो। क्योंकि जो वस्तु नहीं, उसका भासमान होना सर्वथा असम्भव है, जैसा वन्ध्या के पुत्र का प्रतिबिम्ब कभी नहीं हो सकता। और यह ‘सन्मूलाः सोम्येमाः प्रजाः’ [प्रपा॰ ६। खं॰ ८। प्रवाक ४] इत्यादि छान्दोग्य उपनिषद् के वचनों से विरुद्ध कहते हो।

नवीन॰—क्या तुम वसिष्ठ, शङ्कराचार्य आदि और निश्चलदास पर्य्यन्त से अधिक पण्डित हो? उनने जो लिखा है, सो विचार करके लिखा है, वे तुम से बडे़ पण्डित थे।

सिद्धान्ती—तुमको क्या दीखता है?

नवीन॰—हमको तो वसिष्ठ, शङ्कराचार्य और निश्चलदास आदि अधिक दीखते हैं।

सिद्धान्ती—तुम विद्वान् हो वा अविद्वान्?

नवीन॰—हम भी कुछ विद्वान् हैं।

सिद्धान्ती—अच्छा तो आओ वसिष्ठ, शङ्कराचार्य आदि और निश्चलदास के पक्ष का हमारे सामने स्थापन करो, हम खण्डन करते हैं। जिसका पक्ष सिद्ध हो, वही बड़ा है। जो उनकी और तुम्हारी बात अखण्डनीय होती तो तुम उनकी युक्तियाँ लेकर हमारी बात को खण्डन क्यों न कर सकते? तब तुम्हारी और उनकी बात माननीय होवे। अनुमान है कि शङ्कराचार्य आदि ने तो जैनमत का खण्डन करने ही के लिये यह मत स्वीकार किया हो, क्योंकि देश-काल के अनुकूल अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिये बहुत से स्वार्थी विद्वान् अपने आत्मा के ज्ञान से विरुद्ध भी कर लेते हैं। और जो इन बातों को अर्थात् जीव ईश्वर की एकता, जगत् मिथ्या आदि व्यवहार सच्चा ही मानते थे, तो उनकी बात सच्ची नहीं हो सकती।

और निश्चलदास का पाण्डित्य देखो ऐसा है ‘जीवो ब्रह्माऽ-भिन्नश्चेतनत्वात्’ उन्होंने ‘वृत्तिप्रभाकर’ [२।९] में जीव ब्रह्म की एकता के लिये अनुमान लिखा है कि ‘चेतन होने से जीव ब्रह्म से अभिन्न है’। यह बहुत कम समझ पुरुष की बात के सदृश बात है। क्योंकि साधर्म्यमात्र से एक दूसरे के साथ एकता नहीं होती, वैधर्म्य भेदक होता है। जैसे कोई कहे कि ‘पृथिवी जलाऽभिन्ना जडत्वात्’ ‘जड़ के होने से पृथिवी जल से अभिन्न है।’ जैसे यह वाक्य सङ्गत कभी नहीं हो सकता, वैसे निश्चलदासजी का भी लक्षण व्यर्थ है। क्योंकि जो अल्प, अल्पज्ञता और भ्रान्तिमत्त्वादि धर्म्म जीव में ब्रह्म से और सर्वगत, सर्वज्ञता और निर्भ्रान्तित्वादि वैधर्म्य ब्रह्म में जीव से विरुद्ध हैं, इससे जीव और ब्रह्म भिन्न-भिन्न हैं। जैसे गन्धवत्त्व, कठिनत्व आदि भूमि के धर्म, रसवत्त्व, द्रवत्वादि जल के धर्म से विरुद्ध होने से पृथिवी और जल एक नहीं, वैसे जीव और ब्रह्म के वैधर्म्य होने से जीव और ब्रह्म एक न कभी थे, न हैं और न कभी होंगे। इतने ही से निश्चलदासादि को समझ लीजिये कि उनमें कितना पाण्डित्य था।

और जिसने योगवासिष्ठ बनाया है, वह कोई आधुनिक वेदान्ती था; न वाल्मीकि, वसिष्ठजी, और न रामचन्द्र का बनाया वा कहा सुना है। क्योंकि वे सब वेदानुयायी थे, वेद से विरुद्ध न बना सकते और न कह सुन सकते थे।

प्रश्न—क्या व्यासजी ने जो शारीरकसूत्र बनाये हैं, उनमें भी जीव ब्रह्म की एकता दीखती है, देखो—

सम्पद्याऽऽविर्भावः स्वेन शब्दात्॥१॥

ब्राह्मेण जैमिनिरुपन्यासादिभ्यः॥२॥

चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वादित्यौडुलौमिः॥३॥

एवमप्युपन्यासात् पूर्वभावादविरोधं बादरायणः॥४॥

अत एव चानन्याधिपतिः॥५॥

[वेदान्त अ॰ ४। पा॰ ४। सू॰ १, ५-७, ९]॥

अर्थ—जीव अपने स्व-स्वरूप को प्राप्त होकर प्रकट होता है जोकि पूर्व ब्रह्मस्वरूप था, क्योंकि ‘स्व’ शब्द से अपने ब्रह्मस्वरूप का ग्रहण होता है॥१॥

‘अयमात्मा अपहतपाप्मा’ [तुलना छां॰ उप॰ ८।७।१] इत्यादि ‘उपन्यास’ ऐश्वर्यप्राप्ति पर्य्यन्त हेतुओं से ब्रह्मस्वरूप से जीव स्थित होता है, ऐसा जैमिनि आचार्य्य का मत है॥२॥

और औडुलोमि आचार्य्य तदात्मकस्वरूप-निरूपणादि बृहदारण्यक [३।७।३-२३; ४।५।१३] के हेतुरूप के वचनों से चैतन्यमात्र स्वरूप से जीव मुक्ति में स्थित रहता है॥३॥

व्यासजी इन्हीं पूर्वोक्त उपन्यासादि ऐश्वर्यप्राप्तिरूप हेतुओं से जीव का ब्रह्मस्वरूप होने में अविरोध मानते हैं॥४॥

योगी ऐश्वर्यसहित अपने ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त होकर ‘अन्य अधिपति से रहित’ अर्थात् स्वयं अपना और सबका अधिपतिरूप ब्रह्मस्वरूप से मुक्ति में स्थित रहता है॥५॥

उत्तर—इन सूत्रों का अर्थ इस प्रकार का नहीं, किन्तु इनका यथार्थ यह है, सुनिये! जब तक जीव अपने स्वकीय शुद्धस्वरूप को प्राप्त, सब मलों से रहित होकर पवित्र नहीं होता, तब तक योग से ऐश्वर्य को प्राप्त होकर अपने अन्तर्यामी ब्रह्म को प्राप्त होके आनन्द में स्थित नहीं हो सकता॥१॥

इसी प्रकार जब पापादिरहित ऐश्वर्ययुक्त योगी होता है तभी ब्रह्म के साथ मुक्ति के आनन्द को भोग सकता है, ऐसा जैमिनि आचार्य का मत है॥२॥

जब अविद्यादि दोषों से छूट शुद्ध चैतन्यमात्र स्वरूप से जीव स्थिर होता है, तभी ‘तदात्मकत्व’ अर्थात् ब्रह्मस्वरूप के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होता है [ऐसा औडुलोमि आचार्य का मत है।]॥३॥

जब ब्रह्म के साथ ऐश्वर्य और शुद्ध विज्ञान को जीते ही जीवन्मुक्त होता है, तब अपने निर्मलज पूर्व स्वरूप को प्राप्त होकर आनन्दित होता है ऐसा व्यासमुनि का मत है॥४॥

जब योगी का सत्य संकल्प होता है, तब स्वयं परमेश्वर को प्राप्त होकर मुक्तिसुख को पाता है। वहाँ स्वाधीन स्वतन्त्र रहता है। जैसा संसार में एक प्रधान, दूसरा अप्रधान होता है, वैसा मुक्ति में नहीं। किन्तु सब मुक्त जीव एक से रहते हैं॥५॥

जो ऐसा न हो तो—

नेतरोनुपपत्तेः॥१॥   [१।१।१६]

भेदव्यपदेशाच्च॥२॥ [१।१।१७]

विशेषणभेदव्यपदेशाभ्यां च नेतरौ॥३॥ [१।२।२२]

अस्मिन्नस्य च तद्योगं शास्ति॥४॥ [१।१।१९]

अन्तस्तद्धर्मोपदेशात्॥५॥ [१।१।२०]

भेदव्यपदेशाच्चान्यः॥६॥ [१।१।२१]

गुहां प्रविष्टावात्मानौ हि तद्दर्शनात्॥७॥ [१।२।११]

अनुपपत्तेस्तु न शारीरः॥८॥ [१।२।३]

अन्तर्याम्यधिदैवादिषु तद्धर्मव्यपदेशात्॥९॥ [१।२।१८]

शारीरश्चोभयेऽपि हि भेदेनैनमधीयते॥१०॥

—वेदान्तसूत्र [१।२।२०]॥

अर्थ—ब्रह्म से इतर जीव सृष्टिकर्त्ता नहीं है। क्योंकि इस अल्पज्ञ, अल्प सामर्थ्यवाले जीव में सृष्टिकर्तृत्व नहीं घट सकता, इससे जीव ब्रह्म नहीं॥१॥

‘रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति’ यह उपनिषद् का वचन है।

[तैत्तिरीय ब्रह्मानन्द वल्ली अनु॰ ७]

जीव और ब्रह्म भिन्न हैं, क्योंकि इन दोनों का भेद प्रतिपादन किया है। जो ऐसा न होता तो ‘रस’ अर्थात् आनन्दस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त होकर जीव आनन्दस्वरूप होता है, यह प्राप्तिविषय ब्रह्म और प्राप्त होनेवाले जीव का निरूपण नहीं घट सकता, इसलिये जीव और ब्रह्म एक नहीं॥२॥

दिव्यो ह्यमूर्त्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।

अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः॥ —मुण्डक उप॰ [२।१।२]

‘दिव्य’ शुद्ध, मूर्त्तिमत्त्वरहित, सबमें पूर्ण, बाहर-भीतर निरन्तर व्यापक, ‘अज’ जन्म-मरण-शरीरधारणादि रहित, श्वास-प्रश्वास, शरीर और मन के सम्बन्ध से रहित, प्रकाशस्वरूप इत्यादि परमात्मा के विशेषण; और ‘अक्षर’ नाशरहित प्रकृति से परे अर्थात् सूक्ष्म जीव, उससे भी परमेश्वर परे अर्थात् ब्रह्म सूक्ष्म है। प्रकृति और जीवों से ब्रह्म का भेद प्रतिपादनरूप हेतुओं से प्रकृति और जीवों से ब्रह्म भिन्न है॥ ३॥

इसी सर्वव्यापक ब्रह्म में जीव का योग वा जीव में ब्रह्म का योग प्रतिपादन करने से जीव और ब्रह्म भिन्न हैं, क्योंकि योग भिन्न पदार्थों का हुआ करता है॥४॥

इस ब्रह्म के अन्तर्यामी आदि धर्म कथन किये हैं और जीव के भीतर व्यापक होने से व्याप्य जीव व्यापक ब्रह्म से भिन्न है, क्योंकि व्याप्यव्यापक सम्बन्ध भी भेद में संघटित होता है॥५॥

जैसे परमात्मा जीव से भिन्नस्वरूप है, वैसे इन्द्रिय, अन्तःकरण, पृथिवी आदि भूत, दिशा, वायु, सूर्यादि दिव्यगुणों के योग से देवतावाच्य विद्वानों से भी परमात्मा भिन्न है॥६॥

‘गुहां प्रविष्टौ सुकृतस्य लोके’ [तुलना—कठोप॰ अ॰ १।३।१] इत्यादि उपनिषदों के वचनों से जीव और परमात्मा भिन्न हैं। वैसा ही उपनिषदों में बहुत ठिकाने दिखलाया है॥७॥

‘शरीरे भवः शारीरः’ शरीरधारी जीव ब्रह्म नहीं है, क्योंकि ब्रह्म के गुण कर्म, स्वभाव जीव में नहीं घटते॥८॥

(अधिदैव) सब दिव्य मन आदि इन्द्रियादि पदार्थों (अधिभूत) पृथिव्यादि भूत (अध्यात्म) सब जीवों में परमात्मा अन्तर्यामीरूप से स्थित है, क्योंकि उसी परमात्मा के व्यापकत्वादि धर्म सर्वत्र उपनिषदों में व्याख्यात हैं॥९॥

शरीरधारी जीव ब्रह्म नहीं है, क्योंकि ब्रह्म से जीव का भेद स्वरूप से सिद्ध है॥१०॥

इत्यादि शारीरक सूत्रों से भी स्वरूप से ब्रह्म और जीव का भेद सिद्ध है।

वैसे ही वेदान्तियों का उपक्रम और उपसंहार भी नहीं घट सकता, क्योंकि ‘उपक्रम’ अर्थात् आरम्भ ब्रह्म से और ‘उपसंहार’ अर्थात् प्रलय भी ब्रह्म ही में करते हैं। जब दूसरा कोई वस्तु नहीं मानते तो उत्पत्ति और प्रलय भी ब्रह्म के धर्म हो जाते हैं। और उत्पत्ति विनाशरहित ब्रह्म का प्रतिपादन वेदादि सत्यशास्त्रों में किया है, वह नवीन वेदान्तियों पर कोप करेगा। क्योंकि निर्विकार, अपरिणामी, शुद्ध, सनातन, निर्भ्रान्तित्वादि विशेषणयुक्त ब्रह्म में विकार, उत्पत्ति और अज्ञान आदि का सम्भव किसी प्रकार नहीं हो सकता। तथा उपसंहार (प्रलय) के होने पर भी ब्रह्म, कारणात्मक जड़ और जीव बराबर बने रहते हैं। इसलिये उपक्रम और उपसंहार भी इन वेदान्तियों का ठीक नहीं है। इसी प्रकार की इन नवीन वेदान्तियों की कल्पना झूठी है। ऐसी अन्य बहुत सी अशुद्ध बातें हैं कि जो शास्त्र और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध हैं।

इसके पश्चात् कुछ जैनियों और कुछ शङ्कराचार्य्य के अनुयायी लोगों के उपदेश के संस्कार आर्यावर्त्त में फैले थे और आपस में खण्डन-मण्डन भी चलता था। शङ्कराचार्य्य के तीन सौ वर्ष के पश्चात् उज्जैन नगरी में विक्रमादित्य राजा कुछ प्रतापी हुआ, जिसने सब राजाओं के मध्य प्रवृत्त हुई लड़ाई को मिटा कर शान्ति स्थापन की। तत्पश्चात् भर्तृहरि राजा काव्यादि-शास्त्र और अन्य में भी कुछ-कुछ विद्वान् हुआ, उसने वैराग्यवान् होकर राज्य को छोड़ दिया। विक्रमादित्य के पांच सौ वर्ष के पश्चात् राजा भोज हुआ। उसने थोड़ा सा व्याकरण और काव्यालङ्कारादि का इतना प्रचार किया कि जिसके राज्य में कालिदास बकरी चरानेवाला भी ‘रघुवंश’ काव्य का कर्त्ता हुआ। राजा ‘भोज’ के पास जो कोई अच्छा श्लोक बना कर ले जाता था उसको बहुत-सा धन देते और प्रतिष्ठा करते थे। उसके पश्चात् राजाओं और श्रीमानों ने पढ़ना ही छोड़ दिया।

यद्यपि शङ्कराचार्यजी के पूर्व, वाममार्गियों के पश्चात् शैव आदि सम्प्रदायस्थ मतवादी भी हुए थे, परन्तु उनका बहुत-सा बल नहीं हुआ था। महाराजे विक्रमादित्य से लेके शैवों का बल बढ़ता आया। शैवों में पाशुपतादि बहुत सी शाखा हुई थीं, जैसी वाममार्गियों में दश महाविद्यादि की शाखा हैं। लोगों ने शङ्कराचार्य को शिव का अवतार ठहराया। उनके अनुयायी संन्यासी भी शैवमत में प्रवृत्त हो गये और वाममार्गियों को भी मिलते रहे। वाममार्गी—‘देवी’ जो शिव की पत्नी है उसके उपासक, और शैव ‘महादेव’ के उपासक हुए। ये दोनों रुद्राक्ष और भस्म अद्यावधि धारण करते हैं, परन्तु जितने वाममार्गी वेदविरोधी हैं, उतने शैव वेदविरोधी नहीं है। इन लोगों ने—

धिग् धिक् कपालं भस्मरुद्राक्षविहीनम्॥१॥

रुद्राक्षान् कण्ठदेशे दशनपरिमितान्मस्तके विंशती द्वे,

षट् षट् कर्णप्रदेशे करयुगलगतान् द्वादशान्द्वादशैव।

बाह्वोरिन्दोः कलाभिः पृथगिति गदितमेकमेवं शिखायाम्,

वक्षस्यष्टाऽधिकं यः कलयति शतकं स स्वयं नीलकण्ठः॥२॥

[तुलना शिवपुराण विद्येश्वर संहिता १।अ॰ २५।

श्लो॰ ३७-३८]॥

इत्यादि बहुत प्रकार के श्लोक बनाये और कहने लगे कि जिसके कपाल में भस्म और कण्ठ में रुद्राक्ष नहीं है, उसको धिक्कार है। ‘तं त्यजेदन्त्यजं यथा’ [तुलना शिवपुराण विद्येश्वर संहिता १।अ॰ २३। श्लो॰ १३] उसको चाण्डाल के तुल्य त्याग करना चाहिये॥१॥

जो कण्ठ में ३२, शिर में ४०, छः-छः कानों में, कर में बारह-बारह, भुजा में सोलह-सोलह, शिखा में एक और हृदय में एक सौ आठ रुद्राक्ष धारण करता है, वह साक्षात् महादेव के सदृश है॥२॥ ऐसा ही शाक्त भी मानते हैं।

पश्चात् इन वाममार्गी और शैवों ने सम्मति करके भग-लिङ्ग का स्थापन किया, जिसको जलाधारी और लिङ्ग कहते हैं और उसकी पूजा करने लगे। उन निर्लज्जों को लज्जा भी न आई कि यह पामरपन का काम हम क्यों करते हैं? किसी कवि ने कहा है कि ‘स्वार्थी दोषं न पश्यति’ [चाणक्यनीति ६।८] स्वार्थी लोग अपने काम-सिद्धि करने में दुष्ट कामों को भी श्रेष्ठ मान, दोष को नहीं देखते हैं। उसी पाषाणादि मूर्त्ति और भग-लिङ्ग की पूजा ही में धर्मार्थ, काम और मोक्ष मानने लगे।

जब राजा भोज के पश्चात् जैनी लोग अपने-अपने मन्दिरों में मूर्त्तिस्थापन करने और दर्शन को आने-जाने लगे, तब तो इन पोपों के चेले भी जैनमन्दिर में जाने-आने लगे और उधर पश्चिम में कुछ दूसरों के मत और यवन लोग भी आर्य्यावर्त्त में आने-जाने लगे। तब पोपों ने यह श्लोक बनाया—

न वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि।

हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्॥

[तुलना—भविष्यपुराण प्रतिसर्ग पर्व ३। खं॰ ३।

अध्याय २८। श्लो॰ ५३]

चाहे कितना ही दुःख हो, प्राण कण्ठगत अर्थात् मृत्यु का भी समय आवे, तो भी म्लेच्छ अर्थात् यवनों की भाषा मुख से न बोलनी और पागल हाथी मारने को दौड़ा आता हो, जैन के मन्दिर में जाने से बचता हो तो भी जैन के मन्दिर में प्रवेश न करे। किन्तु जैन मन्दिर में प्रवेश कर बचने से, हाथी के सामने जाकर मरना उससे अच्छा है।

ऐसे-ऐसे अपने चेलों को उपदेश करने लगे। जब उनसे कोई प्रमाण पूछता था कि तुम्हारे मत में किसी माननीय ग्रन्थ का भी प्रमाण है? तो कहते थे कि हाँ है। जब वे पूछते थे कि दिखलाओ? तब मार्कण्डेय पुराणादि के वचन पढ सुनाते थे जैसा कि दुर्गापाठ में देवी का वर्णन लिखा है।

राजा भोज के राज्य में व्यासजी के नाम से मार्कण्डेय और शिवपुराण किसी ने बना कर खड़ा किया था, उसका समाचार राजा भोज को होने से उन पण्डितों को हस्तच्छेदनादि दण्ड दिया और उनसे कहा कि जो कोई काव्यादि ग्रन्थ बनावे तो अपने नाम से बनावे, ऋषि-मुनियों के नाम से नहीं। यह बात ‘राजा भोज के बनाये संजीवनी नामक इतिहास’ में लिखी है कि जो ग्वालियर राज्य के ‘भिंड’ नामक नगर के तिवाड़ी ब्राह्मणों के घर में है जिसको लखुना के रावसाहेब और उनके गुमाश्ते रामदयाल चौबेजी ने अपनी आँख से देखा है, उसमें स्पष्ट लिखा है कि व्यासजी ने चार सहस्र चार सौ और उनके शिष्यों ने पांच सहस्र छः सौ श्लोकयुक्त अर्थात् दश सहस्र श्लोकों के प्रमाण ‘भारत’ बनाया था। वह महाराजा विक्रमादित्य के समय में बीस सहस्र, महाराजा भोज कहते हैं कि मेरे पिता के समय में पच्चीस और मेरी आधी उमर में तीस सहस्र श्लोकयुक्त ‘महाभारत’ का पुस्तक मिलता है। जो ऐसे ही बढ़ता चला तो महाभारत का पुस्तक एक ऊंट का बोझा हो जायगा और ऋषि-मुनियों के नाम से पुराणादि ग्रन्थ बनावेंगे तो आर्यावर्त्तीय लोग भ्रमजाल में पड़के वैदिकधर्मविहीन होकर भ्रष्ट हो जायेंगे। इससे विदित होता है कि राजा भोज को कुछ-कुछ वेदों का संस्कार था। इनके भोजप्रबन्ध में लिखा है कि—

घट्यैकया क्रोशदशैकमश्वः सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या।

वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्रम्॥

राजा भोज के राज्य में और पास ऐसे शिल्पीलोग थे कि जिन्होंने घोड़े के आकार एक यान कलायन्त्रयुक्त बनाया था कि जो एक कच्ची घड़ी में ग्यारह कोश और एक घण्टे में साढ़े सत्ताईस कोश जाता था। वह भूमि और अन्तरिक्ष में भी चलता था। और दूसरा पंखा ऐसा बनाया था कि विना मनुष्य के चलाये कलायन्त्र के बल से नित्य चला करता और पुष्कल वायु देता था। जो ये दोनों पदार्थ आज तक बने रहते तो यूरोपियन इतने अभिमान में न चढ़ जाते।

जब पोपजी अपने चेलों को जैनियों से रोकने लगे तो भी मन्दिरों में जाने से न रुक सके और जैनियों की कथा में भी लोग जाने लगे। जैनियों के पोप इन पुराणी पोपों के चेलों को बहकाने लगे। तब पुराणी पोपों ने विचारा कि इसका कोई उपाय करना चाहिये, नहीं तो अपने चेले जैनी हो जायेंगे। पश्चात् पोपों ने यही सम्मति की कि जैनियों के सदृश अपने भी अवतार, मन्दिर, मूर्त्ति और कथा के पुस्तक बनावें। इन लोगों ने जैनियों के चौबीस तीर्थङ्करों के सदृश चौबीस अवतार, मन्दिर और मूर्त्तियाँ बनाईं और जैसे जैनियों के आदि और उत्तर-पुराणादि हैं वैसे अठारह पुराण बनाने लगे।

राजा भोज के डेढ़ सौ वर्ष के पश्चात् वैष्णवमत का आरम्भ हुआ। एक शठकोप नामक कञ्जरवर्ण में उत्पन्न हुआ था, उससे थोड़ा सा चला। उसके पश्चात् मुनिवाहन भंगी कुलोत्पन्न और तीसरा यावनाचार्य्य यवनकुलोत्पन्न आचार्य्य हुआ। तत्पश्चात् ब्राह्मण कुलज चौथा रामानुज हुआ, उसने अपना मत फैलाया।

शैवों ने शिवपुराणादि, शाक्तों ने देवीभागवतादि, वैष्णवों ने विष्णुपुराणादि बनाये। उनमें अपना नाम इसलिये नहीं धरा कि हमारे नाम से बनेंगे तो कोई प्रमाण न करेगा। इसलिये व्यास आदि ऋषि-मुनियों के नाम धरके पुराण बनाये। नाम भी इनका वास्तव में नवीन रखना चाहिये था, परन्तु जैसे कोई दरिद्र अपने बेटे का नाम महाराजाधिराज और आधुनिक पदार्थ का नाम सनातन रख दे तो क्या आश्चर्य है? अब इनके आपस के जैसे झगड़े हैं, वैसे ही पुराणों में भी धरे हैं।

देखो! देवीभागवत में ‘श्री’ नामा एक देवी स्त्री जो श्रीपुर की स्वामिनी लिखी है, उसी ने सब जगत् को बनाया और ब्रह्मा, विष्णु, महादेव को भी उसी ने रचा। जब उस देवी की इच्छा हुई तब उसने अपना हाथ घिसा। उससे हाथ में छाला हुआ। उसमें से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उससे देवी ने कहा कि तू मुझसे विवाह कर। ब्रह्मा ने कहा कि तू मेरी माता लगती है, मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता। माता को क्रोध चढ़ा, लड़के को भस्म कर दिया और फिर हाथ घिसके उसी प्रकार दूसरा लड़का उत्पन्न करके उसका नाम विष्णु रक्खा। उससे भी उसी प्रकार कहा। उसने न माना, उसको भी भस्म कर दिया। पुनः उसी प्रकार तीसरे लड़के को उत्पन्न करा। उसका नाम महादेव रक्खा और उससे कहा कि तू मुझ से विवाह कर। महादेव बोला कि मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता, तू दूसरा स्त्री का शरीर धारण कर। वैसा ही देवी ने किया। तब महादेव बोला कि यह दो ठिकाने राख क्या पड़ी है? देवी ने कहा कि ये दोनों तेरे भाई हैं, इन्होंने मेरी आज्ञा न मानी, इसलिये भस्म कर दिये। महादेव ने कहा कि मैं अकेला क्या करूँगा, इनको जिला दे और दो स्त्री और उत्पन्न कर, तीनों का विवाह तीनों से होगा। ऐसा ही देवी ने किया। फिर तीनों का तीनों के साथ विवाह हुआ, वाहरे! माता से विवाह न किया और बहिन से कर लिया! क्या इस को उचित समझना चाहिये?

पश्चात् इन्द्रादि को उत्पन्न किया। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्र इनको पालकी के उठानेवाले कहार बनाया, इत्यादि गपोड़े लम्बे-चौड़े मनमाने लिखे हैं। कोई उनसे पूछे कि उस देवी का शरीर और उस श्रीपुर का बनानेवाला और देवी के पिता-माता कौन थे? जो कहो कि देवी अनादि है तो जो संयोगजन्य वस्तु है, वह अनादि कभी नहीं हो सकता। जो माता-पुत्र के विवाह करने में डरे तो भाई-बहिन के विवाह में कौन सी अच्छी बात निकलती है? जैसी इस देवीभागवत में महादेव, विष्णु और ब्रह्मादि की क्षुद्रता और देवी की बड़ाई लिखी है, इसी प्रकार शिवपुराण में देवी आदि की बहुत क्षुद्रता लिखी है। अर्थात् ये सब महादेव के दास और महादेव सब का ईश्वर है। जो ‘रुद्राक्ष’ अर्थात् एक वृक्ष के फल की गोठली और राख धारण करने से मुक्ति मानते हैं, तो राख में लोटनेहारे गदहा आदि पशु और घुंघुची आदि के धारण करने वाले भील, कञ्जर आदि मुक्ति को जावें और सूअर, कुत्ते, गधा आदि पशु राख में लोटनेवालों की मुक्ति क्यों नहीं होती?

प्रश्न—कालाग्निरुद्रोपनिषद् में भस्म लगाने का विधान लिखा है। वह क्या झूठा है? और—

‘त्र्या॒यु॒षं ज॒मद॑ग्ने॰’       —यजुर्वेद [३।६२]

इत्यादि वेदमन्त्रों से भी भस्म धारण का विधान और पुराणों में रुद्र की आँख के अश्रुपात से जो वृक्ष हुआ उसी का नाम रुद्राक्ष है। इसीलिये उसके धारण में पुण्य लिखा है। एक भी रुद्राक्ष धारण करे, तो सब पापों से छूट स्वर्ग को जाय। यमराज और नरक का डर न रहै।

उत्तर—कालाग्निरुद्रोपनिषद् किसी ‘रखोड़िया’ मनुष्य अर्थात् राख धारण करने वाले ने बनाई है। क्योंकि ‘यास्य प्रथमा रेखा सा भूर्लोकः’ इत्यादि वचन उसमें अनर्थक हैं। जो प्रतिदिन हाथ से बनाई रेखा है, वह भूलोक वा इसका वाचक कैसे हो सकती है? और जो—

त्र्या॒यु॒षं ज॒मद॑ग्नेः।   —यजुः [३।६२]

इत्यादि मन्त्र हैं, वे भस्म वा त्रिपुण्ड्र धारण के वाची नहीं किन्तु

चक्षुर्वै जमदग्निऋर्षिः  —शतपथ [८।१।२।३]

हे परमेश्वर! मेरे नेत्र की ज्योति (त्र्यायुषम्) तिगुणी अर्थात् तीन सौ वर्ष पर्यन्त रहै और मैं भी ऐसे धर्म के काम करूं कि जिससे दृष्टि-नाश न हो।

भला यह कितनी बड़ी मूर्खता की बात है कि आँख के अश्रुपात से कभी वृक्ष उत्पन्न होता है? क्या परमेश्वर के सृष्टिक्रम को कोई अन्यथा कर सकता है? जैसा जिस वृक्ष का बीज परमात्मा ने रचा है, उसी से वह वृक्ष उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं। इससे जितना रुद्राक्ष, भस्म, तुलसी, कमलाक्ष, घास, चन्दन आदि को कण्ठ में धारण करना है, वह सब जंगली पशुवत् मनुष्य का काम है। ऐसे वाममार्गी और शैव बहुत मिथ्याचारी, विरोधी और कर्त्तव्य कर्म के त्यागी होते हैं। उनमें जो कोई श्रेष्ठ पुरुष है, वह इन बातों का विश्वास न करके, अच्छे कर्म करता है। जो रुद्राक्ष भस्म-धारण से यमराज के दूत डरते हैं, तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे! जब रुद्राक्ष भस्म-धारण करने वालों से कुत्ता, सिंह, सर्प्प, बिच्छू, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते, तो न्यायाधीश के गण क्यों डरेंगे?

प्रश्न—वाममार्गी और शैव तो अच्छे नहीं, परन्तु वैष्णव तो अच्छे हैं?

उत्तर—यह भी वेदविरोधी होने से उनसे भी अधिक बुरे हैं।

प्रश्न—‘नम॑स्ते रुद्र म॒न्यवे॑’ [यजुः १६।१], ‘शिवाय च शिवतराय च’ [यजुः १६।४१], ‘वै॒ष्ण॒वम॑सि॒’ [यजुः ५।२१], ‘वाम॒नाय॑ च॒’ [यजुः १६।३०], ‘ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिꣳ हवामहे’ [यजुः २३।१९], ‘भग॑वती॒ हि भूयाः’ [अथर्व॰ ९।१०।२०] ‘सूर्य आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च’ [यजुः १३।४६]॥

इत्यादि वेद प्रमाणों से शैवादि मत सिद्ध होते हैं, पुनः क्यों खण्डन करते हो?

उत्तर—इन वचनों से शैवादि सम्प्रदाय सिद्ध नहीं होते, क्योंकि ‘रुद्र’ परमेश्वर, प्राणादि वायु, जीव, अग्नि आदि का नाम है। जो क्रोधकर्त्ता रुद्र अर्थात् दुष्टों को रुलानेवाले परमात्मा को नमस्कार करना, प्राण और जाठराग्नि को अन्न देना।

नम इति अन्ननाम।   —निघण्टु [२।७]

जो मङ्गलकारी सब संसार का अत्यन्त कल्याण करनेवाला है, उस परमात्मा को नमस्कार करना चाहिये। ‘शिवस्य परमेश्वरस्यायं भक्तः शैवः’। ‘विष्णोः परमात्मनोऽयं भक्तो वैष्णवः’। ‘गणपतेः सकलजगत्स्वामिनोऽयं सेवको गाणपतः’। ‘भगवत्या वाण्या अयं सेवको भागवतः’। ‘सूर्यस्य चराचरात्मनोऽयं सेवकः सौरः’ ये सब रुद्र, शिव, विष्णु, गणपति, सूर्यादि परमेश्वर के और भगवती सत्यभाषणयुक्त वाणी का नाम है। इसमें विना समझे ऐसा झगड़ा मचाया है, जैसे—

एक किसी वैरागी के दो चेले थे। वे गुरु के पग दाबा करते थे। एक ने दक्षिण पग और दूसरे ने बायें पग की सेवा करना बाँट लिया था। एक दिन एक चेला कहीं गया था और एक अपने सेव्य पग की सेवा कर रहा था। इतने में गुरु ने करवट फेरा, तो उसके पग पर दूसरे गुरुभाई का सेव्य पग पड़ा। उसने ले डण्डा पग पर धर मारा। गुरु ने कहा कि अरे दुष्ट! यह क्या किया? चेला बोला—मेरे पग के ऊपर यह पग क्यों चढ़ा? इतने में दूसरा चेला आया। वह भी सेवा करने लगा। देखा कि यह पग सूज गया। गुरु से पूछा कि यह मेरे सेव्य पग में क्या हुआ? गुरु ने सब वृत्तान्त सुना दिया। वह भी मूर्ख न बोला न चाला। चुपचाप डण्डा उठा कर बड़े बल से दूसरे पग में मारा। गुरु पुकारता रहा। फिर दोनों चेले डण्डे लेके गुरु के पग को पीटने लगे। बड़ी पुकार मची। तब किसी बुद्धिमान् पुरुष ने आके छुड़ाया। उन दोनों मूर्खों को उपदेश किया “देखो! ये दोनों पग तुम्हारे गुरु के हैं। दोनों की सेवा करने से उसी को सुख और दुःख देने से उसी एक को दुःख होता है।”

[जैसे एक] गुरु की सेवा में चेलाओं ने लीला की, वैसे हीन, पामर, महामूर्ख, सम्प्रदायी लोगों ने—परमेश्वर के विष्णु रुद्रादि सब नाम हैं, जैसा कि प्रथम समुल्लास में लिख आये हैं, उनको न जानकर शाक्त, शैव और वैष्णवादि परस्पर एक दूसरे नाम की निन्दा करते हैं।

अब देखिये चक्राङ्कित वैष्णवों की अद्भुत माया—

तापः पुण्ड्रं तथा नाम माला मन्त्रस्तथैव च।

अमी हि पञ्च संस्काराः परमैकान्तहेतवः॥१॥

[भरद्वाज संहिता परिशिष्ट, अ॰ २। २॥ रामानुजपटलपद्धति]

अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते। इति श्रुतेः॥ —ऋ॰ ९। ८३। १

अर्थात् (तापः) शंख, चक्र, गदा और पद्म के चिह्नों को अग्नि में तपा, भुजा के मूल में दाग देकर, दूध के पात्र में बुझाते हैं, फिर कोई-कोई उस दूध को भी पी लेते हैं, अर्थात् उसमें कुछ मनुष्य के शरीर के मांस का भी अंश आता होगा। ऐसे कर्मों से परमेश्वर को प्राप्त होने की आशा करते हैं और कहते हैं कि विना शंख, चक्रादि से शरीर तपाये जीव परमेश्वर को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह (आमः) अर्थात् कच्चा है। और जैसे राज्य के चपरास आदि चिह्न के होने से राजपुरुष जान, उससे सब लोग डरते हैं, वैसे ही विष्णु के चक्रादि आयुधों के चिह्न देखकर यम और यम के गण डरते हैं, और कहते हैं कि—

दोहा—   बाना बड़ा दयाल का, तिलक छाप अरु माल।

यम डरपै कालू कहे, भय माने भूपाल॥  [भक्तमाल निष्ठा ६]

अर्थात् भगवान् का बाना बड़ा है। तिलक, छाप और माला धारण करना बड़ा है। जिससे यमराज और राजा भी डरता है। (पुण्ड्रम्) त्रिशूल के सदृश ललाट में चित्र निकालना, (नाम) नारायणदास, विष्णुदास दासशब्दान्त नाम, कमलगट्टे आदि की माला और पांचवां (मन्त्र) अर्थात्—

ओं नमो नारायणाय॥१॥

[पद्मपुराण भाग ६। उत्तर खण्ड अ॰ ७२। श्लोक॰ ११७]

यह इन्होंने साधारण मनुष्यों के लिये। दूसरा—

श्रीमन्नारायणचरणं शरणं प्रपद्ये॥२॥

श्रीमते नारायणाय नमः॥३॥   [भक्तमाल]

इत्यादि मन्त्र धनाढ्य और माननीयों के लिये। क्योंकि यह भी एक दुकान ठहरी! जैसा मुख वैसा तिलक! इन पाँच संस्कारों को चक्राङ्कित मुक्ति के हेतु मानते हैं।

इन मन्त्रों का अर्थ—मैं नारायण को नमस्कार करता हूं॥१॥

और मैं लक्ष्मीयुक्त नारायण के चरणारविन्द के शरण को प्राप्त होता हूं॥२॥

और श्रीयुत नारायण को नमस्कार करता हूं अर्थात् जो शोभायुक्त नारायण है, उसको मेरा नमस्कार होवे॥३॥

जैसे वाममार्गी पाँच मकार मानते हैं, वैसे चक्राङ्कित पाँच संस्कार मानते हैं जो वेद का वचन लिखा है, उसका इस प्रकार का पाठ और अर्थ है—

प॒वित्रं॑ ते॒ वित॑तं ब्रह्मणस्पते प्र॒भुर्गात्रा॑णि॒ पर्ये॑षि वि॒श्वतः॑।

अत॑प्ततनू॒र्न तदा॒मो अ॑श्नुते शृ॒तास॒ इद्वह॑न्त॒स्तत्समा॑शत॥१॥

तपो॑ष्प॒वित्रं॒ वित॑तं दि॒वस्प॒दे॥२॥ —ऋ॰ म॰ ९। सू॰ ८३। मन्त्र १, २॥

हे ब्रह्माण्ड और वेदों के पालन करने वाले प्रभु सर्वसामर्थ्ययुक्त सर्वशक्तिमान्! आपने अपनी व्याप्ति से संसार के सब अवयवों को व्याप्त कर रक्खा है। उस आपका जो व्यापक पवित्र स्वरूप है उसको ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण, शम, दम, योगाभ्यास, जितेन्द्रिय, सत्सङ्गादि तपश्चर्य्या से रहित जो अपरिपक्व आत्मा अन्तःकरणयुक्त है, वह उस तेरे स्वरूप को प्राप्त नहीं होता और जो पूर्वोक्त तप से शुद्ध हैं, वे ही इस तप का आचरण करते हुए, उस तेरे शुद्धस्वरूप को अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं॥१॥

जो प्रकाशरूप परमेश्वर की सृष्टि में विस्तृत पवित्राचरण रूप तप करते हैं, वे ही परमात्मा को प्राप्त होने में योग्य होते हैं॥२॥

अब विचार कीजिये कि रामानुजीयादि लोग इस मन्त्र से ‘चक्राङ्कित’ होना क्योंकर निकालते हैं? वे विद्वान् थे वा अविद्वान्? जो विद्वान् होते तो ऐसा असम्भावित अर्थ इस मन्त्र का क्यों करते? क्योंकि इस मन्त्र में ‘अतप्ततनूः’ शब्द है किन्तु ‘अतप्तभुजैकदेशः’ शब्द नहीं। जो ‘अतप्ततनूः’ यह नखशिखाग्रपर्यन्त समुदाय अर्थ है, इस प्रमाण करके अग्नि ही से तपाना चक्राङ्कित लोग स्वीकार करें, तो अपने-अपने शरीर को भाड़ में झोंकके सब शरीर को जला लेवें, तो भी इस मन्त्र के अर्थ से विरुद्ध है, क्योंकि इस मन्त्र में सत्यभाषणादि पवित्र कर्म करना तप लिया है।

ऋतं तपः सत्यं तपो दमस्तपः स्वाध्यायस्तपः॥

—तैत्तिरीय॰ [शिक्षावल्ली अनु॰ ९। तैत्ति॰ आरण्यक १०।८]

इत्यादि तप कहाता है। अर्थात् (ऋतं तपः) यथार्थ शुद्धभाव, सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य करना, मन को अधर्म में न जाने देना, बाह्य इन्द्रियों को अन्यायाचरण में जाने से रोक रखना अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और मन से शुभ कर्मों का आचरण करना, वेदादि सत्य विद्याओं का पढ़ना-पढ़ाना, वेदानुसार आचरण करना आदि उत्तम धर्मयुक्त कर्मों का नाम ‘तप’ है। धातु को तपाके चमड़ी को जलाना तप नहीं कहाता।

देखो! चक्राङ्कित लोग अपने को बड़े वैष्णव मानते हैं, परन्तु अपनी परम्परा और कुकर्म की ओर ध्यान नहीं देते कि प्रथम इनका मूलपुरुष ‘शठकोप’ हुआ कि जो चक्राङ्कितों ही के ग्रन्थों में और भक्तमाल ग्रन्थ जो नाभा डूम ने बनाया है, उनमें—

विक्रीय शूर्पं विचचार योगी॥ [दिव्यसूरिचरितकाव्य सर्ग २ श्लोक ५२]

इत्यादि वचन लिखे हैं। अर्थात् शठकोप योगी सूप को बना, बेचकर, विचरता था अर्थात् कंजर जाति में उत्पन्न हुआ था। जब उसने ब्राह्मणों से पढ़ना वा सुनना चाहा होगा, तब ब्राह्मणों ने तिरस्कार किया होगा। उसने ब्राह्मणों के विरुद्ध सम्प्रदाय, तिलक, चक्राङ्कादि चलाये होंगे। उसका चेला ‘मुनिवाहन’ जो कि चाण्डाल वर्ण में उत्पन्न हुआ था। उसका ‘यावनाचार्य’ जो यवनकुलोत्पन्न था, जिसका नाम बदल के कोई-कोई ‘यामुनाचार्य’ भी कहते हैं।

उनके पश्चात् ‘रामानुज’ ब्राह्मणकुल में उत्पन्न होकर चक्राङ्कित हुआ। उसके पूर्व कुछ भाषा के ग्रन्थ बनाते थे। रामानुज ने कुछ संस्कृत पढ़के संस्कृत में श्लोकबद्ध ग्रन्थ और शारीरकसूत्र और उपनिषदों की टीका शङ्कराचार्य की टीका से विरुद्ध बनाये और शङ्कराचार्य की बहुत सी निन्दा की। जैसा शङ्कराचार्य का मत जीव ब्रह्म की एकता, जगत् प्रपञ्च, सब मिथ्या मायारूप अनित्य है। इससे विरुद्ध रामानुज का—जीव और ब्रह्म और माया तीनों नित्य हैं। शङ्कराचार्य का अद्वैत अर्थात् जीव ब्रह्म एक, ब्रह्म एक ही है, दूसरा कोई वस्तु वास्तविक नहीं है। यहाँ शङ्कराचार्य का मत ब्रह्म से अतिरिक्त जीव और कारण वस्तु का न मानना, अच्छा नहीं। रामानुज का इस अंश में, जो कि विशिष्टाद्वैत-जीव और मायासहित परमेश्वर एक है। भला, तीन का मानना और अद्वैत का कहना सर्वथा व्यर्थ है। जीव को सर्वथा ईश्वर के आधीन परतन्त्र मानना, कण्ठी, तिलक, माला मूर्त्तिपूजादि पाखण्ड-मत चलाने आदि बुरी बातें चक्राङ्कित आदि में हैं। जैसे चक्राङ्कित आदि वेदविरोध करते हैं, वैसे शङ्कराचार्य के मत के नहीं।

प्रश्न—मूर्त्तिपूजा कहाँ से चली?

