तृतीय समुल्लास

अथ तृतीयसमुल्लासारम्भः

अथाऽध्ययनाऽध्यापनविधिं व्याख्यास्यामः॥

 

अब तीसरे समुल्लास में पढ़ने-पढ़ाने का प्रकार लिखेंगे। सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभावरूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है। सोने, चाँदी, हीरा, माणिक, मोती, मूँगा आदि रत्नों से युक्त आभूषणों के धारण कराने से मनुष्य का आत्मा सुभूषित कभी नहीं हो सकता। क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि भय तथा मृत्यु का भी सम्भव है। संसार में देखने में आता है कि आभूषणों के योग से बालकादिकों का मृत्यु दुष्टों के हाथ से होता है।

विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः,

सत्यव्रता रहितमानमलापहाराः।

संसारदुःखदलनेन सुभूषिता ये,

धन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः॥

अर्थ—जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में तत्पर रहता; सुन्दरशील-स्वभावयुक्त; सत्यभाषणादिनियमपालनयुक्त; और जो अभिमान, अपवित्रता से रहित, अन्य की मलिनता के नाशक; सत्योपदेश, विद्यादान से संसारी-जनों के दुःखों के दूर करने से सुभूषित; वेदविहित कर्मों से पराये उपकार करने में रत हैं, वे नर और नारी धन्य हैं। विना इसके किसी को शोभा प्राप्त नहीं होती।

इसलिए आठ वर्ष के हों तभी, लड़कों को लड़कों की और लड़कियों को लड़कियों की शाला में भेज देवें। जो अध्यापक पुरुष वा स्त्री दुष्टाचारी हों, उनसे शिक्षा न दिलावें, किन्तु जो पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक हों, वे ही पढ़ाने और शिक्षा देने योग्य हैं। द्विज अपने घर में लड़कों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का भी यथायोग्य संस्कार करके, यथोक्त आचार्य्यकुल अर्थात् अपनी-अपनी पाठशाला में भेज दें। विद्या पढ़ने का स्थान एकान्त देश में होना चाहिए और वे लड़के और लड़कियों की पाठशाला दो कोश एक-दूसरे से दूर होनी चाहिएँ। जो वहाँ अध्यापिका और अध्यापक पुरुष वा भृत्य-अनुचर हों वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष रहैं। स्त्रियों की पाठशाला में पाँच वर्ष का लड़का और लड़कों की पाठशाला में पाँच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे अर्थात् जब तक वे ब्रह्मचारी वा ब्रह्मचारिणी रहैं, तब तक स्त्री वा पुरुष का दर्शन, स्पर्शन, एकान्तसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्परक्रीड़ा, विषय का ध्यान और सङ्ग, इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहें। और अध्यापक लोग उनको इन बातों से बचावें, जिससे उत्तम विद्या, शिक्षा, शील स्वभाव, शरीर और आत्मा के बलयुक्त हो के, आनन्द को नित्य बढ़ा सकें।

पाठशालाओं से एक योजन अर्थात् चार कोश दूर ग्राम वा नगर रहै। सबको तुल्य वस्त्र, खान, पान, आसन दिये जाएँ, चाहे वह राजकुमार वा राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र के सन्तान हों। सब को तपस्वी होना चाहिए। उनके माता-पिता अपने सन्तानों से वा सन्तान अपने माता-पिताओं से न मिल सकें और न किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार एक-दूसरे से कर सकें, जिससे संसारी चिन्ता से रहित होकर, केवल विद्या बढ़ाने की चिन्ता रक्खें। जब भ्रमण करने को जायें, तब उनके साथ अध्यापक रहैं, जिससे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य प्रमाद करें।

कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्॥

—यह मनुस्मृति [७।१५२] का श्लोक है॥

इसका यह अर्थ है कि इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे अपने लड़के, लड़कियों को घर में न रखके, पाठशाला में अवश्य भेज देवें। जो न भेजे, वह दण्डनीय हो। प्रथम लड़कों का यज्ञोपवीत घर में हो और दूसरा पाठशाला में आचार्य्यकुल में हो। पिता, माता वा अध्यापक अपने लड़का-लड़कियों को अर्थसहित गायत्रीमन्त्र का उपदेश कर दें। वह मन्त्र—

ओं भूर्भुवः॒ स्वः᳖। तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।

धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥    —[यजुः॰ ३६।३]