उत्तर—जैनियों से।

प्रश्न—जैनियों ने कहाँ से चलाई?

उत्तर—अपनी मूर्खता से।

प्रश्न—जैनी लोग कहते हैं कि शान्त ध्यानावस्थित बैठी हुई मूर्त्ति देखके अपने जीव का भी शुभ परिणाम वैसा ही होता है।

उत्तर—जीव चेतन, मूर्त्ति जड़। क्या मूर्त्ति के सदृश जीव भी जड़ हो जायगा? यह मूर्त्तिपूजा केवल पाखण्ड मत है, जैनियों ने चलाई है। इसलिये इनका खण्डन १२वें समुल्लास में करेंगे।

प्रश्न—शाक्त आदि ने मूर्त्तियों में जैनियों का अनुकरण नहीं किया है, क्योंकि जैनियों की मूर्त्तियों के सदृश वैष्णवादि की मूर्त्तियाँ नहीं हैं।

उत्तर—हाँ, यह ठीक है। जो जैनियों के तुल्य बनाते तो जैनमत में मिल जाते। इसलिये जैन की मूर्त्तियों से विरुद्ध बनाईं, क्योंकि जैन से विरोध करना इनका और इनसे विरोध करना जैनियों का मुख्य काम था। जैसे जैनियों की मूर्त्ति नंगी, ध्यानावस्थित और विरक्त मनुष्य के समान बनाई हैं। वैष्णवादि ने खूब शृङ्गारित, खड़ी, स्त्री के सहित रङ्ग राग भोग विषयासक्ति सहिताकार मूर्त्तियां बनाई हैं। जैनी लोग बहुत से शंख, घंटा घड़ियार नहीं बजाते। ये लोग बड़े कोलाहल करते हैं। तब तो इन वैष्णवादि पोपों के चेले जैनियों से बचे और बहुतों ने व्यासादि के नाम से बहुतेरे ग्रन्थ बनाये। उनका नाम ‘पुराण’ रखके कथा भी सुनाने लगे। और मूर्त्तियों को बना, कहीं पहाड़, जंगल में धर आये वा भूमि में गाड़ आये। और अपने चेलों से प्रसिद्धि की कि—“मुझको स्वप्न में महादेव, पार्वती, राधा, कृष्ण, सीता, राम वा लक्ष्मी, नारायण, भैरव, हनुमान् आदि ने कहा कि हम फलाने ठिकाने हैं। हमको वहाँ से ला, मन्दिर में स्थापन कर, तू ही पुजारी होवे तो हम मनोवाञ्छित फल देवें।” जब आँख के अन्धे गाँठ के पूरे लोगों ने सुनकर सच माना और उनसे कहा कि ऐसी वह मूर्त्ति कहाँ है? वह उनको ले जाके दिखलाई। तब तो वे मूर्ख उस धूर्त्त के पग में गिरे और कहा कि “तेरे पर इस देवता की बड़ी कृपा है। चलो हम मन्दिर बनवा देंगे। और उसमें इस देवता की पूजा तू किया करना। और हम लोग इस के दर्शन करके मनोवाञ्छित फल पावेंगे।”

इसी प्रकार जब एक ने किया, पुनः सब पोप-लोगों ने अपने-अपने जीविकार्थ इसी प्रकार कपट-छल से मूर्त्तियाँ स्थापन कीं।

प्रश्न—परमेश्वर निराकार है, वह ध्यान में नहीं आ सकता, इसलिये मूर्त्ति का होना अवश्य है। भला कुछ भी नहीं करे तो मूर्त्ति के सामने जाते हैं तब कुछ परमेश्वर का स्मरण करते और नाम लेते हैं।

उत्तर—जब परमेश्वर निराकार है, तब उसकी मूर्त्ति ही नहीं बन सकती। जो मूर्त्ति के देखने से परमेश्वर याद आवे तो परमेश्वर की बनाई पृथिवी, जल, अग्नि, वनस्पति, पहाड़ आदि रचनायुक्त महामूर्त्तियाँ कि जिन पहाड़ आदि से ये मनुष्यकृत मूर्त्तियाँ बनती हैं, देखकर परमेश्वर याद क्या नहीं आ सकता? जो किसी दूसरे को देख दूसरे का स्मरण करे, तो जब वह सामने न रहै, तब परमेश्वर को भी भूल जायें और जब परमेश्वर को मनुष्य भूल जाता है, तभी वह एकान्त पाकर अन्याय कर लेता है कि यहाँ मुझको कोई नहीं देखता।

जो मूर्त्ति को न मान परमेश्वर को व्यापक माने तो वह उसके डर से कि मुझ को परमेश्वर देखता है, पाप न करे। नामस्मरण से कुछ भी नहीं होता। जैसा कि मिश्री कहने से मुख न मीठा और नीम कहने से कडुआ नहीं होता, किन्तु उनको जीभ से चाखने से मीठा वा कडुआ होता है।

प्रश्न—क्या नाम लेना सर्वथा मिथ्या है, जो सर्वत्र पुराणों में नामस्मरण का बड़ा माहात्म्य लिखा है?

उत्तर—नाम लेने की तुम्हारी रीति उत्तम नहीं। जिस प्रकार तुम नाम स्मरण करते हो, वह रीति झूठी है।

प्रश्न—हमारी कैसी रीति है?

उत्तर—वेदविरुद्घ।

प्रश्न—भला अब आप हमको वेदोक्त नामस्मरण की रीति बतलाइये?

उत्तर—नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिये—जैसे ‘न्यायकारी’ ईश्वर का एक नाम है इस नाम से, जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपातरहित होकर परमात्मा सब का यथावत् न्याय करता है, वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है।

प्रश्न—हम भी जानते हैं कि परमेश्वर निराकार है, परन्तु उसने शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य, देवी आदि के शरीर धारण [किये और] राम, कृष्णादि अवतार लेने से उसकी मूर्त्ति बनती है, क्या यह भी बात झूठी है?

उत्तर—हाँ-हाँ झूठी। क्योंकि—

‘अज एकपात्’ [ऋ॰ ७।३५।१३]

‘अकायम्’      [यजुः ४०।८]

इत्यादि विशेषणों से परमेश्वर को जन्म और शरीरधारणरहित वेद में कहा है, तथा युक्ति से भी परमेश्वर का अवतार कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जो आकाशवत् सर्वत्र व्यापक, अनन्त और सुख, दुःख, दृश्यादि गुणरहित है, वह एक छोटे से वीर्य्य, गर्भाशय और शरीर में क्योंकर आ सकता है? आता-जाता वह है कि जो एकदेशी हो। जो अचल, अदृश्य, जिसके विना एक परमाणु भी खाली नहीं है, उसका अवतार कहना जानो बन्ध्या के पुत्र का विवाह कर, उसके पौत्र के दर्शन करने की बात कहना है।

प्रश्न—जब परमेश्वर व्यापक है तो मूर्त्ति में भी है। पुनः चाहे किसी पदार्थ में भावना करके पूजा करना अच्छा क्यों नहीं? देखो—

न काष्ठे विद्यते देवो न पाषाणे न मृण्मये।

भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम्॥

[तुलना—गरुड़पुराण, ध॰ कां॰ प्रेतखण्ड ३८।१३॥

चाणक्यनीति ८।११]

परमेश्वर देव न काष्ठ, न पाषाण, न मृत्तिका के बनाये पदार्थों में है किन्तु परमेश्वर तो भाव में विद्यमान है। जहाँ भाव करें, वहीं परमेश्वर प्रसिद्ध होता है।

उत्तर—जब व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना यह ऐसी बात है कि जैसी चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ाके एक छोटी सी कुटी का स्वामी मानना देखो यह कितना बड़ा अपमान है! वैसा तुम परमेश्वर का भी अपमान करते हो। जब व्यापक मानते हो तो वाटिका में से पुष्प-पत्र तोड़ के क्यों चढ़ाते? चन्दन को घिस क्यों लगाते? धूप को जला, क्यों देते? घण्टा, घरियाल, झाँज, पखाजों को लट्ठ आदि से क्यों ठोकते? तुम्हारे हाथ में है, क्यों जोड़ते? शिर में है, क्यों नमाते? अन्न-जलादि में है, क्यों नैवेद्य धरते? जल में है, स्नान क्यों कराते? क्योंकि उन सब में व्यापक परमात्मा है। और तुम व्यापक की पूजा करते हो वा व्याप्य की? जो व्यापक की करते हो तो पाषाण, लकड़ी आदि पर चन्दन पुष्पादि क्यों चढ़ाते हो? और जो व्याप्य की करते हो तो ‘हम परमेश्वर की पूजा करते हैं’, ऐसा झूठ क्यों बोलते हो? ‘हम पाषाणादि के पुजारी हैं’, ऐसा सत्य क्यों नहीं बोलते?

‘भाव’ सच्चा है वा झूठा? जो कहो सच्चा है, तो तुम्हारे भाव के आधीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायगा। और तुम मट्टी में सुवर्ण, पाषाण में हीरा-पन्ना, समुद्रफेन में मोती, जल में घी-दूध, दही आदि, धूल में मैदा शक्कर की भावना करके उनको वैसे क्यों नहीं बना लेते हो? दुःख की भावना कोई नहीं करते, फिर दुःख क्यों होता है? और सुख की भावना करते हो, वह क्यों नहीं होता? अन्धा नेत्र की भावना करके क्यों नहीं देखता? मरने की भावना नहीं है, क्यों मर जाते हो? इसलिये तुम्हारी भावना सच्ची नहीं। क्योंकि ‘भावना’ जैसे में वैसा भाव करने को कहते हैं, जैसे अग्नि में अग्नि, जल में जल जानना। और जल में अग्नि, अग्नि में जल समझना अभावना है। क्योंकि जैसे को वैसा जानना ‘ज्ञान’ और अन्यथा जानना ‘अज्ञान’ है। इसलिये तुम अभावना को भावना और भावना को अभावना कहते हो।

प्रश्न—अजी! जब तक वेदमन्त्रों से आवाहन नहीं करते, देवता नहीं आता और आवाहन करने से झट आता और विसर्जन करने से चला जाता है।

उत्तर—जो मन्त्र के आवाहन करने से परमेश्वर आ जाता है तो मूर्त्ति चेतन क्यों नहीं होती? और विसर्जन करने से चला जाता है तो वह कहाँ से आता और कहाँ जाता है?

सुनो भाई! पूर्ण परमात्मा न आता, न जाता है। जो तुम मन्त्र से परमेश्वर को बुला लेते हो, तो उन्हीं मन्त्रों से अपने मरे हुए पुत्र के शरीर में जीव को क्यों नहीं बुला लेते? और शत्रु के जीवात्मा का विसर्जन करके क्यों नहीं मार सकते?

सुनो भाई! भोले लोगो! यह पोपजी तुमको ठगकर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वेदों में पाषाणादि मूर्त्तिपूजा और परमेश्वर के आवाहन-विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं है।

प्रश्न—    प्राणा इहागच्छन्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।

आत्मेहागच्छतु सुखं चिरं तिष्ठतु स्वाहा।

इन्द्रियाणीहागच्छन्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा॥

[प्रतिष्ठामयूख ग्रन्थ, तन्त्रग्रन्थ]

इत्यादि वेद के मन्त्र हैं, क्यों कहते हो नहीं है?

उत्तर—अरे भाई! बुद्धि को थोड़ी सी तो अपने काम में लाओ। ये सब कपोलकल्पित वाममार्गियों के वेदविरुद्ध तन्त्रग्रन्थों की पोपरचित पंक्तियाँ हैं, वेदवचन नहीं।

प्रश्न—क्या तन्त्र झूठा है?

उत्तर—हां! सर्वथा झूठा है। जैसे आवाहन, प्राणप्रतिष्ठादि, पाषाण मूर्त्तिविषयक वेदों में एक मन्त्र भी नहीं, वैसे ‘स्नानं समर्पयामि’ इत्यादि वचन भी नहीं। अर्थात् इतना भी नहीं है कि ‘पाषाणादिमूर्त्तिं रचयित्वा मन्दिरेषु संस्थाप्य गन्धादिभिरर्चयेत्’ पाषाण की मूर्त्ति बना, मन्दिरों में स्थापन कर चन्दन-अक्षतादि से पूजे, ऐसा लेशमात्र भी नहीं।

प्रश्न—जो वेदों में विधि नहीं तो खण्डन भी नहीं है। और जो खण्डन है तो ‘प्राप्तौ सत्यां निषेधः’ मूर्त्ति के होने ही से खण्डन संगत हो सकता है।

उत्तर—विधि तो नहीं, परन्तु परमेश्वर के स्थान में किसी अन्य पदार्थ को पूजनीय न मानना और सर्वथा निषेध किया है। क्या अपूर्वविधि नहीं होता? सुनो! यह है—

अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽस॑म्भूतिमु॒पास॑ते।

ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॒ सम्भू॑त्याᳬ र॒ताः॥ [१॥]

—यजुः॰ अ॰ ४०। मं॰ ९॥

न तस्य॑ प्रति॒माऽअ॑स्ति॒॥[२॥] —यजुः॰ अ॰ ३२। मं॰ ३॥

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥१॥

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥२॥

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यन्ति।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥३॥

यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥४॥

यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥५॥

—केनोप॰ [खं॰ १। मं॰ ४-८]॥

जो ‘असम्भूति’ अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की, ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं, वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसागर में डूबते हैं। और ‘सम्भूति’ जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथिवी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं, वे उस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख चिरकाल घोर दुःखरूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं॥१॥

जो सब जगत् में व्यापक है उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा, परिमाण, सादृश्य वा मूर्त्ति नहीं है॥२॥

जो वाणी का ‘इदंता’ अर्थात् यह जल है लीजिये, वैसा विषय नहीं। और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है, उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर। और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं॥१॥

जो मन से ‘इयत्ता’ करके मनन में नहीं आता, जो मन को जानता है, उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो उससे भिन्न जीव और अन्तःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर॥२॥

जो आँख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आँखें देखती हैं उसी को तू ब्रह्म जान और उसीकी उपासना कर। और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर॥३॥

जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिससे श्रोत्र सुनता है, उसीको तू ब्रह्म जान और उसीकी उपासना कर। उससे भिन्न शब्दादि की उपासना उसके स्थान में मत कर॥४॥

जो प्राणों से चलायमान नहीं होता, जिससे प्राण गमन को प्राप्त होता है, उसी ब्रह्म को तू जान और उसीकी उपासना कर। जो यह उससे भिन्न वायु है, उसकी उपासना मत कर॥५॥ इत्यादि बहुत से निषेध हैं।

निषेध प्राप्त और अप्राप्त का भी होता है। ‘प्राप्त’ का—जैसे कोई कहीं बैठा हो, उसको वहाँ से उठा देना। ‘अप्राप्त’ का—जैसे हे पुत्र! तू चोरी कभी मत करना, कुये में मत गिरना, दुष्टों का सङ्ग मत करना, विद्याहीन मत रहना, इत्यादि अप्राप्त का भी निषेध होता है। सो मनुष्यों के ज्ञान में अप्राप्त, परमेश्वर के ज्ञान में प्राप्त का निषेध किया है। इसलिये पाषाणादि मूर्त्तिपूजा अत्यन्त निषिद्ध है।

प्रश्न—मूर्त्तिपूजा में पुण्य नहीं तो पाप भी नहीं है?

उत्तर—कर्म दो ही प्रकार के होते हैं—विहित—जो कर्त्तव्यता से वेद में सत्यभाषणादि प्रतिपादित हैं। दूसरे निषिद्ध—जो अकर्त्तव्यता से मिथ्याभाषणादि वेद में निषिद्ध हैं। जैसे विहित का अनुष्ठान करना वह धर्म, उसका न करना अधर्म है, वैसे ही निषिद्ध कर्म का करना अधर्म और न करना धर्म है। जब वेद में निषिद्ध मूर्त्तिपूजादि कर्म तुम करते हो, तो पापी क्यों नहीं?

प्रश्न—देखो! वेद अनादि हैं। उस समय मूर्त्ति का क्या काम था? क्योंकि पहिले तो देवता प्रत्यक्ष थे। यह रीति तो पीछे से तन्त्र और पुराणों से चली है। जब मनुष्यों का ज्ञान और सामर्थ्य न्यून हो गया, परमेश्वर को ध्यान में नहीं ला सकते, मूर्त्ति का ध्यान कर सकते हैं, इस कारण अज्ञानियों के लिये मूर्त्तिपूजा है। क्योंकि सीढ़ी-सीढ़ी से चढ़े तो भवन पर पहुँच जाय। पहिली सीढ़ी छोड़कर ऊपर जाना चाहे तो नहीं जा सकता, इसलिये मूर्त्ति प्रथम सीढ़ी है। इसको पूजता-पूजता जब ज्ञानी होगा और अन्तःकरण पवित्र होगा, तब परमात्मा का ध्यान कर सकेगा। जैसे लक्ष्य का मारनेवाला प्रथम स्थूल लक्ष्य में तीर, गोली वा गोला मारता-मारता पश्चात् सूक्ष्म निशाना भी मार सकता है, वैसे स्थूल मूर्त्ति की पूजा करता-करता सूक्ष्म ब्रह्म को भी प्राप्त होता है। जैसे लड़कियाँ गुड़ियों का खेल तबतक करती हैं, जबतक सच्चे पति को प्राप्त नहीं होतीं, इत्यादि प्रकार से मूर्त्तिपूजा करना दुष्ट काम नहीं।

उत्तर—जब वेदविहित धर्म और वेदविरुद्धाचरण में अधर्म है तो तुम्हारे कहने से भी मूर्त्तिपूजा अधर्म ठहरी। जो ग्रन्थ वेद से विरुद्ध हैं, उनका प्रमाण करना जानो नास्तिक होना है। सुनो—

नास्तिको वेदनिन्दकः॥१॥           —[मनु॰ २।११]॥

या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः।

सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः॥२॥

उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित्।

तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च॥३॥

—मनु॰ अ॰ १२ [श्लो॰ ९५-९६]॥

मनुजी कहते हैं जो वेदों की ‘निन्दा’ अर्थात् अपमान, त्याग, विरुद्धाचरण करता है, वह ‘नास्तिक’ कहाता है॥१॥

जो ग्रन्थ वेदबाह्य, कुत्सित पुरुषों के बनाये, संसार को दुःखसागर में डुबानेवाले हैं, वे सब निष्फल, असत्य, अन्धकाररूप, इस लोक और परलोक में दुःखदायक हैं॥२॥

जो इन वेदों से विरुद्ध ग्रन्थ उत्पन्न होते हैं, वे आधुनिक होने से शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। उनका मानना निष्फल और झूठा है॥३॥

इसी प्रकार ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्त का मत है कि वेदविरुद्ध को न मानना, किन्तु वेदानुकूल ही का आचरण करना धर्म है। क्योंकि वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है, इससे विरुद्ध जितने तन्त्र और पुराण हैं, वे वेदविरुद्ध होने से झूठे हैं, वे वेद से विरुद्ध चलते हैं। उनमें कही हुई मूर्त्तिपूजा भी अधर्मरूप है। मनुष्यों का ज्ञान जड़ की पूजा से नहीं बढ़ सकता किन्तु जो कुछ ज्ञान है, सो भी नष्ट हो जाता है। इसलिये ज्ञानियों की सेवा-सङ्ग से ज्ञान बढ़ता है, पाषाणादि से नहीं। क्या पाषाणादि मूर्त्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी ला सकता है? नहीं-नहीं। मूर्त्तिपूजा सीढ़ी नहीं, किन्तु एक बड़ी खाई है, जिसमें गिरकर चकनाचूर हो जाता है। उस खाई से निकल नहीं सकता, किन्तु उसी में मर जाता है। हां, छोटे धार्मिक विद्वानों से लेकर परम विद्वान् योगी के संग से सद्विद्या और सत्यभाषणादि परमेश्वर की प्राप्ति की सीढ़ियाँ हैं, जैसी कि ऊपर घर में जाने की निःश्रेणी होती है। किन्तु मूर्त्तिपूजा करते-करते ज्ञानी तो कोई न हुआ, प्रत्युत सब मूर्त्तिपूजक अज्ञानी रहकर, मनुष्यजन्म व्यर्थ खोके, बहुत मर गए और जो अब हैं वा होंगे, वे भी मनुष्यजन्म के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्तिरूप फलों से विमुख होकर निरर्थ नष्ट हो जायंगे। मूर्त्तिपूजा ब्रह्म की प्राप्ति में स्थूल लक्ष्यवत् नहीं, किन्तु धार्मिक विद्वान् और सृष्टिविद्या है। इसको बढ़ाता-बढ़ाता ब्रह्म को भी पाता है। और मूर्त्ति गुड़िया के खेलवत् नहीं, किन्तु प्रथम अक्षराभ्यास सुशिक्षा का होना, गुड़िया के खेलवत् ब्रह्म की प्राप्ति का साधन है। सुनिये! जब अच्छी शिक्षा और विद्या को प्राप्त होगा, तब सच्चे स्वामी परमात्मा को भी प्राप्त हो जायगा।

प्रश्न—साकार में मन स्थिर होता और निराकार में स्थिर होना कठिन है, इसलिये मूर्त्तिपूजा रहनी चाहिये।

उत्तर—साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता। क्योंकि उसको मन झट ग्रहण करके उसीके एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है। और निराकार अनन्त परमात्मा के ग्रहण में यावत्सामर्थ्य मन अत्यन्त दौड़ता है, तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चञ्चल भी नहीं रहता किन्तु उसीके गुण-कर्म-स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्न होकर स्थिर हो जाता है। और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता, क्योंकि जगत् में मनुष्य, स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फसा रहता है, परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता, जबतक निराकार में न लगावे, क्योंकि वह निरवयव होने से उसमें मन स्थिर हो जाता है। इसलिये मूर्त्तिपूजा करना अधर्म है।

दूसरा—उसमें करोड़ों रुपये मन्दिरों में व्यय करके दरिद्र होजाते हैं और उसमें प्रमाद होता है।

तीसरा—स्त्री-पुरुषों का मन्दिरों में मेला होने से व्यभिचार, लड़ाई-बखेड़ा और रोग उत्पन्न होते हैं।

चौथा—उसीको धर्म, अर्थ, काम और मुक्ति का साधन मानके पुरुषार्थरहित होकर मनुष्यजन्म व्यर्थ गमाता है।

पाँचवाँ—नाना प्रकार की विरुद्धस्वरूप-नाम-चरित्रयुक्त मूर्त्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके, विरुद्धमत में चलकर, आपस में फूट बढ़ाके, देश का नाश करते हैं।

छःठा—उसीके भरोसे में शत्रु का पराजय और अपना विजय मान, बैठे रहते हैं। उनका पराजय होकर राज्य, स्वातन्त्र्य और धन का सुख उनके शत्रुओं के स्वाधीन होते हैं। आप पराधीन भठियारे के टट्टू और कुम्हार के गदहे के तुल्य शत्रुओं के वश में होकर अनेकविध दुःख पाते हैं।

सातवाँ—जब कोई किसी को कहे कि हम तेरे बैठने के आसन वा नाम पर पत्थर धरें तो जैसे वह उन पर क्रोधित होकर मारता है, वैसे ही जो परमेश्वर के उपासना के स्थान हृदय और नाम पर पाषाणादि मूर्त्तियाँ धरते हैं, उन का सत्यानाश परमेश्वर क्यों न करे?

आठवाँ—भ्रान्त होकर मन्दिर-मन्दिर देश-देशान्तर में घूमते-घूमते दुःख पाते, धर्म, धन और संसार का परमार्थ का काम नष्ट करते, चोर आदि से पीडित होते, ठगों से ठगाते रहते हैं।

नववाँ—दुष्ट पुजारियों को धन देते हैं, वे उस धन को वेश्या, परस्त्रीगमन, मद्य, मांसाहार, लड़ाई-बखेड़ों में व्यय करते हैं, जिससे दाता का सुख का मूल नष्ट होकर दुःख होता है।

दशवाँ—माता-पिता आदि माननीयों का अपमान और पाषाणादि मूर्त्तियों का मान करके कृतघ्न हो जाते हैं।

ग्यारहवाँ—उन मूर्त्तियों को कोई तोड़ डालता वा चोर ले जाता है तब हा-हा करके रोते रहते हैं।

बारहवाँ—पुजारी परस्त्रियों के सङ्ग और पुजारिन् परपुरुषों के सङ्ग से प्रायः दूषित होकर स्त्री-पुरुष के प्रेम के आनन्द को हाथ से खो बैठते हैं।

तेरहवाँ—स्वामी-सेवक की आज्ञा का पालन यथावत् न होने से, आपस में विरुद्ध होकर, नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं।

चौदहवाँ—जड़ का ध्यान करनेवाले का आत्मा भी जड़बुद्धि हो जाता है, क्योंकि ध्येय का जड़त्व धर्म अन्तःकरण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है।

पन्द्रहवाँ—परमेश्वर ने पुष्पादि सुगन्ध, वायु-जल के दुर्गन्ध निवारण और आरोग्यता के लिये बनाये हैं, उनको पुजारी तोड़ कर, पूर्ण सुगन्ध के समय तक उसका सुगन्ध होता है, उसका नाश मध्य में ही कर देते हैं। पुष्पादि कीच के साथ मिल-सड़कर उल्टा दुर्गन्ध उत्पन्न करते हैं। इसलिये मूर्त्तिपूजा करने में पाप होता है। इत्यादि पापों का मूलकारण पाषाणादि मूर्त्तिपूजा भी है।

ऐसे-ऐसे अनेक मूर्त्तिपूजा के करने में दोष आते हैं। इसलिए सर्वथा पाषाणादि मूर्त्तिपूजा सभी लोगों को त्यक्तव्य है। और जिन्होंने पाषाणमय मूर्त्ति की पूजा की है, करते हैं और करेंगे, वे पूर्वोक्त दोषों से न बचे, न बचते हैं और न बचेंगे।

प्रश्न—किसी प्रकार की मूर्त्तिपूजा करनी वा नहीं और जो अपने आर्य्यावर्त्त में ‘पञ्चदेवपूजा’ शब्द प्राचीन चला आता है, उसका यही ‘पञ्चायतनपूजा’—जो कि शिव, विष्णु, अम्बिका, गणेश और सूर्य्य की मूर्त्ति बना कर पूजते हैं—यही पञ्चायतनपूजा है वा नहीं?

उत्तर—किसी प्रकार की मूर्त्तिपूजा न करना, किन्तु ‘मूर्त्तिमान्’ जो नीचे कहेंगे, उनकी ‘पूजा’ अर्थात् सत्कार करना चाहिये। वह पञ्चदेवपूजा, पञ्चायतनपूजा शब्द बहुत अच्छे अर्थवाला था, परन्तु मूढ़ों ने उस सदर्थ को छोड़कर, असत्य अर्थ पकड़ लिया। जो आजकल शिवादि पाँचों की मूर्त्तियाँ बनाकर पूजते हैं, उनका खण्डन तो अभी कर चुके हैं। यह सच्ची ‘पञ्चायतन’ वेदोक्त और वेदानुकूल देवपूजा और मूर्त्तिपूजा है, सुनो—

मा [नो॑] वधीः पि॒तरं॒ मोत मात॒र॒म्॥१॥ —यजुः॰ [१६।१५]

आ॒चा॒र्य उप॒नय॑मानो……. [अथर्व॰ ११।५।३]

ब्रह्मचा॒रिण॑मिच्छते॥२॥      [अथर्व॰ ११।५।१७]

अति॑थिर्गृ॒हानुप॒गच्छे॑त्॥३॥ —अथर्व॰ [तुलना—१५।१२।१]

अर्च॑त॒ प्रार्च॑त॒ प्रिय॑मे॒धासो अर्चत॑॥४॥ —ऋग्वेद [८।६९।८]

त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि॥५॥

—तैत्तिरीयोपनि॰ [१।१]

कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते॥६॥

—शतपथ॰ [कां॰ १४] प्रपाठक ५। ब्राह्मण ७। कण्डिका १०॥

मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव॥७॥

—तैत्तिरीयोप॰ [शिक्षावल्ली। अनु॰ ११]

पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा।

पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥८॥    —मनु॰ [३।५५]

पूज्यो देववत्पतिः॥९॥       —मनुस्मृति [तुलना—५।१५४]

प्रथम ‘माता’ मूर्त्तिमती पूजनीय देवता अर्थात् सन्तानों से, तन-मन-धन से, वा सेवा करके माता को प्रसन्न रखना, हिंसा अर्थात् ताडना कभी न करना। दूसरा ‘पिता’ सत्कर्त्तव्य देव। उसकी भी माता के समान सेवा करनी॥१॥

तीसरा ‘आचार्य’ जो विद्या का देनेवाला है, उसकी तन-मन से सेवा करनी॥२॥

चौथा ‘अतिथि’ जो विद्वान् धार्मिक, निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहनेवाला, जगत् में भ्रमण करता हुआ, सत्य उपदेश से सबको सुखी करता रहै, उसकी सेवा करें॥३॥

पाँचवाँ—स्त्री के लिये पति और पुरुष के लिये स्वपत्नी पूजनीय है॥९॥

ये पाँच मूर्त्तिमान् देव जिनके सङ्ग से मनुष्यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर की प्राप्ति होने की सीढ़ियाँ हैं। इनकी सेवा न करके जो पाषाणादि मूर्त्ति पूजते हैं, वे अतीव पामर, नरकगामी हैं।

प्रश्न—माता-पिता आदि की सेवा करें और मूर्त्तिपूजा भी करें, तब तो कोई दोष नहीं?

उत्तर—पाषाणादि मूर्त्तिपूजा तो सर्वथा छोड़ने और मातादि मूर्त्तिमानों की सेवा करने ही में कल्याण है। बड़े अनर्थ की बात है कि साक्षात् माता आदि प्रत्यक्ष सुखदायक देवों को छोड़ के अदेव पाषाणादि में शिर मारना मूढों ने इसीलिये स्वीकार किया है कि जो माता-पितादि के सामने नैवेद्य वा भेट-पूजा धरेंगे तो वे स्वयं खा लेंगे और भेट पूजा ले लेंगे। हमारे मुख वा हाथ में न पड़ेंगे। इससे पाषाणादि की मूर्त्ति बना, उसके आगे नैवेद्य धर, टंटन घंटा, पूँ पूँ शंख बजा, अंगूठा दिखला अर्थात् ‘त्वमङ्गुष्ठं गृहाण, भोजनं पदार्थं वाऽहं ग्रहीष्यामि’ जैसे कोई किसी को छले वा चिड़ावे कि तू घंटा ले और अंगूठा दिखलावे, उसके आगे से सब पदार्थ ले आप भोगे, वैसी ही लीला इन ‘पूजारियों’ अर्थात् पूजा नाम सत्कर्म के शत्रुओं की है। मूढों को चटक-मटक, चलक-झलक, मूर्त्तियों को बना-ठना, आप वेश्या, भडुआ वा ठगों के तुल्य बन-ठन के बिचारे निर्बुद्धि अनाथों का माल मारके मौज करते हैं। जो कोई धार्मिक राजा होता तो इन पाषाणप्रियों को पत्थर तोड़ने, बनाने और घर रचने आदि कामों में लगाके खाने-पीने को देता, निर्वाह कराता।

प्रश्न—जैसे स्त्री आदि की पाषाणादि मूर्त्ति देखने से कामोत्पत्ति होती है, वैसे वीतराग शान्त की मूर्त्ति देखने से वैराग्य और शान्ति की प्राप्ति क्यों न होगी?

उत्तर—नहीं हो सकती। क्योंकि वह मूर्त्ति के जड़त्व धर्म आत्मा में आने से विचारशक्ति घट जाती है। विवेक के विना न वैराग्य, और वैराग्य के विना विज्ञान, विज्ञान के विना शान्ति नहीं होती। और जो कुछ होता है सो उनके सङ्ग, उपदेश और उनके इतिहासादि के देखने से होता है, क्योंकि जिसका गुण वा दोष न जानके उसकी मूर्त्तिमात्र देखने से प्रीति ही नहीं होती। प्रीति होने का कारण गुणज्ञान है। ऐसे मूर्त्तिपूजा आदि बुरे कारणों ही से आर्य्यावर्त्त में निकम्मे, पूजारि, भिक्षुक, आलसी पुरुषार्थरहित क्रोड़ों मनुष्य हुए हैं। वे मूढ होने से सब संसार में मूढ़ता उन्हींने फैलाई है। झूठ-छल भी बहुत सा फैलता है।

प्रश्न—देखो! काशी में ‘अवरंगजेब’ बादशाह को ‘लाटभैरव’ आदि ने बड़े चमत्कार दिखलाये थे। जब मुसलमान उनको तोड़ने गये, तोप का गोला मारा, तब बड़े-बड़े भमरे निकलकर, सब फौज को व्याकुल कर, भगा दिया।

उत्तर—यह पाषाण का चमत्कार नहीं। किन्तु वहाँ भमरे के छत्ते लग रहे होंगे। उनका स्वभाव है, जब कोई उनको छेड़े, तो काटने दौड़ते हैं। और जो दूध की धारा चमत्कारक होती थी वह पुजारी की लीला थी।

प्रश्न—देखो! महादेव म्लेच्छ को दर्शन न देने के लिये कूप में और वेणीमाधव एक ब्राह्मण के घर में जा छिपे। क्या यह भी चमत्कार नहीं है?

उत्तर—भला जिसके कोटपाल कालभैरव, लाटभैरव आदि भूत-प्रेत और गरुड़ आदि गणों ने मुसलमानों को लड़ के क्यों न हठाये? जब महादेव और विष्णु की पुराणों में कथा है कि अनेक त्रिपुरासुर आदि बड़े भयंकर दुष्टों को भस्म कर दिया तो मुसलमानों को भस्म क्यों न किया? इससे यह सिद्ध होता है कि वे बिचारे पाषाण क्या लड़ते-लड़ाते? जब मुसलमान मन्दिर और मूर्त्तियों को तोड़ते-फोड़ते हुए काशी के पास आए, तब पूजारियों ने उस पाषाण के लिङ्ग को कूप में डाल और वेणीमाधव को ब्राह्मण के घर में छिपा दिया। जब काशी में कालभैरव के डर के मारे यमदूत नहीं जाते, प्रलय में भी काशी का नाश होने नहीं देते, तो म्लेच्छों के दूत क्यों न डराये? और अपने राजा के मन्दिर का क्यों नाश होने दिया? यह सब पोपलीला है।

प्रश्न—गया में श्राद्ध करने से पितरों का पाप छूटकर वहाँ के श्राद्ध के पुण्यप्रभाव से पितर स्वर्ग में जाते और पितर अपना हाथ निकालकर पिण्ड लेते हैं, क्या यह भी बात झूठ है?

उत्तर—सर्वथा झूठ। जो वहां पिण्ड देने का वही प्रभाव है तो जिन पण्डों को पितरों के सुख के लिये लाखों रुपये देते हैं, उनका व्यय गया वाले वेश्यागमनादि पाप में करते हैं, वह पाप क्यों नहीं छूटता? और हाथ निकलता आजकल कहीं नहीं दीखता, विना पण्डों के हाथों के। यहाँ यह कि कभी किसी धूर्त्त ने पृथिवी में गुफा खोद उसमें एक मनुष्य बैठाया। उसके मुख पर कुश बिछा, पिण्ड दिया हो। उस मनुष्य ने उठा लिया होगा। किसी आँख के अन्धे गाँठ के पूरे को ठगा हो तो आश्चर्य नहीं। वैसे ही वैजनाथ को रावण लाया था, यह भी मिथ्या बात है।

प्रश्न—देखो! कलकत्ते की ‘काली’ और ‘कामाक्षा’ आदि देवी को लाखों मनुष्य मानते हैं, क्या यह चमत्कार नहीं है?

उत्तर—कुछ भी नहीं। ये अन्धे लोग भेड़ के तुल्य एक के पीछे दूसरे चलते हैं, कूप-खाड़े में गिरते हैं, हठ नहीं सकते। वैसे ही एक मूर्ख के पीछे दूसरे चलकर मूर्त्तिपूजा रूप गढ़े में फसकर दुःख पाते हैं।

प्रश्न—भला यह तो जाने दो, परन्तु ‘जगन्नाथ’ में प्रत्यक्ष चमत्कार है। एक कलेवर बदलने के समय चन्दन का लकड़ा समुद्र में से स्वयमेव आता है। चूल्हे पर ऊपर-ऊपर सात हण्डे धरने से ऊपर-ऊपर के पहिले-पहिले पकते। जो कोई वहाँ जगन्नाथ की परसादी न खावे तो कुष्ठी हो जाता है और रथ आप से आप चलता, पापी को दर्शन नहीं होता। ‘इन्द्रदमन’ के राज्य में देवताओं ने मन्दिर बनाया है। कलेवर बदलने के समय एक राजा, एक पण्डा, एक बढ़ई मर जाने आदि चमत्कारों को तुम झूठ न कर सकोगे।

उत्तर—जिसने बारह वर्ष पर्यन्त जगन्नाथ की पूजा की थी, वह विरक्त होकर मथुरा में आया था, मुझसे मिला था। मैंने इन बातों का उत्तर पूछा था, उन्होंने ये सब बात झूठ बतलाईं। किन्तु विचार से निश्चय यह है, जब कलेवर बदलने का समय आता है, तब नौका में चन्दन की लकड़ी ले समुद्र में डालते हैं। वह समुद्र की लहरियों से किनारे लग जाती है। उसको ले सुतार लोग मूर्त्तियाँ बनाते हैं। जब रसोई बनती है, तब किवाड़ी बन्ध करके विना रसोइयों के, अन्य किसी को न जाने, न देखने देते हैं। भूमि पर चारों ओर छः और बीच में एक, चक्राकार चूल्हे बनाते हैं। उन हण्डों के नीचे घी, मट्टी और राख लगा, छः चूल्हों पर चावल चुड़ा (=पका), उनके तले माँज कर, उस बीच के हण्डे में उसी समय चावल डाल, छः चूल्हों के मुख लोहे के तवों से बन्ध कर, दर्शन करनेवालों को जो कि धनाढ्य हों, बुलाके दिखलाते हैं। ऊपर-ऊपर के हण्डों से चावल निकाल, चुड़े हुए चावलों को दिखला, नीचे के कच्चे चावल निकाल, दिखाके, उनसे कहते हैं कि “कुछ हण्डे के लिये रख दो।” ‘आँख के अन्धे गाँठ के पूरे’ रुपये-अशर्फी धरते और कोई-कोई मासिक भी बांध देते हैं।

शूद्र नीच लोग मन्दिर में नैवेद्य लाते हैं। जब नैवेद्य हो चुकता है तब वे शूद्र लोग जूठा कर देते हैं। पश्चात् जो कोई रुपया देकर हण्डा लेवे, उसके घर पहुँचाते और गरीब गृहस्थ और साधु सन्तों को लेके शूद्र और अन्त्यज पर्य्यन्त एक पङ्क्ति में बैठ, जूठा भोजन करते हैं। जब वह पङ्क्ति उठती है, तब उन्हीं पत्तलों पर दूसरों को बैठाते जाते हैं। महा अनाचार है। और बहुत से मनुष्य वहां जाकर उनका जूठा न खाके, अपने हाथ बना खाकर चले आते हैं, बहुत से परसादी नहीं खाते, उनको भी कुछ भी कुष्ठादि रोग नहीं होते। और उस जगन्नाथपुरी में भी बहुत से कुष्ठी हैं, नित्यप्रति जूठ खाने से भी रोग नहीं छूटता।

और यह जगन्नाथ में वाममार्गियों ने भैरवीचक्र बनाया है, क्योंकि ‘सुभद्रा’ श्रीकृष्ण और बलदेव की बहिन लगती है। उसी को दोनों भाइयों के बीच में स्त्री और माता के स्थान बैठाई है। जो भैरवीचक्र न होता तो यह बात कभी न होती।

और रथ के पहियों के साथ कला बनाई हैं। जब उनको सूधी घुमाते हैं वह सूधी घूमती हैं, तब रथ चलता है। जब मेले के बीच में पहुंचता है तभी उसकी कील को उलटी घुमा देने से रथ खड़ा रह जाता है। पुजारी लोग पुकारते हैं—“दान दो, पुण्य करो, जिससे जगन्नाथ प्रसन्न होकर रथ चलावें, अपना धर्म रहै।” जबतक भेंट आती जाती है तबतक ऐसे ही पुकारते जाते हैं। जब आ चुकती है, तब एक व्रजवासी अच्छे कपड़े दुसाला ओढ़कर आगे खड़ा रहके हाथ जोड़ स्तुति करता है कि हे जगन्नाथ स्वामिन्! आप कृपा करके रथ को चलाइये, हमारा धर्म रक्खो” इत्यादि बोलके साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर रथ पर चढ़ता है। उसी समय कील को सूधा घुमा देते हैं और जय-जय शब्द बोल, सहस्रों मनुष्य रस्सा खींचते हैं, रथ चलता है।

जब बहुत-से लोग दर्शन को जाते हैं, तब इतना बड़ा मन्दिर है कि जिसमें दिन में भी अन्धेरा रहता और दीप जलाना पड़ता है। उन मूर्त्तियों के आगे, खैंच कर लगाने के पड़दे, दोनों ओर रहते हैं। पण्डे-पुजारी भीतर खड़े रहते हैं। जब बगल वाले ने पर्दे को खींचा, झट मूर्त्ति आड़ में आ जाती है। तब सब पण्डे और पुजारी पुकारते हैं कि “तुम भेट धरो, तुम्हारे पाप छूट जायेंगे, तब दर्शन होगा। शीघ्र करो।” वे बिचारे भोले मनुष्य धूर्त्तों के हाथ लूटे जाते हैं। और झट पर्दा दूसरा खैंच लेता है, तभी दर्शन होता है। तब जय शब्द बोल के, प्रसन्न होकर, धक्के खाके, तिरस्कृत हो, चले आते हैं।

‘इन्द्रदमन’ वही है कि जिसके कुल के अब तक कलकत्ते में हैं। वह धनाढ्य राजा और देवी का उपासक था। उसने लाखों रुपये लगाकर मन्दिर बनवाया था। इसलिये कि आर्यावर्त्त के भोजन का बखेड़ा इस रीत से छुड़ावें। परन्तु वे मूर्ख कब छोड़ते हैं? ‘देव’ मानो तो उन्हीं कारीगरों को मानो कि जिन शिल्पियों ने मन्दिर बनाया।

राजा, पण्डा और बढ़ई उस समय नहीं मरते, परन्तु वे तीनों वहां प्रधान रहते हैं। छोटों को दुःख देते होंगे। उन्होंने सम्मति करके उसी समय अर्थात् कलेवर बदलने के समय वे तीनों उपस्थित रहते हैं, मूर्त्ति का हृदय पोला रक्खा है, उसमें सोने के सम्पुट में एक सालगराम रखते हैं कि जिसको प्रतिदिन धो के चरणामृत बनाते हैं, उस पर रात्रि की शयन आरती में उन लोगों ने विष का तेजाब लपेट दिया होगा। उसको धो के उन्हीं तीनों को पिलाया होगा कि जिससे वे कभी मर गये होंगे। मरे इस प्रकार और भोजनभट्टों ने प्रसिद्ध किया होगा कि जगन्नाथजी अपने शरीर बदलने के समय तीनों भक्तों को भी साथ ले गये। ऐसी झूठी बातें पराये धन ठगने के लिये बहुत-सी हुआ करती हैं।

प्रश्न—जो रामेश्वर में गङ्गोत्तरी के जल चढ़ाने समय लिङ्ग बढ़ जाता है, क्या यह भी बात झूठी है?

उत्तर—झूठी। क्योंकि उस मन्दिर में भी दिन में अन्धेरा रहता है। दीप रात-दिन जला करता है। जब जल की धारा छोड़ते हैं, तब उस जल में बिजुली के समान दीप का प्रतिबिम्ब चलकता है, और कुछ भी नहीं। न पाषाण घटे, न बढ़े, जितना का उतना रहता है। ऐसी लीला करके बिचारे निर्बुद्धियों को ठगते हैं।

प्रश्न—रामेश्वर को रामचन्द्र ने स्थापन किया है। जो मूर्त्तिपूजा वेदविरुद्ध होती तो ‘रामचन्द्र’ मूर्त्तिस्थापन क्यों करते और वाल्मीकिजी रामायण में क्यों लिखते?

उत्तर—रामचन्द्र के समय में उस लिङ्ग वा मन्दिर का नाम निशान भी नहीं था, किन्तु यह ठीक है कि दक्षिण देशस्थ ‘राम’ राजा ने मन्दिर बनवा, लिङ्ग का नाम ‘रामेश्वर’ धर दिया है। जब रामचन्द्र सीताजी को ले हनुमान् आदि के साथ लङ्का से विमान पर बैठ आकाश मार्ग से अध्योध्या को आते थे, तब सीताजी से कहा है कि—

अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः।।

सेतुबन्ध इति ख्यातम्॥      —वाल्मीकि॰ लंका काण्ड [युद्धकाण्ड सर्ग १२३। श्लो॰ २०-२१]॥

हे सीते! तेरे वियोग से हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान में चातुर्मास किया था और परमेश्वर की उपासना ध्यान भी करते थे। वही जो सर्वत्र विभु व्यापक महान् देवों का देव ‘महादेव’ परमात्मा है, उसकी कृपा से हमको सब सामग्री यहाँ प्राप्त हुई। और देख! यह सेतु हमने बाँधकर लङ्का में आके, उस रावण को मार, तुझको ले आये। इसके सिवाय वहाँ वाल्मीकि ने अन्य कुछ भी नहीं लिखा।

प्रश्न—‘रङ्ग है कालियाकन्त को। जिसने हुक्का पिलाया सन्त को’।।

दक्षिण में एक कालियाकन्त की मूर्त्ति है। वह अब तक हुक्का पिया करती है। जो मूर्त्तिपूजा झूठी होती तो यह चमत्कार भी झूठा होवे।

उत्तर—झूठा-झूठा-झूठा। यह सब पोपलीला है। क्योंकि वह, मूर्त्ति का मुख पोला होगा। उसका छिद्र पृष्ठ में निकाल के, भित्ती के पार, दूसरे मकान में नल लगा होगा। जब पुजारी हुक्का भरवा, पेंचवान् लगा, मुख में नली जमाके, पड़दे डाल, निकल आता होगा, तभी पीछेवाला आदमी मुख से खींचता होगा तो इधर हुक्का गड़-गड़ बोलता होगा। दूसरा छिद्र नाक और मुख के साथ लगा होगा। जब पीछे फूकें मार देता होगा तब नाक और मुख के छिद्रों से धुआँ निकलता होगा। उस समय बहुतेरे मूढ़ों को धनादि पदार्थों से लूट कर धन रहित करते होंगे।

प्रश्न—देखो! डाकोरजी की मूर्त्ति द्वारिका से भगत के साथ चली आई। एक सवा रत्ती सोने में कई मन की मूर्त्ति तुल गई। क्या यह भी चमत्कार नहीं?

उत्तर—नहीं। वह भक्त मूर्त्ति को चोर ले आया होगा और सवा रत्ती के बराबर मूर्त्ति का तुलना, किसी भङ्गड़ आदमी ने गप्प मारा होगा।

प्रश्न—देखो! सोमनाथजी पृथिवी से ऊपर रहता था और बड़ा चमत्कार था, क्या यह भी मिथ्या बात है?

उत्तर—हाँ मिथ्या बात है। क्योंकि वह लोहे की पोली मूर्ति थी। नीचे ऊपर चुम्बक पाषाण लगा रक्खे थे। उसके आकर्षण से वह मूर्ति अधर खड़ी थी। जब महमूद गजनवी आकर लड़ा, तब यह चमत्कार हुआ कि उसका मन्दिर तोड़ा गया और पूजारी भक्तों की दुर्दशा हो गई, और लाखों फौज दश सहस्र फौज से भाग गई। जो पोप-पूजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति, प्रार्थना करते थे कि “हे महादेव! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर”, अपने चेले राजाओं को समझाते थे कि, “आप निश्चिन्त रहिये। महादेवजी भैरव अथवा वीरभद्र को भेज देंगे। वे सब म्लेच्छों को मार डालेंगे वा अन्धा कर देंगे। अभी हमारा देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान्, दुर्गा और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब काम कर देंगे।” वे बिचारे भोले राजा और क्षत्रिय पोपों के बहकाने से विश्वास में रहे।

कितने ही ज्योतिषी पोपों ने कहा कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त्त नहीं है। एक ने आठवाँ चन्द्रमा बतलाया। दूसरे ने योगिनी सामने दिखलाई, इत्यादि बहकावट में रहे।

जब म्लेच्छों की फौज ने आकर घेर लिया, तब दुर्दशा से भागे। कितने ही पोप-पुजारी और उनके चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कहा कि तीन करोड़ रुपया ले लो, मन्दिर और मूर्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि “हम ‘बुतपरस्त’ नहीं किन्तु ‘बुतशिकन्’ अर्थात् मूर्त्तिपूजक नहीं, किन्तु मूर्त्तिभंजक हैं।” जाके मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत तूटी, तब चुम्बक पाषाण पृथक् होने से मूर्त्ति गिर पड़ी। जब मूर्त्ति तोड़ी तब सुनते हैं कि अठारह करोड़ के रत्न निकले। जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा पड़े, तब रोने लगे। कहा, कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। वे ले लिवा लूट मार कर, पोप और पोप के चेलों को ‘गुलाम’ बिगारी बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मल-मूत्रादि उठवाया और चना खाने को दिये।

हाय! क्यों पत्थर की पूजा कर सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की भक्ति न की, जो म्लेच्छों के दाँत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो! जितनी मूर्तियाँ हैं, उतने शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती इनकी। पुजारियों ने इतनी भक्ति पाषाणों की की, परन्तु मूर्ति एक भी उनके शिर पर उड़के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की भी मूर्त्ति के सदृश सेवा करते, तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।

प्रश्न—द्वारिकाजी के ‘रणछोड़जी’ कि जिसने ‘नर्सीमहिता’ के पास हुण्डी भेज दी और उसका ऋण चुका दिया, इत्यादि बात भी क्या झूठ है?

उत्तर—किसी साहूकार ने रुपये दे दिये होंगे। किसी ने झूठा नाम उड़ा दिया होगा कि श्रीकृष्ण ने भेजे। जब संवत् १९१४ के वर्ष में तोपों के मारे मन्दिर-मूर्त्तियां अङ्गरेजों ने उड़ा दी थीं, तब मूर्त्ति कहाँ गई थी? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े, शत्रुओं को मारा, परन्तु मूर्त्ति एक मक्खी की टाँग भी न तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला, यह तो कहो कि जिसका रक्षक मार खाय, उसके शरणागत क्यों न पीटे जायें?

प्रश्न—ज्वालामुखी तो प्रत्यक्ष देवी है, सबको खा जाती है और प्रसाद देवे तो आधा खा जाती और आधा छोड़ देती है। मुसलमान बादशाहों ने उस पर जल की नहर छुड़वाई और लोहे के तवे जड़वाये थे तो भी ज्वाला नहीं बुझी, न रुकी। वैसे हिंगलाज भी आधी रात को सवारी कर पहाड़ पर दिखाई देती, पहाड़ को गर्जना कराती है। चन्द्रकूप बोलता है और योनियन्त्र से निकलने से पुनर्जन्म नहीं होता। ठूमरा बाँधने से पूरा महापुरुष कहाता। जबतक हिंगलाज न हो आवे, तबतक आधा महापुरुष बजता है, इत्यादि सब बातें क्या मानने योग्य नहीं?

उत्तर—नहीं। क्योंकि वह ज्वालामुखी पहाड़ में से आगी निकलती है। उसमें पुजारी पोपों की विचित्र लीला है। जैसे बघार के घी के चमचे में ज्वाला आ जाती, अलग करने से वा फूंक मारने से बुझ जाती, थोड़ा-सा घी को खा जाती, शेष छोड़ जाती है, उसी के समान वहाँ भी है। जैसी चूल्हे की ज्वाला में जो डाला जाय, सब भस्म होता, जङ्गल वा घर में लग जाने से सबको खा जाती है, इससे वहाँ क्या विशेष है विना एक मन्दिर, कुण्ड और इधर-उधर नल रचना के? हिंगलाज में न कोई सवारी होती और जो कुछ होता है, वह सब पोप-पुजारियों की लीला से दूसरा कुछ भी नहीं। एक जल और दलदल का कुण्ड बना रक्खा है, जिसके नीचे से बुद्बुदे उठते हैं, उसको सुफल यात्रा होना मूढ़ मानते हैं। योनि का यन्त्र पोपजी ने धन हरने के लिए बनवा रक्खा है और ठुमरे भी उसी प्रकार पोपलीला के हैं। उससे महापुरुष हो तो एक पशु पर ठुमरे का बोझा लाद दें, तो क्या महापुरुष हो जायगा? महापुरुष तो बड़े उत्तम धर्मयुक्त पुरुषार्थ से होता है।

प्रश्न—अमृतसर का तालाब अमृतरूप, एक रीठे का फल आधा मीठा, एक भित्ती नमती और गिरती नहीं, रेवालसर में बेड़े तरते, अमरनाथ में आप से आप लिङ्ग बन जाते, हिमालय से कबूतर के जोड़े आके, सबको दर्शन देकर चले जाते, क्या यह भी मानने योग्य नहीं?

उत्तर—नहीं। उस तालाब का नाममात्र अमृतसर है। जब कभी जङ्गल होगा, तब उसका जल अच्छा होगा। इससे उसका नाम अमृतसर धरा होगा। जो अमृत होता तो पुराणियों के मानने के तुल्य कोई क्यों मरता? भित्ती की कुछ बनावट वैसी होगी जिससे नमती होगी और गिरती न होगी। रीठे कलम के पैबन्दी होंगे अथवा गपोड़ा होगा। रेवालसर में बेड़ा तरने में कुछ कारीगरी होगी। अमरनाथ में बर्फ के पहाड़ बनते हैं तो जल जमके छोटे लिंग का बनना कौन आश्चर्य है? और कबूतर के जोड़े पालित होंगे, पहाड़ की आड़ में से पोपजी छोड़ते होंगे। दिखलाकर टका हरते होंगे।

प्रश्न—‘हरद्वार’ स्वर्ग का द्वार, ‘हर की पीढ़ी’ में स्नान करे तो पाप छूट जाते, ‘तपोवन’ में रहने से तपस्वी होता। ‘देवप्रयाग’, गङ्गोत्तरी में ‘गोमुख’, उत्तरकाशी में ‘गुप्तकाशी’, ‘त्रियुगीनारायण’ के दर्शन होते हैं। ‘केदार’ और ‘बदरीनारायण’ की पूजा छः महीने तक मनुष्य और छः महीने तक देवता करते हैं। महादेव का मुख नेपाल में पशुपति; चूतड़ केदार और तुङ्गनाथ में; जानु और पग अमरनाथ में। इनके दर्शन-पर्शन-स्नान करने से मुक्ति हो जाती है। वहाँ केदार और बद्री से स्वर्ग जाना चाहै तो जा सकता है, इत्यादि बातें कैसी हैं?

उत्तर—हरद्वार उत्तर पहाड़ों में जाने का एक मार्ग का आरम्भ है। ‘हर की पीढी” एक स्नान के लिये कुण्ड की सीढ़ियों को बनाया है। सच पूछो तो ‘हाड़पीढ़ी’ है, क्योंकि देशदेशान्तर के मृतकों के हाड़ उसमें पड़ा करते हैं। पाप कभी कहीं नहीं छूट सकता विना भोगे, अथवा नहीं कटते। ‘तपोवन’ जब होगा तब होगा, अब तो ‘भिक्षुकवन’ है। ‘तपोवन’ में जाने, रहने से तप नहीं होता, किन्तु तप तो करने से होता है, क्योंकि वहाँ बहुत से दुकानदार झूठ बोलनेवाले भी रहते हैं। ‘हिमवतः प्रभवति गङ्गा’ पहाड़ के ऊपर से जल गिरता है। गोमुख का आकार पोपलीला से बनाया होगा और वही पहाड़ पोप का स्वर्ग है। वहाँ उत्तरकाशी आदि स्थान ध्यानियों के लिए अच्छा है, परन्तु दुकानदारों के लिए वहाँ भी दुकानदारी है। देवप्रयाग पुराण के गपोड़ों की लीला है, अर्थात् जहाँ अलखनन्दा और गङ्गा मिली हैं, इसलिए वहाँ देवता वसते हैं, ऐसे गपोड़े न मारें तो वहाँ कौन जाय और टका कौन देवे? गुप्तकाशी तो नहीं है, वह तो प्रसिद्ध काशी है। तीन युग की धूनी तो नहीं दीखती परन्तु पोपों की दश-बीस पीढ़ी की होगी, जैसी खाखियों की धूनी और पार्सियों की अग्यारी सदैव जलती रहती है। तप्तकुण्ड भी पहाड़ों के भीतर ऊष्मा=गर्मी होती है, उसमें तपकर जल आता है। उसके पास दूसरे कुण्ड में ऊपर का जल वा जहाँ गर्मी नहीं, वहाँ का आता है, इससे ठण्डा है। केदार का स्थान—वह भूमि बहुत अच्छी है, परन्तु वहाँ भी एक जमे हुए पत्थर पर पोप वा पोप के चेलों ने मन्दिर बना रक्खा है। वहाँ महन्त पुजारी पण्डे ‘आँख के अन्धे गाँठ के पूरों’ से माल लेकर विषयानन्द करते हैं। वैसे ही ‘बद्रीनारायण’ में ठग-विद्यावाले बहुत से बैठे हैं। रावलजी वहाँ के मुख्य हैं। एक स्त्री छोड़ अनेक रख बैठे हैं। पशुपति एक मन्दिर और पञ्चमुखी मूर्त्ति का नाम धर रक्खा है। जब कोई न पूछे तभी पोपलीला बलवती होती है। परन्तु जैसे तीर्थ के धूर्त धनहरे होते हैं, वैसे पहाड़ी लोग नहीं होते। भूमि बड़ी रमणीय और पवित्र है।

प्रश्न—विन्ध्याचल में ‘विन्ध्येश्वरी काली अष्टभुजा’ प्रत्यक्ष सत्य है। विन्ध्येश्वरी तीन समय में तीन रूप बदलती है और उसके बाड़े में मक्खी एक भी नहीं होती। प्रयाग तीर्थराज वहाँ मुंड मुण्डाये सिद्ध, गङ्गा-जमुना के सङ्गम में स्नान करने से इच्छासिद्धि होती है। वैसे ही अयोध्या कई वार उड़कर सब वस्ती सहित स्वर्ग में चली गई। मथुरा सब तीर्थों से अधिक, वृन्दावन लीलास्थान और गोवर्धन व्रजयात्रा बड़े भाग्य से होती है। सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र में लाखों मनुष्य जाते आते हैं, क्या ये सब बातें अन्यथा हैं।

उत्तर—प्रत्यक्ष तो आँखों से तीनों मूर्त्तियाँ दीखती हैं, पाषाण की मूर्त्तियाँ हैं। और तीन काल में तीन प्रकार के रूप होने का कारण पुजारी लोगों के वस्त्र आभूषण पहिराने की चतुराई है और मक्खियाँ सहस्रों-लाखों होती हैं, मैंने अपनी आँख से देखा है। प्रयाग में कोई नापित श्लोक बनानेहारा अथवा पोपजी को कुछ देके मुण्डाने का माहात्म्य बनाया वा बनवाया होगा। प्रयाग में स्नान करके स्वर्ग को जाता तो, घर में आता कोई भी नहीं दीखता, किन्तु घर को आते हुए दीखते हैं। अथवा जो कोई वहाँ डूब मरता और उसका जीव भी आकाश में वायु के साथ घूम कर जन्म लेता होगा। तीर्थराज भी नाम पोपों ने धरा है। जड़ में राजाप्रजाभाव कभी नहीं हो सकता। यह बड़ी असम्भव बात है कि अयोध्या नगरी वस्ती, कुत्ते, गधे, भङ्गी, जाजरू सहित तीन वार स्वर्ग में गई। स्वर्ग में तो नहीं गई, वहीं की वहीं है, परन्तु पोपजी के मुख-गपोड़ों में अयोध्या स्वर्ग को उड़ गई। यह गपोड़ा शब्दरूप उड़ता फिरता है। ऐसे ही नैमिषारण्य आदि की भी पोपलीला जाननी। ‘मथुरा तीन लोक से न्यारी’ तो नहीं परन्तु उसमें तीन जन्तु बड़े लीलाधारी हैं कि जिनके मारे जल, स्थल और अन्तरिक्ष में किसी को सुख मिलना कठिन है। एक चौबे जो कोई स्नान करने जाय, अपना कर लेने को खड़े रहकर बकते रहते हैं “लाओ यजमान! भांग-मर्ची पीवें और लड्डू खावें।” दूसरे जल में कछुवे काट ही खाते हैं, जिनके मारे स्नान करना भी घाट पर कठिन पड़ता है। तीसरे आकाश के ऊपर लाल मुख के बन्दर पगड़ी, टोपी, गहने, जूते तक भी न छोड़ें, काट खावें, धक्के दे गिरा मार डालें, और ये तीनों पोप और पोपजी के चेलों के पूजनीय हैं। मनों चना आदि अन्न कछुए, और बन्दरों को चना गुड़ आदि और चौबों की दक्षिणा और लड्डुओं से उनके सेवक सेवा किया करते हैं। वृन्दावन जब था तब था, अब तो वेश्यावनवत् लल्ला-लल्ली और गुरु-चेली आदि की लीला फैल रही है। वैसे ही दीपमालिका का मेला, गोवर्द्धन और व्रजयात्रा में भी पोपों की बन पड़ती है। कुरुक्षेत्र में भी वही जीविका की लीला समझ लो। इनमें जो कोई धार्मिक, परोपकारी पुरुष है, इस पोपलीला से पृथक् हो जाता है।

प्रश्न—यह मूर्त्तिपूजा और तीर्थ सनातन से चले आते हैं, झूठे क्योंकर हो सकते हैं?

उत्तर—तुम सनातन किसको कहते हो? जो सदा से चला आता है। जो यह सदा से होता तो वेद और ब्राह्मणादि ऋषिमुनिकृत पुस्तकों में इनका नाम क्यों नहीं? यह मूर्त्तिपूजा अढ़ाई-तीन सहस्र वर्ष के इधर-इधर वाममार्गी और जैनियों से चली है। प्रथम आर्यावर्त्त में नहीं थी। और ये तीर्थ भी नहीं थे। जब जैनियों ने गिरनार, पालिटाना, शिखर, शत्रुञ्जय और आबू आदि तीर्थ बनाये, उनके अनुकूल इन लोगों ने भी बना लिए। जो कोई इनके आरम्भ की परीक्षा करना चाहे, वे पण्डों की पुरानी से पुरानी बही, तांबे के पत्र लेख आदि देखें, तो निश्चय हो जाएगा कि ये सब तीर्थ पाँच सौ अथवा एक सहस्र वर्ष से इधर ही बने हैं। सहस्र वर्ष के उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता, इससे आधुनिक हैं।

प्रश्न—जो-जो तीर्थ वा नाम का माहात्म्य अर्थात् जैसे ‘अन्यक्षेत्रे कृतं पापं काशीक्षेत्रे विनश्यति’ [काशीमाहात्म्य, काशीखण्ड] इत्यादि बात सच्ची है वा नहीं?

उत्तर—नहीं। क्योंकि जो पाप छूट जाते हों तो दरिद्रों को धन, राज; अन्धों को आँख मिलती! कोढ़ियों का कोढ़ आदि रोग छूट जाता; ऐसा नहीं होता। इसलिए पाप वा पुण्य किसी का नहीं छूटता।

प्रश्न—    गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥१॥

[ब्रह्मपुराण अ॰ १७५। श्लो॰ ८२; पद्मपुराण उत्तरखण्ड अ॰ २३।२]

[हरि]र्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्॥२॥

[पद्मपुराण उ॰ ख॰ ७२।१२]

प्रातःकाले शिवं दृष्ट्वा निशिपापं विनश्यति।

आजन्मकृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्॥३॥

—ये पोपपुराण के श्लोक हैं। [तीर्थदर्पण पण्डाअर्पण-परिच्छेद २]

जो सैंकड़ों-सहस्रों कोश दूर से भी गङ्गा-गङ्गा कहे, उसके सब पाप नष्ट होकर वह विष्णुलोक अर्थात् वैकुण्ठ को जाता है॥१॥

‘हरि’ इस दो अक्षर के नामोच्चारण से सब पाप को हर लेता है, वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का माहात्म्य है॥२॥

और जो मनुष्य प्रातःकाल में ‘शिव’ अर्थात् लिङ्ग वा उसकी मूर्त्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ, मध्याह्न में दर्शन से जन्म भर का, सायङ्काल में दर्शन करने से सात जन्मों के पाप छूट जाते हैं॥३॥ यह दर्शनमाहात्म्य क्या झूठा हो जायगा?

उत्तर—मिथ्या होने में क्या शङ्का? क्योंकि गङ्गा वा हरे, राम, कृष्ण, नारायण, शिव और भगवती नामस्मरण से पाप कभी नहीं छूटता। जो छूटे तो दुःखी कोई न रहै। और पाप करने से कोई भी न डरे, जैसे आजकल पोपलीला में पाप बढ़ कर हो रहे हैं। क्योंकि मूढ़ों को विश्वास है कि हम पाप कर, नामस्मरण वा तीर्थयात्रा करेंगे तो पापों की निवृत्ति हो जायगी। इसी विश्वास पर पाप करके इस लोक और परलोक का नाश करते हैं, पर किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है।

प्रश्न—तो कोई तीर्थ नामस्मरण सत्य है वा नहीं?

उत्तर—है। वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का सङ्ग; परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य मानना, सत्य करना; ब्रह्मचर्य्य; आचार्य्य, अतिथि, माता, पिता की सेवा; परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना; शान्ति, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्तपुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभगुण-कर्म दुःखों से तारनेवाले होने से तीर्थ हैं। और जो जल-स्थलमय हैं, वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते। क्योंकि ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि’ मनुष्य जिन करके दुःखों से तरें उनका नाम ‘तीर्थ’ है। जल-स्थल तरानेवाले नहीं, किन्तु डुबाकर मारनेवाले हैं। प्रत्युत नौका आदि का नाम ‘तीर्थ’ हो सकता है, क्योंकि उनसे भी समुद्र आदि को तरते हैं।

समानतीर्थे वासी॥१॥ —अष्टा॰ [४।४।१०७]

नम॒स्तीर्थ्याय॑ च॒॥२॥ —यजुः॰ अ॰ १६ [मं॰ ४२]

जो ब्रह्मचारी एक आचार्य्य [से] और एक शास्त्र को साथ-साथ पढ़ते हों, वे सब ‘सतीर्थ्य’ अर्थात् समानतीर्थसेवी होते हैं॥१॥

जो वेदादिशास्त्र और सत्यभाषणादि धर्म-लक्षणों में साधु हों, उनको अन्नादि पदार्थ देना और उनसे विद्या लेनी इत्यादि ‘तीर्थ’ कहाते हैं॥२॥

‘नामस्मरण’ इसको कहते हैं कि—

यस्य॒ नाम॑ म॒हद्यशः॑॥

—यजुः॰ [३२।३]

परमेश्वर का नाम बड़े ‘यश’ अर्थात् धर्मयुक्त कामों का करना है। जैसे ब्रह्म, परमेश्वर, ईश्वर, न्यायकारी, दयालु, सर्वशक्तिमान् आदि नाम परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव से हैं। जैसे ‘ब्रह्म’ सबसे बड़ा, ‘परमेश्वर’ ईश्वरों का ईश्वर, ‘ईश्वर’ सामर्थ्ययुक्त, ‘न्यायकारी’ कभी अन्याय नहीं करता, ‘दयालु’ सब पर कृपादृष्टि रखता, ‘सर्वशक्तिमान्’ अपने सामर्थ्य ही से सब जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करता, सहाय किसी का नहीं लेता, ‘ब्रह्मा’ विविध जगत् के पदार्थों का बनानेहारा, ‘विष्णु’ सबमें व्यापक होकर रक्षा करता, ‘महादेव’ सब देवों का देव, ‘रुद्र’ प्रलय करनेहारा आदि नामों के अर्थों को अपने में धारण करे। अर्थात् बड़े कामों से बड़ा हो, समर्थों में समर्थ हो, सामर्थ्यों को बढ़ाता जाय, अधर्म कभी न करे, सब पर दया रक्खे, सब प्रकार के साधनों को समर्थ करे, शिल्पविद्या से नाना प्रकार के पदार्थों को बनावे, सब संसार में अपने आत्मा के तुल्य सुख-दुःख समझे, सबकी रक्षा करे, विद्वानों में विद्वान् होवे, दुष्ट कर्म का प्रलय करे और दुष्ट कर्म करनेवालों को प्रयत्न से दण्ड और सज्जनों की रक्षा करे। इस प्रकार परमेश्वर के नामों का अर्थ जानकर परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल अपने गुण-कर्म-स्वभाव को करते जाना ही परमेश्वर का नामस्मरण है।

प्रश्न—    गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

[गुरुगीता गुरुमाहात्म्य प्रकरण श्लोक १९]

इत्यादि गुरुमाहात्म्य तो सच्चा है? गुरु के पग धोके पीना, जैसी आज्ञा करे वैसा करना, गुरु लोभी हो तो वामन के समान, क्रोधी हो तो नरसिंह के सदृश, मोही हो तो राम के तुल्य और कामी हो तो कृष्ण के समान गुरु को जानना। चाहै गुरुजी कैसा ही पाप करे तो भी अश्रद्धा न करनी, सन्त वा गुरु के दर्शन को जाने में पग-पग में अश्वमेध का फल होता है, यह बात ठीक है वा नहीं?

उत्तर—ठीक नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म परमेश्वर के नाम हैं। उसके तुल्य गुरु कभी नहीं हो सकता। यह गुरुमाहात्म्य गुरुगीता भी एक बड़ी पोपलीला है। गुरु तो माता, पिता, आचार्य और अतिथि होते हैं। उनकी सेवा करनी, उनसे विद्या-शिक्षा लेना-देना, शिष्य और गुरु का काम है। परन्तु जो गुरु लोभी, क्रोधी, मोही और कामी हो, तो उसको सर्वथा छोड़ देना, शिक्षा करनी, सहज शिक्षा से न माने तो ‘अर्घ्यपाद्य’ अर्थात् ताडना दण्ड प्राणहरण तक भी करने में कुछ भी दोष नहीं। जो विद्यादि सद्गुणों में गुरुत्व नहीं है, झूठ-मूठ कण्ठी, तिलक, वेदविरुद्ध मन्त्रोपदेश करनेवाले हैं, वे गुरु ही नहीं किन्तु गडरिये जैसे हैं। जैसे गडरिये अपनी भेड़-बकरियों से दूध आदि से प्रयोजन सिद्ध करते हैं, वैसे ही शिष्यों के, चेले-चेलियों के धन हरके अपना प्रयोजन करते हैं। वे—

गुरु लोभी चेला लालची, दोनों खेलें दाव।

भवसागर में डूबते, बैठ पत्थर की नाव॥

गुरु समझें कि चेले-चेली कुछ न कुछ देवें हीगे और चेला समझे कि चलो गुरु झूठे सौगंद खाने, पाप छुड़ाने आदि लालच से, दोनों कपटमुनि भवसागर के दुःख में डूबते हैं, जैसे पत्थर की नौका में बैठनेवाले समुद्र में डूब मरते हैं। ऐसे गुरु और चेलों के मुख पर धूड़-राख पड़े। उसके पास कोई भी खड़ा न रहै, जो रहै वह दुःखसागर में पड़ेगा। जैसी पोपलीला पुजारी-पुराणियों ने चलाई है, वैसी इन गडरिये गुरुओं ने भी लीला मचाई है। यह सब काम स्वार्थी लोगों का है। जो परमार्थी लोग हैं, वे आप दुःख पावें तो भी जगत् का उपकार करना नहीं छोड़ते। और गुरुमाहात्म्य तथा गुरुगीता आदि भी इन्हीं लोभी, कुकर्मी गुरुओं ने बनाई है।

प्रश्न—अष्टादशपुराणानां कर्त्ता सत्यवतीसुतः॥१॥     [रेवाखण्ड]

इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्॥२॥

—महाभारत [आदिपर्व १।२६७]

पुराणानि खिलानि च॥३॥           —मनु॰ [३।२३२]

इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः॥४॥  —छान्दोग्य॰ [७।१।४]

दशमेऽहनि किंचित्पुराणमाचक्षीत॥५॥

[तुलना—शतपथ १३।४।३।१३]

पुराणविद्या वेदः॥६॥  सूत्रम्

अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यासजी हैं। व्यासवचन का प्रमाण अवश्य करना चाहिये॥१॥

इतिहास महाभारत, अठारह पुराणों से वेदों का अर्थ पढ़ें-पढ़ावें, क्योंकि इतिहास और पुराण वेदों ही के अर्थ और अनुकूल हैं॥२॥

पितृकर्म में पुराण और ‘खिल’ अर्थात् हरिवंश की कथा सुनें॥३॥

इतिहास और पुराण पञ्चमवेद कहाते हैं॥४॥

अश्वमेध की समाप्ति में दशमें दिन थोड़ी-सी पुराण की कथा सुनें॥५॥

पुराणविद्या वेदार्थ के जनाने ही से वेद है॥६॥

इत्यादि प्रमाणों से पुराणों का प्रमाण और इनके प्रमाणों से मूर्त्तिपूजा और तीर्थों का भी प्रमाण है, क्योंकि पुराणों में मूर्त्तिपूजा और तीर्थों का विधान है।

उत्तर—जो अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यासजी होते तो उनमें इतने गपोड़े न होते। क्योंकि शारीरकसूत्र, योगशास्त्र के भाष्य आदि व्यासोक्त ग्रन्थों के देखने से विदित होता है कि व्यासजी बड़े विद्वान्, सत्यवादी, धार्मिक, योगी थे। वे ऐसी मिथ्या कथा कभी न लिखते। और इससे यह सिद्ध होता है कि जिन सम्प्रदायी परस्पर विरोधी लोगों ने भागवतादि नवीन कपोलकल्पित ग्रन्थ बनाये हैं, उनमें व्यासजी के गुणों का लेश भी नहीं था। और वेदशास्त्रविरुद्ध असत्यवाद लिखना व्यासजी सदृश विद्वानों का काम नहीं, किन्तु यह काम विरोधी, स्वार्थी, अविद्वान् पामरों का है। इतिहास और पुराण शिवपुराणादि का नाम नहीं, किन्तु—

ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथानाराशंसीरिति॥

—यह ब्राह्मण और सूत्रों का वचन है॥

[तैत्ति॰ आरण्यक २।९; आश्वलायन गृह्यसूत्र ३।३।१]

ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थों ही के इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी ये पांच नाम हैं। (इतिहास) जैसे जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद। (पुराण) जगदुत्पत्ति आदि का वर्णन आख्यान। (कल्प) वेद शब्दों के सामर्थ्य का वर्णन, अर्थ निरूपण करना। (गाथा) किसी का दृष्टान्त दार्ष्टान्तरूप कथा प्रसङ्ग कहना। (नाराशंसी) मनुष्यों के प्रशंसनीय वा अप्रशंसनीय कर्मों का कथन करना। इनही से वेदार्थ का बोध होता है।

‘पितृकर्म’ अर्थात् ज्ञानियों के प्रसंग में कुछ सुनना, अश्वमेध के अन्त में भी इन्हीं का सुनना लिखा है। क्योंकि जो व्यासकृत ग्रन्थ हैं, उनका सुनना-सुनाना व्यासजी के जन्म के पश्चात् हो सकता है, पूर्व नहीं। जब व्यासजी का जन्म भी नहीं था तब वेदार्थ को पढ़ते-पढ़ाते सुनते-सुनाते थे। इसीलिये सब से प्राचीन ब्राह्मण-ग्रन्थों ही में यह सब घटना हो सकती हैं, इन श्रीमद्भागवत, शिवपुराणादि मिथ्यावाद दूषित ग्रन्थों में नहीं घट सकती। जब व्यासजी ने वेद पढ़े और पढ़ाकर वेदार्थ फैलाया, इसीलिये उनका नाम ‘वेदव्यास’ हुआ। क्योंकि व्यास कहते हैं वार-पार की मध्य रेखा को; अर्थात् ऋग्वेद के आरम्भ से लेकर अथर्ववेद के पार पर्यन्त चारों वेद पढ़े थे और शुकदेव तथा जैमिनि आदि शिष्यों को पढ़ाये भी थे। नहीं तो उनका जन्म का नाम ‘कृष्णद्वैपायन’ था। जो कोई यह कहते हैं कि “वेदों को व्यासजी ने इकट्ठे किये” यह बात झूठी है। क्योंकि व्यासजी के पिता, पितामह, प्रपितामह; पराशर, शक्ति, और वशिष्ठ; और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढ़े थे, यह बात क्योंकर घट सके?

प्रश्न—पुराणों में सब बातें झूठी हैं, वा कोई सच्ची भी है?

उत्तर—बहुत सी बातें झूठी हैं और कोई ‘घुणाक्षरन्याय’ से सच्ची भी है। जो सच्ची हैं वह वेदादि सत्यशास्त्रों की और जो झूठी हैं, वे इन पोपों के पुराणरूप घर की हैं। जैसे शिवपुराण में शैवों ने शिव को परमेश्वर मानके विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, गणेश और सूर्य्यादि को उनके दास ठहराये। वैष्णवों ने विष्णुपुराण आदि में विष्णु को परमात्मा माना और शिव आदि को विष्णु के दास। देवीभागवत में देवी परमेश्वरी और शिव, विष्णु आदि उसके किङ्कर बनाये। ‘गणेशखण्ड’ में गणेश को ईश्वर और शेष सबको दास बनाये। भला यह बात इन सम्प्रदायी पोपों की नहीं तो किनकी है? एक मनुष्य के बनाने में ऐसी परस्पर विरुद्ध बात नहीं होती, तो विद्वान् के बनाये में कभी नहीं आ सकती। इसमें एक बात को सच्ची मानें, तो दूसरी झूठी और जो दूसरी को सच्ची मानें, तो अन्य सब झूठी होती हैं। शिवपुराणवाले शिव से, विष्णुपुराणवालों ने विष्णु से, देवीपुराणवाले ने देवी से, गणेशखण्डवाले ने गणेश से सूर्य्यपुराणवाले ने सूर्य्य से और वायुपुराणवाले ने वायु से सृष्टि की उत्पत्ति-प्रलय लिखके पुनः एक-एक से एक-एक जो जगत् के कारण लिखे, उनकी उत्पत्ति एक-एक से लिखी। कोई पूछे कि जो जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाला है, वह उत्पन्न और जो उत्पन्न होता है, वह सृष्टि का कारण कभी हो सकता है वा नहीं? तो सिवाय चुप रहने के कुछ भी नहीं कह सकते। और इन सबके शरीर की उत्पत्ति भी इसी से हुई होगी, फिर वे आप सृष्ट-पदार्थ और परिच्छिन्न होकर संसार की उत्पत्ति के कर्त्ता क्योंकर हो सकते हैं? और उत्पत्ति भी विलक्षण-विलक्षण प्रकार से मानी है जो कि सर्वथा असम्भव है। जैसे—

‘शिवपुराण’ में शिव ने इच्छा की, मैं सृष्टि करूँ, तो एक ‘नारायण’ जलाशय को उत्पन्न कर उसकी नाभि से कमल, कमल में से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। उसने देखा कि सब जलमय है। जल की अञ्जलि उठा, देख, जल में पटक दिया। उससे एक बुद्बुदा और बुद्बुदे में से एक पुरुष हुआ। उसने ब्रह्मा से कहा कि ‘हे पुत्र! सृष्टि कर।’ ब्रह्मा ने उससे कहा कि “मैं तेरा पुत्र नहीं किन्तु तू मेरा पुत्र है।” उनमें विवाद हुआ और दिव्यसहस्र-वर्षपर्यन्त दोनों जल पर लड़ते रहे। तब महादेव ने विचार किया कि जिनको सृष्टि करने के लिये भेजा था, वे दोनों आपस में लड़ रहे हैं। तब उन दोनों के बीच में से एक तेजोमय लिङ्ग उत्पन्न हुआ और वह शीघ्र आकाश में चला गया। उसको देखके दोनों साश्चर्य्य हो गये। विचारा कि इसका आदि-अन्त लेना चाहिये। जो आदि-अन्त लेके शीघ्र आवे वह पिता और जो पीछे वा थाह लेके न आवे वह पुत्र कहावे। विष्णु कूर्म का स्वरूप धरके नीचे को चला और ब्रह्मा हंस का शरीर धारण करके ऊपर को उड़ा। दोनों मनोवेग से चले। दिव्यसहस्र-वर्षपर्य्यन्त दोनों चलते रहे तो भी उसका अन्त न पाया। तब नीचे से ऊपर विष्णु और ऊपर से नीचे ब्रह्मा चला। ब्रह्मा ने विचारा कि जो वह छेड़ा ले आया होगा तो पुत्र बनना पड़ेगा। ऐसा सोच रहा था कि उसी समय एक गाय और एक केतकी का वृक्ष ऊपर से उतर आया। उनसे ब्रह्मा ने पूछा “कि तुम कहाँ से आये?” उन्होंने कहा “हम सहस्र वर्षों से इस लिङ्ग के आधार से चले आते हैं।” ब्रह्मा ने पूछा कि “इस लिङ्ग का थाह है वा नहीं?” उन्होंने कहा कि “नहीं”। ब्रह्मा ने उनसे कहा कि “तुम हमारे साथ चलो और ऐसी साक्षी दो कि मैं इस लिङ्ग के शिर पर दूध की धारा वर्षाती थी और वृक्ष कहे कि मैं फूल वर्षाता था, ऐसी साक्षी देओ तो मैं तुमको ठिकाने पर ले चलूं।” उन्होंने कहा कि “हम झूठी साक्षी नहीं देंगे।” तब ब्रह्मा कुपित होकर बोला—“जो साक्षी न दोगे तो मैं तुमको अभी भस्म कर देता हूँ।” तब दोनों ने डरके कहा—“हम जैसी तुम कहते हो, वैसी साक्षी देवेंगे।” तब तीनों नीचे की ओर चले। विष्णु पहले ही आ गये थे, ब्रह्मा भी पहुँचा। विष्णु से पूछा कि “तू थाह ले आया वा नहीं?” तब विष्णु बोला “मुझको इसका थाह नहीं मिला।” ब्रह्मा ने कहा “मैं ले आया।” विष्णु ने कहा “कोई साक्षी दो।” तब गाय और वृक्ष ने साक्षी दी—“हम दोनों लिङ्ग के शिर पर थे।” तब लिङ्ग में से शब्द निकला और शाप दिया जिससे “तू झूठ बोला, इसलिये तेरा फूल मुझ वा अन्य देवता पर जगत् में कहीं नहीं चढ़ेगा और जो कोई चढ़ावेगा उसका सत्यानाश होगा।” गाय को शाप दिया कि “जिस मुख से तू झूठ बोली, उसी से विष्ठा खाया करेगी। तेरे मुख की पूजा कोई न करेगा, किन्तु पूंछ की करेंगे।” और विष्णु को वर दिया “जिससे तू सत्य बोला, इससे तेरी पूजा सर्वत्र होगी।” और ब्रह्मा को स्राप दिया कि जिससे “तू मिथ्या बोला, इसलिये तेरी पूजा संसार में कहीं न होगी।” पुनः दोनों ने लिङ्ग की स्तुति की। उससे प्रसन्न होकर उस लिङ्ग में से एक जटाजूट मूर्त्ति निकल आई और कहा कि “तुमको मैंने सृष्टि करने के लिये भेजा था, झगड़े में क्यों लग रहे?” ब्रह्मा और विष्णु ने कहा कि “हम विना सामग्री सृष्टि कहाँ से करें।” तब महादेव ने अपनी जटा में से भस्म का गोला निकाल कर दिया कि “जाओ, इसमें से सब सृष्टि बनाओ” इत्यादि।

कोई इन पुराणों के बनानेवाले पोपों से पूछे कि जब सृष्टितत्त्व और पञ्चमहाभूत भी नहीं थे तो ब्रह्मा, विष्णु, महादेव के शरीर, जल, कमल, लिङ्ग, गाय और केतकी का वृक्ष और भस्म तुम्हारे बाबा के घर में से आ गिरे?