इस मन्त्र में जो प्रथम ओङ्कार है, उसका अर्थ प्रथमसमुल्लास में कर दिया है, वहीं से जान लेना। अब तीन महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप से लिखते हैं—‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’ जो सब जगत् के जीवन का आधार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है, उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। ‘भुवरित्यपानः’ ‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’ जो सब दुःखों से रहित, जिसके संग से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’ जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सबका धारण कर रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक [प्रपा॰ ७। अनु॰ ५] के हैं।

(सवितुः) ‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’ जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’ जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिसकी प्राप्ति की कामना सब करते हैं उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्तुमर्हम्’ स्वीकार करने योग्य, अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ शुद्धस्वरूप और पवित्र करनेवाला चेतन ब्रह्मस्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हमलोग (धीमहि) ‘धरेमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन के लिए कि (यः) जो सविता देव परमात्मा (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ाकर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।

‘हे परमेश्वर! हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप! हे नित्यशुद्धबुद्ध-मुक्तस्वभाव! हे कृपानिधे न्यायकारिन्! हे अज निरञ्जन निर्विकार! हे सर्वान्तर्यामिन्! हे सर्वाधार सर्वजगत्पितः सकलजगदुत्पादक! हे अनादे विश्वम्भर सर्वव्यापिन्! हे करुणामृतवारिधे! सवितुर्देवस्य तव यदों भूर्भुवः स्वर्वरेण्यं भर्गोऽस्ति तद्वयं धीमहि दधीमहि धरेमहि ध्यायेम वा। कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह—हे भगवन्! यः सविता देवः परमेश्वरो भवानस्माकं धियः प्रचोदयात्, स एवास्माकं पूज्य उपासनीय इष्टदेवो भवतु। नातोऽन्यद्वस्तु भवत्तुल्यं भवतोऽधिकं च कञ्चित् कदाचिन्मन्यामहे।’

हे मनुष्यो! जो सब समर्थों में समर्थ; सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप; नित्यशुद्ध-नित्यबुद्ध-नित्यमुक्तस्वभाव वाला; कृपासागर; ठीक-ठीक न्याय का करनेहारा; जन्ममरणादि क्लेशरहित, आकार-विकार रहित; सबके घट-घट का जानने वाला; सबका धर्त्ता, पिता, उत्पादक; अनादि, [अन्नादि] से विश्व का पोषण करनेहारा, सर्वव्यापक; सकल ऐश्वर्ययुक्त, जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है, उस परमात्मा का जो शुद्ध चेतनस्वरूप है, उसी को हम धारण करें। इस प्रयोजन के लिए कि वह परमेश्वर हमारे आत्मा और बुद्धियों का अन्तर्यामिस्वरूप हमको दुष्टाचार, अधर्म्मयुक्त मार्ग से हठा के श्रेष्ठाचार, सत्य मार्ग में चलावे। उसको छोड़कर, दूसरे किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें, क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। वही हमारा पिता, राजा, न्यायाधीश और सब सुखों का देनेहारा है।

इस प्रकार गायत्रीमन्त्र का उपदेश करके सन्ध्योपासन की जो स्नान, आचमन, प्राणायाम आदि क्रिया है, सिखलावें। प्रथम स्नान इसलिए है कि जिससे शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि और आरोग्य आदि होते हैं।

इसमें प्रमाण—

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति॥

—यह मनुस्मृति [५।१०९] का श्लोक है॥

अर्थ—जल से शरीर के बाहर के अवयव; सत्याचरण से मन; विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सह के, धर्म ही के अनुष्ठान करने से जीवात्मा; ज्ञान, अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि, दृढ़निश्चय पवित्र होता है। इससे स्नान भोजन के पूर्व अवश्य करना चाहिये।

दूसरा प्राणायाम, इसमें प्रमाण—

प्राणायामादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः॥

—यह योगशास्त्र [२।२८] का सूत्र है॥

जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।

दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां च यथा मलाः।

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥

—यह मनुस्मृति [६।७१] का श्लोक है॥

अर्थ—जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं, वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।