वैसे ही ‘भागवत’ में विष्णु की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दहिने पग के अंगूठे से स्वायंभुव और बायें अंगूठे से शतरूपा राणी, ललाट से रुद्र और मरीचि आदि दश पुत्र, उनसे दक्ष प्रजापति, उनकी तेरह लड़कियों का विवाह कश्यप से, उनमें से दिति से दैत्य, दनु से दानव, अदिति से आदित्य, विनता से पक्षी, कद्रू से सर्प, सरमा से कुत्ते, स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी, घोड़े, ऊँट, गधा, भैंसा, घास, फूस और बबूर का वृक्ष काँटे सहित उत्पन्न हो गया।

वाह रे! भागवत के बनानेवाले लालभुजक्कड़? तुझ को ऐसी मिथ्या बातें लिखने में लज्जा शर्म न आई। भला स्त्री-पुरुष के रजवीर्य से मनुष्य तो बनते ही हैं परन्तु परमेश्वर की सृष्टिक्रम के विरुद्ध पक्षी, सर्प कभी उत्पन्न नहीं हो सकते। हाथी, ऊँट, सिंह के स्थित होने का अवकाश स्त्री के गर्भाशय में हो सकता है? और सिंह आदि उत्पन्न होकर अपने मा-बाप को क्यों न खा गये? इत्यादि झूठ बातों को वे अन्धे पोप और भीतर-बाहर की आँख फूटे हुए उनके चेले सुनते-मानते हैं। ये मनुष्य हैं वा अन्य हैं? इन भागवतादि पुराणों के बनानेवाले जन्मते नहीं, गर्भ में ही नष्ट हो जाते वा जन्म कर उसी समय मर जाते। क्योंकि इन पापों से बचते, तो आर्यावर्त्त देश दुःखों से बच जाता।

प्रश्न—इन बातों में विरोध नहीं आ सकता। क्योंकि ‘जिसका विवाह उसी के गीत’। जब विष्णु की स्तुति करने लगे, तब विष्णु को परमेश्वर अन्य को दास, जब शिव के गुण गाने लगे, तब शिव को परमात्मा, अन्य को किङ्कर बनाया। और परमेश्वर की माया में सब बन सकता है। मनुष्य से पशु आदि और पशु आदि से मनुष्यादि की उत्पत्ति परमेश्वर कर सकता है। देखो! विना कारण अपनी माया से सब सृष्टि खड़ी कर दी है। उसमें कौनसी बात अघटित है? जो करना चाहै, सो सब कर सकता है।

उत्तर—अरे भोले! विवाह में जिसके गीत गाते हैं, उसको सबसे बड़ा और दूसरों को छोटा वा निन्दा अथवा उसको सबका बाप तो नहीं बनाते? कहो पोपजी! तुम भाट और खुशामदी चारणों से बढ़कर गप्पी हो अथवा नहीं? कि जिसके पीछे लगो; उसी को सबसे बड़ा बनाओ और जिससे विरोध करो, उसको सबसे नीच ठहराओ। तुमको सत्य और धर्म से क्या प्रयोजन, किन्तु तुमको तो अपने स्वार्थ ही से काम है। माया मनुष्य में हो सकती है, जो कि छली-कपटी हैं, उन्हीं को ‘मायावी’ कहते हैं। परमेश्वर में छल-कपटादि दोष न होने से, उसको मायावी नहीं कह सकते। जो आदि सृष्टि में कश्यप और कश्यप की स्त्रियों से पशु, पक्षी, सर्प्प, वृक्षादि हुए होते तो आजकल भी वैसे सन्तान क्यों नहीं होते? सृष्टिक्रम जो पहिले लिख आये वही ठीक है। और अनुमान है कि पोपजी यहीं से धोखा खाकर बके होंगे—

तस्मात् काश्यप्य इमाः प्रजाः॥       [तुलना—शत॰ ७।४।१।५]

शतपथ में यह लिखा है कि यह सब सृष्टि ‘कश्यप’ की बनाई हुई है।

कश्यपः कस्मात् पश्यको भवतीति॥

—निरु॰ [अ॰ २।खं॰ १; तुलना—तै॰ आ॰ १।८]

सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर का नाम ‘कश्यप’ इसलिये है कि ‘पश्यक’ अर्थात् ‘पश्यतीति पश्यः, पश्य एव पश्यकः’ जो निर्भ्रम होकर चराचर जगत्, सब जीव और इनके कर्म, सकल विद्याओं को यथावत् देखता है और ‘आद्यन्तविपर्ययश्च’ इस महाभाष्य [३।१।२३] के वचन से आदि का अक्षर अन्त और अन्त का वर्ण आदि में आने से ‘पश्यक’ से ‘कश्यप’ बन गया है। इसका अर्थ न जान के भांग के लोटे चढ़ा, अपना जन्म सृष्टिविरुद्ध कथन करने में नष्ट किया।

जैसे ‘मार्कण्डेयपुराण’ के दुर्गापाठ में देवों के शरीरों से तेज निकल के एक देवी बनी, उसने ‘महिषासुर’ को मारा। ‘रक्तबीज’ के शरीर से एक बिन्दु भूमि पर पड़ने से उसके सदृश रक्तबीज के उत्पन्न होने से सब जगत् में रक्तबीज भर जाना, रुधिर की नदियाँ चलनी आदि गपोड़े बहुत से लिख रक्खे हैं। जब रक्तबीज से सब जगत् भर गया था तो देवी का सिंह और देवी कहां ठहरी थी? जो कहो कि देवी से दूर-दूर रक्तबीज थे तो सब जगत् रक्तबीज से नहीं भरा था? और सब जंगली पशु, समुद्र की मच्छियाँ, पक्षी, वृक्ष आदि कहाँ रहे थे? यहाँ यही निश्चित जानना कि दुर्गापाठ बनानेवाले के घर में स्थित होंगे। देखिये! क्या ही असम्भव कथा का गपोड़ा भङ्ग की लहरी में उड़ाया, जिसका ठौर न ठिकाना।

जिसको ‘श्रीमद्भागवत’ कहते हैं, उसकी लीला सुनो। ब्रह्माजी को नारायण ने चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश किया है—

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्।

सरहस्यं तदङ्गञ्च गृहाण गदितं मया॥  —भागवत [स्कं॰ २।९।३०]

हे ब्रह्माजी! तू मेरा परमगुह्य ज्ञान जो विज्ञान और रहस्ययुक्त और धर्मार्थ, काम, मोक्ष का अङ्ग साधन है, उसीका मुझ से ग्रहण कर। जब विज्ञानयुक्त ज्ञान कहा तो ‘परम’ अर्थात् ज्ञान का विशेषण परम रखना व्यर्थ है और गुह्य विशेषण से सरहस्य भी पुनरुक्त है। जब मूल श्लोक अनर्थक है तो ग्रन्थ अनर्थक क्यों नहीं? जब भागवत का मूल ही झूठा तो उसका वृक्ष झूठा क्यों नहीं होगा? ब्रह्माजी को वर दिया कि—

भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्॥

—भाग॰ [स्कं॰ २।९] श्लो॰ [। ३६]

आप ‘कल्प’ सृष्टि और विकल्प ‘प्रलय’ में मोह को प्राप्त कभी नहीं होंगे, ऐसा लिखके पुनः दशमस्कन्ध में मोहित होके वत्सहरण किया। इन दोनों में से एक बात सच्ची, दूसरी झूठी। ऐसा होकर दोनों बात झूठी। जब वैकुण्ठ में राग, द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, दुःख नहीं है तो सनकादिकों को वैकुण्ठ के द्वार में क्रोध क्यों हुआ? जो क्रोध हुआ तो वह स्वर्ग ही नहीं। जब जय, विजय द्वारपाल थे, स्वामी की आज्ञा पालनी अवश्य थी। उन्होंने सनकादिकों को रोका, तो क्या अपराध हुआ? इस पर विना अपराध शाप ही नहीं लग सकता। जब शाप लगा कि तुम पृथिवी में गिर पड़ो, इसके कहने से यह सिद्ध होता है कि वहां पृथिवी न होगी। आकाश, वायु, अग्नि और जल होगा। जो ऐसा, तो द्वार, मन्दिर और जल किसके आधार थे? पुनः जय, विजय ने सनकादिकों की स्तुति की ‘महाराज! पुनः हम वैकुण्ठ में कब आवेंगे?” उन्होंने उनसे कहा कि “जो प्रेम से नारायण की भक्ति करोगे तो सातवें जन्म और जो विरोध से भक्ति करोगे तो तीसरे जन्म वैकुण्ठ को प्राप्त होगे।” इसमें विचारना चाहिये कि जय, विजय नारायण के नौकर थे। उनकी रक्षा और सहाय करना नारायण का कर्तव्य काम था। जो अपने नौकरों को विना अपराध दुःख देवें, उनको उनका स्वामी दण्ड न देवे तो उसके नौकरों की दुर्दशा हर कोई कर डाले। नारायण को उचित था कि जय, विजय का सत्कार और सनकादिकों को खूब दण्ड देते, क्योंकि उन्होंने भीतर आने के लिये हठ क्यों किया? और नौकरों से लड़े, क्यों शाप दिया? उनके बदले सनकादिकों को पृथिवी में डाल देना नारायण का न्याय था। जब इतना अन्धेर नारायण के घर में है, तो उसके सेवक जोकि वैष्णव कहाते हैं, उनकी जितनी दुर्दशा हो, उतनी थोड़ी है।

पुनः वे ‘हिरण्याक्ष’ और ‘हिरण्यकशिपु’ उत्पन्न हुए। उनमें से हिरण्याक्ष को वराह ने मारा। उसकी कथा इस प्रकार से लिखी है कि वह पृथिवी को चटाई के समान लपेट, शिराने धर सो गया। विष्णु [ने] वराह का स्वरूप धारण करके, उसके शिर के नीचे से पृथिवी को मुख में धर लिया। वह उठा। दोनों की लड़ाई हुई। वराह ने हिरण्याक्ष को मार डाला।

इन पोपों से कोई पूछे कि पृथिवी गोल है वा चटाई के तुल्य? तो कुछ न कह सकेंगे, क्योंकि पौराणिक लोग भूगोलविद्या के शत्रु हैं। भला, जब लपेटकर शिराने धरली, आप किस पर सोया? और वराहजी किस पर पग धर दौड़ आये? और फिर पृथिवी को तो वराहजी ने मुख में रक्खी फिर दोनों किस पर खड़े होकर लड़े? वहाँ और कोई ठहरने की जगह नहीं थी। किन्तु भागवतादि पुराण बनानेवाले पोपजी की छाती पर ठड़े होके लड़े होंगे? और फिर उस समय पोपजी किस पर सोया होगा? यह बात—‘गप्पी के घर गप्पी आये, बोलो गप्पीजी’ जब मिथ्यावादियों के घरों में दूसरे गप्पी लोग आते हैं, फिर गप्प मारने में क्या कमती, इस प्रकार की है।

अब रहा हिरण्यकशिपु, उसका लड़का जो ‘प्रह्लाद’ था वह भक्त हुआ था। उसका बाप पढ़ने को भेजता था। तब वह अध्यापकों से कहता था “मेरी पट्टी में राम-राम लिख देओ।” जब उसके बाप ने सुना, उससे कहा “तू हमारे शत्रु का भजन क्यों करता है?” छोकरे ने न माना। तब उसके बाप ने उसको बाँध के पहाड़ से गिराया, कूप में डाला, परन्तु उसको कुछ न हुआ। तब उसने एक लोहे का खम्भा आगी में तपाके उससे बोला जो तेरा इष्टदेव ‘राम’ सच्चा हो तो तू इसको पकड़ने से न जलेगा। प्रह्लाद पकड़ने को चला। मन में शङ्का हुई जलने से बचूंगा वा नहीं? नारायण ने उस खम्भे पर छोटी-छोटी चीटियों की पंक्ति चलाई। उसको निश्चय हुआ, झट खम्भे को जा पकड़ा। वह फट गया, उसमें से नृसिंह निकला। उसके बाप को पकड़ पेट चीर मार डाला। और तब प्रह्लाद को चाटने लगा। प्रह्लाद से कहा “वर माँग।” उसने अपने पिता की सद्गति होनी मांगी। नृसिंह ने वर दिया “तेरे इक्कीस पुरुषे सद्गति को गये।”

देखिये! यह भी दूसरे गपोड़े का भाई गपोड़ा। किसी भागवत बाँचने वा सुननेवाले को पकड़ के ऊपर पहाड़़ से गिरावे तो कोई न बचावे, किन्तु चकनाचूर होकर मर जाय। प्रह्लाद को उसका पिता पढ़ने के लिये भेजता था, क्या बुरा काम किया था? और वह प्रह्लाद ऐसा मूर्ख, पढ़ना छोड़ वैरागी होना चाहता था। जो जलते हुए खम्भे से कीड़ी और प्रह्लाद न जला, इस बात को जो सच्ची माने उसको भी खम्भे के साथ लगा देना चाहिये। जो यह न जले तो जानो वह भी न जला होगा। और नृसिंह भी क्यों न जला? प्रथम तीसरे जन्म में वैकुण्ठ में आने का वर सनकादिक का था। क्या उसको तुम्हारा नारायण भूल गया? भागवत की रीति से ब्रह्मा, प्रजापति, कश्यप, हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु चौथी पीढ़ी में होता है। इक्कीस पीढ़ी प्रह्लाद की हुई ही नहीं, पुनः “इक्कीस पुरुषे सद्गति को गये” कहना कितना प्रमाद है! और फिर वे ही हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, रावण-कुम्भकरण, पुनः शिशुपाल-दन्तवक्त्र उत्पन्न हुए तो नृसिंह का वर कहाँ उड़ गया? ऐसी प्रमाद की बातें प्रमादी करते, सुनते और मानते हैं, विद्वान् नहीं।

पूतना और अक्रूरजी के विषय में देखो —

रथेन वायुवेगेन     [भा॰ स्कं॰ १०। पूर्वार्द्ध ३९।३८]

जगाम गोकुलं प्रति॥        [भा॰ स्कं॰ १०।३८।१]

अक्रूरजी कंस के भेजने से वायु के समान दौड़नेवाले घोड़ों के रथ में बैठके सूर्योदय से चले और चार मील गोकुल में सूर्यास्त समय पहुँचे। सायत घोड़े भागवत बनानेवाले की परिक्रमा करते रहे होंगे? वा मार्ग भूलकर भागवत बनानेवाले के घर में घोड़े हाकनेवाले और अक्रूरजी सो गए होंगे?

पूतना का शरीर छः कोश चौड़ा और बहुत सा लम्बा लिखा है। मथुरा और गोकुल के बीच में उसको मारकर श्रीकृष्ण ने डाल दिया। जो ऐसा होता तो मथुरा और गोकुल दोनों दबकर इस पोपजी का घर भी दब गया होता।

‘अजामेल’ की कथा ऊटपटाँग लिखी है—उसने नारद के कहने से अपने लड़के का नाम ‘नारायण’ रक्खा था। मरते समय अपने पुत्र को पुकारा। बीच में नारायण कूद पड़े। क्या नारायण उसके अन्तःकरण के भाव को नहीं जानते थे कि वह अपने पुत्र को पुकारता है, मुझको नहीं। जो ऐसा ही नाम माहात्म्य है तो आजकल भी नारायण के स्मरण करनेवालों के दुःख छुड़ाने को क्यों नहीं आता? यदि यह बात सच्ची हो, तो क़ैदी लोग नारायण-नारायण करके क्यों नहीं छूट जाते।

ऐसा ही ज्योतिष शास्त्र से विरुद्ध सुमेरु का परिमाण लिखा है, प्रियव्रत के रथ के चक्र की लीक से समुद्र हुए। पचास कोटि योजन पृथिवी है, इत्यादि मिथ्या बातों का भागवत में कुछ पारावार नहीं।

और यह भागवत ‘बोपदेव’ का बनाया है, जिसके भाई ‘जयदेव’ ने ‘गीतगोविन्द’ बनाया है। उसने देखो ये श्लोक अपने बनाये ‘हिमाद्रि’ में लिखे हैं कि ‘श्रीमद्भागवत’ मैंने बनाया है, उस लेख के तीन पत्र हमारे पास थे। उनमें से एक पत्र खो गया है। उस पत्र में श्लोकों का जो आशय था उस आशय के हमने दो श्लोक बना के नीचे लिखे हैं, जिसको देखना हो, वह हिमाद्रि ग्रन्थ में देख लेवे। श्लोक—

हिमाद्रेः सचिवस्यार्थे सूचना क्रियतेऽधुना।

स्कन्धाऽध्यायकथानां च यत्प्रमाणं समासतः॥१॥

श्रीमद्भागवतं नाम पुराणं च मयेरितम्।

विदुषा बोबदेवेन श्रीकृष्णस्य यशोन्वितम्॥२॥

इसी प्रकार के नष्टपत्र में श्लोक थे। अर्थात् राजा के सचिव हिमाद्रि ने बोबदेव पण्डित से कहा कि “मुझको तुम्हारे बनाये श्रीमद्भागवत के सम्पूर्ण सुनने का अवकाश नहीं है, इसलिये तुम संक्षेप से श्लोकबद्ध सूचीपत्र बनाओ, जिसको देखके मैं श्रीमद्भागवत की कथा को संक्षेप से जान लूं।” सो नीचे लिखा हुआ सूचीपत्र उस बोबदेव ने बनाया। उसमें से उस नष्टपत्र में दश १० श्लोक खो गये हैं, ग्यारहवें श्लोक से लिखते हैं। ये नीचे लिखे श्लोक सब बोबदेव के बनाए हैं। वे श्लोक—

बोधयन्तीति हि प्राहुः श्रीमद्भागवतं पुनः।

पञ्च प्रश्नाः शौनकस्य सूतस्यात्रोत्तरं त्रिषु॥११॥

प्रश्नावतारयोश्चैव व्यासस्यानिर्वृतिः कृतात्।

नारदस्यात्र हेतूक्तिः प्रतीत्यर्थं स्वजन्म च॥१२॥

सुप्तघ्नं द्रोण्यभिभवस्तदस्त्रात्पाण्डवा वनम्।

भीष्मस्य स्वपदप्राप्तिः कृष्णस्य द्वारकागमः॥१३॥

श्रोतुः परीक्षितो जन्म धृतराष्ट्रस्य निर्गमः।

कृष्णमर्त्यत्यागसूचा ततः पार्थमहापथः॥१४॥

इत्यष्टादशभिः पादैरध्यायार्थः क्रमात् स्मृतः।

स्वपरप्रतिबन्धोनं स्फीतं राज्यं जहौ नृपः॥१५॥

इति वै राज्ञो दार्ढ्योक्तौ प्रोक्ता द्रौणिजयादयः।

इति प्रथमः स्कन्धः॥१॥

इत्यादि बारह स्कन्धों का सूचीपत्र इसी प्रकार बोबदेव पण्डित ने बनाकर हिमाद्रि सचिव को दिया। जो विस्तार देखना चाहै, वह बोपदेव के बनाये हिमाद्रि ग्रन्थ में देख लेवे। इसी प्रकार अन्य पुराणों की लीला भी उन्नीस-बीस—इक्कीस एक-दूसरे से बढ़कर है।

देखो! श्रीकृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव, चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण=बुरा काम श्रीकृष्ण ने जन्म से मरणपर्यन्त किया हो, ऐसा नहीं लिखा। और भागवत में दूध, दही, मक्खन की चोरी, कुब्जादासी से समागम, परस्त्रियों से रासमण्डल, क्रीडा आदि मिथ्या दोष श्रीकृष्ण में लगाये हैं। इसको पढ़-पढ़ा सुन-सुनाके अन्य मतवाले श्रीकृष्ण की बहुत-सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत न होता तो श्रीकृष्णजी के सदृश महात्माओं की झूठी निन्दा क्यों होती?

शिवपुराण में बारह ज्योतिर्लिङ्ग लिखे हैं। उनकी कथा सर्वथा असम्भव है। नाम धरा है ज्योतिर्लिङ्ग और जिनमें प्रकाश का लेश भी नहीं। रात्रि को विना दीप किये लिङ्ग भी अन्धेरे में नहीं दीखते, ये सब लीला पोपजी की हैं।

प्रश्न—जब वेद पढ़ने का सामर्थ्य नहीं रहा तब स्मृति, जब स्मृति के पढ़ने की बुद्धि नहीं रही तब शास्त्र, जब शास्त्र पढ़ने का सामर्थ्य न रहा तब पुराण बनाये केवल स्त्री-शूद्रों के लिये, क्योंकि इनको वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार नहीं है।

उत्तर—यह बात मिथ्या है। क्योंकि सामर्थ्य पढ़ने-पढ़ाने ही से होता है और वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार सबको है। देखो! गार्गी आदि स्त्रियाँ और छान्दोग्य [प्रपाठक ४। खं॰ २। प्रवाक २] में जानश्रुति शूद्र ने भी वेद ‘रैक्यमुनि’ के पास पढ़ा था। और यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने-सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है। पुनः जो ऐसे-ऐसे मिथ्याग्रन्थ बना, लोगों को सत्यग्रन्थों से विमुख रख, जाल में फसा, अपने प्रयोजन को साधते हैं, वे महापापी क्यों नहीं?

देखो! ग्रहों का चक्र कैसा चलाया है कि जिसने विद्याहीन मनुष्यों को ग्रसित कर लिया है।

‘आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒०’॥१॥   [यजुः ३३।४३]

—सूर्य्य का मन्त्र।

‘इ॒मं दे॑वाऽअसप॒त्नᳬ सु॑वध्वम्॰’॥२॥ [यजुः ९।४०]

—चन्द्र।

‘अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑०’॥३॥    [यजुः ३।१२]—मङ्गल।

‘उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒०’॥४॥ [यजुः १५।५४]—बुध।

‘बृह॑स्पते॒ अति॒यद॒र्यो॰’॥५॥ [यजुः २६।३]—बृहस्पति।

‘शु॒क्रमन्ध॑सः॒’॥६॥ [यजुः १९।७२]—शुक्र।

‘शन्नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒०’॥७॥   [यजुः ३६।१२]—शनि।

‘कया॑ नश्चि॒त्र आ भु॑व॰’॥८॥ [यजुः २७।३९]—राहु। और

‘के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒०’॥९॥   [यजुः २९।३७]

—केतु की कण्डिका कहते हैं।

(आ कृष्णे॰) यह सूर्य्य और भूमि का आकर्षण॥१॥

दूसरा—राजगुण विधायक॥२॥

तीसरा—अग्नि॥३॥

और चौथा—यजमान॥४॥

पाँचवाँ—विद्वान्॥५॥

छठा—वीर्य्य, अन्न॥६॥

सातवाँ—जल, प्राण और परमेश्वर॥७॥

आठवाँ—मित्र॥८॥

नववाँ—ज्ञानग्रहण के विधायक मन्त्र हैं॥९॥

ग्रहों के वाचक नहीं। अर्थ न जानने से भ्रमजाल में पड़े हैं।

प्रश्न—ग्रहों का फल होता है, वा नहीं?

उत्तर—जैसा पोपलीला का है, वैसा नहीं। किन्तु जैसा सूर्य्य-चन्द्रमा की किरण द्वारा उष्णता-शीतता अथवा ऋतुवत्कालचक्र के सम्बन्धमात्र से अपनी प्रकृति के अनुकूल-प्रतिकूल सुख-दुःख के निमित्त होते हैं। परन्तु जो पोपलीलावाले कहते हैं “सुनो महाराज! सेठजी! यजमानो! तुम्हारे आज आठवाँ चन्द्र-सूर्य्यादि क्रूर घर में आये हैं। अढ़ाई वर्ष का शनैश्चर पग में आया है। तुमको बड़ा विघ्न होगा। घर-द्वार छुड़ाकर परदेश में घुमावेगा। परन्तु जो तुम ग्रहों का दान, जप, पाठ, पूजा कराओगे तो दुःख से बचोगे।” इनसे कहना चाहिये कि “सुनो पोपजी! तुम्हारा और ग्रहों का क्या सम्बन्ध है? ग्रह क्या वस्तु है।”

पोपजी—  दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः।

ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद् ब्राह्मणदैवतम्॥

देखो! कैसा प्रमाण है। देवताओं के आधीन सब जगत्, मन्त्रों के आधीन सब देवता और वे मन्त्र ब्राह्मणों के आधीन हैं, इसलिये ब्राह्मण ‘देवता’ कहाते हैं। क्योंकि चाहे उस देवता को मन्त्र के बल से बुला, प्रसन्न कर, काम सिद्धि कराने का हमारा ही अधिकार है जो हममें मन्त्रशक्ति न होती तो तुम्हारे से नास्तिक हमको संसार में रहने ही न देते।

सत्यवादी—जो चोर, डाकू, कुकर्मी लोग हैं, वे भी तुम्हारे देवताओं के आधीन होंगे? देवता ही उनसे दुष्ट काम कराते होंगे? जो वैसा है तो तुम्हारे देवता और राक्षसों में कुछ भेद न रहेगा। जो तुम्हारे आधीन मन्त्र हैं, उनसे तुम चाहो सो करा सकते हो तो उन मन्त्रों से देवताओं को वश कर राजाओं के कोष उठवाकर, अपने घर में भरकर, बैठ के आनन्द क्यों नहीं भोगते? घर-घर में शनैश्चरादि के तैल आदि का छायादान लेने को मारे-मारे क्यों फिरते हो? और जिसको तुम कुबेर मानते हो उसको वश में करके चाहो जितना धन लिया करो। बिचारे गरीबों को क्यों लूटते हो?

तुम को दान देने से ग्रह प्रसन्न, न देने से अप्रसन्न होते हों, तो हमको सूर्य्यादि ग्रहों की प्रसन्नता-अप्रसन्नता प्रत्यक्ष दिखलाओ। जिसको आठवाँ सूर्य चन्द्र और दूसरे को तीसरा हो, उन दोनों को ज्येष्ठ महीने में विना जूते पहिने हुये तपी हुई भूमि पर चलाओ। जिस पर प्रसन्न हैं उसके पग शरीर न जलने और जिस पर क्रोधित हैं उसके जल जाने चाहियें। तथा पौष-माघ में दोनों को नंगे कर पौर्णमासी की रात्रिभर मैदान में रक्खें। एक को शीत लगे, दूसरे को नहीं तो जानो कि ग्रह क्रूर और सौम्य दृष्टिवाले होते हैं। और क्या तुम्हारे ग्रह सम्बन्धी हैं? और तुम्हारी डाक वा तार उनके पास आता-जाता है? अथवा तुम उनके वा वे तुम्हारे पास आते-जाते हैं?

जो तुममें मन्त्रशक्ति हो तो तुम स्वयं राजा वा धनाढ्य क्यों नहीं बन जाओ? वा शत्रुओं को अपने वश में क्यों नहीं कर लेते हो? नास्तिक वह होता है, जो वेद ईश्वर की आज्ञा, वेदविरुद्ध पोपलीला चलावे। जब तुमको ग्रहदान न देवे जिस पर ग्रह है, वही ग्रहदान को भोगे तो क्या चिन्ता है? जो तुम कहो कि नहीं, हम ही को देने से वे प्रसन्न होते हैं, अन्य को देने से नहीं तो क्या तुमने ग्रहों का ठेका ले लिया है? जो ठेका लिया हो तो सूर्य्यादि को अपने घर में बुलाके जल मरो।

सच तो यह है कि सूर्य्यादि लोक जड़ हैं। वे न किसी को दुःख और न सुख देने की चेष्टा कर सकते हैं किन्तु जितने तुम ग्रहदानोपजीवी हो, वे सब तुम ग्रहों की मूर्त्तियाँ हो, क्योंकि ‘ग्रह’ शब्द का अर्थ भी तुममें ही घटित होता है। ‘ये गृह्णन्ति ते ग्रहाः’ जो ग्रहण करते हैं, उनका नाम ‘ग्रह’ है। जबतक तुम्हारे चरण राजा, रईस, सेठ,साहूकार और दरिद्रों के पास नहीं पहुँचते, तबतक किसी को ग्रह का स्मरण भी नहीं होता। जब तुम साक्षात् सूर्य-शनैश्चरादि मूर्त्तिमान् क्रूर रूप धर उनपर जा चढ़ते हो, तब विना ग्रहण किये उनको कभी नहीं छोड़ते और जो कोई तुम्हारे ग्रास में न आवे, उसकी निन्दा नास्तिकादि शब्दों से करते-फिरते हो।

पोपजी—देखो! ज्योतिष का प्रत्यक्ष फल। आकाश में रहनेवाले सूर्य, चन्द्र, राहु, केतु का संयोगरूप ‘ग्रहण’ को पहिले ही कह देते हैं। जैसा यह प्रत्यक्ष होता है, वैसा ग्रहों का फल भी प्रत्यक्ष हो जाता है। देखो! धनाढ्य, दरिद्र, राजा, रङ्क, सुखी, दुःखी ग्रहों ही से होते हैं।

सत्यवादी—जो यह ग्रहणरूप प्रत्यक्ष फल है सो गणितविद्या का है, फलित का नहीं। जो गणितविद्या है वह सच्ची और फलितविद्या स्वाभाविक सम्बन्धजन्य को छोड़ के झूठी है। जैसे अनुलोम-प्रतिलोम घूमनेवाले पृथिवी और चन्द्र के गणित से स्पष्ट विदित होता है कि अमुक समय, अमुक देश, अमुक अवयव में सूर्य्य वा चन्द्र ग्रहण होगा। जैसे—

छादयत्यर्कमिन्दुर्विधुं भूमिभाः।

यह [ग्रहलाघवचन्द्रग्रहण ५.४] का वचन [है]

और इसी प्रकार ‘सूर्यसिद्धान्तादि’ में भी है। अर्थात् जब सूर्य-भूमि के मध्य में चन्द्रमा आता है तब ‘सूर्यग्रहण’ और जब सूर्य्य और चन्द्र के बीच में भूमि आती है तब ‘चन्द्रग्रहण’ होता है। अर्थात् चन्द्र की छाया भूमि पर और भूमि की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है। सूर्य प्रकाशरूप होने से उसके सम्मुख छाया किसी की नहीं पड़ती किन्तु जैसे प्रकाशमान सूर्य्य वा दीप से देहादि की छाया उल्टी जाती है, वैसे ही ग्रहण में समझो।

जो धनाढ्य, दरिद्र, राजा, रङ्क होते हैं, वे अपने कर्मों से होते हैं, ग्रहों से नहीं। बहुत से ज्योतिषी लोग अपने लड़का-लड़की का विवाह ग्रहों के गणित के अनुसार करते हैं, पुनः उनमें विरोध वा विधवा अथवा मृतस्त्री-पुरुष हो जाता है। जो फल सच्चा होता तो ऐसा क्यों होता? इसलिये कर्म की गति सच्ची और ग्रहों की गति सुख-दुःख भोग में कारण नहीं। भला, ग्रह आकाश में और पृथिवी भी आकाश में बहुत दूर पर हैं, इनका सम्बन्ध कर्त्ता और कर्मों के साथ साक्षात् नहीं। कर्म्म और कर्म्म के फल का कर्त्ता-भोक्ता जीव, और कर्मों के फल भोगानेहारा परमात्मा है। जो तुम ग्रहों का फल मानो तो इसका उत्तर दो कि जिस क्षण में एक मनुष्य का जन्म होता है जिसको तुम ‘ध्रुवात्रुटि’ मानकर जन्मपत्र बनाते हो, उसी समय में भूगोल पर दूसरे का जन्म होता है वा नहीं? जो कहो नहीं, तो झूठ और जो कहो होता है तो एक चक्रवर्त्ती के सदृश भूगोल में दूसरा चक्रवर्त्ती राजा क्यों नहीं होता? हाँ, इतना तुम कह सकते हो कि यह लीला हमारे उदर भरने की है तो कोई मान भी लेवे।

प्रश्न—क्या गरुड़पुराण भी झूठा है?

उत्तर—हाँ, असत्य है।

प्रश्न—फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?

उत्तर—जैसे उसके कर्म हैं।

प्रश्न—जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उसके बड़े भयङ्कर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं, पाप-पुण्य के अनुसार नरक-स्वर्ग में डालते हैं। उसके लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि वैतरणी नदी तरने के लिये करते हैं। ये सब बात झूठ क्योंकर हो सकती हैं।

उत्तर—ये सब बातें पोपलीला के गपोड़े हैं। जो अन्यत्र के जीव वहाँ जाते हैं, उनका धर्मराज, चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो वे यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहाँ के न्यायाधीश उनका न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरनेवाले जीव को लेने में छोटे द्वार में उनकी एक अङ्गुली भी नहीं जा सकती और सड़क-गली में क्यों नहीं रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बड़े-बड़े हाड़ पोपजी विना अपने घर के कहां धरेंगे? जब जङ्गल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उनको पकड़ने के लिये असंख्य यम के गण आवें तो वहाँ अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उनके शरीर ठोकर खा जायंगे तो जैसे पहाड़ के बड़े-बड़े शिखर टूटकर पृथिवी पर गिरते हैं, वैसे उनके बड़े-बड़े अवयव गरुड़पुराण के बाँचने-सुनने वालों के आँगन में गिर पड़ेंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे? श्राद्ध, तर्पण, पिण्डप्रदान उन मरे हुए जीवों को तो नहीं पहुँचता, किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोपजी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है। जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं, वह तो पोपजी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुँचता है। वैतरणी पर गाय नहीं जाती, पुनः किसकी पूँछ पकड़ कर तरेगा? और हाथ तो यहीं जला वा गाड़ दिया गया, पूँछ को कैसे पकड़ेगा? यहां एक जाट का दृष्टान्त इस बात में उपयुक्त है—

एक जाट था। उसके घर में गाय वीस सेर दूध देनेवाली थी। दूध बड़ा स्वादिष्ट होता था। कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था। उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बुड्ढा बाप मरने लगेगा तब इस गाय का सङ्कल्प करा लेंगे। दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया। जीभ बन्द हो गई और खटिये से नीचे उतार सुवाया। बहुत से जाट के सम्बन्धी उपस्थित थे। उस समय पोपजी पुकारा—“लो यजमान! इसके हाथ से गोदान कराओ।” जाट ने दश रुपया निकाल, पिता के हाथ में रखकर बोला—“पढ़ो सङ्कल्प!” पोपजी बोले—“वाह! बाप वारम्वार मरता है? साक्षात् गाय लाओ, वह दूध भी देती हो, बुड्ढी न हो और सब प्रकार उत्तम हो।”

जाट—एक गाय हमारे है, उसके विना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह नहीं हो सकता, उसको न दूंगा। लो ये वीस रुपये का सङ्कल्प। तुम दूसरी गाय ले लेना।

पोपजी—वाहजी वाह! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? अपने पिता को वैतरणी में डुबा, दुःख देना चाहते हो? तुम अच्छे सुपुत्र हुए! तब तो पोपजी की ओर सब कुटुम्बी हो गये, क्योंकि उन सबको पहिले ही से पोपजी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान उसी पोपजी को दिला दिया। उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया। पोपजी गाय, बछड़ा और दूध दोहने की बटलोही लेकर, घर में जा, गाय-बछड़े को बांध, बटलोही को धर, यजमान के घर आया, श्मशान में ले जा, दाह किया। वहाँ भी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई। पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा। महाब्राह्मणों ने भी लूटा, भुक्खड़ों ने भी बहुत-सा माल पेट में भरा। जब सब हो चुका, तब जाट ने जिस-किसी के घर से दूध माँग-मूंग निर्वाह किया। चौदहवें दिन प्रातःकाल पोपजी के घर पहुँचा। देखा तो गाय को दुह, बटलोई भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी। इतने ही में जाटजी पहुँचे। पोपजी ने कहा आइये बैठिये!

जाटजी—तुम भी इधर आओ।

पोपजी—अच्छा दूध धर आऊँ।

जाटजी—नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ। पोपजी जा, बटलोई सामने धर, बैठे।

जाटजी—तुम बड़े झूठे हो।

पोपजी—क्या झूठ किया?

जाटजी—गाय किसलिये ली थी?

पोपजी—तुम्हारे बाप के वैतरणी तरने के लिये।

जाटजी—फिर तुमने वैतरणी के किनारे क्यों न पहुँचाई? हम तुम्हारे भरोसे पर रहे। न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे?

पोपजी—नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बन गई। तुम्हारे बाप को पार उतार दिया।

जाटजी—वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है?

पोपजी—अनुमान तीस करोड़ कोश दूर है। क्योंकि पचास कोटि योजन पृथिवी है और दक्षिण नैऋर्त दिशा में वैतरणी नदी है।

जाटजी—इतनी दूर से तुम्हारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहां पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ?

पोपजी—हमारे पास ‘गरुड़पुराण’ के लेख के विना डाक वा तारवर्की दूसरी कोई नहीं।

जाटजी—इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें?

पोपजी—जैसे सब मानते हैं।

जाटजी—यह पुस्तक तुम्हारे पुरुषाओं ने तुम्हारी जीविका के लिये बनाया है। क्योंकि पिता को विना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं। जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी के किनारे गाय पहुँचा दूंगा और उनको पार उतार, पुनः गाय को घर में ले आ, दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ! दूध की भरी हुई बटलोही, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला।

पोपजी—तुम दान देकर लेते हो, तुम्हारा सत्यानाश हो जायगा।

जाटजी—चुप रहो! नहीं तो तेरह दिन तक दूध के विना जितना दुःख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूंगा। तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले, अपने घर पहुँचे।

जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले।

जो ये लोग कहते हैं कि दशगात्र के पिण्डों से दश अङ्ग, सपिण्डी करने से शरीर के साथ जीव का मेल होके, अङ्गुष्ठमात्र शरीर बनके, पश्चात् यमलोक को जाता है तो मरती समय यमदूतों का आना व्यर्थ होता है। त्रयोदशाह के पश्चात् आना चाहिये। जो शरीर बन जाता हो तो अपनी स्त्री, सन्तान और मित्रों के मोह से क्यों नहीं आ जाता?

प्रश्न—स्वर्ग में कुछ भी नहीं मिलता, जो दान किया जाता है, वही वहाँ मिलता है। इसलिये सब दान करने चाहियें।

उत्तर—उस तुम्हारे स्वर्ग से यही लोक अच्छा, जिसमें धर्मशाला है, लोग दान देते हैं, इष्ट-मित्र और जाति में खूब निमन्त्रण होते हैं, अच्छे-अच्छे वस्त्र मिलते हैं, तुम्हारे कहने प्रमाणे स्वर्ग में कुछ भी नहीं मिलता है। ऐसे निर्दय, कृपण, कंगले स्वर्ग में पोपजी जाके खराब होवें, वहां भले मनुष्यों का क्या काम?

प्रश्न—जब तुम्हारे कहने से यमलोक और यम नहीं हैं तो मरकर जीव कहाँ जाता और इनका न्याय कौन करता है?

उत्तर—तुम्हारे गरुड़पुराण का कहा तो अप्रमाण है। परन्तु जो वेदोक्त है कि—

यमेन॥ वायुना॥ [ऋग्भाष्य ७.३३.१२]

सत्यराजन्॥ [यजुः २०।४; तुलना—ऋ॰ १०।१४।४]

इत्यादि वेदवचनों से निश्चय है कि ‘यम’ नाम वायु का है; शरीर छोड़ ‘वायु’ के साथ अन्तरिक्ष में जीव रहते हैं; और जो सत्यकर्त्ता पक्षपातरहित परमात्मा ‘धर्म्मराज’ है, वही सबका न्यायकर्त्ता है।

प्रश्न—तुम्हारे कहने [से] गोदानादि किसी को न देना, और न कुछ दानपुण्य करना, ऐसा सिद्ध होता है।

उत्तर—यह तुम्हारा कहना सर्वथा व्यर्थ है। क्योंकि सुपात्रों को, परोपकारियों को परोपकारार्थ सोना, चाँदी, हीरा, मोती, माणिक, अन्न, जल, स्थान, वस्त्र, गाय आदि दान अवश्य करना उचित है किन्तु कुपात्रों को कभी न देना चाहिये।

प्रश्न—कुपात्र और सुपात्र का लक्षण क्या है?

उत्तर—जो छली, कपटी, स्वार्थी, विषयी, काम, क्रोध, लोभ, मोह से युक्त, परहानि करनेवाले, लम्पट, मिथ्यावादी, अविद्वान्, कुसङ्गी, आलसी, जो कोई दाता हो उसके पास वारम्वार माँगना, धरना देना, ना किये पर भी हठ से माँगते जाना, सन्तोष न होना, जो न दे उसकी निन्दा, शाप, गालि-प्रदानादि, अनेक वार जो सेवा करे और एक वार न करे तो उसके शत्रु बन जाना, ऊपर से साधु वेश बना लोगों को बहकाकर ठगना और अपने पास पदार्थ हो, तो भी ‘मेरे पास कुछ भी नहीं है’ कहना, सब की खुशामद करना, रात-दिन भीख माँगने ही में प्रवृत्त रहना, निमन्त्रण दिये पर खूब भांग आदि मादक द्रव्य पीकर बहुत खाना, मस्त होकर पागल वा प्रमादी होना, सत्य-मार्ग का विरोध और झूठ-मार्ग अपने प्रयोजनार्थ चलाना, अपने चेलों को अपनी ही सेवा का उपदेश करना, अन्य योग्य पुरुषों की सेवा का नहीं। विद्यादि प्रवृत्ति के विरोधी, जगत् के व्यवहार अर्थात् स्त्री, पुरुष, माता, पिता, सन्तान, राजा, प्रजा, इष्टमित्रों में अप्रीति कराना कि ये सब असत्य हैं, जगत् भी मिथ्या है, इत्यादि दुष्ट उपदेश करना आदि ‘कुपात्रों’ के लक्षण हैं।

और जो ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय, वेदादिविद्यापठनपाठनशील, सत्यवादी, परोपकारप्रिय, पुरुषार्थी, उदार, विद्या-धर्म में निरन्तर उन्नति करनेहारे, धर्मात्मा, शान्त, निन्दा-स्तुति में हर्ष-शोकरहित, निर्भय, उत्साही, योगी, ज्ञानी, सृष्टिक्रम-वेदाज्ञा-ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभावानुकूल वर्त्तमान करनेहारे, न्याय की रीतियुक्त, पक्षपातरहित, सत्योपदेश और सत्यशास्त्रों के पढ़ने-पढ़ानेहारोें के परीक्षक, किसी की खुशामद न करें, प्रश्नों के ठीक-ठीक समाधानकर्त्ता, अपने आत्मा के तुल्य अन्य का भी सुख-दुःख, हानि-लाभ समझनेवाले, अविद्यादि क्लेश-हठ-दुराग्रहाऽभिमान-रहित, अमृत के तुल्य अपमान और मान को विष के तुल्य समझनेवाले, सन्तोषी, जो कोई प्रीति से जितना देवे उतने ही से प्रसन्न, एक वार आपत्काल में माँगे भी, न देने वा वर्जने पर भी दुःख वा बुरी चेष्टा न करना, वहाँ से झट हट जाना, उसकी निन्दा न करना, सुखी के साथ मित्रता, दुःखी पर करुणा, पुण्यात्माओं से आनन्द और पापियों से ‘उपेक्षा’ अर्थात् प्रीति-द्वेषरहित रहना, सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, निष्कपट, ईर्ष्या-द्वेषरहित, गम्भीराशय, सत्पुरुष, धर्म से युक्त और सर्वथा दुष्टाचार से रहित, अपने तन-मन-धन को परोपकार में लगानेवाले, पराए सुख के लिये अपने प्राणों को भी समर्पितकर्त्ता इत्यादि शुभलक्षणयुक्त ‘सुपात्र’ होते हैं। परन्तु दुर्भिक्षादि आपत्काल में अन्न, जल, वस्त्र और औषध, पथ्य, स्थान के अधिकारी सब प्राणी होते हैं।

प्रश्न—दाता कितने प्रकार के होते हैं?

उत्तर—तीन प्रकार के—उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। ‘उत्तम दाता’ उसको कहते हैं जो देश, काल और पात्र को [जानकर,] सत्यविद्या धर्म की उन्नतिरूप परोपकारार्थ दान देवे। ‘मध्यम’ वह है जो कीर्त्ति वा स्वार्थ के लिये दान करे। ‘नीच’ वह है कि अपना वा पराया कुछ उपकार न कर सके, किन्तु वेश्यागमनादि वा भांड-भाटों आदि को देवे, देते समय तिरस्कार अपमानादि भी करे, पात्र-कुपात्र का कुछ भी भेद न जाने, किन्तु ‘सब अन्न बारह पसेरी’ बेचनेवालों के तुल्य विवाद-लड़ाई, दूसरे धर्मात्मा को दुःख देकर सुखी होने के लिए दिया करे, वह ‘अधम’ दाता है। अर्थात् जो परीक्षापूर्वक विद्वान् धर्मात्माओं का सत्कार करे, वह ‘उत्तम’ और कुछ परीक्षा करे वा न करे परन्तु जिसमें अपनी प्रशंसा हो उसको करे, वह ‘मध्यम’ और जो अन्धाधुन्ध परीक्षारहित निष्फल दान दिया करे, वह ‘नीच’ दाता कहाता है।

प्रश्न—दान के फल यहाँ होते हैं, वा परलोक में?

उत्तर—सर्वत्र होते हैं।

प्रश्न—स्वयं होते हैं, वा कोई फल देनेवाला है?

उत्तर—फल देनेवाला ईश्वर है। जैसे कोई चोर-डाकू स्वयं बन्दीघर में जाना नहीं चाहता। राजा उसको अवश्य भेजता है। धर्मात्माओं के सुख की रक्षा करता, भुगाता, डाकू आदि से बचाकर उनको सुख में रखता है, वैसे ही परमात्मा सबको पाप-पुण्य के दुःख और सुखरूप फलों को यथावत् भुगाता है।

प्रश्न—जो ये गरुड़पुराणादि ग्रन्थ हैं, ‘वेदार्थ’ वा ‘वेद’ की पुष्टि करनेवाले हैं, वा नहीं?

उत्तर—नहीं, किन्तु वेद के विरोधी और उलटे चलते हैं, तथा तन्त्र भी वैसे ही हैं। जैसे कोई मनुष्य एक का मित्र, सब संसार का शत्रु हो, वैसा ही पुराण और तन्त्र का माननेवाला पुरुष होता है, क्योंकि एक दूसरे से विरोध करानेवाले ये ग्रन्थ हैं। इनका मानना किसी मनुष्य का काम नहीं, किन्तु इनको मानना पशुता है। देखो! शिवपुराण में त्रयोदशी, सोमवार; आदित्यपुराण में रवि; चन्द्रखण्ड में सोमग्रहवाले मङ्गल, बुध, बृहस्पति; शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु के; वैष्णव एकादशी; वामन की द्वादशी; नृसिंह वा अनन्त की चतुर्दशी; चन्द्रमा की पौर्णमासी; दिक्पालों की दशमी; दुर्गा की नौमी; वसुओं की अष्टमी, मुनियों की सप्तमी; कार्त्तिकस्वामी की षष्ठी; नाग की पञ्चमी; गणेश की चतुर्थी; गौरी की तृतीया; अश्विनीकुमार की द्वितीया; आद्यादेवी की प्रतिपदा और पितरों की अमावास्या; पुराणरीति से उपवास करने के दिन हैं। और सर्वत्र यही लिखा है कि जो मनुष्य इन वार और तिथियों में अन्न-पान ग्रहण करेगा वह नरकगामी होगा। अब पोप और पोपजी के चेलों को चाहिये कि किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन न करें क्योंकि जो भोजन वा पान किया तो नरकगामी होंगे।

अब ‘निर्णयसिन्धु’ ‘धर्मसिन्धु’ ‘व्रतार्क’ आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं, उन्होंने एक-एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी को शैव दशमीविद्धा, कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात् क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वाद-विवाद ही करते हैं। जिसने एकादशी का व्रत चलाया है, उसमें अपना स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं। कहते हैं—

एकादश्यामन्ने पापानि वसन्ति॥

[पद्मपुराण ब्रह्मखण्ड अ॰ १५ श्लो॰ ११ तथा एकादशी माहात्म्य]

जितने पाप हैं, सब एकादशी के दिन अन्न में वसते हैं। इस पोपजी से पूछना चाहिये कि किसके पाप उसमें वसते हैं? तेरे वा तेरे पिता आदि के? जो सबके के सब पाप एकादशी में जा वसें तो एकादशी के दिन किसी को दुःख न रहना चाहिये। ऐसा तो नहीं होता किन्तु उल्टा क्षुधा आदि से दुःख होता है। दुःख पाप का फल है। इससे भूखे मरना पाप है। इसका बड़ा माहात्म्य बनाया है, जिसकी कथा बाँच के बहुत ठगे जाते हैं। उसमें एक गाथा है कि—

ब्रह्मलोक में एक वेश्या थी। उसने कुछ अपराध किया। उसको शाप हुआ—“वह पृथिवी पर गिरे।” उसने स्तुति की, मैं पुनः स्वर्ग में क्योंकर आ सकूँगी? उसने कहा “जब कभी एकादशी के व्रत का फल तुझे कोई देगा तभी तू स्वर्ग में आ जायेगी।” वह विमान सहित किसी नगर में गिर पड़ी। वहाँ के राजा ने उससे पूछा कि “तू कौन है?” तब उसने सब वृत्तान्त कह सुनाया और कहा कि “जो कोई मुझको एकादशी का फल अर्पण करे तो फिर भी स्वर्ग को जा सकती हूँ।” राजा ने नगर में खोज कराया। कोई भी एकादशी का व्रत करनेवाला न मिला। किन्तु एक दिन किसी शूद्र स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई थी। क्रोध से स्त्री दिन-रात भूखी रही थी। दैवयोग से उस दिन एकादशी ही थी। उसने कहा कि “मैंने एकादशी जानकर तो नहीं की, अकस्मात् उस दिन भूखी रह गई थी।” ऐसा राजा के सिपाहियों से कहा। तब तो सिपाही उसको राजा के सामने ले आये। उससे राजा ने कहा कि “तू इस विमान को छू।” उसने छुआ तो उसी समय विमान ऊपर को उड़ गया। यह तो विना जाने एकादशी के व्रत का फल है, जो जान के करे तो उसके फल का क्या पारावार है!!!

वाह रे आँख के अन्धे लोगो! जो यह बात सच्ची हो तो हम एक पान की बीड़ी जो कि स्वर्ग में नहीं होती, भेजना चाहते हैं। सब एकादशीवाले अपना फल दे दो। जो एक पानबीड़ा ऊपर को चला जाएगा तो पुनः लाखों-क्रोड़ों पान वहाँ भेजेंगे और हम भी एकादशी किया करेंगे और जो ऐसा न होगा तो तुम लोगों को इस भूखे मरनेरूप आपत्काल से बचावेंगे।

इन चौबीस एकादशियों का नाम पृथक्-पृथक् रक्खा है। किसी का ‘धनदा’, किसी का ‘कामदा’, किसी का ‘पुत्रदा’ और किसी का ‘निर्जला’। बहुत से दरिद्र, बहुत से कामी और बहुत से निर्वंशी लोग एकादशी करके बूढ़े हो गये और मर भी गये परन्तु धन, कामना और पुत्र प्राप्त न हुआ। और ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष में कि जिस समय एक घड़ी भर जल न पावे तो मनुष्य व्याकुल हो जाता है, व्रत करनेवालों को महादुःख प्राप्त होता है। विशेषकर बङ्गाले में सब विधवा स्त्रियों की एकादशी के दिन बड़ी दुर्दशा होती है। इस निर्दयी कसाई को लिखते समय कुछ भी मन में दया नहीं आई, नहीं तो ‘निर्जला’ का नाम ‘सजला’ और पौष महीने की एकादशी का नाम ‘निर्जला’ रख देता तो भी कुछ अच्छा होता। परन्तु इस पोप को दया से क्या काम? ‘कोई जीवो वा मरो पोपजी का पेट पूरा भरो।’ भला! गर्भवती वा सद्योविवाहिता स्त्री, लड़के वा युवा पुरुषों को तो कभी उपवास न करना चाहिए। परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो, क्षुधा न लगे, उस दिन शर्बर्त वा दूध पीकर रह जाना चाहिए। जो भूख में नहीं खाते और विना भूख के भोजन करते हैं, वे दोनों रोगसागर में गोते खा दुःख पाते हैं। इन प्रमादियों के कहने-लिखने का प्रमाण कोई भी न करे।

अब गुरुशिष्यमन्त्रोपदेश और मतमतान्तर के चरित्रों का वर्त्तमान कहते है।

मूर्त्तिपूजक सम्प्रदायी लोग प्रश्न करते हैं कि वेद अनन्त हैं। ऋग्वेद की २१, यजुर्वेद की १०१, सामवेद की १००० और अथर्ववेद की ९ शाखा हैं। इनमें से थोड़ी सी शाखा मिलती है, शेष लोप हो गई हैं। उन्हीं में पूजा और तीर्थों का प्रमाण होगा। जो न होता तो पुराणों में कहाँ से आता? जब कार्य देखकर कारण का अनुमान होता है, तब पुराणों को देखकर मूर्त्तिपूजा में क्या शङ्का है?

उत्तर—जैसे शाखा जिस वृक्ष की होती हैं उसके सदृश हुआ करती हैं, विरुद्ध नहीं। चाहैं शाखा छोटी-बड़ी हों परन्तु उनमें विरोध नहीं हो सकता। वैसे ही जितनी शाखा मिलती हैं, जब इनमें पाषाणादि-मूर्त्ति और जल-स्थल-विशेष तीर्थों का प्रमाण नहीं मिलता तो उन लुप्त शाखाओं में भी नहीं था। और जो चार वेद पूर्ण मिलते हैं, उनसे विरुद्ध शाखा कभी नहीं हो सकतीं और जो विरुद्ध हैं, उनको शाखा कोई भी सिद्ध नहीं कर सकता। जब यह बात है तो ‘पुराण’ वेदों की शाखा नहीं किन्तु सम्प्रदायी लोगों ने परस्पर विरुद्धरूप ग्रन्थ बना रक्खे हैं।

वेदों को तुम परमेश्वरकृत मानते हो वा मनुष्यकृत?

परमेश्वरकृत।

जब परमेश्वरकृत मानते हो तो ‘आश्वालायनादि’ ऋषि-मुनियों के नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थों को वेद क्यों मानते हो? जैसे डाली और पत्तों के देखने से पीपल, बड़ और आम्र आदि वृक्षों की पहिचान होती है, वैसे ही ऋषि-मुनियों के किये वेदाङ्ग, चारों ब्राह्मण, अङ्ग, उपाङ्ग और उपवेद आदि से वेदार्थ पहिचाना जाता है, इसीलिये इन ग्रन्थों को शाखा माना है। जो वेदों से विरुद्ध है, उसका प्रमाण और अनुकूल का अप्रमाण नहीं हो सकता।

जो तुम अदृष्ट शाखाओं में मूर्त्ति आदि के प्रमाण की कल्पना करोगे तो जब कोई ऐसा पक्ष करेगा कि लुप्त शाखाओं में वर्णाश्रम व्यवस्था उलटी अर्थात् अन्त्यज और शूद्र का नाम ब्राह्मणादि और ब्राह्मणादि का नाम शूद्र अन्त्यजादि, अगमनीया-गमन, अकर्त्तव्य कर्त्तव्य, मिथ्याभाषणादि धर्म, सत्यभाषणादि अधर्म आदि लिखा होगा तो तुम उसको वही उत्तर दोगे जो कि हमने दिया, अर्थात् वेद और प्रसिद्ध शाखाओं में जैसा ब्राह्मणादि का नाम ब्राह्मणादि और शूद्रादि का नाम शूद्रादि लिखा है, वैसा ही अदृष्ट शाखाओं में भी मानना चाहिये, नहीं तो वर्णाश्रम व्यवस्था आदि सब अन्यथा हो जायेंगे।

भला जैमिनि, व्यास और पतञ्जलि के समय पर्य्यन्त तो सब शाखा विद्यमान थी वा नहीं? यदि थीं तो तुम कभी निषेध न कर सकोगे और जो कहो कि नहीं थीं तो फिर शाखाओं के होने का क्या प्रमाण है? देखो! जैमिनि ने मीमांसा में सब ‘कर्मकाण्ड’, पतञ्जलि मुनि ने योगशास्त्र में सब ‘उपासनाकाण्ड’ और व्यासमुनि ने शारीरक-सूत्रों में सब ‘ज्ञानकाण्ड’ वेदानुकूल लिखा है। उनमें पाषाणादि-पूर्त्तिपूजा वा प्रयागादि तीर्थों का नाम तक भी नहीं लिखा। लिखें कहाँ से? कहीं वेदों में होता तो लिखे विना कभी नहीं छोड़ते। इसलिए लुप्त शाखाओं में भी इन मूर्त्तिपूजादि का प्रमाण नहीं था।

ये सब शाखा वेद नहीं हैं, क्योंकि इनमें ईश्वरकृत वेदों की प्रतीक धरके व्याख्या और संसारी जनों के इतिहासादि लिखे हैं, इसलिए ये वेद में कभी नहीं हो सकते। वेदों में तो केवल मनुष्यों को विद्या का उपदेश किया है। किसी मनुष्य का नाममात्र भी नहीं। इसलिए मूर्त्तिपूजा का सर्वथा खण्डन है।

देखो! मूर्तिपूजा से श्री रामचन्द्र, श्रीकृष्ण, नारायण और शिवादि की बड़ी निन्दा और उपहास होता है। सब कोई जानते हैं कि वे बड़े महाराजाधिराज और उनकी स्त्री सीता, तथा रुक्मिणी, लक्ष्मी और पार्वती आदि महाराणी थीं, परन्तु जब उनकी मूर्त्तियाँ मन्दिर आदि में रखके पुजारी लोग उनके नाम से भीख माँगते हैं अर्थात् उनको भिखारी बनाते हैं कि “आओ महाराज! राजाजी! सेठ-साहूकारो! दर्शन कीजिए, बैठिये, चरणामृत लीजिए, कुछ भेट चढाइये, महाराज! सीता-राम, कृष्ण-रुक्मिणी वा राधाकृष्ण, लक्ष्मी-नारायण और महादेव-पार्वतीजी को तीन दिन से ‘बालभोग वा ‘राजभोग’ अर्थात् जलपान वा खानपान भी नहीं मिला है। आज इनके पास कुछ भी नहीं है। सीता आदि को नथुनी आदि राणीजी वा सेठानीजी! बनवा दीजिये। अन्न आदि भेजो तो रामकृष्णादि को भोग लगावें। वस्त्र सब फट गये हैं। मन्दिर के कोने सब गिर पड़े हैं। ऊपर से चूता है और दुष्ट चोर जो कुछ था, उठा ले गये। कुछ ऊंदरों ने काट-कूट डाले। देखिए! एक दिन ऊँदरों ने ऐसा अनर्थ किया कि इनकी आँख भी निकाल के भाग गये। अब हम चाँदी की आँख न बना सके इसलिये कौड़ी की लगा दी है।”

रामलीला और रासमण्डल भी करवाते हैं, सीता-राम, राधा-कृष्ण नाच रहे हैं, राजा और महन्त आदि उनके सेवक आनन्द में बैठे हैं! मन्दिर में सीता, रामादि खड़े और पुजारी वा महन्तजी आसन अथवा गद्दी तकिया लगा बैठते हैं। महागरमी में भी ताला लगा भीतर बन्ध कर देते हैं और आप सुन्दर वायु में पलङ्ग बिछा सोते हैं। बहुतसे पूजारी अपने नारायण को डब्बी में बन्ध कर ऊपर से कपड़े आदि बाँध गले में लटका लेते हैं जैसे कि वानरी अपने बच्चे को गले में लटका लेती है, वैसे पूजारियों के गले में भी लटकते हैं। जब कोई मूर्त्ति को तोड़ता है तब हाय-हाय कर छाती पीट बकते हैं कि सीता-रामजी, राधा-कृष्णजी और शिव-पार्वती को दुष्टों ने तोड़ डाला! अब दूसरी मूर्त्ति मँगवाकर जो कि अच्छे शिल्पी ने संगमरमर की बनाई हो, स्थापन कर पूजनी चाहिए। नारायण को घी के विना भोग नहीं लगता। बहुत नहीं तो थोड़ा-सा अवश्य भेज देना। इत्यादि बातें इन पर ठहराते हैं। और रासमण्डल वा रामलीला के अन्त में सीता-राम वा राधा-कृष्ण से भीख मँगवाते हैं। जहाँ मेला-ठेला होता है, वहाँ छोकरे पर मुकुट धर कन्हैया बना मार्ग में बैठाकर भीख मंगवाते हैं। इत्यादि बातों को आप लोग विचार लीजिए कि कितने बड़े शोक की बात है! भला, कहो तो, सीतारामादि ऐसे दरिद्र और भिक्षुक थे? यह उनका उपहास और निन्दा नहीं तो क्या है? इससे बड़ी अपने माननीय पुरुषों की निन्दा होती है।

भला, जिस समय ये विद्यमान थे, उस समय सीता, रुक्मिणी, लक्ष्मी, पार्वती को सड़क पर वा किसी मकान में खड़ी कर पुजारी कहते कि “आओ इनका दर्शन करो और कुछ भेट पूजा धरो” तो सीतादि इन मूर्खों के कहने से ऐसा काम कभी न करते और न करने देते। जो कोई ऐसा उपहास उनका करता, उसको विना दण्ड दिये कभी छोड़ते? हाँ, जब उन्हों से दण्ड न पाया तो इनके कर्मों ने पुजारियों को बहुत-सी मूर्त्तिविरोधियों से प्रसादी दिलादी और अब भी मिलती है और जबतक इस कुकर्म को न छोड़ेंगे तबतक मिलेगी भी। इसमें क्या संदेह है कि जो आर्य्यावर्त्त की प्रतिदिन महाहानि, पाषाणादि-मूर्त्तिपूजकों का पराजय इन्हीं कर्मों से होता है, क्योंकि पाप का फल दुःख है। इन्हीं पाषाणादि-मूर्त्तियों के विश्वास से बहुत-सी हानि हो गई। जो न छोड़ेंगे तो प्रतिदिन अधिक-अधिक होती जायगी।

इनमें से वाममार्गी बड़े भारी अपराधी हैं। जब वे चेला करते हैं तब साधारण को—

दं दुर्गायै नमः। भं भैरवाय नमः। ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥

इत्यादि मन्त्रों का उपदेश कर देते हैं और बङ्गाले में विशेष करके एकाक्षरबीज मन्त्रोपदेश करते हैं, जैसा— ह्रीं, श्रीं, क्लीं॥

[ऊह्य-श्रीकण्ठशिवपण्डितरचित शावरतन्त्र बं॰ प्रकी॰ प्र॰ ४४]

इत्यादि। और धनाढ्यों का पूर्णाभिषेक करते हैं।

ऐसे ही दश महाविद्याओं के मन्त्र—

ह्रां ह्रीं ह्रूं वगलामुख्यै फट् स्वाहा॥    [ऊह्य—शावरतन्त्र ४१]

कहीं-कहीं—हूं फट् स्वाहा॥ [ऊह्य—कामरत्न तन्त्र, बीजमन्त्र ४]

और मारण, मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, वशीकरण, आदि प्रयोग करते हैं। सो मन्त्र से तो कुछ भी नहीं होता किन्तु क्रिया से सब कुछ करते हैं। जब किसी को मारने का प्रयोग करते हैं तब इधर करानेवाले से धन लेके आटे वा मट्टी का पूतला जिसको मारना चाहते हैं, उसका बनाते हैं। उसकी छाती, नाभि, कण्ठ में छुरे प्रवेश कर देते हैं। आँख, हाथ, पग में कीलें ठोकते हैं। उसके ऊपर भैरव वा दुर्गा की मूर्त्ति बना, हाथ में त्रिशूल दे, उसके हृदय पर लगाते हैं। एक वेदी बनाकर मांस आदि का होम करने लगते हैं और उधर दूत आदि भेज के उसको विष आदि से मारने का उपाय करते हैं। जो अपने पुरश्चरण के बीच में उसको मार डाला तो अपने को भैरव देवी की सिद्धिवाले बतलाते हैं। ‘भैरवो भूतनाथश्च’ इत्यादि का पाठ करते हैं।

मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, छिन्धि-छिन्धि, भिन्धि-भिन्धि, वशीकुरु-वशीकुरु, खादय-खादय, भक्षय-भक्षय, त्रोटय-त्रोटय, नाशय-नाशय, मम शत्रून् वशीकुरु, मम शत्रून् वशीकुरु, हुं फट् स्वाहा॥                  [ऊह्य—कामरत्नतन्त्र, उच्चाटन प्रकरण, मं॰ ५-७]

इत्यादि मन्त्र जपते, मद्य भांग खूब पीते, मांसादि खाते, भृकुटी के बीच में सिन्दूर रेखा देते, कभी-कभी काली आदि के लिये किसी आदमी को पकड़ मार होमकर कुछ-कुछ उसका मांस खाते भी हैं। जो कोई भैरवीचक्र में जावे, मद्य-मांस न पीवे, न खावे तो उसको मार होम कर देते हैं। उनमें से जो ‘अघोरी’ होता है, वह मृतमनुष्य का भी मांस खाता है, अजरी-बजरी करनेवाले विष्ठामूत्र भी खाते-पीते हैं।

एक ‘चोलीमार्गी’ और ‘बीजमार्गी’ भी होते हैं। ‘चोलीमार्गवाले’ एक गुप्त स्थान वा भूमि में एक स्थान बनाते हैं। वहाँ सबकी स्त्रियाँ, पुरुष, लड़का, लड़की, बहिन, माता, पुत्रवधू आदि सब इकट्ठे हो सब लोग मिल-मिलाकर मांस खाते, मद्य पीते, एक स्त्री को नङ्गी कर, उसके गुप्त इन्द्रिय की पूजा सब पुरुष करते, उसका नाम दुर्गादेवी धरते हैं। एक पुरुष को नङ्गा कर उसके गुप्त इन्द्रिय की पूजा सब स्त्रियाँ करती हैं। जब मद्य पी-पी के उन्मत्त हो जाते हैं तब सब स्त्रियों की छाती का वस्त्र जिसको ‘चोली’ कहते हैं, एक बड़ी मट्टी-की नाँद में सब वस्त्र मिलाकर रखके एक-एक पुरुष उसमें हाथ डालके जिसके हाथ में जिसका वस्त्र आवे—वह माता, बहिन, कन्या और पुत्रवधू क्यों न हो उस समय के लिए वह उसकी स्त्री हो जाती है! आपस में कुकर्म करने और बहुत नशा चढ़ने से जूते आदि से लड़ते हैं। जब प्रातःकाल कुछ अन्धेरे अपने-अपने घर को चले जाते हैं तब माता माता, कन्या कन्या, बहिन बहिन, और पुत्रवधू पुत्रवधू हो जाती है। और ‘बीजमार्गी’ स्त्री-पुरुष के समागम कर जल में वीर्य डाल, मिलाकर पीते हैं। ये पामर ऐसे कर्मों को मुक्ति के साधन मानते हैं। विद्या, विचार, सज्जनतादि रहित होते हैं।

प्रश्न—शैव तो अच्छा होता है?

उत्तर—अच्छा कहाँ से होता है? ‘जैसा प्रेतनाथ वैसा भूतनाथ’। जैसे वाममार्गी मन्त्रोपदेशादि से उनका धन हरते हैं, वैसे शैव भी ‘ओं नमः शिवाय’ इत्यादि पञ्चाक्षरादि मन्त्रों का उपदेश करते, रुद्राक्ष भस्म धारण करते, मट्टी के और पाषाणादि के लिङ्ग बनाकर पूजते, ‘हर-हर-हर’, ‘बं-बं-बं’ और बकरे के शब्द के समान ‘बड़-बड़-बड़’ मुख से शब्द करते हैं। उसका कारण यह कहते हैं कि ताली बजाने और बं-बं शब्द बोलने से पार्वती प्रसन्न और महादेव अप्रसन्न होता है। क्योंकि जब भस्मासुर के आगे से महादेव भागे थे तब बं-बं और ठट्ठे की तालियाँ बजी थीं और गाल बजाने से पार्वती अप्रसन्न और महादेव प्रसन्न होते हैं क्योंकि पार्वती के पिता दक्षप्रजापति का शिर काट आगी में डाल उसके धड़ पर बकरे का शिर लगा दिया था। उसी की नकल बकरे के शब्द के तुल्य गाल बजाना मानते हैं। शिवरात्री प्रदोष का व्रत करते हैं, इत्यादि से मुक्ति मानते हैं। इसीलिये जैसे वाममार्गी भ्रान्त हैं, वैसे शैव भी। इनमें विशेषकर कनफटे, नाथ, गिरी, पुरी, वन, आरण्य, पर्वत और सागर तथा गृहस्थ भी शैव होते हैं। कोई-कोई ‘दोनों घोड़ों पर चढ़ते हैं’ अर्थात् वाम और शैव दोनों मतों को मानते हैं और कितने ही वैष्णव भी रहते हैं। उनका—

अन्तः शाक्ता बहिःशैवाः सभामध्ये च वैष्णवाः।

नानारूपधराः कौला विचरन्तीह महीतले॥   —यह तन्त्र का श्लोक है।

[ऊह्य—कौलोपनिषत् तथा कुलार्णवतन्त्र एकादश उल्लास]

भीतर ‘शाक्त’ अर्थात् वाममार्गी, बाहर ‘शैव’ अर्थात् रुद्राक्ष भस्म धारण करते हैं, सभा में ‘वैष्णव’ कहते हैं कि हम विष्णु के उपासक हैं। ऐसे नाना प्रकार के रूप धारण करके वाममार्गी लोग पृथिवी में विचर रहे हैं।

प्रश्न—वैष्णव तो अच्छे हैं?

उत्तर—क्या धूड़ अच्छे हैं। जैसे वे, वैसे ये हैं। देख लो वैष्णवों की लीला! अपने को विष्णु का दास मानते हैं। उनमें से श्री वैष्णव जोकि चक्राङ्कित होते हैं, वे अपने को सर्वोपरि मानते हैं। सो कुछ भी नहीं हैं।

प्रश्न—क्यों कुछ भी नहीं? सब कुछ हैं। देखो! ललाट में नारायण के चरणारविन्द के सदृश तिलक और बीच में पीली रेखा ‘श्री’ होती है, इसी वास्ते हम ‘श्रीवैष्णव’ कहाते हैं। एक नारायण को छोड़ दूसरे किसी को नहीं मानते। महादेव के लिङ्ग का दर्शन भी नहीं करते क्योंकि हमारे ललाट में श्री विराजमान है, वह लज्जित होती है। आलमन्दारादि स्तोत्रों के पाठ करते हैं। नारायण की मन्त्र पूर्वक पूजा करते हैं, मांस नहीं खाते, मद्य नहीं पीते, फिर अच्छे क्यों नहीं?

उत्तर—इस तिलक को ‘हरिपदाकृति’, इस पीली रेखा को ‘श्री’ मानना व्यर्थ है, क्योंकि यह तो तुम्हारे हाथ की कारीगरी और ललाट का चित्र है, जैसा हाथी का ललाट चित्र-विचित्र करते हैं। तुम्हारे ललाट में विष्णु के पद का चिह्न कहाँ से आया? क्या कोई वैकुण्ठ में जाकर विष्णु के पग का चिह्न ललाट में करा आया है?

विवेकी—और श्री जड़ है वा चेतन?

वैष्णव—चेतन है।

विवेकी—तो यह रेखा जड़ होने से ‘श्री’ नहीं है। हम पूछते हैं कि श्री बनाई हुई है वा विना बनाई? जो विना बनाई है तो यह श्री नहीं, क्योंकि इसको तो तुम नित्य अपने हाथ से बनाते हो फिर श्री नहीं हो सकती। जो तुम्हारे ललाट में श्री हो तो कितने ही वैष्णवों का बुरा मुख अर्थात् शोभारहित क्यों दीखता है? ललाट में श्री और घर-घर भीख माँगते और सदावर्त्त लेकर पेट भरते क्यों फिरते हो? यह बात सिरड़ी और निर्लज्जों की है कि कपाल में श्री और महादरिद्रों के काम करते हैं।

इनमें एक ‘परिकाल’ नामक वैष्णव भक्त था। वह चोरी-डाका मार, छल-कपट कर, पराया धन हर, वैष्णवों के पास धर प्रसन्न होता था। एक समय उसको चोरी में पदार्थ कोई नहीं मिला कि जिसको लूटे। व्याकुल होकर फिरता था। नारायण ने समझा कि हमारा भक्त दुःख पाता है। सेठजी का स्वरूप धर, अंगूठी आदि आभूषण पहिन, रथ में बैठ, सामने आये। तब तो परिकाल रथ के पास गया। सेठ से कहा सब वस्तु शीघ्र उतार दो, नहीं तो मार डालूंगा। उतारते-उतारते अंगूठी उतारने में देर लगी। परिकाल ने नारायण की अंगुली काट अंगूठी ले ली। नारायण बड़े प्रसन्न हो चतुर्भुज शरीर बना दर्शन दिया। कहा कि “तू मेरा बड़ा प्रिय भक्त है, क्योंकि सब धन मार-लूट-चोरी कर वैष्णवों की सेवा करता है इसलिये तू धन्य है।” फिर उसने जाकर वैष्णवों के पास सब गहने धर दिये।

एक समय परिकाल को कोई साहूकार नौकर कर जहाज में बैठाके देशान्तर में ले गया। वहाँ से जहाज में सुपारी भरी। परिकाल ने एक सुपारी तोड़ आधा टुकड़ा कर बनिये से कहा “यह मेरी आधी सुपारी जहाज में धर दो और लिख दो कि जहाज में आधी सुपारी परिकाल की है।” बनिये ने कहा कि “चाहे तुम हजार सुपारी ले लेना।” परिकाल ने कहा, “नहीं। हम अधर्मी नहीं हैं, जो हम झूठ-मूठ लें। हमको तो आधी चाहिये।” बनिया भोला था, लिख दिया। जब अपने देश में बन्दर पर जहाज आया, सुपारी उतारने की तैयारी हुई, तब परिकाल ने कहा “हमारी आधी सुपारी दे दो।” बनिया वही आधी सुपारी देने लगा। तब परिकाल झगड़ने लगा “मेरी तो जहाज में आधी सुपारी है, आधा बांट लूंगा।” राजपुरुषों तक झगड़ा गया। परिकाल ने बनिये का लेख दिखलाया कि इसने आधी सुपारी देनी लिखी है। बनिया बहुत-सा कहता रहा परन्तु उसने न माना। आधी सुपारी लेकर वैष्णवों के अर्पण करदी। तब तो वैष्णव बड़े प्रसन्न हुए। अबतक उस डाकू चोर परिकाल की मूर्त्ति मन्दिरों में रखते हैं। यह कथा भक्तमाल में लिखी है। बुद्धिमान् देख लें कि वैष्णव, उनके सेवक और नारायण तीनों चोरमण्डली हैं वा नहीं? यद्यपि मतमतान्तरों में कोई थोड़ा अच्छा भी होता है, तथापि उस मत में रहकर सर्वथा अच्छा नहीं हो सकता।

अब जैसा वैष्णवों में फूट-टूट भिन्न-भिन्न तिलक कण्ठी धारण करते हैं। रामानन्दी बगल में गोपीचन्दन बीच में लाल, नीमावत दोनों पतली रेखा बीच में काला बिन्दु, माधव काली रेखा और गौड़ बङ्गाली कटारी के तुल्य और रामप्रसादवाले दोनों चांदला रेखा के बीच में एक सफेद गोल टीका, इत्यादि इनका कथन विलक्षण-विलक्षण है। रामानन्दी लाल रेखा को लक्ष्मी का चिह्न, और नारायण के हृदय में श्री, कृष्णचन्द्रजी [के] हृदय में राधा विराजमान है, इत्यादि कथन करते हैं।

एक कथा भक्तमाल में लिखी है। कोई एक मनुष्य वृक्ष के नीचे सोता था। सोता-सोता मर गया। ऊपर से काक ने विष्ठा कर दी। वह ललाट पर तिलकाकार हो गई थी। वहां यम के दूत उसको लेने आये। इतने में विष्णु के दूत भी पहुँच गये। दोनों विवाद करते थे कि यह हमारे स्वामी की आज्ञा है, हम यमलोक में ले जायंगे। विष्णु के दूतों ने कहा कि “हमारे स्वामी की आज्ञा है वैकुण्ठ में ले जाने की। देखो! इसके ललाट में वैष्णवी तिलक है। तुम कैसे ले जाओगे?” तब तो यम के दूत चुप होकर चले गये। विष्णु के दूत सुख से उसको वैकुण्ठ में ले गये। नारायण ने उसको वैकुण्ठ में रक्खा। देखो! जब अकस्मात् तिलक बन जाने का ऐसा माहात्म्य है तो जो अपनी प्रीति से हाथ से तिलक करते हैं, वे नरक से छूट वैकुण्ठ में जावें तो इसमें क्या आश्चर्य है!! हम पूछते हैं कि जब छोटे से तिलक के करने से वैकुण्ठ में जावें तो सब मुख के ऊपर लेपन करने वा कालामुख करने वा शरीर पर लेपन करने से वैकुण्ठ से भी आगे सिधार जाते हैं, वा नहीं? इससे ये बातें सब व्यर्थ हैं।

अब इनमें बहुत से खाखी लकड़े की लङ्गोली लगा धूनी तापते, जटा बढ़ाते, सिद्ध का वेश कर लेते हैं। बगुले के समान ध्यानावस्थित होते हैं। गांजा, भाँग, चरस के दम लगाते, लाल सुर्ख नेत्र कर रखते; सबसे चुटकी-चुटकी अन्न, पिसान, कौड़ी, पैसे माँगते, गृहस्थों के लड़कों को बहकाकर चेले बना लेते हैं। बहुत करके मजूर लोग उनमें होते हैं। कोई विद्या को पढ़ता हो तो उसको पढ़ने नहीं देते, कहते हैं कि—

पठितव्यं तदपि मर्त्तव्यं दन्तकटाकटेति किं कर्त्तव्यम्?

सन्तों को विद्या पढ़ने से क्या काम? क्योंकि विद्या पढ़नेवाले भी मर जाते हैं, फिर दन्त-कटाकट क्यों करना? साधुओं को चार धाम फिर आना, सन्तों की सेवा करनी, रामजी का भजन करना।

जो किसी ने मूर्ख, अविद्या की मूर्ति न देखी हो तो खाखीजी का दर्शन कर आवे। उनके पास जो कोई जाता है, उनको बच्चा-बच्ची कहते हैं, चाहे वे खाखीजी के बाप-मा के समान हों। जैसे खाखीजी हैं, वैसे ही रूँखड़-सूँखड़, गोदड़िये और जमातवाले सुतरेसाई और अकाली, कानफटे, जोगी, औघड़ आदि सब एक से हैं।

एक खाखी का चेला ‘स्री गनेसाजनमें’ घोखता-घोखता कु वे पर जल भरने को गया। वहाँ पण्डित बैठा था। वह उसको ‘स्रीगने साजनमें’ घोखता देखकर बोला “अरे साधु! अशुद्ध घोखता है ‘श्रीगणेशाय नमः’ ऐसा घोख।” उसने झट लोटा भर गुरुजी के पास जा कहा कि “ए बम्मन मेरे घोखने को असुद्ध कहता है।” ऐसा सुनकर झट खाखीजी उठा, कूप पर गया, पण्डित से कहा, ‘तू मेरे चेले को बहकाता है? तूं गुरु की लंडी क्या पढ़ा है? देख तूं एक प्रकार का पाठ जानता है, हम तीन प्रकार का जानते हैं—‘स्रीगनेसाजन्नमें’ ‘स्रीगनेसायन्नमें’ ‘श्रीगनेसाज नमें।”

पण्डित—सुनो साधुजी! विद्या की बात बहुत कठिन है, विना पढ़े नहीं आती।

खाखी—चल बे, सब विद्वान् को हमने रगड़ मारे, जो भांग में घोट एक दम सब उड़ा दिये। सन्तों का घर बड़ा है। तू बाबूड़ा क्या जाने?

पण्डित—देखो! जो तुमने विद्या पढ़ी होती तो ऐसे अपशब्द क्यों बोलते? सब प्रकार का तुमको ज्ञान होता।

खाखी—अबे! तू हमारा गुरू बनता है? तेरा उपदेश हम नहीं सुनते।

पण्डित—सुनो कहाँ से? बुद्धि ही नहीं है। उपदेश सुनने-समझने के लिये विद्या चाहिए।

खाखी—जो सब वेद-शास्त्र पढ़े, सन्तों को न माने तो जानो कि वह कुछ भी नहीं पढ़ा।

पण्डित—हां, हम सन्तों की सेवा करते हैं परन्तु तुम्हारे से हुर्दङ्गों की नहीं करते। क्योंकि ‘सन्त’ सज्जन, विद्वान्, धार्मिक, परोपकारी पुरुषों को कहते हैं।

खाखी—देख! हम रात दिन नंगे रहते, धूनी तापते, गांजा-चरस के सैकड़ों दम लगाते, तीन-तीन लोटा भांग पीते, गांजे-भांग-धतूरा की पत्ती की भाजी बना खाते, संखिया और अफीम भी चट निगल जाते, नशा में गर्क रात-दिन बे-ग़म रहते, दुनियाँ को कुछ नहीं समझते, भीख मांगकर टिक्कड़ बना खाते, रात भर ऐसी खांसी उठती, जो पास में सोवे उसको भी निद्रा कभी न आवे, इत्यादि सिद्धियाँ और साधूपन हम में है, फिर तू हमारी निन्दा क्यों करता? चेत बाबूड़े! जो हमको दिक्क करेगा, हम तुमको भसम कर डालेगा।

पण्डित—ये सब लक्षण असाधु, मूर्ख और गवर्गण्डों के हैं, साधुओं के नहीं। सुनो! ‘साध्नोति पराणि धर्मकार्याणि स साधुः’ जो धर्मयुक्त उत्तम काम करे, सदा परोपकार में प्रवृत्त हो, कोई दुर्गुण जिसमें न हो, विद्वान्, सत्योपदेश से सबका उपकार करे, उसको ‘साधु’ कहते हैं।

खाखी—चल बे! तू साधु के कर्म क्या जाने? सन्तों का घर बड़ा है। किसी सन्त से अटकना नहीं। नहीं तो देख! एक चीमटा उठाकर मारेगा, कपाल फुड़वा लेगा।

पण्डित—अच्छा खाखी! जाओ अपने आसन पर, हमसे बहुत गुस्से मत हो। जानते हो राज्य कैसा है? किसी को मारोगे तो पकड़े जाओगे, कारावास भोगोगे, बेंत खाओगे वा कोई तुमको भी मार बैठेगा, क्या करोगे? यह साधु का लक्षण नहीं।

खाखी—चल बे चेले! किस राक्षस का मुख दिखलाया।

पण्डित—तुमने कभी किसी महात्मा का सङ्ग नहीं किया है, नहीं तो ऐसे जड़ मूर्ख न रहते।

खाखी—हम आप ही महात्मा हैं। हमको किसी दूसरे की गर्ज नहीं।

पण्डित—जिनके भाग्य नष्ट होते हैं, उनकी तुम्हारी-सी बुद्धि और अभिमान होता है।

खाखी चला गया आसन पर, और पण्डित घर को। जब सन्ध्या आर्ती हो गई तब उस खाखी को बुड्ढा समझ बहुत से खाखी ‘डण्डोत-डण्डोत’ कहते साष्टाङ्ग करके बैठे। उस खाखी ने पूछा, “अबे रामदासिये! तू क्या पढ़ा है?”

रामदास—महाराज! मैंने ‘वेस्नुसहसरनाम’ पढ़ा है।

खाखीजी—“अबे गोविन्ददासिये! तू क्या पढ़ा है?”

गोविन्ददास—मैं ‘रामसतवराज’ पढ़ा हूँ, अमुक खाखीजी के पास से। तब रामदास बोला कि “महाराज! आप क्या पढ़े हैं?”

खाखी—हम गीता पढ़े हैं?

रामदास—किसके पास?

खाखी—चल्बे छोकरे! हम किसी को गुरु नहीं करते। देख! हम ‘परागराज’ में रहते थे। हमको अक्खर नहीं आता था। जब किसी लम्बी धोतीवाले पण्डित को देखता था तब गीता के गोटके में पूछता था कि इस कलङ्गीवाले अक्खर का क्या नाम है? ऐसे पूछता-पूछता अठारह अध्याय गीता रगड़ मारी। गुरू एक भी नहीं किया।

भला, ऐसे विद्या के शत्रुओं को अविद्या घर करके ठहरे नहीं, तो कहाँ जाये? ये लोग विना नशा, प्रमाद, लड़ना, खाना, सोना, झांझ पीटना, घण्टा-घड़ियाल-शंख बजाना, धूनी चिता रखनी, नहाना, धोना, सब दिशाओं में व्यर्थ घूमते फिरने के, अन्य कुछ भी अच्छा काम नहीं करते। चाहें कोई पत्थर को भी पिघला लेवे, परन्तु इन खाखियों के आत्माओं को बोध कराना कठिन है। क्योंकि बहुधा वे शूद्रवर्ण, मजूर, किसान, कहार आदि अपनी मजूरी छोड़, खाख रमा के वैरागी, खाखी आदि हो जाते हैं, उनको विद्या वा सत्सङ्ग आदि का माहात्म्य नहीं जान पड़ सकता। इनमें से नाथों का मन्त्र ‘नमः शिवाय’। खाखियों का ‘नृसिंहाय नमः’। रामावतों का ‘श्रीरामचन्द्राय नमः’ अथवा ‘सीतारामाभ्यां नमः’। कृष्णोपासकों का ‘श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः’ ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ और बङ्गालियों का ‘गोविन्दाय नमः’। इन मन्त्रों को कान में पढ़ने-मात्र से शिष्य कर लेते हैं और ऐसी-ऐसी शिक्षा करते हैं, बच्चे! तूम्बे का मन्त्र पढ़ ले—

जल पवितर सथल पवितर और पवितर कुआ।

शिव कहे सुन पार्वती तूम्बा पवितर हुआ॥

[ऊह्य—रामस्नेहीधर्मप्रकाश ३९० तूं बामन्त्र, रामपटल पृ॰ ३]

भला, ऐसे की योग्यता साधु वा विद्वान् होने अथवा जगत् के उपकार करने की कभी हो सकती है? खाखी रात-दिन लक्कड़, छाने जलाया करते हैं। एक महीने में कई रुपये की लकड़ी फूँक देते हैं। जो एक महीने की लकड़ी के मूल्य से कम्बलादि वस्त्र लेलें तो शतांश धन से आनन्द में रहैं। उनको इतनी बुद्धि कहां से आवे? और अपना नाम उसी धूनी में तपने ही से तपस्वी धर रक्खा है। जो इस प्रकार तपस्वी हो सकें तो जङ्गली मनुष्य इनसे भी अधिक तपस्वी हो जावें। जो जटा बढ़ाने, राख लगाने, तिलक करने से तपस्वी हो जाये तो सब कोई कर सके। ये ऊपर के त्यागस्वरूप और भीतर के महासंग्रही होते हैं।

प्रश्न—कबीरपन्थी तो अच्छे हैं?

उत्तर—नहीं।

प्रश्न—क्यों अच्छे नहीं? पाषाणादि मूर्त्तिपूजा का खण्डन करते हैं। कबीर साहब फूलों से उत्पन्न हुए और अन्त में भी फूल हो गये। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव का जन्म जब नहीं था, तब भी कबीर साहब थे। बड़े सिद्ध, जिस बात को वेद पुराण भी नहीं जान सकता, उसको कबीर जानता है। सच्चा रस्ता है, सो कबीर ही ने दिखलाया है। इनका मन्त्र ‘सत्यनाम कबीर’ आदि है।

उत्तर—पाषाणादि को छोड़ पलङ्ग, गद्दी-तकिये, खड़ाऊँ, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाणमूर्त्ति [पूजने] से न्यून नहीं। क्या कबीर साहब भुनुगा था वा कलियाँ था, जो फूलों से उत्पन्न हुआ और अन्त में फूल हो गया?