प्राणायाम का विधि—

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।

—यह योगशास्त्र [१।३४] का सूत्र है॥

जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न बाहर निकल जाता है, वैसे प्राण को बल से बाहर फेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे। जब बाहर निकालना चाहे, तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच के, वायु को बाहर फेंक दे। जब तक मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रक्खे, तब तक प्राण बाहर रहता है। इसी प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है। जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे भीतर वायु को लेके फिर भी वैसे ही करता जाए, जितना सामर्थ्य और इच्छा हो। और मन में ‘ओम्’ इसका जप करता जाय। इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।

एक ‘बाह्यविषय’ अर्थात् बाहर ही प्राण को अधिक रोकना। दूसरा ‘आभ्यन्तर’ अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जाए, उतना रोके। तीसरा ‘स्तम्भवृत्ति’ अर्थात् एक ही वार जहाँ-का-तहाँ प्राण को यथाशक्ति रोक देना। चौथा ‘बाह्याभ्यन्तराक्षेपी’ अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे, तब उससे विरुद्ध, उसको न निकलने देने के लिए, बाहर से भीतर ले और जब बाहर से भीतर आने लगे, तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर, रोकता जाए। ऐसे एक-दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें, तो दोनों की गति रुककर प्राण अपने वश में होने से, मन और इन्द्रियें भी स्वाधीन हो जाते हैं। बल पुरुषार्थ बढ़कर बुद्धि तीव्र सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण कर लेती है। इससे मनुष्य शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे। भोजन-छादन, बैठने-उठने, बोलने-चालने, बड़े-छोटे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें।

सन्ध्योपासन, जिसे ब्रह्मयज्ञ भी कहते हैं। ‘आचमन’ उतने जल को हथेली में ले के, उस के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगा के करे कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक पहुँचे, न उससे अधिक न न्यून। उससे कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृत्ति थोड़ी-सी होती है। पश्चात् ‘मार्जन’ अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अङ्गों पर जल छिड़के, उससे आलस्य दूर होता है। जो आलस्य और जल प्राप्त न हो तो न करे। पुनः समन्त्रक प्राणायाम, मनसापरिक्रमण, उपस्थान। पीछे परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना की रीति सिखलावे। पश्चात् ‘अघमर्षण’ अर्थात् पाप करने की इच्छा भी कभी न करे। यह सन्ध्योपासन एकान्त देश में एकाग्रचित्त से करे।

अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः।

सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः॥

—यह मनुस्मृति [२।१०४] का श्लोक है॥

जङ्गल में अर्थात् एकान्त देश में जा, सावधान हो के, जल के समीप स्थित हो के, नित्य कर्म को करता हुआ सावित्री=गायत्रीमन्त्र का उच्चारण, अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपनी चाल-चलन को करे, परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है।

दूसरा देवयज्ञ—जो अग्निहोत्र, विद्वानों का संग सेवादिक से होता है। सन्ध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही काल में करे। दो ही रात-दिन की सन्धिवेला हैं, अन्य नहीं। न्यून-से-न्यून एक घण्टा पर्य्यन्त ध्यान अवश्य करे। जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं, वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करे। दूसरा अग्निहोत्र कर्म—दोनों सन्धिवेला अर्थात् सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व अग्निहोत्र करने का समय है। उसके लिये एक किसी धातु वा मट्टी की, ऊपर १२ वा १६ अंगुल चौकोण, उतनी ही गहरी और नीचे ३ वा ४ अंगुल परिमाण से वेदी इस प्रकार बनावे अर्थात् ऊपर जितनी चौड़ी हो, उसकी चतुर्थांश नीचे चौड़ी रहै, उसमें चन्दन, पलाश वा आम्रादि के श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े उसी वेदी के परिमाण से बड़े-छोटे करके उसमें रक्खे, उसके मध्य अग्नि रख के पुनः उस पर समिधा अर्थात् पूर्वोक्त इन्धन रख दे। एक प्रोक्षणीपात्र ऐसा, और तीसरा प्रणीतापात्र  इस प्रकार का, और एक  [इस प्रकार की] आज्यस्थाली अर्थात् घृत रखने का पात्र, और एक चमसा  ऐसा सोने, चाँदी वा काष्ठ का बनवा के, प्रणीता और प्रोक्षणी में जल तथा घृतपात्र में घृत रख के, घृत को तपा लेवे। प्रणीता जल रखने और प्रोक्षणी इसलिए है कि उससे हाथ धोने को जल लेना सुगम है। पश्चात् उस घी को अच्छी प्रकार देख ले, देख के—

ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। ओं भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा॥

[तै॰ उ॰ १।५ के आशय पर]।

अग्निहोत्र के इन प्रत्येक मन्त्र से एक-एक आहुति देवे और जो अधिक आहुति देना हो तो—

विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव। यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व॥

[यजुः ३०।३]।

इस मन्त्र और पूर्वोक्त गायत्रीमन्त्र से आहुति देवे।

‘ओं’ ‘भूः’ और ‘प्राण’ आदि ये सब नाम परमेश्वर के हैं। इनके अर्थ कह चुके हैं। ‘स्वाहा’ शब्द का अर्थ यह है कि जैसा ज्ञान आत्मा में हो वैसा ही जीभ से बोले, विपरीत नहीं। जैसे परमेश्वर ने सब प्राणियों के सुख के अर्थ इस सब जगत् के पदार्थ रचे हैं, वैसे मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिए।

प्रश्न—होम से क्या उपकार होता है?

उत्तर—सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख, और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य, और रोग के न होने से सुख प्राप्त होता है।

प्रश्न—चन्दनादि घिस के किसी को लगावे, वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना, बुद्धिमानों का काम नहीं।

उत्तर—जो तुम पदार्थविद्या जानते, तो कभी ऐसी बात न कहते। क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो! जहाँ होम होता है, वहाँ से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है, वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म होके फैल के, वायु के साथ दूर देश में जाकर, दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।

प्रश्न—जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और अतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।

उत्तर—उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकालकर, शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके, क्योंकि उसमें भेदक-शक्ति नहीं है। और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके, बाहर निकाल कर, पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।

प्रश्न—तो मन्त्र पढ़ के होम करने का क्या प्रयोजन है?

उत्तर—मन्त्रों में वह व्याख्या है कि जिससे होम करने के लाभ विदित हो जायें और मन्त्रों की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहैं। वेदपुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे।

प्रश्न—क्या इस होम करने के विना पाप होता है?

उत्तर—हाँ! क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर, रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से, प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उसी मनुष्य को होता है। इसलिए उस पाप के निवारणार्थ, उतना सुगन्ध वा उससे अधिक; वायु और जल में फैलाना चाहिए। और खिलाने-पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुखविशेष होता है। जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है, उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है। परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खावें, तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके। इससे अच्छे पदार्थ खिलाना-पिलाना भी चाहिए, परन्तु उससे होम अधिक करना उचित है, इसलिए होम का करना अत्यावश्यक है।

प्रश्न—प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है?

उत्तर—प्रत्येक मनुष्य सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून-से-न्यून चाहिए, और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिए आर्यवरशिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम का प्रचार रहा, तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, जो अब भी प्रचार हो, तो वैसा ही हो जाय। ये दो यज्ञ अर्थात् एक ‘ब्रह्म[यज्ञ]’ जो पढ़ना-पढ़ाना, सन्ध्योपासन, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना। दूसरा ‘देवयज्ञ’ जो अग्नीहोत्र से ले के अश्वमेध पर्य्यन्त यज्ञ और विद्वानों की सेवा संग करना। परन्तु ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र का ही करना होता है।

ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति। राजन्यो द्वयस्य। वैश्यो वैश्यस्यैवेति। शूद्रमपि कुलगुणसम्पन्नं मन्त्रवर्जमनुपनीतमध्यापयेदित्येके॥

—यह सुश्रुत के सूत्रस्थान के दूसरे अध्याय [श्लोक ५] का वचन है॥

अर्थ—ब्राह्मण तीनों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य; क्षत्रिय क्षत्रिय और वैश्य; तथा वैश्य एक वैश्य वर्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है। कुलीन शुभलक्षणयुक्त शूद्र हो तो उसको मन्त्रसंहिता छोड़ के सब शास्त्र पढ़ावे, शूद्र पढ़े, परन्तु उसका उपनयन न करे, यह मत अनेक आचार्य्यों का है। इस विधि के पश्चात् पाँचवें वा आठवें वर्ष से लड़के लड़कों की पाठशाला में और कन्या कन्याओं की पाठशाला में जावें और निम्नलिखित नियमपूर्वक अध्ययन का आरम्भ करें।

षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।

तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा॥

—यह मनुस्मृति [३।१] का श्लोक है॥

अर्थ—आठवें वर्ष से आगे छत्तीसवें वर्ष पर्य्यन्त, अर्थात् एक-एक वेद के साङ्गोपाङ्ग पढ़ने में बारह-बारह वर्ष मिल के छत्तीस और आठ मिल के चवालीस, अथवा अठारह वर्षों का ब्रह्मचर्य और आठ पूर्व के मिल के छब्बीस, वा नौ वर्ष तथा जब तक विद्या पूर्ण ग्रहण न कर लेवे तब तक ब्रह्मचर्य रक्खे।

पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विꣳशति वर्षाणि तत्प्रातःसवनं चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री गायत्रं प्रातःसवनं तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः प्राणा वाव वसव एते हीदꣳ सर्वं वासयन्ति॥१॥

तञ्चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा वसव इदं मे प्रातःसवनं माध्यन्दिनꣳसवनमनुसंतनुतेति माहं प्राणानां वसूनां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति॥२॥

अथ यानि चतुश्चत्वारिꣳशद्वर्षाणि तन्माध्यन्दिनꣳसवनं चतुश्चत्वारिꣳ शदक्षरा त्रिष्टुप् त्रैष्टुभं माध्यंदिनꣳसवनं तदस्य रुद्रा अन्वायत्ताः प्राणा वाव रुद्रा एते हीदꣳसर्वꣳरोदयन्ति॥३॥

तं चेदेतस्मिन्वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा रुद्रा इदं मे माध्यन्दिनꣳ सवनं तृतीयसवनमनुसन्तनुतेति माहं प्राणानाᳬरुद्राणां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति॥४॥

अथ यान्यष्टाचत्वारिꣳशद्वर्षाणि तत्तृतीयसवनमष्टाचत्वारिꣳ शदक्षरा जगती जागतं तृतीयसवनं तदस्यादित्या अन्वायत्ताः प्राणा वावादित्या एते हीदꣳसर्वमाददते॥५॥

तं चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात् प्राणा आदित्या इदं मे तृतीयसवनमायुरनुसंतनुतेति माहं प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो हैव भवति॥६॥

—यह छान्दोग्योपनिषत् [३।१६।१-६] का वचन है॥

अर्थ—ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है। कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम। उनमें से कनिष्ठ—जो यह पुरुष अन्नरसमय देह और पुरि अर्थात् देह में शयन करनेवाला जीवात्मा; यज्ञ अर्थात् अतीव शुभगुणों से सङ्गत और सत्कर्त्तव्य है। इसको अवश्य है कि २४ वर्ष पर्य्यन्त जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी रहकर वेदादि विद्या और सुशिक्षा का ग्रहण करे। और विवाह करके भी लम्पटता न करे, तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब शुभगुणों के वास करानेवाले होते हैं॥१॥

इस प्रथम वय में जो उसको विद्याभ्यास में संतप्त करे और वह आचार्य वैसा ही उपदेश किया करे और ब्रह्मचारी ऐसा निश्चय रक्खे कि जो मैं प्रथम अवस्था में ठीक-ठीक ब्रह्मचर्य से रहूँगा तो मेरा शरीर और आत्मा आरोग्य, बलवान् हो के, शुभगुणों को वसानेवाले मेरे प्राण होंगे। हे मनुष्यो! तुम इस प्रकार से सुखों का विस्तार करो, जो मैं ब्रह्मचर्य का लोप न करूँ। २४ वर्ष के पश्चात् गृहाश्रम करूँगा तो प्रसिद्ध है कि रोगरहित रहूँगा और आयु भी मेरा ७० वा ८० वर्ष तक रहेगा॥२॥

मध्यम ब्रह्मचर्य यह है—जो मनुष्य ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहकर वेदाभ्यास करता है, उसके प्राण, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और आत्मा  बलयुक्त हो के, सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करनेहारे होते हैं॥३॥

जो मैं इसी प्रथम वय में जैसा आप कहते हैं, कुछ तपश्चर्या करूँ, तो मेरे ये रुद्ररूप प्राणयुक्त यह मध्यम ब्रह्मचर्य सिद्ध होगा। हे ब्रह्मचारी लोगो! तुम इस ब्रह्मचर्य को बढ़ाओ। जैसे मैं इस ब्रह्मचर्य का लोप न करके यज्ञस्वरूप होता हूँ और उसी आचार्यकुल से आता और रोगरहित होता हूँ। जैसाकि यह ब्रह्मचारी अच्छा काम करता है, वैसा तुम किया करो॥४॥