यहाँ जो यह बात सुनी जाती है, वही सच्ची होगी कि कोई जुलाहा काशी में रहता था। उसके लड़का-बाला नहीं था। एक समय थोड़ी-सी रात्रि थी। एक गली में चला जाता था तो देखा सड़क के किनारे में एक टोकनी में फूलों के बीच में उसी रात का जन्मा बालक था। वह उसको उठा ले गया। अपनी स्त्री को दिया उसने पालन किया। जब वह बड़ा हुआ तब जुलाहे का काम करता था। किसी पण्डित के पास संस्कृत पढ़ने के लिये गया। उसने उसका अपमान किया। कहा कि—“हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते।” इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा परन्तु किसी ने न पढ़ाया। तब ऊटपटांग भाषा बनाकर जुलाहे आदि नीच लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता था, भजन बनाता था। विशेष—पण्डित, शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फस गये। जब मर गया, तब लोगों ने उसको सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते-जी बनाया था, उसको उसके चेले पढ़ते रहे। कान को मूंदके जो शब्द सुना जाता है उसको अनहत शब्द सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को ‘सुरति’ कहते हैं। उसको उस शब्द सुनने में लगाना, उसी को सन्त और परमेश्वर का ध्यान बतलाते हैं। वहाँ काल नहीं पहुँचता। बर्छी के तुल्य तिलक और चन्दनादि लकड़े की कण्ठी बाँधते हैं। भला विचार देखो कि इसमें आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता है? यह मत लड़कों के खेल के तुल्य लीला है।

प्रश्न—पञ्जाब देश में ‘नानकजी’ ने एक मार्ग चलाया है। क्योंकि वे भी मूर्त्ति का खण्डन करते थे। मुसलमान होने से बचाये। देखो! उन्होंने कुछ पाखण्ड नहीं चलाया। वे साधु भी नहीं हुए, किन्तु गृहस्थ बने रहे। देखो! उन्होंने यह मन्त्र उपदेश किया है, इसी से विदित होता है कि उनका आशय अच्छा था—

ओं सत्यनाम कर्त्ता पुरुष निर्भो निर्वैर अकालमूर्त अजोनि सहभं गुरु प्रसाद जप, आदि सच, जुगादि सच, है भी सच, नानक होसी भी सच॥ [जपजी पौड़ी १]

(ओं) जिसका सत्य नाम है, वह कर्त्ता, पुरुष, भय और वैररहित ‘अकालमूर्त्ति’ जो काल में और जोनि में नहीं आता, प्रकाशमान है, उसी का जप गुरु की कृपा से कर। वह परमात्मा आदि में सच था, जुगों की आदि में सच, वर्त्तमान में सच और होगा भी सच।

उत्तर—नानकजी का आशय तो अच्छा था, परन्तु विद्या कुछ भी नहीं थी। हां भाषा उस देश की जो कि ग्रामों की है, जानते थे। वेदादि शास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। जो जानते होते तो ‘निर्भय’ शब्द को ‘निर्भो’ न लिखते और इसका दृष्टान्त उनका बनाया ‘संस्कृती स्तोत्र’ है। चाहते थे कि मैं संस्कृत में भी “पग अड़ाऊँ’, परन्तु विना पढ़े संस्कृत कैसे आ सकता है? हाँ, उन ग्रामीणों के सामने कि जिन्होंने संस्कृत कभी सुना भी नहीं था ‘संस्कृती’ बना कर संस्कृत के भी पण्डित बन गये होंगे। भला यह बात अपने मान, प्रतिष्ठा और अपनी प्रख्याति की इच्छा के विना कभी न करते। उनको अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा अवश्य थी, नहीं तो जैसी भाषा जानते थे, कहते रहते और यह भी कह देते कि मैं संस्कृत नहीं पढ़ा। जब कुछ अभिमान था तो मान-प्रतिष्ठा के लिये कुछ दम्भ भी किया होगा, इसीलिये उनके ग्रन्थ में जहाँ-तहाँ वेदों की निन्दा और स्तुति भी है, क्योंकि जो ऐसा न करते तो उनसे भी कोई वेद का अर्थ पूछता, जब न आता तब प्रतिष्ठा नष्ट होती, इसलिये पहिले ही अपने शिष्यों के सामने कहीं-कहीं वेदों के विरुद्ध बोलते थे और कहीं-कहीं वेद के लिये अच्छा भी कहा है। क्योंकि जो कहीं अच्छा न कहते तो लोग उनको नास्तिक बनाते। जैसे—

वेद पढ़त ब्रह्मा मरे चारों वेद कहानि।

सन्त की महिमा वेद न जानी।  [ऊह्य॰—सुखमनी अष्टपदी ७, पद ८]

ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर॥    [ऊह्य॰—सु॰ अष्ट॰ ८, पद ६]

क्या वेद पढ़नेवाले मर गये और नानकजी आदि अपने को अमर समझते थे? क्या वे नहीं मर गये? वेद तो सब विद्याओं का भण्डार है, परन्तु जो चारों वेदों को कहानी कहे, उसकी सब बात कहानी हैं। जो मूर्खों का नाम सन्त होता है, वे बिचारे वेदों का महिमा कभी नहीं जान सकते। जो नानकजी वेदों ही का मान करते तो उनका सम्प्रदाय न चलता, न वे गुरु बन सकते थे, क्योंकि संस्कृत-विद्या तो पढ़े ही नहीं थे तो दूसरे को पढ़ाकर शिष्य कैसे बना सकते थे?

यह सच है कि जिस समय नानकजी पञ्जाब में हुए थे, उस समय पञ्जाब संस्कृत-विद्या से सर्वथा रहित, मुसलमानों से पीड़ित था। उस समय उन्होंने कुछ लोगों को बचाया। नानकजी के सामने कुछ उनका सम्प्रदाय वा बहुत से शिष्य नहीं हुए थे। क्योंकि अविद्वानों में यह चाल है कि मरे पीछे उनको सिद्ध बना लेते हैं, पश्चात् बहुत सा माहात्म्य करके ईश्वर के समान मान लेते हैं।

हां, नानकजी बड़े धनाढ्य, रईस भी नहीं थे परन्तु उनके चेलों ने ‘नानकचन्द्रोदय’ और ‘जन्मसाखी’ आदि में बड़े सिद्ध और बड़े ऐश्वर्यवाले थे, लिखा है। नानकजी ब्रह्मा आदि से मिले, बड़ी बातचीत की, सबने इनका मान्य किया। नानकजी के विवाह में बहुत से घोड़े, रथ, हाथी सोने-चाँदी, मोती रत्नों से सजे हुए और अमूल्य रत्नों का पारावार न था, लिखा है। भला, ये गपोड़े नहीं तो क्या हैं? इसमें इनके चेलों का दोष है, नानकजी का नहीं।

दूसरा—उनके पीछे उनके लड़के से उदासी चले, और रामदास आदि से निर्मले। कितने ही गद्दीवालों ने भाषा बनाकर ग्रन्थ में रक्खी है। अर्थात् इनका गुरु गोविन्दसिंहजी दशमा हुआ। उनके पीछे उस ग्रन्थ में किसी की भाषा नहीं मिलाई गई किन्तु वहाँ तक के जितने छोटे-छोटे पुस्तक थे, उन सबको इकट्ठे करके जिल्द बँधवा दी। इन लोगों ने भी नानकजी के पीछे बहुत-सी भाषा बनाई। कितने ही ने नाना प्रकार की पुराणों की मिथ्या कथा के तुल्य बना दिये। परन्तु ‘ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर’ बन के उस पर कर्म, उपासना छोड़कर इनके शिष्य झुकते आये, इसने बहुत बिगाड़ कर दिया। नहीं, जो नानकजी ने कुछ भक्ति-विशेष ईश्वर की लिखी थी उसे करते आते तो अच्छा था।

अब उदासी कहते हैं “हम बड़े”, निर्मले कहते हैं “हम बड़े”, अकाली तथा सुतरेसाई कहते हैं कि “सर्वोपरि हम हैं।”

इनमें गोविन्दसिंहजी शूरवीर हुए। जो मुसलमानों ने उनके पुरुषाओं को बहुत-सा दुःख दिया था, उनसे वैर लेना चाहते थे, परन्तु इनके पास कुछ सामग्री न थी और उधर मुसलमानों की बादशाही प्रज्वलित हो रही थी। इन्होंने एक पुरश्चरण करवाया। प्रसिद्धि की कि “मुझको देवी ने वर और खड्ग दिया है कि तुम मुसलमानों से लड़ो, तुम्हारा विजय होगा”। बहुत लोग उनके साथी हो गये और उन्होंने, जैसे वाममार्गियों ने ‘पञ्च मकार’, चक्राङ्कितों ने ‘पञ्च संस्कार’ चलाये थे, वैसे ‘पञ्च ककार’ अर्थात् इनके पञ्च ककार युद्ध के उपयोगी थे।

एक ‘केश’ अर्थात् जिसके रखने से लड़ाई में लकड़ी और तलवार से कुछ बचावट हो।

दूसरा ‘कंगण’ जो शिर के ऊपर पगड़ी में अकाली लोग रखते हैं और हाथ में ‘कड़ा’ जिससे हाथ और शिर बच सकें।

तीसरा ‘काछ’ अर्थात् जानु के ऊपर एक जांघिया कि जो दौड़ने, कूदने में अच्छा होता है। बहुत करके अखाड़मल्ल और नट भी इसको इसीलिये धारण करते हैं कि जिससे शरीर का मर्मस्थान ढका रहै और अटकाव न हो।

चौथा ‘कंगा’ कि जिससे केश सुधरते हैं।

पाँचवाँ काचू कि जिससे शत्रु से भेंट-भड़क्का होने से लड़ाई में काम आवे।

इसीलिये यह रीति गोविन्दसिंहजी ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिये की थी। अब इस समय में उनका रखना कुछ उपयोगी नहीं है। परन्तु अब जो युद्ध के प्रयोजन के लिये बातें कर्त्तव्य थीं, उनको धर्म के साथ मान ली हैं।

मूर्त्तिपूजा तो नहीं करते परन्तु उससे विशेष ग्रन्थ की पूजा करते हैं, क्या यह मूर्त्तिपूजा नहीं है? किसी जड़ पदार्थ के सामने शिर झुकाना वा उसकी पूजा करनी सब मूर्त्तिपूजा है। जैसे मूर्त्तिवालों ने अपनी दुकान जमाकर जीविका ठाड़ी की है, वैसे इन लोगों ने भी कर ली है। जैसे पूजारी लोग मूर्त्ति का दर्शन कराते, भेट चढ़वाते हैं, वैसे नानकपन्थी लोग ग्रन्थ की पूजा करते-कराते, भेंट भी चढ़वाते हैं। अर्थात् मूर्त्तिपूजावाले जितना वेद का मान्य करते हैं, उतना भी ये लोग ग्रन्थसाहबवाले नहीं करते। हां, यह कहा जा सकता है कि इन्होंने वेदों को न सुना न देखा, क्या करें? जो सुनने और देखने में आवें तो बुद्धिमान् लोग जो कि हठी-दुराग्रही नहीं हैं, सब सम्प्रदायवाले वेदमत में आ जाते हैं। परन्तु इन सबने भोजन का बखेड़ा बहुत-सा हठा दिया है। जैसे इसको हठाया, वैसे विषयासक्ति और दुरभिमान को भी हठाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।

प्रश्न—दादूपन्थी का मार्ग तो अच्छा है?

उत्तर—अच्छा तो वेदमार्ग है, जो पकड़ा जाय तो पकड़ो, नहीं तो सदा गोते खाते रहोगे। इनके मत में दादूजी का जन्म गुजरात में हुआ था। पुनः जयपुर के पास ‘आमेर’ में रहते थे। तेली का काम करते थे। ईश्वर की सृष्टि की विचित्र लीला है कि दादूजी भी पुजाने लग गये। अब वेदादि शास्त्रों की सब बातें छोड़ कर ‘दादूराम-दादूराम’ में ही मुक्ति मानली है। जब सत्योपदेशक नहीं होता तब ऐसे-ऐसे ही बखेड़े चला करते हैं।

थोड़े दिन हुए कि एक ‘रामस्नेही’ मत शाहपुरे से चला है। वे सब वेदोक्त धर्म छोड़ ‘राम-राम’ पुकार रहे हैं। उसी में ज्ञान, ध्यान, मुक्ति मानते हैं। परन्तु जब भूख लगती है, तब ‘रामनाम’ में से रोटी नहीं निकलती, क्योंकि खानपान आदि तो गृहस्थों के घर ही में मिलते हैं। वे भी मूर्त्तिपूजा को धिक्कारते हैं परन्तु आप स्वयं मूर्त्ति बन रहे हैं। स्त्रियों के सङ्ग में बहुत रहते हैं, क्योंकि रामजी-रामकी के विना आनन्द ही नहीं मिल सकता।

अब थोड़ा-सा विशेष रामस्नेही के मत विषय में लिखते हैं—

एक ‘रामचरण’ नामक साधु हुआ है, जिसका मत मुख्यकर ‘शाहपुरा’ स्थान मेवाड़ से चला है। वे ‘राम-राम’ करने ही को परममन्त्र और इसी को सिद्धान्त मानते हैं। उनका एक ग्रन्थ कि जिसमें सन्तदासजी आदि की वाणी हैं, ऐसा लिखते हैं—

उनका वचन—

भरम रोग तब ही मिट्या, रट्या निरंजन राइ।

जब जम का कागज फट्या, कट्या करम तब जाइ॥१॥

[ऊह्य—सुमरण को अङ्ग १७]

अब बुद्धिमान् लोग विचार लेवें कि ‘राम-राम’ करने से भ्रम जोकि अज्ञान है, वा यमराज का पापानुकूल शासन अथवा किये हुए कर्म कभी छूट सकते हैं, वा नहीं? यह केवल मनुष्यों को पापों में फसाना और मनुष्य जन्म को नष्ट कर देना है।

अब इनका जो मुख्य गुरु हुआ है ‘रामचरण’, उसका वचन—

महमा नांव प्रताप की, सुणौ सरवण चित लाइ।

रामचरण रसना रटौ, क्रम सकल झड़ जाइ॥१॥

जिन जिन सुमर्या नांव कूं, सो सब उतर्या पार।

रांमचरण जो बीसर्या, सो ही जम कै द्वारि॥२॥

रांम विना सब झूंठ बतायौ॥

रांम भजत छूट्या सब क्रम्मा। चंद अरु सूर देइ परकम्मा॥

रांम कहे तिन कूं भै नाहीं। तीन लोक मैं कीरतिं गाहीं॥

रांम रटत जम जोर न लागै॥

रांम नाम लिष पथर तराई। भगति हेति औतार ही धराई॥

ऊंच नीच कुल भेद बिचारै। सो तो जनम आपणो हारै॥

सन्ता कै कुल दीसै नाहीं। रांम रांम कह रांम सम्हाहीं॥

ऐसो कुण जो कीरति गावै। हरि हरिजन कौ पार न पावै॥

रांम संता का अन्त न आवै। आप आपकी बुद्धि सम गावै॥

[ऊह्य—नामप्रताप]

इसका खण्डन—

प्रथम तो रामचरण आदि के ग्रन्थ देखने से विदित होता है कि यह ग्रामीण एक सादा सीधा मनुष्य था। न वह कुछ पढ़ा था, नहीं तो ऐसी गपड़चौथ क्यों लिखता? यह केवल इनको भ्रम है कि राम-राम कहने से कर्म छूट जायं। केवल ये अपना और दूसरों का जन्म खोते हैं।

जम का भय तो बड़ा भारी है परन्तु राजसिपाही, चोर, डाकू, व्याघ्र, सर्प, बीछू और मच्छर आदि का भय कभी नहीं छूटता। चाहे रात-दिन राम-राम किया करे, कुछ भी नहीं होगा। जैसे सक्कर-सक्कर करने से मुख मीठा नहीं होता, वैसे सत्यभाषणादि धर्म किये विना ‘राम-राम’ करने से कुछ भी नहीं होगा और यदि राम-राम करना इनका राम नहीं सुनता तो जन्म-भर कहने से भी नहीं सुनेगा और जो सुनता है तो दूसरी वार भी राम-राम कहना व्यर्थ है। इन लोगों ने अपना पेट भरने और दूसरों का भी जन्म नष्ट करने के लिये एक पाखण्ड खड़ा किया है। सो यह बड़ा आश्चर्य है। हम सुनते और देखते हैं कि नाम तो धरा ‘रामसनेही’ और काम करते ‘राँडसनेही का। जहाँ देखो वहाँ रांड ही रांड सन्तों को घेर रही हैं। यदि ऐसे-ऐसे पाखण्ड न चलते तो आर्य्यावर्त्त देश की दुर्दशा क्यों होती? ये लोग अपने चेलों को जूठ खिलाते, स्त्रियाँ भी लम्बी पड़के दण्डवत् प्रणाम करती हैं। एकान्त में भी स्त्रियों और साधुओं की लीला होती रहती है।

अब दूसरी इनकी शाखा ‘खेड़ापा’ ग्राम मारवाड़ देश से चली है। उसका इतिहास—एक रामदास नामक जाति का ढेढ़ बड़ा चालाक था। उसके दो स्त्रियाँ थीं। वह प्रथम बहुत दिन तक औघड़ होकर कुत्तों के साथ खाता रहा। पीछे वामी कूण्डापन्थी। पीछे ‘रामदेव’ का ‘कामड़िया१’ बना। अपनी दोनों स्त्रियों के साथ गाता था। ऐसे घूमता-घूमता ‘सीथल२’ में ढेढ़ों का गुरु ‘रामदास’ था, उससे मिला। उसने उसको ‘रामदेव’ का पन्थ बताके अपना चेला बनाया। उस रामदास ने खेड़ापा ग्राम में जगह बनाई और इसका इधर मत चला, उधर शाहपुरे में रामचरण का।

उसका भी इतिहास ऐसा सुना है कि वह जयपुर का बनिया था। उसने ‘दांतड़ा’ ग्राम में एक साधु से वेष लिया और उसको गुरु किया और शाहपुरे में आके टिक्की जमाई। भोले मनुष्यों में पाखण्ड की जड़ शीघ्र जम जाती है, जम गई। इन सबमें ऊपर के रामचरण के वचनों के प्रमाण से चेला करके ऊँच-नीच का कुछ भेद नहीं। ब्राह्मण से अन्त्यज पर्यन्त इनमें चेले बनते हैं। अब भी कूँडापन्थी से ही हैं, क्योंकि मिट्टी के कूँडों में ही खाते हैं और साधुओं की जूठ खाते हैं, वेदधर्म से, माता, पिता, संसार के व्यवहार से बहकाकर छुड़ा देते और चेला बना लेते हैं और राम नाम को महामन्त्र मानते हैं; और इसी को ‘छुच्छम३’ वेद भी कहते हैं। राम-राम कहने से अनन्त जन्मों के पाप छूट जाते हैं, इसके विना मुक्ति किसी की नहीं होती।

जो श्वास और प्रश्वास के साथ राम-राम करना बतावे, उसको ‘सत्यगुरु’ कहते हैं और सत्यगुरु को परमेश्वर से भी बड़ा मानते हैं और उसकी मूर्त्ति का ध्यान करते हैं। साधुओं के चरण धोके पीते हैं। जब गुरु से चेला दूर जावे तो गुरु के नख और डाढ़ी के बाल अपने पास रख लेवे। उसका चरणामृत नित्य लेवे। रामदास और हररामदास के वाणी के पुस्तक को वेद से अधिक मानते हैं। उसकी परिक्रमा और आठ दण्डवत् प्रणाम करते हैं और जो गुरु समीप हो तो गुरु को दण्डवत् प्रणाम कर लेते हैं। स्त्री वा पुरुष को ‘राम-राम’ एक-सा ही उपदेश करते हैं, नामस्मरण से कल्याण मानते हैं, और पढ़ने में पाप समझते हैं। उनकी साखी—

पंडताइ पाने पड़ी, ओ पूरब लो पाप।

राम-राम सुमर्यां विना, रइग्यौ रीतो आप॥१॥

वेद पुराण पढ़े पढ़ गीता। रांमभजन बिन रइ गए रीता॥

ऐसे-ऐसे पुस्तक बनाये हैं। स्त्री को पति की सेवा में पाप और गुरु-साधु की सेवा में धर्म बतलाते हैं। वर्णाश्रम को नहीं मानते। जो ब्राह्मण रामस्नेही न हो तो उसको नीच, और चाण्डाल रामस्नेही हो तो उसको उत्तम जानते हैं।

अब, ईश्वर का अवतार नहीं मानते और रामचरण का वचन जो ऊपर लिख आये कि—भगति हेति औतार ही धराई।

सन्तों के हित अवतार को भी मानते हैं, इत्यादि पाखण्ड-प्रपञ्च इनका जितना है, सो सब आर्यावर्त्त देश का अहितकारक है। इतने ही से बुद्धिमान् बहुत-सा समझ लेंगे।

प्रश्न—गोकुलिये गुसाइयों का मत तो बहुत अच्छा है। देखो! कैसा ऐश्वर्य भोगते हैं। क्या यह ऐश्वर्य्य लीला के विना ऐसा हो सकता है?

उत्तर—यह ऐश्वर्य गृहस्थ लोगों का है, गुसाइयों का कुछ नहीं।

प्रश्न—वाह-वाह! गुसाइयों के प्रताप से है। क्योंकि ऐसा ऐश्वर्य दूसरों को क्यों नहीं मिलता?

उत्तर—दूसरे भी इसी प्रकार का छल-प्रपञ्च रचें तो ऐश्वर्य्य मिलने में क्या सन्देह है? और जो इनसे अधिक धूर्त्तता करे तो अधिक ऐश्वर्य्य भी हो सकता है।

प्रश्न—वाह वाह! धूर्त्तता क्या है? सब गोलोक की लीला है।

उत्तर—गोलोक की लीला नहीं किन्तु गुसाइयों की लीला है। जो गोलोक की लीला है तो गोलोक भी ऐसा ही होगा।

यह मत ‘तैलङ्ग’ देश से चला है। क्योंकि एक तैलङ्गी लक्ष्मणभट्ट नामक ब्राह्मण विवाह कर किसी कारण से माता, पिता, स्त्री को छोड़ काशी में जाके उसने संन्यास ले लिया था और झूठ बोला था कि मेरा विवाह नहीं हुआ। दैवयोग से उसके माता, पिता और स्त्री ने सुना कि काशी में संन्यासी हो गया। उसके माता-पिता और स्त्री काशी में पहुँच कर जिसने उसको संन्यास दिया था, उनसे कहा कि “इसको संन्यासी क्यों किया? देखो! इसकी यह युवति स्त्री है।” और स्त्री ने कहा कि “यदि आप मेरे पति को मेरे साथ न करें तो मुझको भी संन्यास दे दीजिये।” तब तो उसको बुलाके कहा कि तू बड़ा मिथ्यावादी है। संन्यास छोड़ गृहाश्रम कर; क्योंकि तूने झूठ बोलकर संन्यास लिया है।” उसने वैसा ही किया। संन्यास छोड़ उसके साथ हो लिया।

देखो! इस मत का मूल ही झूठ-कपट से चला। जब तैलङ्ग देश में गये, उसको जाति में किसी ने न लिया। वहाँ से निकलकर घूमने लगे। ‘चरणार्गढ’ जो काशी के पास है, उसके पास ‘चम्पारण्य’ जङ्गल में चले जाते थे। वहाँ कोई एक लड़के को जङ्गल में छोड़ चारों ओर दूर-दूर आगी जलाकर चला गया था। क्योंकि छोड़नेवाले ने यह समझा था—जो आगी न जलाऊंगा तो अभी कोई जानवर मार डालेगा। लक्ष्मणभट्ट और उसकी स्त्री ने लड़के को लेकर अपना पुत्र बना लिया। फिर काशी में जा रहे। जब वह लड़का बड़ा हुआ तब उसके मा-बाप का शरीर छूट गया। काशी में बाल्यावस्था से युवावस्था तक कुछ पढ़ता भी रहा, फिर एक विष्णुस्वामी के मन्दिर में चेला हो गया। वहाँ से भी कुछ खटपट होने से काशी को फिर चला गया और संन्यास ले लिया। फिर कोई वैसा ही जातिबहिष्कृत ब्राह्मण काशी में रहता था। उसकी लड़की युवति थी। उसने इससे कहा कि “तू संन्यास छोड़ मेरी लड़की से विवाह कर ले।” वैसा ही हुआ। जिसके बाप ने जैसी लीला की थी वैसी पुत्र क्यों न करे? उस स्त्री को लेकर वहीं चला गया कि जहाँ प्रथम विष्णुस्वामी के मन्दिर में चेला हुआ था। विवाह करने से उनको वहाँ से निकाल दिया। फिर ब्रजदेश में कि जहाँ अविद्या ने घर कर रक्खा है, जाकर, अपना प्रपञ्च अनेक प्रकार की छल-युक्तियों से फैलाने लगा और कहने लगा कि मुझसे कृष्ण ने कहा है कि “जो गोलोक से ‘दैवीजीव’ मर्त्यलोक में आये हैं, उनको ब्रह्मसम्बन्ध आदि से पवित्र करके गोलोक में भेजो।” इत्यादि प्रलोभन की बातें कह के थोड़े से लोगों को अर्थात् ८४ चौरासी वैष्णव बनाये और —

श्रीकृष्णः शरणं मम॥१॥

दूसरा—क्लीं कृष्णाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा॥२॥

[गोपालसहस्रनाम तथा पद्मपुराण (६) उत्तर खण्ड ७२।१२२]

ये दोनों साधारण मन्त्र दरिद्रों के लिए बनाये हैं, परन्तु यह निम्नोक्त ब्रह्मसम्बन्ध और समर्पण का मन्त्र कहाता है—

श्रीकृष्णः शरणं मम सहस्रपरिवत्सरमितकालजातकृष्णवि-योगजनिततापक्लेशानन्ततिरोभावोऽहं भगवते कृष्णाय देहेन्द्रिय-प्राणान्तःकरणतद्धर्मांश्च दारागारपुत्राप्तवित्तेहपराण्यात्मना सह समर्प्पयामि दासोऽहं कृष्ण तवास्मि॥

इस मन्त्र का उपदेश करके शिष्यों को समर्पण कराते हैं। ‘क्लीं कृष्णायेति’—यह ‘क्लीं’ तन्त्र ग्रन्थ का है। इससे विदित होता है कि यह वल्लभमत भी वाममार्गियों का भेद है। इसी से स्त्री सङ्ग गुसाईं लोग बहुत करते हैं। ‘गोपीवल्लभेति’—क्या कृष्ण गोपियों ही को प्रिय थे, अन्य को नहीं? स्त्रियों को प्रिय वह होता है जो ‘स्त्रैण’ अर्थात् स्त्रीभोग में फसा हो। क्या कृष्ण ऐसे थे?

अब ‘सहस्रपरिवत्सरेति’—सहस्र वर्षों की गणना व्यर्थ है, क्योंकि वल्लभ और उसके शिष्य सर्वज्ञ नहीं हैं। क्या कृष्ण का वियोग सहस्र वर्षों से हुआ? और आज लों अर्थात् जब लों वल्लभ का मत न था, न वल्लभ जन्मा था, उसके पूर्व अपने दैवी जीवों के उद्धार करने को क्यों न आया?

‘ताप’ और ‘क्लेश’ पर्यायवाची हैं। इनमें से एक का ग्रहण करना उचित था, दो का नहीं। ‘अनन्त’ शब्द का पाठ करना व्यर्थ है, क्योंकि जो ‘अनन्त’ शब्द है तो ‘सहस्र’ का पाठ न करना चाहिये। और जो सहस्र शब्द का पाठ रक्खो तो अनन्त शब्द का पाठ रखना सर्वथा व्यर्थ है। और जो अनन्तकाल लों ‘तिरोहित’ अर्थात् आच्छादित रहै, उसकी मुक्ति के लिये वल्लभ का होना व्यर्थ है, क्योंकि अनन्त का अन्त नहीं होता।

भला! देहेन्द्रिय, प्राणान्तःकरण और उसके धर्म स्त्री, स्थान, पुत्र, प्राप्त-धन का अर्पण कृष्ण को क्यों करना? क्योंकि कृष्ण पूर्णकाम होने से किसी के देहादि की इच्छा नहीं कर सकते और देहादि का अर्पण करना भी नहीं हो सकता, क्योंकि देह के अर्पण से नखशिखाग्रपर्यन्त देह कहाता है। उनमें जो कुछ अच्छी-बुरी वस्तु है, मल-मूत्रादि का भी अर्पण कैसे कर सकोगे? और जो पाप-पुण्यरूप कर्म होते हैं, उनको कृष्णार्पण करने से उनका फलभागी भी कृष्ण ही होवे अर्थात् नाम तो कृष्ण का लेते हैं और अर्पण अपने से कराते हैं। जो कुछ शरीर में मलमूत्रादि होता है, वह भी गोसाईंजी के अर्पण क्यों नहीं होता? ‘क्या मीठा-मीठा गड़प्प और कड़ुवा कड़ुवा थू’? और यह भी लिखा है कि गोसाईंजी के अर्पण करना, अन्य मत वाले के नहीं। यह सब स्वार्थ-सिन्धुपन और पराये धनादि पदार्थ हरने, वेदोक्त धर्म-नाश करने की लीला है। देखो! यह वल्लभ की लीला—

श्रावणस्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि।

साक्षाद्भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते॥१॥

ब्रह्मसम्बन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः।

सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः॥२॥

सहजा देशकालोत्था लोकवेदनिरूपिताः।

संयोगजाः स्पर्शजाश्च न मन्तव्याः कदाचन॥३॥

अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्तिः कथञ्चन।

असमर्पितवस्तूनां तस्माद्वर्ज्जनमाचरेत्॥४॥

निवेदिभिः समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थितिः।

न मतं देवदेवस्य स्वामिभुक्तिसमर्प्पणम्॥५॥

तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तुसमर्प्पणम्।

दत्तापहारवचनं तथा च सकलं हरेः॥६॥

न ग्राह्यमिति वाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम्।

सेवकानां यथा लोके व्यवहारः प्रसिध्यति॥७॥

तथा कार्य्यं समर्प्यैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः।

गङ्गात्वे गुणदोषाणां गुणदोषादिवर्णनम्॥८॥

ये श्लोक गोसाइयों के ‘सिद्धान्तरहस्यादि’ ग्रन्थों में लिखे हैं। यही गोसाईं के मत का मूल तत्त्व है। भला, कोई पूछे कि श्रीकृष्ण के देहान्त हुए कुछ कम पाँच सहस्र वर्ष बीते। वह वल्लभ श्रावण मास की आधी रात को कैसे मिल सके? ॥१॥

जो गोसाईं का चेला होता है और उसको सब पदार्थों का समर्पण करता है, उसके शरीर और जीव के सब दोषों की निवृत्ति हो जाती है। यही वल्लभ का प्रपञ्च मूर्खों को बहकाकर अपने मत में लाने का है। जो गोसाईं के चेले-चेलियों के सब दोष निवृत्त हो जायें तो रोग-दारिद्र्यादि से पीड़ित क्यों रहैं? और वे दोष पाँच प्रकार के होते हैं॥२॥

एक—सहजदोष अर्थात् जो ‘स्वाभाविक’ काम-क्रोधादि से उत्पन्न होते हैं। दूसरे—किसी देश, काल में नाना प्रकार के पाप किये जायें।

तीसरे—लोक में जिनको भक्ष्याभक्ष्य कहते और वेदोक्त जोकि मिथ्याभाषणादि हैं।

चौथे—‘संयोगज’ जो बुरे सङ्ग अर्थात् चोरी, जारी, माता, भगिनी, कन्या, पुत्रवधू, गुरुपत्नी आदि से संयोग करना।

पाँचवें—‘स्पर्शज’ अस्पर्शनीयों का स्पर्श करना। इन पाँच दोषों को गोसाइयों के मतवाले कभी न मानें अर्थात् यथेष्टाचार करें॥३॥

‘अन्य कोई प्रकार दोषों की निवृत्ति के लिए नहीं हैं, विना गोसाईं के मत के। इसलिए विना समर्पण किये पदार्थ को गोसाइयों के चेले न भोगें।’ इसीलिये इनके चेले अपनी स्त्री, कन्या, पुत्रवधू और धनादि पदार्थों को भी समर्पित करते हैं। परन्तु समर्पण का नियम यह है कि जब लों गोसाईं जी की चरणसेवा में समर्पित न हो, तब लों उसका स्वामी स्वस्त्री का स्पर्श न करे॥४॥

इससे गोसाइयों के चेले समर्पण करके अपना-अपना भोग करें, क्योंकि स्वामी के भोग के पश्चात् समर्पण नहीं हो सकता॥५॥

इससे प्रथम सब कामों में सब वस्तुओं का समर्पण करें। प्रथम गोसाईंजी को भार्यादि समर्पण करके पश्चात् ग्रहण करें, वैसे ही हरि के सम्पूर्ण पदार्थ समर्पण करके ग्रहण करें॥६॥

गोसाईं के मत से भिन्न-मार्ग के वाक्य को गोसाईं के शिष्य कभी न सुनें, न ग्रहण करें, यही उनके शिष्यों का व्यवहार प्रसिद्ध है॥७॥

वैसे ही सब वस्तुओं का समर्पण करके सबके बीच में ब्रह्मबुद्धि करे। उसके पश्चात् जैसे गङ्गा में अन्य जल मिलकर गङ्गारूप हो जाते हैं, वैसे ही अपने मत में गुण और दूसरे मत में दोष का वर्णन किया करें॥८॥

अब लीजिए कि गोसाइयों का मत सब मतों से अधिक अपना प्रयोजन सिद्ध करनेहारा है। भला इन गोसाइयों को पूछे कि ब्रह्म का एक लक्षण भी तुम नहीं जानते तो शिष्यों का ब्रह्मसम्बन्ध कैसे करा सकोगे? जो कहो कि हम ही ब्रह्म हैं, हमारे साथ सम्बन्ध होने से ब्रह्मसम्बन्ध होता है। तो तुम में ब्रह्म के गुण-कर्म-स्वभाव एक भी नहीं है, पुनः क्या तुम केवल भोग-विलास के लिए ब्रह्म बने हो?

भला, शिष्य और शिष्याओं को तो तुम अपने साथ समर्पित करके शुद्ध करते हो और तुम और तुम्हारी भार्या, कन्या, पुत्रवधू तथा पुत्रादि असमर्पित रहने से अशुद्ध रह गये वा नहीं? जो असमर्पित वस्तु को अशुद्ध मानते हो तो तुम अशुद्ध क्यों नहीं? इसलिये तुम और तुम्हारी भार्या और पुत्रादि अन्य के साथ समर्पित होना चाहिये वा नहीं? जो कहो कि नहीं तो अन्य को अपने साथ समर्पित क्यों करते हो? इसलिये तुमको उचित है कि वेदमत को मानो और मिथ्या प्रपञ्चादि बुराइयों को छोड़ो, जिससे इस लोक और परलोक की शुद्धि होकर आनन्द पाओ।

ये अपने सम्प्रदाय को ‘पुष्टिमार्ग’ कहते हैं अर्थात् खाना-पीना, पुष्ट होना, सब स्त्रियों से यथेष्ट भोग-विलास करना। परन्तु जब भगन्दरादि रोग हो जाते हैं तो यही मत साक्षात् नरक मार्ग हो जाता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे-ऐसे पशुवत् क्रीडा करने वालों का भी मत संसार में चल जाता है। कहाँ तक लिखें इनकी सब लीला ऐसी ही शास्त्रविरुद्ध पापवर्द्धक है।

इसी प्रकार मिथ्याजाल रच के बिचारे भोले मनुष्यों को जाल में फसाया और अपने आपको श्रीकृष्ण मानकर सबके स्वामी मानते हैं। यह कहते हैं कि “जितने दैवी जीव गोलोक से आये हैं, उनके उद्धार करने के लिए हम लीला पुरुषोत्तम जन्मे हैं। जब तक हमारा उपदेश न ले तब तक गोलोक की प्राप्ति नहीं होती। वहाँ एक श्रीकृष्ण पुरुष और सब स्त्रियाँ हैं।”

वाह जी वाह! अच्छा मत है!! गोसाइयों के जितने चेले हैं, वे सब गोपियाँ बन जायेंगी। भला जिस एक पुरुष की दो स्त्री हैं, उसकी बड़ी दुर्दशा होती है तो जहाँ एक पुरुष और करोड़ों स्त्री एक के पीछे लगी हैं, उसके दुःख का पार नहीं। जो कहो कि श्रीकृष्ण में बड़ा सामर्थ्य है, सबको प्रसन्न करते हैं तो जो उसकी स्त्री जिसको स्वामिनीजी कहते हैं, उसमें भी श्रीकृष्ण के तुल्य सामर्थ्य होगा क्योंकि वह उनकी अर्द्धांगिनी है। जैसे यहाँ स्त्री पुरुष की कामचेष्टा तुल्य अथवा पुरुष से स्त्री की अधिक होती है तो गोलोक में क्यों नहीं? जब ऐसा है तो अन्य स्त्रियों और स्वामिनीजी की अत्यन्त लड़ाइयां होती होंगी, क्योंकि सपत्नीभाव बहुत बुरा होता है। पुनः वह गोलोक स्वर्ग के बदले नरकवत् हो गया होगा। अथवा जैसे बहुस्त्रीगामी पुरुष भगन्दरादि रोगों से पीडित रहता है, वैसा गोलोक में भी होगा। ऐसे गोलोक से मर्त्यलोक ही अच्छा है।

देखो! जैसे यहाँ गोसाईं लोग अपने को कृष्ण मानते हैं, बहुत स्त्रियों के संग से भगन्दर प्रमेहादि रोगों से पीडित हैं तो अब जिनका स्वरूप ‘गोसाईं’ पीडित होते हैं तो गोलोक का स्वामी श्रीकृष्ण इन रोगों से पीडित क्यों नहीं होगा? और जो नहीं है तो उनका स्वरूप गोसाईं पीडित क्यों होते हैं?

प्रश्न—मर्त्यलोक में लीलावतार धारण करने से रोग-दोष होता है, गोलोक में नहीं, क्योंकि वहाँ रोग-दोष नहीं।

उत्तर—‘भोगे रोगभयम्’ [भर्तृहरि वैराग्यशतक, श्लोक ३३] जहाँ भोग है, वहाँ रोग अवश्य होता है। और श्रीकृष्ण के करोड़ों-करोड़ों स्त्रियों से सन्तान होते हैं, वा नहीं? जो होते हैं तो लड़के-लड़के होते हैं वा लड़की-लड़की? अथवा दोनों? जो लड़कियां होती हैं तो उनका विवाह किनके साथ होता होगा? क्योंकि वहाँ दूसरा कोई पुरुष नहीं। जो दूसरा है तो तुम्हारी प्रतिज्ञा-हानि हुई और लड़कों का विवाह कहाँ होता है? अथवा घर ही में वर्त लेते हैं? अन्य के लड़के हैं तो भी तुम्हारी प्रतिज्ञा ‘गोलोक में एक ही श्रीकृष्ण पुरुष’ नष्ट हो जाएगी और जो सन्तान होते ही नहीं तो कृष्ण अथवा उनकी स्त्रियों के शरीर में वीर्यहीनता वा बन्ध्यापन दोष होगा। यह गोलोक क्या है, जानो दिल्ली के बादशाह की बीबियों की सेना!

और गुसाईं लोग तन-मन धन अपने अर्पण शिष्यों-शिष्याओं का करा लेते हैं। जो शरीर है वह विवाहित स्त्री और पति के समर्पण हो जाता है और मन भी फिर दूसरे पुरुष के समर्पण नहीं हो सकता, जो हो सकता है तो वह स्त्री दो पति वाली होकर व्यभिचारिणी कहावेगी। और जो नखशिखाग्रशरीर गुसाईंजी के अर्पण है तो उसमें उत्पन्न हुये धातु, मल, मूत्रादि भी गुसाईंजी के अर्पित हो चुके और धन का अर्पण इसलिये कराते हैं कि कमावें चेले और भोगें गुसांई। जितने गुसाईं हैं, वे अब तक तैलङ्ग की जाति में नहीं हैं। जो कोई इनको लड़की देता है, वह भी जातिबाह्य होकर भ्रष्ट हो जाता है, क्योंकि ये जाति से पतित किए गये और विद्याहीन रात-दिन प्रमाद में रहते हैं।

और देखो! जब कोई उनकी पधरावनी करता है तब जाकर चुपचाप काठ की पुतली-सा बैठा रहता है, न कुछ बोलता न चालता। क्योंकि बोले तो तब जो मूर्ख न हो। ‘मूर्खाणां बलं मौनम्’ मूर्खों का बल मौन में है। जो बोले तो उसकी पोल निकल जाय, परन्तु स्त्रियों की ओर खूब ताकता रहता है जिसकी ओर गुसाईंजी देखें वह स्त्री, उसके पति, भाई, बन्धु, माता, पिता बड़े प्रसन्न होते हैं। सब स्त्रियाँ पग छूती हैं। जिस पर गुसाईं का मन लगे उसका हाथ पग के अँगूठे से दाब देता है। वह स्त्री और उसके सम्बन्धी अपना धन्य भाग्य समझते हैं उसके पति आदि उस स्त्री से कहते हैं कि तू गुसाईंजी की चरणसेवा में जा। और जहाँ कहीं उसके पति आदि प्रसन्न नहीं होते, वहाँ दूती और कुट्टनियों से काम सिद्ध करते हैं। सच पूछो तो ऐसे काम करने-करानेवाले उनके मन्दिर और उनके पास भडुआपन करनेवाले बहुत हैं।

अब इनकी दक्षिणा की लीला अर्थात् वहां इस प्रकार माँगते हैं, लाओ भेट गुसाईंजी की, बहूजी की, लालजी की, बेटीजी की, मुखिया बाहरियाजी की, गवैयाजी की, ठाकुरजी की भेट लाओ, इन सात दुकानों से खूब माल मारते हैं। जब कोई उनका सेवक मरने लगता है तब उसकी छाती में पग छुवा, जो कुछ मिलता है, गुसाईंजी ले लेते हैं। क्या यह महाब्राह्मण, कर्टिया का, मुर्दावली का दान नहीं है? कोई-कोई विवाह में भी गुसाईंजी को बुलाते हैं और लड़का-लड़की का पाणिग्रहण कराते हैं, कोई-कोई सेवक जब ‘केशरिया स्नान’ अर्थात् गुसाईंजी के शरीर पर स्त्री-लोग केशर का उबटना करके एक बड़े पात्र में पट्टा डालके गुसाईंजी को स्त्री-पुरुष स्नान कराते हैं परन्तु विशेष स्त्री स्नान कराती हैं। पुनः जब गुसाईंजी पीताम्बर पहिर, खड़ाऊँ पर पग धर बाहर निकल आते हैं और धोती उसी में पटक देते हैं। उस जल का आचमन उसके सेवक करते हैं और अच्छे मसालेदार पान-बीड़ी गुसाईंजी को देते हैं। वह चाबकर कुछ निगल जाते हैं, शेष एक चाँदी के कटोरे में जिसको उनका सेवक मुख के आगे कर देता है उसमें पीक उगल देते हैं। उसकी भी प्रसादी बटती है जिसको ‘खास प्रसादी’ कहते हैं।

अब विचारिये कि ये लोग किस प्रकार के मनुष्य हैं? जो मूढ़ता और अनाचार होगा तो इतना ही होगा! बहुत से समर्पण लेते हैं। उनमें से कितने ही वैष्णवों के हाथ का खाते हैं, अन्य का नहीं। कितने अपने ही हाथ का बनाया खाते हैं, लकड़े तक को धो लेते हैं परन्तु आटा, गुड़, चीनी, घी आदि धोये विना उनका अस्पर्श बिगड़ जाता है। क्या करें बिचारे! जो इनको धोवें तो पदार्थ ही हाथ से खोवें। वे कहते हैं कि हम ठाकुरजी के रङ्ग, राग, भोग में बहुत सा धन लगा देते हैं। परन्तु वे रङ्ग, राग, भोग आप ही करते हैं और सच पूछो तो बड़े-बड़े अनर्थ होते हैं अर्थात् होली के समय पिचकारियाँ भरकर स्त्रियों के अस्पर्शनीय अवयवों पर मारते हैं और रसविक्रय ब्राह्मण के लिये निषिद्ध है, सो भी करते हैं।

प्रश्न—गुसाईंजी रोटी, दाल, कढ़ी, भात, मठरी, लड्डू आदि को प्रत्यक्ष हाट में बैठ के तो नहीं बेचते, किन्तु अपने नौकर-चाकरों को पत्तल बाँट देते हैं, वे लोग बेचते हैं, गुसाईंजी नहीं।

उत्तर—जो गुसाईंजी उनको मासिक रुपये दें तो वे पत्तल क्यों लेवें? गुसाईंजी अपने नौकरों के हाथ दाल-भात आदि नौकरी के बदले बेचते और वे बाहर बेचते हैं। जो गुसाईंजी बाहर बेचते तो नौकर जो ब्राह्मणादि हैं, वे तो रसविक्रय दोष से बचते, अकेले गुसाईंजी ही रसविक्रय के पाप में फसते। प्रथम आप फसे और अन्यों को फसा दिये। कहीं-कहीं नाथद्वारे आदि में गुसाईंजी भी बेचते हैं। रसविक्रय करना नीचों का काम है, उत्तमों का नहीं। ऐसे-ऐसे लोगों ने आर्य्यावर्त्त की अधोगति कर दी।

प्रश्न—“स्वामीनारायण” का मत कैसा है?

उत्तर—‘यादृशी शीतला देवी, तादृशो वाहनः खरः’ जैसी धनहरणादि में गुसाईं लीला है, वैसी ही स्वामीनारायण की भी है।

जो ‘सहजानन्द’ अयोध्या के पास एक ग्राम का जन्मा हुआ था, वह ब्रह्मचारी होकर गुजरात, काठियावाड़, कछभुज आदि में फिरता था। उसने देखा कि यह देश मूर्ख और भोला है, चाहें वैसे इनको मत में झुका लेंवे। उसने दो चार शिष्य बनाये। उन ने आपस में सम्मति कर प्रसिद्ध किया कि सहजानन्द नारायण का अवतार बड़ा सिद्ध है और चतुर्भुज होकर दर्शन भी देता है।

एक वार काठियावाड़ में किसी ‘काठी’ अर्थात् जिसका नाम ‘दादाखाचर’ था, गढडे का भूमिया (जिमीदार) था। उसको शिष्यों ने कहा कि “तुम चतुर्भुज नारायण का दर्शन करना चाहो तो हम सहजानन्दजी से प्रार्थना करें?” उसने कहा—“बहुत अच्छी बात है।” वह भोला आदमी था। एक कोठरी में सहजानन्द मुकुट धारणकर शंख-चक्र अपने हाथ में ऊपर को धारण किया और एक दूसरा आदमी उसके पीछे खड़ा रहकर गदा-पद्म अपने हाथ में लेकर सहजानन्द की बगल में से आगे को हाथ निकाल चतुर्भुज के तुल्य बन-ठन गये। दादाखाचर से उनके चेलों ने कहा कि “एक वार आँख उठा, देखके आँख मींच लेना और झट इधर को चले आना। जो बहुत देखोगे तो नारायण कोप करेंगे।” अर्थात् चेलों के मन में तो यह था कि हमारे कपट की परीक्षा न कर लेवे। उसको ले गये। वह सहजानन्द कलाबत्तू और चलकने रेशमी कपड़े धारण कर रहा था, अंधेरी कोठरी में खड़ा था, उसके चेलों ने एक दम लालटेन से कोठरी की ओर उजाला किया। दादाखाचर ने देखा तो चतुर्भुज मूर्त्ति देखी, फिर झट दीपक को आड़ में कर दिया। वे सब नीचे गिर, नमस्कार कर दूसरी ओर चले आये और उसी समय बीच में बातें कीं “तुम्हारा धन्य भाग्य है। अब तुम महाराज के चेले हो जाओ”। उसने कहा—“बहुत अच्छी बात।” जब तक फिर के दूसरे स्थान में गये तो वस्त्र बदल के सहजानन्द गद्दी पर बैठा था। तब चेलों ने कहा कि “देखो! अब दूसरा स्वरूप धारण करके यहाँ बैठे हैं।”

वह दादाखाचर इनके जाल में फस गया। वहीं से उनके मत की जड़ जम गई क्योंकि वह एक बड़ा भूमिया था। वहीं अपनी जड़ जमा ली। पुनः इधर-उधर घूमता रहा, सबको उपदेश करता था, बहुतों को साधु भी बनाता था। कभी-कभी साधु की कण्ठ की नाड़ी को मलकर मूर्छित भी कर देता था और सबसे कहता था कि हमने इनको समाधि चढ़ा दी है। ऐसी-ऐसी धूर्त्तता में काठियावाड़ के भोले लोग उसके पेच में फस गये। जब वह मर गया तब उसके चेलों ने बहुत-सा पाखण्ड फैलाया।

इसमें यह दृष्टान्त उचित होगा कि जैसे कोई एक चोरी करता पकड़ा गया था। न्यायाधीश ने उसका नाक काट डालने का दण्ड किया। जब उसकी नाक काटी गई तब वह धूर्त्त नाचने, गाने और हँसने लगा। लोगों ने पूछा कि “तू क्यों हँसता है।” उसने कहा—“कुछ कहने की बात नहीं है।” लोगों ने पूछा, “ऐसी कौनसी बात है?” उसने कहा—“बड़ी भारी आश्चर्य की बात है, हमने ऐसी कभी नहीं देखी!” लोगों ने कहा—“कह! क्या बात है?” उसने कहा कि “मेरे सामने साक्षात् चतुर्भुज नारायण खड़े हैं। मैं देखकर बड़ा प्रसन्न होकर नाचता-गाता अपने भाग्य को धन्यवाद देता हूं कि मैं नारायण का साक्षात् दर्शन कर रहा हूँ।” लोगों ने कहा—“हमको दर्शन क्यों नहीं होता?” वह बोला—“नाक की आड़ हो रही है। जो नाक कटवालो तो नारायण दीखे, नहीं तो नहीं।” उनमें से किसी मूर्ख ने चाहा कि नाक जाय तो जाय परन्तु नारायण का दर्शन अवश्य करना चाहिये। उसने कहा कि “मेरी भी नाक काटो, नारायण को दिखलाओ।” उसने उसका नाक काटकर कान में कहा कि “तू भी ऐसा ही कर, नहीं तो मेरा और तेरा उपहास होगा।” उसने भी समझा कि अब नाक आती नहीं, ऐसा ही करना ठीक है, वह भी वैसे ही नाचने, कूदने, गाने, हँसने और कहने लगा कि “मुझको भी नारायण दीखता है।” वैसे होते-होते एक सहस्र मनुष्यों का झुण्ड होगया, बड़ा कोलाहल हुआ, अपने सम्प्रदाय का नाम ‘नारायणदर्शी’ रक्खा। किसी मूर्ख राजा ने सुना उनको बुलाया। जब राजा उनके पास गया तब वे बहुत नाचने, कूदने, हँसने लगे। तब राजा ने पूछा कि “यह क्या बात है।” उन्होंने कहा कि “साक्षात् नारायण हमको दीखता है।”

राजा—हमको क्यों नहीं दीखता?

नारायणदर्शी—जब तक नाक है तब तक नहीं दीखेगा और जब नाक कटवा लोगे, नारायण प्रत्यक्ष दीखेंगे। राजा ने विचारा ठीक है। ज्योतिषीजी! मुहूर्त्त देखिये। “जो हुकम! दशमी के दिन प्रातःकाल आठ बजे नाक कटवाने और नारायण के दर्शन करने का बड़ा अच्छा मुहूर्त्त है।”

वाह रे पोप जी! अपनी पोथी में नाक काटने-कटवाने का भी मुहूर्त्त लिख दिया।

जब राजा की इच्छा हुई और उन सहस्र के सीधे बाँध दिये तब तो वे बड़े ही प्रसन्न होकर नाचने, कूदने गाने लगे। यह बात राजा के दीवान आदि कुछ-कुछ बुद्धिवालों को अच्छी न लगी। राजा के एक चार पीढ़ी का बूढा ९० वर्ष का दीवान था। उसको जाकर उसके परपोते ने, जो कि उस समय दीवान था, वह बात सुनाई। तब उस वृद्ध ने कहा कि “वे धूर्त्त हैं। तू मुझको राजा के पास ले चल।” वह ले गया। बैठते समय राजा ने बड़े हर्षित होके उन नाककटों की बातें सुनाईं। दीवान ने कहा कि “सुनिये महाराज! ऐसी शीघ्रता न करनी चाहिये। विना परीक्षा किये पश्चात्ताप होता है।”

राजा—क्या ये सहस्र पुरुष झूठ बोलते होंगे?

दीवान—झूठ बोलो वा सच, विना परीक्षा के सच-झूठ कैसे कह सकते हैं?

राजा—परीक्षा किस प्रकार करनी चाहिये?

दीवान—विद्या, सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

राजा—जो पढ़ा न हो, वह परीक्षा कैसे करे?

दीवान—विद्वानों के सङ्ग से ज्ञान की वृद्धि करके।

राजा—जो विद्वान् न मिले तो?

दीवान—पुरुषार्थी को कोई बात दुर्लभ नहीं है।

राजा—तो आप कहिये, कैसा किया जाय?

दीवान—मैं बुड्ढा और घर में बैठा रहता हूँ थोड़े दिन जीऊंगा। मैं प्रथम परीक्षा कर लेऊँ, तत्पश्चात् जैसा उचित समझें वैसा कीजियेगा।

राजा—बहुत अच्छी बात है। ज्योतिषीजी! दीवान का मुहूर्त्त देखो।

ज्योतिषी—जो महाराज की आज्ञा। यही शुक्ल पञ्चमी १० बजे का मुहूर्त्त अच्छा है। जब पञ्चमी आई तब राजाजी के पास आ आठ बजे बुड्ढे दीवान ने राजा से कहा कि “सहस्र दो सहस्र सेना लेके चलना चाहिये।”

राजा—वहाँ सेना का क्या काम?

दीवान—आपको राज्यव्यवहार की जानकारी नहीं है। जैसा मैं कहता हूँ, वैसा कीजिये।

राजा—अच्छा, जाओ भाई! सेना को तैयार करो। साढ़े नौ बजे सवारी करके राजा सबको लेकर गया। उनको देखकर वे नाचने, गाने लगे। जाकर बैठे। उनके महन्त जिसने यह सम्प्रदाय चलाया था, जिसकी प्रथम नाक कटी थी, उसको बुलाकर कहा कि “आज हमारे दीवानजी को नारायण का दर्शन कराओ।” उसने कहा—“अच्छा।”

दश बजे का समय आया तब एक थाली मनुष्य ने नाक के नीचे पकड़ रक्खी। उसने पैना चक्कू ले नाक काट थाली में फेंक दी और रुधिर गिरने लगा। दीवानजी का मुख बिगड़ गया। उस धूर्त्त ने दीवानजी के कान में मन्त्रोपदेश किया कि “आप भी हँसकर सबसे कहिये कि मुझको नारायण दीखता है। नाक कटा हुआ नहीं आवेगा। जो ऐसा न कहोगे तो तुम्हारा बहुत-सा ठट्ठा होगा।” वह कह कर अलग हुआ। दीवानजी ने अंगोछा हाथ में ले नाक की आड़ में लगा दिया। जब दीवानजी से राजा ने पूछा “कहिये! नारायण दीखता है वा नहीं? दीवान ने राजा जी के कान में कहा “कुछ भी नहीं दीखता, वृथा इस धूर्त्त ने सहस्र मनुष्यों को खराब किया।” राजा ने दीवान से कहा—“अब क्या करना चाहिये?” दीवान ने कहा—“इनको पकड़ के कठोर दण्ड देना चाहिये। जब तक जीवें तब तक बन्दीघर में रखना और इस दुष्ट को कि जिसने इन सबको खराब किया है, गधे पर चढ़ा बड़ी दुर्दशा से मारना चाहिये।” जब राजा और दीवान कान में बातें करने लगे तब उन्होंने डरके भागने की तैयारी की, परन्तु चारों ओर फौज ने घेरा दे रक्खा था, न भाग सके। राजा ने आज्ञा दी “सबको पकड़ बेड़ियाँ डाल दो और इस दुष्ट का काला मुख कर, गधे पर चढ़ा, इसके कण्ठ में फटे जूतों का हार पहिना, सर्वत्र घुमा, छोकरों से धूड़-राख इसपर डलवा, चौक-चौक में जूतों से पिटवा, कुत्तों से लुँचवा, मरवा डाला जावे। जो ऐसा न होवे तो पुनः दूसरा भी ऐसा काम करता न डरेगा।”

जब ऐसा हुआ तब नाककटे का सम्प्रदाय बन्द हुआ। इसी प्रकार वेदविरोधी सब सम्प्रदायों की लीला है।

ये स्वामिनारायण वाले धनहरे दूसरों के धन हरने में बड़े चतुर हैं, छल-कपटयुक्त काम करते हैं। कितने ही मूर्खों के बहिकाने के लिये मरते समय कहते हैं कि “सफेद घोड़े पर बैठ सहजानन्दजी मुझको बुलाने आये हैं नित्य इस मन्दिर में आते हैं।”

जब मेला होता है तब मन्दिर में पुजारी रहते हैं और नीचे दुकान रखते हैं। मन्दिर में से दुकान में छिद्र रखते हैं। जो किसी ने नारियल चढ़ाया, वही दुकान में फेंक दिया, अर्थात् इसी प्रकार एक नारियल दिन में सहस्र वार बिकता है। ऐसे ही सब पदार्थों को बेचते हैं।

जिस जाति का साधु हो, उनसे वही काम कराते हैं। जैसे नापित हो उससे नापित का, कुम्हार से कुम्हार का, शिल्पी से शिल्पी का, बनिये से बनिये का और शूद्र से शूद्रादि का काम लेते हैं। अपने चेलों पर अनेक प्रकार के टिक्कस (=कर) बाँध रक्खे हैं। लाखों-करोड़ों रुपये ठगके एकत्र कर लिये और करते जाते हैं। जो गद्दी पर बैठता है, वह गृहस्थ विवाह करता है, आभूषणादि पहिनता है। जहाँ कहीं पधरावनी होती है, वहाँ गोकुलिये के समान गुसाईंजी, बहूजी आदि के नाम से भेट पूजा लेते हैं। अपने को ‘सत्सङ्गी’ और दूसरे मत-वालों को ‘कुसङ्गी’ कहते हैं। अपने सिवाय दूसरा कैसा ही उत्तम धार्मिक पुरुष हो, उसका मान्य सेवा नहीं करते, अन्य की सेवा में पाप गिनते हैं।

प्रसिद्धि में उनके साधु स्त्री का मुख नहीं देखते, परन्तु गुप्त क्या लीला होती होगी, इसकी प्रसिद्धि सर्वत्र न्यून हुई है। कहीं-कहीं साधुओं की परस्त्रीगमनादि लीला प्रसिद्ध हो गई है और उनमें जो बड़े-बड़े हैं, वे जब मरते हैं तब उनको गुप्त कुवे में फेंक देकर प्रसिद्धि करते हैं कि अमुक महाराज सदेह वैकुण्ठ में गये। सहजानन्दजी आके ले गये। हमने बहुत प्रार्थना करी कि “महाराज! इनको न ले जाइये, क्योंकि इस महात्मा के यहाँ रहने से अच्छा है। सहजानन्दजी ने कहा कि “नहीं। अब इनकी वैकुण्ठ में बहुत आवश्यकता है, इसलिये ले जाते हैं।” हमने अपनी आँख से सहजानन्दजी को और विमान को देखा तथा जो मरनेवाले थे उनको विमान में बैठा दिया, ऊपर को उड़ गये, पुष्प की वर्षा करते गये।

और जब कोई साधु बीमार पड़ता है, बचने की आशा नहीं होती, तब कहता है कि “मैं कल रात को वैकुण्ठ में जाऊंगा।” सुना है कि उस रात में जो उसके प्राण न छूटे, मूर्च्छित हो गया हो, तो भी कुवें फेंक देते हैं, क्योंकि जो उस रात को न फेंक दें तो झूठे पड़ें, इसलिये ऐसा काम करते होंगे।

ऐसे ही जब गोकुलिया गोसाईं मरता है तब उनके चेले कहते हैं कि “गुसाईंजी लीला विस्तार कर गए।” जो इन गोसाईं, स्वामी नारायणवालों का उपदेश करने का मन्त्र एक ही ‘श्रीकृष्णः शरणं मम’ है, इसका अर्थ ऐसा करते हैं “श्रीकृष्ण मेरा शरण है, अर्थात् मैं श्रीकृष्ण के शरणागत हूँ।” परन्तु इसका अर्थ ‘श्रीकृष्ण मेरे शरण को प्राप्त अर्थात् मेरे शरणागत हों’ ऐसा भी हो सकता है। ये सब जितने मत हैं, वे विद्याहीन होने से ऊटपटांग शास्त्रविरुद्ध वाक्यरचना करते हैं। क्योंकि उनको विद्या के नियम की जानकारी नहीं।

प्रश्न—माध्वमत तो अच्छा है?

उत्तर—जैसे अन्य हैं, वैसा यह भी है, क्योंकि ये भी चक्राङ्कित होते हैं। इनमें चक्राङ्कितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक वार चक्राङ्कित होते हैं और माध्व वर्ष-वर्ष में फिर-फिर चक्राङ्कित होते जाते हैं। चक्राङ्कित कपाल में पीली रेखा और माध्व काली लगाते हैं। एक माध्व पण्डित से किसी एक महात्मा का संवाद हुआ था।

महात्मा—तुमने यह काली रेखा और चाँदला क्यों किया?

शास्त्री—इसके करने से हम वैकुण्ठ को जायेंगे और श्रीकृष्ण का स्वरूप भी श्याम था, इसलिए हम काला तिलक करते हैं।

महात्मा—जो काली रेखा और चाँदले से वैकुण्ठ में जाते हों तो सब मुख काला कर लो तो कहाँ जाओगे? क्या वैकुण्ठ के भी पार उतर जाओगे? और जैसा श्रीकृष्ण का सब शरीर काला था, वैसा तुम भी सब शरीर काला कर लिया करो, तब श्रीकृष्ण का सादृश्य हो सकता है। इसलिए यह भी पूर्वों के सदृश है।

प्रश्न—लिङ्गाङ्कित का मत कैसा है?

उत्तर—जैसा चक्राङ्कित का। वे भी लिङ्गाङ्कित होते हैं। विना महादेव के किसी को नहीं मानते, जैसे चक्राङ्कित नारायण के अतिरिक्त दूसरे को नहीं मानते। इनमें विशेष यह है कि लिङ्गाङ्कित पाषाण का एक लिङ्ग सोने, चाँदी में मढ़वा गले में डाल रखते हैं। जब पानी भी पीते हैं तब उसको दिखलाकर पीते हैं, उनका भी मन्त्र शैव के तुल्य रहता है।

अब ब्राह्मसमाज और प्रार्थनासमाज के गुणदोष कथन—

प्रश्न—‘ब्राह्मसमाज’ और ‘प्रार्थनासमाज’ तो अच्छा है, वा नहीं?

उत्तर—कुछ बात अच्छी और बहुत सी बुरी हैं।

प्रश्न—‘ब्राह्म’ और ‘प्रार्थनासमाज’ सबसे अच्छा है, क्योंकि इसके नियम बहुत अच्छे हैं।

उत्तर—नियम सर्वांश में अच्छे नहीं। क्योंकि वेदविद्याहीन लोगों की कल्पना सर्वथा सत्य क्योंकर हो सकती है? जो कुछ ब्राह्मसमाज और प्रार्थनासमाजियों ने ईसाई मत में मिलने से थोड़े मनुष्यों को बचाये, कुछ मूर्त्तिपूजा को हठाया, अन्य ग्रन्थों के जालों से भी कुछ बचाये, इत्यादि अच्छी बात है। परन्तु—

१. इन लोगों में स्वदेशभक्ति बहुत न्यून है। ईसाइयों के आचरण बहुत से ले लिये हैं। खानपान, विवाहादि के नियम भी बदल दिये हैं।

२. अपने देश की प्रशंसा वा पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही, उसके बदले पेटभर निन्दा करते हैं। व्याख्यानों में ईसाई आदि अंग्रेजों की प्रशंसा पेट भर करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते, प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि विना अंग्रेजों के, सृष्टि से आज पर्यन्त कोई भी विद्वान् नहीं हुआ। आर्य्यावर्त्तीय लोग सदा से मूर्ख चले आये हैं। इनकी उन्नति कभी नहीं हुई।

३. वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही परन्तु निन्दा करने से भी पृथक् नहीं रहते। ब्राह्मसमाज के उद्देश्य के पुस्तक में साधु की संख्या में ‘ईसा’ ‘मूसा’ ‘मुहम्मद’ ‘नानक’ और ‘चैतन्य’ लिखे हैं। किसी ऋषि-महर्षि का नाम भी नहीं लिखा। इससे जाना जाता है कि ये लोग, जिनका नाम लिखा है, उन्हीं के मतानुसारी मत-वाले हैं।

भला, जब आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं आर्यावर्त देश का अन्न-जल खाया-पिया, अब भी खाते-पीते हैं, अपने माता, पिता, पितामहादि के मार्ग को छोड़ दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाना, ब्राह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृत-विद्या से रहित अपने को विद्वान् प्रकाशित करना, इंगलिश भाषा पढ़के पण्डिताभिमानी होकर झटिति एक मत चलाने में प्रवृत्त हुए मनुष्यों का स्थिर और वृद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता है?

४. अंगरेज, यवन, अन्त्यजादि से भी खाने-पीने का भेद नहीं रक्खा। इन्होंने यही समझा होगा कि खाने-पीने और जातिभेद तोड़ने से हम और हमारा देश सुधर जायगा, परन्तु ऐसी बातों से सुधार तो कहाँ है? उलटा बिगाड़ होता है।

५. प्रश्न—जातिभेद ईश्वरकृत है, वा मनुष्यकृत?

उत्तर—ईश्वरकृत और मनुष्यकृत भी जातिभेद हैं।

प्रश्न—कौन से ईश्वरकृत और कौन से मनुष्यकृत?

उत्तर—मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, जलजन्तु आदि जातियाँ परमेश्वरकृत हैं। जैसे पशुओं में गौ, अश्व, हस्ति आदि जातियाँ; वृक्षों में पीपल, वट, आम्र आदि; पक्षियों में हंस, काक, वकादि; जलजन्तुओं में मत्स्य, मकरादि जातिभेद [ईश्वरकृत] हैं, वैसे मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज जातिभेद [मनुष्य]कृत हैं। परन्तु मनुष्यों में ब्राह्मणादि को सामान्य जाति में नहीं किन्तु सामान्य-विशेषात्मक जाति में गिनते हैं। जैसे पूर्व वर्णाश्रमव्यवस्था में लिख आये, वैसे ही गुण, कर्म, स्वभाव से वर्णव्यवस्था माननी अवश्य है। इसमें मनुष्यकृतत्व उनके गुण, कर्म, स्वभाव से पूर्वोक्तानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि वर्णों की व्यवस्था परीक्षापूर्वक करनी राजा और विद्वानों का काम है।

भोजनभेद भी ईश्वरकृत और मनुष्यकृत भी है। जैसे सिंह मांसाहारी और अर्णा भैंसा घासादि का आहार करते हैं, यह ईश्वरकृत; और देश-काल-वस्तु-भेद से भोजनभेद मनुष्यकृत है।

प्रश्न—देखो! यूरोपियन लोग मुंडे जूते, कोट-पतलून पहरते, होटल में सबके हाथ का खाते हैं, इसीलिये अपनी बढ़ती करते जाते हैं।

उत्तर—यह तुम्हारी भूल है। क्योंकि मुसलमान, अन्त्यज लोग सबके हाथ का खाते हैं, पुनः उनकी उन्नति क्यों नहीं होती? जो यूरोपियनों में बाल्यावस्था में विवाह न करना, लड़का-लड़की को विद्या सुशिक्षा करना-कराना, स्वयम्वर विवाह होना, बुरे-बुरे आदमियों का उपदेश नहीं होता, वे विद्वान् होकर जिस किसी के पाखण्ड में नहीं फसते, जो कुछ करते हैं वह सब परस्पर विचार और सभा से निश्चित करके करते हैं, अपनी स्वजाति की उन्नति के लिये तन-मन-धन व्यय करते हैं, आलस्य को छोड़ उद्योग किया करते हैं। देखो! अपने देश के बने हुए जूते को आफिस (=कार्यालय) और कचहरी में जाने देते हैं, इस देशी जूते को नहीं। इतने ही में समझ लो कि अपने देश के बने जूतों की भी कितनी प्रतिष्ठा करते हैं, उतनी अन्य-देशस्थ मनुष्यों की भी नहीं करते। देखो! कुछ अधिक, सौ वर्ष से ऊपर यूरोपियन को आये इस देश में बीते, और आज तक वे लोग मोटे कपड़े आदि पहरते हैं जैसा कि स्वदेश में पहरते हैं, [उनको] नहीं छोड़ा। और तुम में से बहुत से लोगों ने उनका अनुकरण कर लिया, इसी से तुम निर्बुद्धि और वे बुद्धिमान् ठहरते हैं। अनुकरण करना बुद्धिमानों का काम नहीं। और जो जिस काम पर रहता है, उसको यथोचित करता है। आज्ञानुवर्ती बराबर रहते हैं। अपने देशवालों को व्यापार आदि में सहाय देते हैं, इत्यादि गुणों और अच्छे कर्मों से उनकी उन्नति है। मुंडे जूते, कोट, पतलून, होटल में खाने आदि साधारण और बुरे कामों से नहीं बढ़े हैं।

और इनमें जातिभेद भी है। देखो! जब कोई यूरोपियन चाहै कितने बड़े अधिकार पर और प्रतिष्ठित हो, किसी अन्य देश, अन्य-मत वालों की लड़की वा यूरोपियन लड़की अन्य-देशवाले से विवाह कर लेती है, उसी समय उसका निमन्त्रण, साथ बैठकर खाने और विवाह आदि अन्य लोग बंध कर देते हैं। यह जातिभेद नहीं तो क्या? और तुम भोलों को कहते हैं कि हममें जातिभेद नहीं। तुम अपनी मूर्खता से मान भी लेते हो। इसलिये जो कुछ करना, वह सोच-विचार के करना चाहिये, जिसमें पुनः पश्चात्ताप करना न पड़े।

देखो! वैद्य और औषध की आवश्यकता रोगी के लिये है, नीरोग के लिये नहीं। विद्यावान् नीरोग और विद्यारहित अविद्यारोग से ग्रसित रहता है। उस रोग के छुड़ाने के लिये सत्यविद्या और सत्योपदेश है। उनको अविद्या से यह रोग है कि खाने-पीने ही में धर्म्म रहता और जाता है। जब किसी को खाने-पीने में अनाचार करता देखते हैं तब कहते और जानते हैं कि वह धर्म्मभ्रष्ट हो गया, उसकी बात न सुननी और न उसके पास बैठते, न उसको अपने पास बैठने देते। अब कहिये कि तुम्हारी विद्या स्वार्थ के लिये है, अथवा परमार्थ के लिये? परमार्थ तो तभी होता कि जब तुम्हारी विद्या से उन अज्ञानियों को लाभ पहुँचता। जो कहो कि वे नहीं लेते, हम क्या करें? यह तुम्हारा दोष है, उनका नहीं। क्योंकि तुम जो अपना आचरण अच्छा रखते तो तुमसे प्रेम कर वे उपकृत होते, सो तुमने सहस्रों का उपकार नाश करके अपना ही सुख किया, सो यह तुमको बड़ा अपराध लगा। क्योंकि परोपकार करना धर्म्म और परहानि करना अधर्म्म कहाता है। इसलिये विद्वान् को यथायोग्य व्यवहार करके अज्ञानियों को दुःखसागर से तारने के लिये नौकारूप होना चाहिये। सर्वथा मूर्खों के सदृश कर्म न करने चाहियें, किन्तु जिसमें उनकी और अपनी उन्नति हो, वैसे कर्म करने उचित हैं।

प्रश्न—हम कोई पुस्तक ईश्वरप्रणीत वा सर्वांश सत्य नहीं मानते क्योंकि मनुष्यों की बुद्धि निर्भ्रान्त नहीं होती, इससे उनके बनाये ग्रन्थ सब भ्रान्त होते हैं। इसलिये हम सबसे ‘सत्य’ ग्रहण करते और ‘असत्य’ को छोड़ देते हैं। चाहे सत्य वेद में, बाइबिल में, कुरान में और अन्य किसी ग्रन्थ में हो, हमको ग्राह्य है, असत्य किसी का नहीं।

उत्तर—जिस बात से तुम सत्यग्राही होना चाहते हो, उसी बात से असत्यग्राही भी ठहरते हो, क्योंकि जब सब मनुष्य भ्रान्तिरहित नहीं हो सकते तो तुम भी मनुष्य होने से भ्रान्तिसहित हो। जब भ्रान्तिसहित का वचन प्रमाण सर्वांश में नहीं होता तो तुम्हारे वचन का भी नहीं होगा। फिर तुम्हारे वचन पर भी सर्वथा विश्वास न करना चाहिये। जब ऐसा है तो विषयुक्त अन्न के समान त्याग के योग्य हैं। फिर तुम्हारे व्याख्यान-पुस्तक बनाये का प्रमाण किसी को न करना चाहिये। ‘चले तो चौबेजी छब्बे बनने को, गाँठ के दो खोकर दूबे बन गये।’

तुम सर्वज्ञ नहीं, जैसे कि अन्य मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हैं। कदाचित् भ्रम से असत्य को ग्रहणकर सत्य को छोड़ भी देते होगे। इसलिये सर्वज्ञ के वचन का सहाय हम अल्पज्ञों को अवश्य होना चाहिये। जैसा कि वेद के व्याख्यान में लिख आये हैं, वैसा तुमको मानना चाहिये। नहीं तो यतो भ्रष्टः और ततो भ्रष्टः हो जाना है।

जब सर्व सत्य वेदों से प्राप्त होता है, जिनमें असत्य कुछ भी नहीं, उनका ग्रहण करने में शङ्का करनी अपनी और पराई हानिमात्र कर लेनी है। इसी बात से तुमको आर्य्यावर्त्तीय लोग अपने नहीं समझते और तुम आर्यावर्त्त की उन्नति के कारण भी नहीं हो सके, क्योंकि तुम ‘सब घर के भिक्षुक’ ठहरे हो। तुमने समझा है कि इस बात से हम लोग अपना और पराया उपकार कर सकेंगे, सो न कर सकोगे। जैसे किसी के दो ही माता-पिता सब संसार के लड़कों का पालन करने लगें, सबका पालन करना तो असम्भव है किन्तु उस बात से अपने लड़कों को भी नष्ट कर बैठें, वैसे ही आप लोगों की गति है।

भला, वेदादिक को माने विना तुम अपने वचनों की सत्यता-असत्यता की परीक्षा और आर्य्यावर्त्त की उन्नति भी कभी कर सकते हो? जिस देश को रोग हुआ है, उसकी ओषधि तुम्हारे पास नहीं। और यूरोपियन लोग तुम्हारी अपेक्षा नहीं करते और आर्य्य लोग तुमको अन्य-मतियों के सदृश समझते हैं। अब भी समझकर वेदादि के मान्य से देशोन्नति करने लगो तो भी अच्छा है।

जो तुम यह कहते हो कि सब सत्य परमेश्वर से प्रकाशित होता है, पुनः ऋषियों के आत्माओं में ईश्वर से प्रकाशित हुए सत्यार्थ वेदों को क्यों नहीं मानते? हाँ, यही कारण है कि तुम लोग वेद नहीं पढ़े और न पढ़ने की इच्छा करते हो। क्योंकर तुमको वेदोक्त ज्ञान हो सकेगा?

६. दूसरा जगत् के उपादान कारण के विना जगत् की उत्पत्ति और जीव को भी उत्पन्न मानते हो, जैसा ईसाई और मुसलमान आदि मानते हैं। इसका उत्तर सृष्ट्युत्पत्ति और जीवेश्वर की व्याख्या में देख लीजिये। कारण के विना कार्य का होना सर्वथा असम्भव और उत्पन्न वस्तु का नाश न होना भी वैसा ही असम्भव है।

७. एक यह भी तुम्हारा दोष है, जो पश्चात्ताप और प्रार्थना से पापों की निवृत्ति मानते हो। इसी बात से जगत् में बहुत से पाप बढ़ गये हैं। क्योंकि पुराणी लोग तीर्थादि यात्रा से; जैनी लोग भी नवकार मन्त्र, जप और तीर्थादि से; ईसाई लोग ईसा के विश्वास से; मुसलमान लोग ‘तोबाः’ करने से पाप का छूट जाना विना भोग के मानते हैं। इससे पापों से भय न होकर पाप में प्रवृत्ति बहुत हो गई है। इस बात में ब्राह्म और प्रार्थनासमाजी भी पुराणी आदि के समान हैं। जो वेदों को मानते तो विना भोग के पाप-पुण्य की निवृत्ति न होने से पापों से डरते और धर्म में सदा प्रवृत्त रहते। जो भोग के विना निवृत्ति माने तो ईश्वर अन्यायकारी होता है।

८. जो तुम जीव की अनन्त उन्नति मानते हो, सो कभी नहीं हो सकती, क्योंकि ससीम जीव के गुण-कर्म-स्वभाव का फल भी ससीम होना अवश्य है।

प्रश्न—परमेश्वर दयालु है, ससीम कर्मों का फल अनन्त दे देगा।

उत्तर—ऐसा करे तो परमेश्वर का न्याय नष्ट हो जाये और सत्कर्मों की उन्नति भी कोई न करेगा, क्योंकि थोड़े से भी सत्कर्मों का अनन्त फल परमेश्वर दे देगा। और पश्चात्ताप वा प्रार्थना से पाप चाहें जितने हों छूट जायेंगे, ऐसी बातों से धर्म की हानि और पाप-कर्मों की वृद्धि होती है।

प्रश्न—हम ‘स्वाभाविक’ ज्ञान को वेद से भी बड़ा मानते हैं, ‘नैमित्तिक’ को नहीं। क्योंकि जो स्वाभाविक ज्ञान परमेश्वरदत्त हममें न होता तो वेदों को भी कैसे पढ़-पढ़ा, समझ-समझा सकते। इसलिए हम लोगों का मत बहुत अच्छा है।

उत्तर—यह तुम्हारी बात निरर्थक है। क्योंकि जो किसी का दिया हुआ ज्ञान होता है, वह स्वाभाविक नहीं होता। जो स्वाभाविक है, वह ‘सहज ज्ञान’ होता है और न वह बढ़-घट सकता। उससे उन्नति कोई भी नहीं कर सकता। क्योंकि जङ्गली मनुष्यों में भी स्वाभाविक ज्ञान है, क्यों वे अपनी उन्नति नहीं कर सकते? और जो नैमित्तिक ज्ञान है, वही उन्नति का कारण है। देखो! तुम हम बाल्यावस्था में कर्त्तव्याकर्त्तव्य और धर्माधर्म कुछ भी ठीक-ठीक नहीं जानते थे। जब हम विद्वानों से पढ़े, तभी कर्त्तव्याकर्त्तव्य और धर्म्माधर्म को समझने लगे। इसलिये स्वाभाविक ज्ञान को सर्वोपरि मानना ठीक नहीं।

९. जो आप लोगों ने पूर्व और पुनर्जन्म नहीं माना है, वह ईसाई-मुसलमानों से लिया होगा। इसका भी उत्तर पुनर्जन्म की व्याख्या से समझ लेना। परन्तु इतना समझो कि जीव ‘शाश्वत’ अर्थात् नित्य है और उसके कर्म भी प्रवाहरूप से नित्य हैं। कर्म और कर्मवान् का नित्य सम्बन्ध होता है। क्या वह जीव कहीं निकम्मा बैठा रहा था? वा रहेगा? और परमेश्वर भी निकम्मा तुम्हारे कहने से होता है। पूर्वापर जन्म न मानने से ‘कृतहानि’ और ‘अकृताभ्यागम’ ‘नैर्घृण्य’ और ‘वैषम्य’ दोष भी ईश्वर में आते हैं, क्योंकि जन्म न हो तो पाप-पुण्य के फल-भोग की हानि हो जाये। क्योंकि जिस प्रकार दूसरे को सुख-दुःख, हानि-लाभ पहुँचाया होता है, वैसा उसका फल विना शरीर धारण किये नहीं होता। दूसरा—पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के विना दुःख-सुख की प्राप्ति इस जन्म में क्योंकर होवे? जो पूर्वजन्म के पाप-पुण्यानुसार न होवे तो परमेश्वर अन्यायकारी और विना भोग किये नाश के समान कर्म का फल हो जावे, इसलिए यह भी बात आप लोगों की अच्छी नहीं।

१०. और एक यह कि ईश्वर के विना दिव्यगुणवाले पदार्थों और विद्वानों को भी देव न मानना ठीक नहीं। क्योंकि परमेश्वर महादेव, और जो देव न होता तो सब देवों का स्वामी होने से ‘महादेव’ क्यों कहाता?

११. एक अग्निहोत्रादि परोपकारक कर्मों को कर्त्तव्य न समझना अच्छा नहीं।

१२. ऋषि-महर्षियों के किये उपकारों को न मानकर ईसा आदि के पीछे झुक पड़ना अच्छा नहीं।

१३. और विना कारणविद्या वेदों के अन्य कार्यविद्याओं की प्रवृत्ति मानना सर्वथा असम्भव है।

१४. और जो विद्या का चिह्न ‘यज्ञोपवीत’ और ‘शिखा’ को छोड़ मुसलमान-ईसाइयों के सदृश बन बैठना व्यर्थ है। जब पतलून आदि वस्त्र पहिरते हो और ‘तमगों’ की इच्छा करते हो तो क्या यज्ञोपवीत आदि का कुछ बड़ा भार हो गया था?

१५. और ब्रह्मा से लेकर पीछे-पीछे आर्य्यावर्त्त में बहुत से विद्वान् हो गये हैं, उनकी प्रशंसा न करके यूरोपियन ही की स्तुति में उतर पड़ना, पक्षपात और खुशामद के विना क्या कहा जाय?

१६. और बीजाङ्कुर के समान जड़-चेतन के योग से जीवोत्पत्ति मानना, उत्पत्ति के पूर्व जीवतत्त्व का न मानना और उत्पन्न का नाश न मानना पूर्वापर विरुद्ध है। जो उत्पत्ति के पूर्व चेतन और जड़ वस्तु न था तो जीव कहाँ से आये और संयोग किनका हुआ? जो इन दोनों को सनातन मानते हो तो ठीक है परन्तु सृष्टि के पूर्व ईश्वर के विना दूसरे किसी तत्त्व को न मानना, यह आपका पक्ष व्यर्थ हो जायगा।

इसलिये जो उन्नति करना चाहो तो ‘आर्य्यसमाज’ के साथ मिलकर उसके उद्देश्यानुसार आचरण करना स्वीकार कीजिए, नहीं तो कुछ हाथ न लगेगा। क्योंकि हम और आपको अति उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है, आगे होगा, उसकी उन्नति तन-मन-धन से सब जने मिलकर प्रीति से करें। इसलिये जैसा आर्य्यसमाज आर्य्यावर्त्त देश की उन्नति का कारण है, वैसा दूसरा नहीं हो सकता। यदि इस समाज को यथावत् उन्नति देवें तो बहुत अच्छी बात है, क्योंकि समाज का सौभाग्य बढ़ाना समुदाय का काम है, एक का नहीं।

प्रश्न—आप सबका खण्डन करते ही आते हो परन्तु अपने-अपने धर्म में सब अच्छे हैं। खण्डन किसी का न करना चाहिए। और जो करते हो तो आप इनसे विशेष क्या बतलाते हो? जो बतलाते हो तो क्या आप से अधिक वा तुल्य कोई पुरुष न था? और न है? ऐसा अभिमान करना आपको उचित नहीं, क्योंकि परमात्मा की सृष्टि में एक-एक से अधिक, तुल्य और न्यून बहुत हैं। किसी को घमण्ड करना उचित नहीं।

उत्तर—धर्म एक होता है वा अनेक? जो कहो अनेक होते हैं तो एक-दूसरे से विरुद्ध होते हैं वा अविरुद्ध? जो कहो विरुद्ध होते हैं तो एक के विना दूसरा धर्म नहीं हो सकता और जो कहो अविरुद्ध हैं तो पृथक्-पृथक् होना व्यर्थ है। इसलिये धर्म और अधर्म एक ही हैं, अनेक नहीं। यही हम विशेष कहते हैं कि जैसे सब सम्प्रदायों के उपदेशकों को कोई राजा इकट्ठा करे तो एक सहस्र से कम नहीं होते, परन्तु इनका मुख्य भाग देखो तो पुरानी, किरानी, जैनी और कुरानी चार ही हैं, क्योंकि इन चारों में सब सम्प्रदाय आ जाते हैं। कोई राजा उनकी सभा करके कोई जिज्ञासु होकर प्रथम वाममार्गी से पूछे—“हे महाराज! मैंने आज तक न कोई गुरु और न किसी धर्म का ग्रहण किया है, कहिये! सब धर्मों में से उत्तम धर्म किसका है? जिसको मैं ग्रहण करूं?”

वाममार्गी—हमारा है।

जिज्ञासु—ये नौसौ निन्न्यानवे कैसे हैं?

वाममार्गी—सब झूठे और नरकगामी हैं, क्योंकि ‘कौलात्परतरं नहि’ [कुलार्णव तन्त्र २।८] हमारे धर्म से परे कोई धर्म नहीं है।

जिज्ञासु—आपका धर्म क्या है?

वाममार्गी—भगवती का मानना, मद्य-मांसादि पञ्च मकारों का सेवन, रुद्रयामल आदि चौंसठ तन्त्रों का मानना इत्यादि। जो तू मुक्ति की इच्छा करता है तो हमारा चेला हो जा।

जिज्ञासु—अच्छा मैं औरों का भी दर्शन कर और पूछ आऊँगा। पश्चात् जिसको चाहूँगा उसका चेला हो जाऊँगा।

वाममार्गी—अरे! क्यों भ्रान्ति में पड़ा है। ये लोग तुझको बहकाकर अपने जाल में फ सा देंगे। किसी के पास मत जावे। हमारा चेला हो जा, नहीं तो पछतावेगा।

जिज्ञासु—अच्छा, देख तो आऊँ। आगे चलकर शैव से पूछा उसने भी ऐसा ही उत्तर दिया। इतना विशेष कहा कि—“विना शिव, रुद्राक्ष, भस्मधारण और लिङ्गार्चन के मुक्ति कभी नहीं होती।” वह उसको छोड़ नवीन वेदान्तियों के पास गया।

जिज्ञासु—कहो महाराज! आपका धर्म क्या है?

वेदान्ती—हम धर्माऽधर्म कुछ भी नहीं मानते। हम साक्षात् ब्रह्म हैं। हममें धर्माऽधर्म कहाँ हैं? यह जगत् सब झूठा है। तू भी अपने को ब्रह्म मान, जीवभाव को छोड़। नित्य मुक्त हो जायगा।

जिज्ञासु—जो तुम ब्रह्म नित्यमुक्त हो तो ब्रह्म के गुण-कर्म-स्वभाव तुममें क्यों नहीं? और शरीर में क्यों बंधे हो?