उत्तम ब्रह्मचर्य ४८ वर्ष पर्य्यन्त का तीसरे प्रकार का होता है। जैसे ४८ अक्षर की जगती, वैसे जो ४८ वर्ष पर्य्यन्त यथावत् ब्रह्मचर्य करता है, उसके प्राण अनुकूल होकर सकल विद्याओं का ग्रहण करते हैं॥५॥

जो आचार्य और माता-पिता अपने सन्तानों को प्रथम वय में विद्या और गुणग्रहण के लिए तपस्वी कर और उसी का उपदेश करें और वे सन्तान आप-ही-आप अखण्डित ब्रह्मचर्य सेवन से तीसरे उत्तम ब्रह्मचर्य का सेवन करके पूर्ण अर्थात् चार सौ वर्ष पर्य्यन्त आयु को बढ़ावें, वैसे तुम भी बढ़ाओ। क्योंकि जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोप नहीं करते, वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं॥६॥

चतस्रोऽवस्थाः शरीरस्य वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता किञ्चित् परिहाणिश्चेति। आषोडशाद्वृद्धिः। आपञ्चविंशतेर्यौवनम्। आचत्वारिंशतः सम्पूर्णता। ततः किञ्चित् परिहाणिश्चेति॥                        [तुलना—सु॰ १।३५।२९]

पञ्चविंशे ततो वर्षे पुमान् नारी तु षोडशे।

समत्वागतवीर्यौ तौ जानीयात्कुशलो भिषक्॥

—यह सुश्रुत के सूत्रस्थान का वचन है [सु॰ १।३५।१३]॥

इस शरीर की चार अवस्था हैं। एक वृद्धि, जो १६में वर्ष पर्यन्त, दूसरी यौवन, जो २५वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की बढ़ती होती है। तीसरी सम्पूर्णता, जो चालीसवें वर्ष पर्य्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है।१ चौथी किञ्चित्परिहाणि, जब सब साङ्गोपाङ्ग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं, तदन्तर जो धातु बढ़ता है, वह शरीर में नहीं रहता, किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वार से बाहर निकल जाता है। वही ४०वां वर्ष उत्तम समय विवाह का है, अर्थात् उत्तमोत्तम तो अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना।

प्रश्न—क्या यह ब्रह्मचर्य का नियम स्त्री वा पुरुष दोनों का तुल्य ही है?

उत्तर—नहीं, जो २५ वर्ष पर्य्यन्त पुरुष ब्रह्मचर्य करे, तो १६ सोलह वर्षपर्यन्त कन्या। जो पुरुष तीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचारी रहै, तो स्त्री १७ वर्ष, जो पुरुष छत्तीस वर्ष तक रहै, तो स्त्री १८ वर्ष, जो पुरुष ४० वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य करे, तो स्त्री २० वर्ष, जो पुरुष ४४ वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य करे, तो स्त्री २२ वर्ष, जो पुरुष ४८ वर्ष ब्रह्मचर्य करे, तो स्त्री २४ चौबीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवन रक्खे, अर्थात् ४८वें वर्ष से आगे पुरुष और २४वें वर्ष से आगे स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिए, परन्तु यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों का है। और जो विवाह करना ही न चाहैं वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकें, तो भले ही रहैं, परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले, जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थांभ के, इन्द्रियों को अपने वश में रखना।

ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च। अतिथयश्च स्वाध्यायप्रवचने च। मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च।