वेदान्ती—तुझको शरीर दीखता है, इसीसे तू भ्रान्त है। हमको कुछ नहीं दीखता विना ब्रह्म के।

जिज्ञासु—तुम देखने वाले कौन, और किसको देखते हो?

वेदान्ती—देखनेवाला ब्रह्म, और ब्रह्म को ब्रह्म देखता है।

जिज्ञासु—क्या दो ब्रह्म हैं?

वेदान्ती—नहीं, अपने आपको देखता है।

जिज्ञासु—क्या कोई अपने कँधे पर आप चढ़ सकता है? तुम्हारी बात कुछ नहीं, यह पागलपने की बातें हैं।

उसने आगे चलकर जैनियों से पूछा। उन्होंने भी वैसा ही कहा। इतना विशेष कहा कि—“जिनधर्म के विना सब धर्म खोटा, जगत् का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं, जगत् अनादि काल से जैसा का वैसा बना है और बना रहेगा। आ, तू हमारा चेला हो जा, क्योंकि हम ‘सम्यक्त्वी’ अर्थात् सब प्रकार से अच्छे हैं, उत्तम बातों को मानते हैं। जैनमार्ग से भिन्न सब मिथ्यात्वी हैं।”

आगे चलके ईसाई से पूछा। उसने वाममार्गी के तुल्य सब जवाब-सवाल किये। इतना विशेष बतलाया—“सब मनुष्य पापी हैं, अपने सामर्थ्य से पाप नहीं छूटता। विना ईसा पर विश्वास के पवित्र होकर मुक्ति को नहीं पा सकता। ईसा ने सबके प्रायश्चित्त के लिये अपने प्राण देकर दया प्रकाशित की है। तू हमारा ही चेला हो जा।”

जिज्ञासु सुनकर मौलवी साहब के पास गया। उनसे भी ऐसे ही जवाब-सवाल हुए। इतना विशेष कहा—“लाशरीक ख़ुदा, उसका पैग़म्बर और कुरानशरीफ़ के विना माने कोई निजात नहीं पा सकता। जो इस मजहब को नहीं मानता, वह दोज़ख़ी और काफ़िर है, वाजिबुल्क़त्ल है।”

जिज्ञासु सुनकर वैष्णव के पास गया। वैसे ही संवाद हुआ। इतना विशेष कहा कि “हमारे तिलक छाप देखकर यमराज डर जाता है।” जिज्ञासु ने मन में समझा कि जब मच्छर, मक्खी, पुलिस के सिपाही, चोर, डाकू और शत्रु नहीं डरते तो यमराज के गण क्यों डरेंगे?

फिर आगे चला तो सब मत वालों ने अपने-अपने को सच्चा कहा। कोई हमारा कबीर सच्चा, कोई नानक, कोई दादू, कोई बल्लभ, कोई सहजानन्द, कोई माध्व आदि को बड़ा और अवतार बतलाते सुना। सहस्र से पूछ, उनके परस्पर विरोध देख, विशेष निश्चय किया, इनमें कोई गुरु करने योग्य नहीं। क्योंकि एक-एक झूठ में नौसौ निन्न्यानवे गवाह हो गये। जैसे झूठे दुकानदार वा वेश्या और भड़ुआ आदि अपनी-अपनी वस्तु की बड़ाई, दूसरे की बुराई करते हैं, वैसे ही ये हैं। ऐसा जान—

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्।

समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥१॥

तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।

येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्॥२॥

—मुण्डक [१।२।१२-१३]

उस सत्य के विज्ञानार्थ वह ‘समित्पाणि’ अर्थात् हाथ जोड़ अरिक्तहस्त होकर वेदवित् ब्रह्मनिष्ठ परमात्मा को जाननेहारे गुरु के पास जावे। इन पाखण्डियों के जाल में न गिरे॥१॥

जब ऐसा जिज्ञासु विद्वान् के पास जाय, उस शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, समीप-प्राप्त जिज्ञासु को यथार्थ ब्रह्मविद्या परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव का उपदेश करे और जिस-जिस साधन से वह श्रोता धर्मार्थ, काम, मोक्ष और परमात्मा को जान सके, वैसी शिक्षा किया करे॥२॥

जब वह ऐसे पुरुष के पास जाकर बोला कि महाराज! अब इन सम्प्रदायों के बखेड़ों से मेरा चित्त भ्रान्त हो गया, क्योंकि जो मैं इनमें से किसी एक का चेला होऊँगा तो नौसौ निन्न्यानवे से विरोधी होना पड़ेगा। जिसके नौसौ निन्न्यानवे शत्रु और एक मित्र है, उसको सुख कभी नहीं हो सकता। इसलिये आप मुझको उपदेश कीजिये, जिसको मैं ग्रहण करूं।

आप्तविद्वान्—ये सब मत अविद्याजन्य विद्याविरोधी हैं। मूर्ख, पामर और जङ्गली मनुष्यों को बहकाकर अपने जाल में फसा के अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वे बिचारे अपने मनुष्यजन्म के फल से रहित होकर अपना मनुष्यजन्म व्यर्थ गमाते हैं। देख! जिस बात में ये सहस्र एकमत हों, वह वेदमत ग्राह्य है और जिसमें परस्पर विरोध हो, वह कल्पित, झूठा, अधर्म, अग्राह्य है।

जिज्ञासु—इसकी परीक्ष़ा कैसे हो?

आप्त—तू जाकर इन-इन बातों को पूछ। सबकी एक सम्मति हो जायगी। तब वह उन सहस्र की मण्डली के बीच में खड़ा होकर बोला कि “सुनो सब लोगो! सत्यभाषण में धर्म है वा मिथ्या में?” सब एकस्वर होकर बोले कि “सत्यभाषण में धर्म और मिथ्याभाषण में अधर्म है।” “वैसे ही विद्या पढ़ने, ब्रह्मचर्य करने, पूर्ण युवावस्था में विवाह, सत्सङ्ग, पुरुषार्थ, सत्य व्यवहार आदि में धर्म; और अविद्या ग्रहण, ब्रह्मचर्य न करने, व्यभिचार करने, कुसङ्ग, आलस्य, असत्य व्यवहार, छल, कपट, हिंसा, परहानि करने आदि कर्मों में?” सबने एकमत होके कहा कि विद्यादि के ग्रहण में धर्म और अविद्यादि के ग्रहण में अधर्म। तब जिज्ञासु ने सबसे कहा कि तुम इसी प्रकार सब जने एकमत हो सत्यधर्म की उन्नति और मिथ्यामार्ग की हानि क्यों नहीं करते हो? वे सब बोले—“जो हम ऐसा करें तो हमको कौन पूछे? हमारे चेले हमारी आज्ञा में न रहैं, जीविका नष्ट हो जाय, फिर जो हम आनन्द कर रहे हैं, सो सब हाथ से जाय। इसलिये हम जानते हैं तो भी अपने-अपने मत का उपदेश और आग्रह करते ही जाते हैं। क्योंकि ‘रोटी खाइये शक्कर से और दुनिया ठगिये मक्कर से’ ऐसी बात है। देखो! संसार में सूधे-सच्चे मनुष्य को कोई नहीं पूछता। जो कुछ ढोंग, धूर्त्तता करता है, वही पदार्थ पाता है।”

जिज्ञासु—जो तुम ऐसा पाखण्ड चलाकर अन्य मनुष्यों को ठगते हो, तुमको राजा दण्ड क्यों नहीं देता?

मत-वाले—हमने राजा को भी अपना चेला बना लिया है। हमने पक्का प्रबन्ध किया है, छूटेगा नहीं।

जिज्ञासु—जब तुम छल से अन्य मनुष्यों को ठग, उनकी हानि करते हो, परमेश्वर के सामने क्या उत्तर दोगे? और घोर नरक में पड़ोगे। थोड़े जीवन के लिये इतना बड़ा अपराध करना क्यों नहीं छोड़ते?

मत-वाले—देखा जायगा। नरक और परमेश्वर का दण्ड जब होगा तब होगा, अब तो आनन्द करते हैं। हमको प्रसन्नता से धन देते हैं, बलात्कार से नहीं लेते, फिर राजा दण्ड क्यों देवे?

जिज्ञासु—जैसे कोई छोटे बालक को फुसला के धनादि पदार्थ ले लेता है, जैसे उसको दण्ड मिलता है, वैसे तुमको क्यों नहीं मिलता? क्योंकि—

अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः॥

—मनुस्मृति [२।१५३]

जो ज्ञानरहित होता है, वह ‘बालक’ और जो ज्ञान का देनेवाला है, वह ‘पिता’ और ‘वृद्ध’ कहाता है। जो बुद्धिमान् विद्वान् है, वह तो तुम्हारी बातों में नहीं फसता, किन्तु अज्ञानी जो बालक के सदृश हैं, उनको ठगने में तुमको राजदण्ड अवश्य होना चाहिये।

मत-वाले—जब राजा-प्रजा सब हमारे मत में हैं तो हमको दण्ड कौन देनेवाला है? जब ऐसी व्यवस्था होगी तब इन बातों को छोड़कर दूसरी व्यवस्था करेंगे।

जिज्ञासु—जो तुम बैठे-बैठे व्यर्थ माल मारते हो, जो विद्याभ्यास कर गृहस्थों के लड़के-लड़कियों को पढाओ तो तुम्हारा और गृहस्थों का कल्याण हो जाय।

मत-वाले—जब हम बाल्यावस्था से लेकर मरण तक के सुखों को छोड़ें, बाल्यावस्था से युवावस्था तक विद्या पढ़ने में, पश्चात् पढ़ाने में और उपदेश करने में जन्मभर परिश्रम करें, हमको क्या प्रयोजन? हमको ऐसे ही लाखों रुपये मिलते हैं, चैन उड़ाते हैं, उसको क्यों छोड़ें?

जिज्ञासु—इसका परिणाम तो बुरा है, देखो! तुमको बड़े रोग होते हैं, शीघ्र मर जाते हो, बुद्धिमानों में निन्दित होते हो, फिर भी क्यों नहीं समझते?

मत-वाले—अरे भाई!

टका धर्मष्टका कर्म टका हि परमं पदम्।

यस्य गृहे टका नास्ति हा! टकां टकटकायते॥१॥

आना अंशकलाः प्रोक्ता रूप्योऽसौ भगवान् स्वयम्।

अतस्तं सर्व इच्छन्ति रूप्यं हि गुणवत्तमम्॥२॥

तू लड़का है, संसार की बातें नहीं जानता। देख! टका के विना धर्म, टका के विना कर्म, टका के विना परमपद नहीं होता। जिसके घर में टका नहीं है, वह हाय! टका-टका करता-करता उत्तम पदार्थों को टक-टक देखता रहता है कि हाय! मेरे पास टका होता तो इस उत्तम पदार्थ को मैं भोगता॥१॥

क्योंकि सब कोई सोलह कलायुक्त अदृश्य भगवान् का कथन-श्रवण करते हैं, सो तो नहीं दीखता, परन्तु सोलह आने और पैसे-कौड़ीरूप अंश कलायुक्त जो रुपैया है, वही साक्षात् भगवान् है। इसीलिये सब कोई रुपयों की खोज में लगे हैं, क्योंकि सब काम रुपयों से सिद्ध होते हैं॥२॥

जिज्ञासु—ठीक है, तुम्हारी भीतर की लीला बाहर आ गई। तुमने जितना यह पाखण्ड खड़ा किया है, वह सब अपने सुख के लिये किया है परन्तु इसमें जगत् का नाश होता है। क्योंकि जैसा सत्योपदेश से संसार को लाभ पहुँचता है, वैसी ही असत्योपदेश से हानि होती है। जब तुमको धन ही का प्रयोजन था तो नौकरी, व्यापार करके धन क्यों नहीं कमाते?

मत-वाले—उसमें परिश्रम और हानि भी होती है, परन्तु इस में हानि कभी नहीं, लाभ ही लाभ होता है। देखो! तुलसी चरणामृत दें, कण्ठी बांधें, चेला मूंडने से जन्मभर का पशु हो जाता है, चाहें वैसे बोझा लादो।

जिज्ञासु—ये लोग तुमको बहुत धन किसलिये देते हैं?

मत-वाले—धर्म, स्वर्ग और मुक्ति के अर्थ।

जिज्ञासु—जब तुम ही मुक्त नहीं, न मुक्ति का स्वरूप वा साधन जानते हो तो तुम्हारी सेवा करनेवालों को क्या मिलेगा?

मत-वाले—क्या इस लोक में मिलता है? नहीं। किन्तु परलोक में मिलता है। जितना हमको ये लोग देते वा सेवा करते हैं, वह सब मरे पीछे इन लोगों को मिल जाता है।

जिज्ञासु—इनको तो दिया हुआ मिल जाता है वा नहीं, तुम लेनेवालों को क्या मिलेगा? नरक वा अन्य कुछ?

मत-वाले—हम भजन करते हैं, इसका सुख हमको मिलेगा।

जिज्ञासु—तुम्हारा भजन तो टका ही के लिये है। वे सब टके यहीं पड़े रहेंगे, जिस मांसपिण्ड को यहाँ पालते हो, वह भस्म हो जायगा। जो तुम परमेश्वर का भजन करते होते तो तुम्हारा आत्मा भी पवित्र होता।

मत-वाले—क्या हम अशुद्ध हैं?

जिज्ञासु—भीतर के बड़े मैले हो।

मत-वाले—तुमने कैसे जाना?

जिज्ञासु—तुम्हारी चाल-चलन से।

मत-वाले—महात्माओं का व्यवहार हाथी के दाँत के तुल्य होता है। जैसे हाथी के दाँत खाने के भिन्न, दिखलाने के पृथक् होते हैं, वैसे ही भीतर से हम पवित्र हैं और बाहर से लीलामात्र करते हैं।

जिज्ञासु—जो तुम भीतर से शुद्ध होते तो तुम्हारे बाहर के काम भी शुद्ध होते, इसलिये भीतर भी मैले हो।

मत-वाले—हम चाहे जैसे हों परन्तु हमारे चेले तो अच्छे हैं।

जिज्ञासु—जैसे तुम गुरु हो, वैसे तुम्हारे चेले भी होंगे।

मत-वाले—एक मत कभी नहीं हो सकता, क्योंकि मनुष्य के गुण-कर्म-स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं।

जिज्ञासु—जो बाल्यावस्था में एक सी शिक्षा हो, सत्यभाषणादि धर्म का ग्रहण और मिथ्याभाषणादि अधर्म का त्याग करें तो एकमत अवश्य हो जाय। और दो मत अर्थात् धर्मात्मा और अधर्मात्मा सदा रहते हैं, वे तो रहैं। परन्तु धर्मात्मा अधिक होने और अधर्मी न्यून होने से संसार में सुख बढ़ता है और जब अधर्मी अधिक होते हैं तब दुःख। जब सब विद्वान् एक-सा उपदेश करें तो एकमत होने में कुछ भी विलम्ब न हो।

मत-वाले—आजकल ‘कलियुग’ है, सत्ययुग की बात मत चाहो।

जिज्ञासु—‘कलियुग’ नाम काल का है। काल निष्क्रिय होने से कुछ धर्माधर्म के करने में साधक-बाधक नहीं, किन्तु तुम ही कलियुग की मूर्त्तियाँ बन रहे हो। जो मनुष्य ही सत्ययुग-कलियुग न हों तो कोई भी संसार में धर्मात्मा न होता। ये सब सङ्ग के गुण-दोष हैं, स्वाभाविक नहीं।

इतना कहकर आप्त के पास गया। उनसे कहा कि महाराज! तुमने मेरा उद्धार किया, नहीं तो मैं भी किसी के जाल में फसकर नष्ट हो जाता। अब मैं भी इन पाखण्डियों का खण्डन और वेदोक्त सत्य-मत का मण्डन किया करूँगा।

आप्त—यही सब मनुष्यों का, विशेष विद्वान् और संन्यासियों का काम है कि सब मनुष्यों को सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन पढ़ा-सुनाके सत्योपदेश से उपकार पहुँचाना चाहिये।

प्रश्न—‘ब्रह्मचारी’, ‘संन्यासी’ तो ठीक हैं?

उत्तर—ये आश्रम तो ठीक हैं। परन्तु आजकल इनमें भी बहुत सी गड़बड़ है। कितने ही नाम ‘ब्रह्मचारी’ रखते, जटा बढ़ाकर झूठ-मूठ सिद्धाई करते, जप-पुरश्चरण में फसे रहते, विद्या पढ़ने का नाम नहीं लेते कि जिस हेतु से ‘ब्रह्मचारी’ नाम होता है,उस ‘ब्रह्म’ अर्थात् वेद पढ़ने में परिश्रम कुछ भी नहीं करते। वे ‘ब्रह्मचारी’ बकरी के गले के स्तन के सदृश निरर्थक हैं। और जो वैसे ‘संन्यासी’ —विद्याहीन, दण्ड ले, भिक्षा करते-फिरते हैं, जो कुछ भी वेदमार्ग की उन्नति नहीं करते, छोटी अवस्था में संन्यास लेकर घूमा करते, विद्याभ्यास को छोड़ देते हैं, ऐसे ब्रह्मचारी और संन्यासी इधर-उधर जल, स्थल, पाषाणादि मूर्त्तियों का दर्शन-पूजन करते-फिरते, विद्या जानकर भी मौन हो रहते, एकान्त देश में यथेष्ट खा कर सोते पड़े रहते, ईर्ष्या-द्वेष में फसकर निन्दा-कुचेष्टा करके निर्वाह करते, काषाय वस्त्र और दण्ड-ग्रहणमात्र से अपने को कृतकृत्य समझते, अपने को सर्वोत्कृष्ट जान उत्तम काम नहीं करते, वैसे ‘संन्यासी’—भी जगत् में व्यर्थ वास करते हैं। और जो सब जगत् का हित साधते हैं, वे ठीक हैं।

प्रश्न—गिरी, पुरी, आदि गुसाईं लोग तो अच्छे हैं। क्योंकि मण्डलियाँ बाँधकर इधर-उधर घूमते, सैकड़ों साधुओं को आनन्द कराते, सर्वत्र अद्वैत मत का उपदेश करते हैं, और कुछ पढ़ते-पढ़ाते भी हैं, इसलिये वे अच्छे होंगे।

उत्तर—ये सब दश नाम पीछे से कल्पित किये हैं, सनातन नहीं। उनकी मण्डलियाँ भोजनार्थ हैं। बहुत से साधु भोजन ही के लिये मण्डलियों में रहते हैं। दम्भी भी हैं, क्योंकि एक को महन्त बना, सायंकाल में एक महन्त जो कि उनमें प्रधान होता है, वह गद्दी पर बैठ जाता है। सब ब्राह्मण और साधु खड़े होकर हाथ में पुष्प ले—

नारायणं पद्मभवं वसिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्रपराशरं च।

व्यासं शुकं गौडपदं महान्तम्॥ [ऊह्य—पुष्पाञ्जलि]

इत्यादि श्लोक पढ़के हर-हर बोल, उनके ऊपर पुष्प वर्षाकर साष्टाङ्ग नमस्कार करते हैं। जो कोई ऐसा न करे, उसको वहाँ रहना कठिन है। यह दम्भ संसार को दिखलाने के लिये करते हैं, जिससे जगत् में प्रतिष्ठा होकर माल मिले।

कितने ही मठधारी गृहस्थ होकर भी संन्यास का अभिमान मात्र करते हैं, कर्म कुछ नहीं। संन्यास का वही कर्म है, जो पाँचवें समुल्लास में लिख आये, उसको न करके व्यर्थ समय खोते हैं। जो कोई अच्छा उपदेश करे, उसके भी विरोधी होते हैं। बहुधा ये लोग भस्म रुद्राक्ष धारण करते और कोई-कोई शैव तथा वैष्णव सम्प्रदाय का अभिमान रखते हैं और जब कभी शास्त्रार्थ करते हैं तो अपने मत अर्थात् शङ्कराचार्योक्त का स्थापन और चक्राङ्कित आदि के खण्डन में प्रवृत्त रहते हैं। वेदमार्ग की उन्नति और यावत्पाखण्ड मार्ग हैं तावत् के खण्डन में प्रवृत्त नहीं होते। ये संन्यासी लोग ऐसा समझते हैं कि हमको खण्डन-मण्डन से क्या प्रयोजन? हम तो महात्मा हैं, ऐसे लोग भी संसार में भाररूप हैं।

जब ऐसे हैं, तभी तो वेदमार्गविरोधी वाममार्गादि सम्प्रदायी, ईसाई, मुसलमान, जैनी आदि बढ़ गये, अब भी बढ़ते जाते हैं और इनका नाश होता जाता है तो भी इनकी आँख नहीं खुलती। खुले कहाँ से? जो कुछ उनके मन में परोपकार-बुद्धि और कर्त्तव्यकर्म करने में उत्साह होवे! किन्तु ये लोग अपनी प्रतिष्ठा खाने-पीने के सामने अन्य अधिक कुछ भी नहीं समझते और संसार की निन्दा से बहुत डरते हैं। पुनः (लोकैषणा) अर्थात् लोक में प्रतिष्ठा, (वित्तैषणा) धन बढ़ाने में तत्पर होकर विषयभोग, (पुत्रैषणा) पुत्रवत् शिष्यों पर मोहित होना, इन तीन एषणाओं का त्याग करना उचित है। जब एषणा ही नहीं छूटी, पुनः संन्यास क्योंकर हो सकता है? अर्थात् पक्षपातरहित वेदमार्गोपदेश से जगत् के कल्याण करने में अहर्निश प्रवृत्त रहना संन्यासियों का मुख्य काम है। संन्यासी भी हुए, किन्तु जब अपने-अपने अधिकार के कर्मों को नहीं करते, पुनः संन्यासादि नाम धराना व्यर्थ है। नहीं तो जैसे गृहस्थ व्यवहार, स्वार्थ में परिश्रम करते हैं, उनसे अधिक परिश्रम, परोपकार करने में संन्यासी तत्पर रहैं, तभी सब आश्रम उन्नति पर रहैं।

देखो! तुम्हारे सामने पाखण्ड-मत बढ़ते जाते हैं। ईसाई, मुसलमान तक हो रहे हैं। तुमसे अपने घर की रक्षा और दूसरों को मिलाना नहीं बन सकता। बने तो तब, जब तुम करना भी चाहो! जब तक वर्त्तमान और भविष्यत् में संन्यासी उन्नतिशील नहीं होते, तब तक आर्यावर्त्त और अन्य-देशस्थ मनुष्यों की वृद्धि नहीं होती। जब वृद्धि के कारण वेदादि शास्त्रों का पठनपाठन, ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान, सत्योपदेश होते हैं, तभी देशोन्नति होती है।

चेत रक्खो! बहुत-सी पाखण्ड की बातें तुमको सचमुच दीख पड़ती हैं। जैसे कोई साधु वा दुकानदार पुत्र देने की सिद्धि बतलाता है तब उसके पास बहुत स्त्री जाती हैं, सब पुत्र माँगती हैं, और बाबाजी सबको पुत्र होने का आशीर्वाद देता है। उनमें से जिस-जिस को पुत्र होता है, वह-वह समझती है कि बाबाजी के वचन से हुआ। जब उससे कोई पूछे कि सुवर आदि पशु और मुर्गे आदि पक्षियों के कच्चे-बच्चे किस बाबाजी के वर से होते हैं? तो कुछ भी उत्तर न दे सकेगी। जो कोई कहे कि मैं लड़के को जीता रख सकता हूँ तो आप ही क्यों मर जाता है?

कितने ही धूर्त्त लोग ऐसी माया रचते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान् भी धोखा खा जाते हैं, जैसे धनसारी के ठग। ये लोग पाँच-सात मिलके दूर-दूर देश में जाते हैं। जो शरीर से डौलडाल में अच्छा होता है, उसको सिद्ध बनाते हैं। जिस नगर वा ग्राम में धनाढ्य होते हैं, उसके समीप जङ्गल में उस सिद्ध को बैठाते हैं। उसके साधक नगर में जाके अजान बनके जिस किसी को पूछते हैं —

तुमने ऐसे महात्मा को यहाँ कहीं देखा? वह महात्मा कौन और कैसा है?

साधक—बड़ा सिद्ध पुरुष है। मन की बातें बतला देता है। जो मुख से कहता है, वह हो जाता है। बड़ा योगिराज है। उसके दर्शन के लिये हम अपने घर-द्वार छोड़कर देखते-फिरते हैं। मैंने किसी से सुना था वह महात्मा इधर की ओर आये हैं।

गृहस्थ—जब वह महात्मा तुमको मिलें तो हमसे कहना, दर्शन करेंगे और मन की बातें पूछेंगे।

इसी प्रकार दिनभर नगर में फिरते और प्रत्येक को उस सिद्ध की बात कहकर रात्रि को इकट्ठे सिद्ध-साधक होकर खाते-पीते, सो रहते हैं। फिर भी प्रातःकाल नगर वा ग्राम में जाके उसी प्रकार दो-तीन दिन कहकर फिर चारों साधक किसी एक-एक धनाढ्य से बोलते हैं कि वह महात्मा मिल गये। तुमको दर्शन करना हो तो चलो। वे जब तैयार हो जाते हैं तब साधक उनसे पूछते हैं कि तुम क्या बात पूछना चाहते हो? हमसे कहो। कोई पुत्र की इच्छा करता, कोई धन, कोई रोग निवारण और कोई शत्रु जीतने की। उनको वे साधक ले जाते हैं।

सिद्ध-साधकों ने जैसा सङ्केत किया होता है अर्थात् जिसको धन की इच्छा हो उसको दाहिनी ओर, जिसको पुत्र की इच्छा हो उसको सम्मुख, जिसको रोग निवारण की इच्छा हो उसको बाईं ओर, और जिसको शत्रु जीतने की इच्छा हो उसको पीछे से ले जाके सामनेवाले के बीच में बैठाते हैं। जब नमस्कार करते हैं, उसी समय वह सिद्ध उनसे बोलता है कि हमारे पास पुत्र नहीं रक्खा है, जो तू पुत्र की इच्छा करके हमारे पास आया है। इसी प्रकार धन वाले से बोलता है “तू धन की इच्छा करके आया है। ‘फकीरों’ के पास धन कहाँ धरा है?” रोगवाले से—“तू रोग छुड़ाने की इच्छा करके आया है? हम वैद्य नहीं, जा किसी वैद्य के पास।”

परन्तु जब उसका पिता रोगी है तो उसका साधक अंगूठा, जो माता रोगी है तो तर्जनी, जो भाई रोगी है तो मध्यमा, जो स्त्री रोगी है तो अनामिका जो कन्या रोगी है तो कनिष्ठिका अंगुली को चला देता है। उसको देख वह सिद्ध कहता है कि तेरा पिता रोगी है, तेरी माता, तेरा भाई, तेरी स्त्री और तेरी कन्या रोगी है। तब तो वे चारों बड़े मोहित हो जाते हैं। साधक लोग उनसे कहते हैं, देखो! जैसा हमने कहा था, वैसे हैं कि नहीं?

गृहस्थ बोलते हैं—हाँ, जैसा तुमने कहा था, वैसे ही हैं। तुमने बड़ा उपकार किया और हमारा बड़ा भाग्य था, जो ऐसे महात्मा का दर्शन हुआ।

साधक लोग कहते हैं कि ये महात्मा बहुत दिन रहनेवाले नहीं हैं। जो कुछ इनसे आशीर्वाद लेना हो तो खूब सेवा करो।

वे गृहस्थ प्रशंसा करते घर की ओर चलते हैं। साधक भी उनके साथ-साथ जाते हैं, क्योंकि मार्ग में कोई उनका पाखण्ड खोल न देवे। उन धनाढ्यों का जो कोई मित्र मिला, उन सबसे प्रशंसा करते रहे। इसी प्रकार जो-जो साधकों के साथ जाते हैं उन-उन का वृत्तान्त सब कह देते हैं।

जब नगर में हल्ला होता है तब बहुत मनुष्यों का मेला जाकर बहुत ने पूछा कि महाराज! मेरे मन का वृत्तान्त कहिए। तब सिद्धजी चुपचाप हो जाता है और कहने लगता है कि हमको बहुत दिक मत करो। उनके साधक भी सबसे कहने लगते हैं—“जो तुम बहुत दिक करोगे तो चले जायंगे।” उनमें से जो कोई बड़ा धनाढ्य होता है, वह उसके साधक को बुला लेता है और कहता है कि हमारे मन की बात कहला दो तो हम मानें। साधक ने पूछा कि क्या बात है? धनाढ्य ने कहा। उसको उसी प्रकार संकेत से लेजाके बैठाया। उसने झट कह दिया। बस सब मेला भर ने समझ लिया कि अहो! बड़े सिद्ध पुरुष हैं। कोई मिठाई, कोई पैसा, कोई रुपया, कोई अशर्फी, कोई कपड़ा और कोई सीधा-सामग्री धरने लगे। फिर जब तक मान्ता बहुत रही तब तक लूटते रहै और किसी आँख के अन्धे गाँठ के पूरे से पुत्र होने के लिए आशीर्वाद दिया और सहस्र रुपये लेकर कहा कि तेरी सच्ची भक्ति होगी तो पुत्र होगा।

इस प्रकार के बहुत से ठग होते हैं, जिनकी विद्वान् ही परीक्षा कर सकता है और कोई नहीं। इसलिये वेदादि विद्या का पढ़ना, सत्सङ्ग करना होता है, जिससे कोई उसको ठगाई में न फसा सके, औरों को भी बचा सके। क्योंकि मनुष्य का नेत्र विद्या ही है। विना विद्या-शिक्षा के ज्ञान नहीं होता। जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाता है, वही मनुष्य और विद्वान् होता है। जिनको कुसङ्ग है, वे दुष्ट, पापी, महामूर्ख होकर बड़े दुःख पाते हैं। इसीलिये ज्ञान को विशेष कहा है कि जो जानता है, वही मानता है।

न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षं स तस्य निन्दां सततं करोति।

यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जाः॥

—यह किसी कवि का श्लोक है [चाणक्य॰ ११।८]

जो जिसका गुण नहीं जानता, वह उसकी निन्दा निरन्तर करता है। जैसे जङ्गली भील गजमुक्ताओं को छोड़के गुञ्जा का हार पहिन लेता है, वैसे ही जो पुरुष विद्वान्, ज्ञानी, धार्मिक, सत्पुरुषों का सङ्गी, योगी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय, सुशील होता है, वही धर्मार्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होकर इस जन्म और परजन्म में सदा आनन्द में रहता है।

यह आर्यावर्त्तनिवासी लोगों के मत विषय में संक्षेप से लिखा। इसके आगे जो थोड़ा सा आर्य-राजाओं का इतिहास मिला है, इसको सब सज्जनों को जनाने के लिये प्रकाशित किया जाता है।

अब थोड़ा-सा आर्यावर्त्तदेशीय राजवंश कि जिसमें श्रीमान् महाराजे ‘युधिष्ठिर’ से लेके महाराजे ‘यशपाल’ तक का इतिहास लिखते हैं। और श्रीमान् महाराजे ‘स्वायम्भुव मनुजी’ से लेके महाराज ‘युधिष्ठिर’ तक का इतिहास महाभारतादि में लिखा ही है और इससे सज्जन लोगों को इधर के कुछ इतिहास का वर्त्तमान विदित होगा।

यद्यपि यह विषय “विद्यार्थी सम्मिलित ‘हरिश्चन्द्रचन्द्रिका’ और ‘मोहनचन्द्रिका” जो कि पाक्षिकपत्र ‘श्रीनाथद्वारे’ से निकलता था’ जो राजपूताना देश मेवाड़ राज उदयपुर चित्तौड़गढ सबको विदित है यह उससे हमने अनुवाद किया है। यदि ऐसे ही हमारे आर्य सज्जन लोग इतिहास और विद्या-पुस्तकों का खोज कर प्रकाश करेंगे तो देश को बड़ा ही लाभ पहुँचेगा। उस पत्र-सम्पादक ने अपने मित्र से एक प्राचीन पुस्तक जो कि संवत् विक्रम के १७८२ (सत्रह सौ बयासी) का लिखा हुआ था, उससे उक्त पत्र के सम्पादक महाशय ने ग्रहण कर अपने संवत् १९३९ मार्गशीर्ष शुक्ल [और कृष्ण] पक्ष १९-२० किरण अर्थात् दो पाक्षिक पत्रों में छापा है’ सो निम्न लिखे प्रमाणे जानिये—

आर्य्यावर्त्तदेशीय राजवंशावली

इन्द्रप्रस्थ में आर्य लोगों ने श्रीमन्महाराजे ‘यशपाल’ पर्यन्त राज्य किया। जिनमें श्रीमन्महाराजे ‘युधिष्ठिर’ से महाराजे ‘यशपाल’ तक वंश अर्थात् पीढ़ी अनुमान १२४ (एक सौ चौबीस राजा), वर्ष ४१५७, मास ९, दिन १४, समय में हुए हैं। इनका व्यौरा—

राजा    शक    वर्ष     मास    दिन

आर्यराजा १२४    ४१५७   ९      १४

श्रीमन्महाराजे युधिष्ठिरादि वंश अनुमान पीढ़ी ३०, वर्ष १७७१, मास ११, दिन १० इनका विस्तार—

आर्यराजा वर्ष    मास    दिन

१      राजा युधिष्ठिर     ३६     ८      २५

२      राजा परीक्षित     ६०     ०      ०

३      राजा जनमेजय    ८४     ७      २३

४      राजा अश्वमेध     ८२     ८      २२

५      द्वितीयराम        ८८    २      ८

६      छत्रमल        ८१     ११     २७

७      चित्ररथ         ७५     ३      १८

८      दुष्टशैल्य ७५     १०     २४

९      राजा उग्रसेन     ७८     ७      २१

१०     राजा शूरसेन     ७९     ८      ७

११     भुवनपति  ६९    ५      ५

१२     रणजीत ६५     १०     ४

१३     ऋक्षक         ६४     ७      ४

१४     सुखदेव ६२     ०      २४

१५     नरहरिदेव        ५१     १०     २

१६     सुचिरथ         ४२     ११     २

१७     शूरसेन (दूसरा)   ५८     १०     ८

१८     पर्वतसेन ५५     ८      १०

१९     मेधावी         ५२     १०     १०

२०     सोनचीर ५०     ८      २१

२१     भीमदेव ४७     ९      २०

२२     नृहरिदेव ४५     ११     २३

२३     पूर्णमल         ४४     ८      ७

२४     करदवी ४४     १०     ८

२५     अलंमिक ५०     ११     ८

२६     उदयपाल        ३८     ९      ०

२७     दुवनमल ४०     १०     २६

२८     दमात          ३२     ०      ०

२९     भीमपाल ५८     ५      ८

३०     क्षेमक          ४८     ११     २१

राजा क्षेमक के प्रधान विश्रवा ने क्षेमक राजा को मारकर राज्य किया। पीढ़ी १४, वर्ष ५००, मास ३, दिन ५ इनका विस्तार—

आर्यराजा  वर्ष    मास    दिन

१      विश्रवा    १७    ३      २९

२      पुरसेनी  ४२    ८      २१

३      वीरसेनी  ५२    १०     ७

४      अनङ्गशायी       ४७     ८      २३

५      हरिजित ३५     ९      १७

६      परमसेनी ४४     २      २३

७      सुखपाताल       ३०     २      २१

८      कद्रुत   ४२     ९      २४

९      सज्ज    ३२     २      १४

१०     अमरचूड़ २७     ३      १६

११     अमीपाल २२     ११     २५

१२     दशरथ   २५     ४      १२

१३     वीरसाल ३१     ८      ११

१४     वीरसालसेन      ४७     ०      १४

राजा वीरसालसेन को वीरमहा प्रधान ने मारकर राज्य किया। वंश १६, वर्ष ४४५, मास ५, दिन ३ इनका विस्तार—

आर्यराजा वर्ष     मास    दिन

१      राजा वीरमहा     ३५     १०     ८

२      अजितसिंह       २७     ७      १९

३      सर्वदत्त २८     ३      १०

४      भुवनपति १५     ४      १०

५      वीरसेन  २१     २      १३

६      महीपाल ४०     ८      ७

७      शत्रुसाल २६     ४      ३

८      संघराज १७     २      १०

९      तेजपाल २८     ११     १०

१०     माणिकचन्द      ३७     ७      २१

११     कामसेनी ४२     ५      १०

१२     शत्रुमर्दन ८      ११     १३

१३     जीवनलोक       २८     ९      १७

१४     हरिराव २६     १०     २९

१५     वीरसेन (दूसरा)   ३५     २      २०

१६     आदित्यकेतु      २३     ११     १३

राजा आदित्यकेतु मगधदेश के राजा को ‘धन्धर’ नामक राजा प्रयाग के ने मारकर राज्य किया। वंशपीढ़ी ९, वर्ष ३७४, मास ११, दिन २६ इनका विस्तार—

आर्यराजा वर्ष     मास    दिन

१      राजा धन्धर      ४२     ७      २४

२      महर्षी   ४१     २      २९

३      सनरच्ची  ५०     १०     १९

४      महायुद्ध  ३०     ३      ८

५      दुरनाथ २८     ५      २५

६      जीवनराज       ४५     २      ५

७      रुद्रसेन ४७     ४      २८

८      आरीलक ५२     १०     ८

९      राजपाल ३६     ०      ०

राजा राजपाल को सामन्त महानपाल ने मारकर राज्य किया। पीढ़ी १, वर्ष १४, मास ०, दिन ० इनका विस्तार नहीं है।

राजा महानपाल के राज्य पर राजा विक्रमादित्य ने ‘अवन्तिका’ (उज्जैन) से चढ़ाई करके राजा महानपाल को मारके राज्य किया। पीढ़ी १, वर्ष ९३, मास ०, दिन ० इनका विस्तार नहीं है।

राजा विक्रमादित्य को शालिवाहन का उमराव समुद्रपाल योगी पैठण के ने मारकर राज्य किया। पीढ़ी १६, वर्ष ३७२, मास ७, दिन ६ इनका विस्तार—

आर्यराजा वर्ष     मास    दिन

१      समुद्रपाल        ५४     २      २०

२      चन्द्रपाल ३६     ५      ४

३      सहायपाल       ११     ४      ११

४      देवपाल २७     १      २८

५      नरसिंहपाल      १८     ०      २०

६      सामपाल २७     १      १७

७      रघुपाल २२     ३      २५

८      गोविन्दपाल      २७     १      १७

९      अमृतपाल       ३६     १०     १३

१०     बलीपाल १२     ५      २७

११     महीपाल १३     ८      ४

१२     हरीपाल १४     ८      ४

१३     सीसपालर्ि      ११     १०     १३

१४     मदनपाल १७     १०     १९

१५     कर्मपाल १६     २      २

१६     विक्रमपाल २४     ११     १३

राजा विक्रमपाल ने पश्चिम दिशा का राजा (मलुखचन्द बोहरा था) इन पर चढाई करके मैदान में लड़ाई की, इस लड़ाई में मलुखचन्द ने विक्रमपाल को मारकर इन्द्रप्रस्थ का राज्य किया। पीढ़ी १०, वर्ष १९१, मास १, दिन १६ इनका विस्तार—

आर्यराजा  वर्ष    मास    दिन

१      मलुखचन्द        ५४    २      १०

२      विक्रमचन्द १२     ७      १२

३      अमीनचन्दर्ि     १०     ०      ५

४      रामचन्द १३     ११     ८

५      हरीचन्द १४     ९      २४

६      कल्याणचन्द      १०     ५      ४

७      भीमचन्द १६     २      ९

८      लोवचन्द २६     ३      २२

९      गोविन्दचन्द      ३१     ७      १२

१०     रानी पद्मावतीर्रि्ि  १      ०      ०

रानी पद्मावती मर गई। इसके पुत्र भी कोई नहीं था। इसलिये सब मुत्सद्दियों ने सलाह करके हरिप्रेम वैरागी को गद्दी पर बैठा के मुत्सद्दी राज्य करने लगे। पीढ़ी ४, वर्ष ५०, मास ०, दिन २१। हरिप्रेम का विस्तार—

आर्यराजा वर्ष     मास    दिन

१      हरिप्रेम  ७     ५      १६

२      गोविन्दप्रेम       २०     २      ८

३      गोपालप्रेम       १५     ७      २८

४      महाबाहु ६      ८      २९

राजा महाबाहु राज्य छोड़के वन में तपश्चर्या करने गये, यह बङ्गाल के राजा आधीसेन ने सुनके इन्द्रप्रस्थ में आके आप राज्य करने लगे। पीढी १२, वर्ष १५१, मास ११, दिन २ इनका विस्तार—

आर्यराजा  वर्ष    मास    दिन

१      राजा आधीसेन    १८     ५      २१

२      विलावलसेन      १२     ४      २

३      केशवसेन         १५    ७      १२

४      माधसेन  १२    ४      २

५      मयूरसेन  २०    ११     २७

६      भीमसेन  ५     १०     ९

७      कल्याणसेन      ४      ८      २१

८      हरीसेन  १२    ०      २५

९      क्षेमसेन  ८     ११     १५

१०     नारायणसेन      २      २      २९

११     लक्ष्मीसेन २६     १०     ०

१२     दामोदरसेन       ११     ५      १९

राजा दामोदरसेन ने अपने उमराव को बहुत दुःख दिया, इसलिये राजा के उमराव दीपसिंह ने सेना मिलाके राजा के साथ लड़ाई की, उस लड़ाई में राजा को मारकर दीपसिंह आप राज्य करने लगे। पीढी ६, वर्ष १०७, मास ६, दिन २२ इनका विस्तार—

आर्यराजा वर्ष     मास    दिन

१      दीपसिंह १७     १      २६

२      राजसिंह १४     ५      ०

३      रणसिंह  ९      ८      ११

४      नरसिंह ४५     ०      १५

५      हरिसिंह १३     २      २९

६      जीवनसिंह ८      ०      १

राजा जीवनसिंह ने कुछ कारण के लिये अपनी सब सेना उत्तर दिशा को भेज दी। यह खबर पृथ्वीराज चह्वाण वैराट के राजा सुनकर जीवनसिंह के ऊपर चढाई करके आये और लड़ाई में जीवनसिंह को मारकर इन्द्रप्रस्थ का राज्य किया।र्ि पीढी ५, वर्ष ८६, मास ०, दिन २० इनका विस्तार—

आर्यराजा वर्ष     मास    दिन

१      पृथिवीराज       १२     २      १९

२      अभयपाल       १४     ५      १७

३      दुर्जनपाल        ११     ४      १४

४      उदयपाल        ११     ७      ३

५      यशपाल ३६     ४      २७

राजा यशपाल के ऊपर सुलतान शहाबुद्दीन गोरी गढ़ ग़जनी से चढाई करके आया और राजा यशपाल को प्रयाग के किले में संवत् १२४९ साल में पकड़कर क़ैद किया। पश्चात् ‘इन्द्रप्रस्थ’ अर्थात् दिल्ली का राज्य आप (सुलतान शहाबुद्दीन) करने लगा। पीढ़ी ५३, वर्ष, ७४५, मास १, दिन १७। इनका विस्तार बहुत इतिहास पुस्तकों में लिखा है, इसलिये यहाँ नहीं लिखा।

इसके आगे बौद्ध-जैनमत विषय में लिखा जायगा।

 

इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिनिर्मिते सत्यार्थप्रकाशे

सुभाषाविभूषित आर्य्यावर्त्तीयमतखण्डनमण्डनविषय

एकादशः समुल्लासः सम्पूर्णः॥११॥