—यह तैत्तिरीयोपनिषत् [शिक्षावल्ली, अनुवाक ९] का वचन है।

ये पढ़ने-पढ़ानेवालों के नियम हैं। (ऋतं॰) यथार्थ आचरण से पढ़ें और पढ़ावें, (सत्यं॰) सत्याचार से सत्यविद्याओं को पढ़ें वा पढ़ावें, (तपः॰) तपस्वी अर्थात् धर्मानुष्ठान करते हुए वेदादि शास्त्रों को पढ़ें और पढ़ावें, (दमः॰) बाह्य इन्द्रियों को बुरे आचरणों से रोक के पढ़ें और पढ़ाते जायें, (शमः॰) अर्थात् मन की वृत्ति को सब प्रकार के दोषों से हठाके पढ़ते-पढ़ाते जायें, (अग्नयः॰) आहवनीयादि अग्नि और विद्युत् आदि को जान के पढ़ते-पढ़ाते जायें, और (अग्निहोत्रं॰) अग्निहोत्र करते हुए पठन और पाठन करें-करावें, (अतिथयः॰) अतिथियों की सेवा करते हुए पढ़ें और पढ़ावें, (मानुषं॰) मनुष्यसम्बन्धी व्यवहारों को यथायोग्य करके पढ़ते और पढ़ाते रहैं, (प्रजा॰) अर्थात् सन्तान और राज्य का पालन करते हुए पढ़ते पढ़ाते जायें, (प्रजन॰) वीर्य की रक्षा और वृद्धि करते हुए पढ़ते-पढ़ाते जायें, (प्रजातिः॰) अर्थात् अपने सन्तान और शिष्य का पालन करते हुए पढ़ते-पढ़ाते जायें।

यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः।

यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्॥

—यह मनुस्मृति [४।२०४] का श्लोक है॥

यम पाँच प्रकार के होते हैं—

तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥

—यह योगशास्त्र [२।३०] का वचन है।

अर्थात् (अहिंसा) वैरत्याग, (सत्य) सत्य ही मानना, सत्य ही बोलना और सत्य ही करना, (अस्तेय) अर्थात् मन, वचन, कर्म से चोरी त्याग, (ब्रह्मचर्य) अर्थात् उपस्थेन्द्रिय का संयम, (अपरिग्रह) अत्यन्त लोलुपता स्वत्वाभिमानरहित होना, इन पाँच यमों का सेवन सदा करें।

केवल नियमों का सेवन [न करें] अर्थात्—

शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥

—यह योगशास्त्र [२।३२] का वचन है।

(शौच) अर्थात् स्नानादि से पवित्रता, (सन्तोष) सम्यक् प्रसन्न होकर निरुद्यम रहना सन्तोष नहीं, किन्तु पुरुषार्थ जितना हो सके उतना करना, हानि-लाभ में हर्ष वा शोक न करना, (तपः) अर्थात् कष्टसेवन से भी धर्मयुक्त कर्मों का अनुष्ठान, (स्वाध्याय) पढ़ना-पढ़ाना, (ईश्वरप्रणिधान) ईश्वर की भक्तिविशेष से आत्मा को अर्पित रखना, ये पाँच नियम कहाते हैं।

यमों के विना, केवल इन नियमों का सेवन न करे, किन्तु इन दोनों का सेवन किया करे। जो यमों का सेवन छोड़ के, केवल नियमों का सेवन करता है, वह उन्नति को प्राप्त नहीं होता, किन्तु अधोगति अर्थात् संसार में गिरा रहता है।

कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता।

काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥

—मनुस्मृति [२।२]॥

अर्थ—अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता किसी के लिए भी श्रेष्ठ नहीं, क्योंकि जो कामना न करे तो वेदों का ज्ञान और वेदविहित कर्मादि उत्तम कर्म किसी से न हो सकें। इसलिए—

स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥

—यह मनुस्मृति [२।२८] का श्लोक है।

अर्थ—(स्वाध्याय) सकल विद्या पढ़ने-पढ़ाने, (व्रत) ब्रह्मचर्य्य सत्यभाषणादि नियम पालने, (होम) अग्निहोत्रादि होम, सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने, (त्रैविद्येन) वेदस्थ कर्मोपासना ज्ञान विद्या के ग्रहण, (इज्यया) पक्षेष्ट्यादि करने, (सुतैः) सुसन्तानोत्पत्ति, (महायज्ञैः) ब्रह्म, देव, पितृ, वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पंचमहायज्ञ और (यज्ञैः) अग्निष्टोमादि तथा शिल्पविद्या-विज्ञानादि यज्ञों के सेवन से इस शरीर को ‘ब्राह्मी’ अर्थात् वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधाररूप ब्राह्मण का शरीर बनना है। इतने साधनों से विना ब्राह्मणशरीर नहीं बन सकता।

इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु।

संयमे यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्॥

—मनु॰ [२।८८]॥

अर्थ—जैसे विद्वान् सारथि घोड़ों को नियम में रखता है, वैसे मन और आत्मा को खोटे कामों में खैंचनेवाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करे। क्योंकि—

इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्।

सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति॥

—मनु॰ [२।९३]॥

अर्थ—जीवात्मा इन्द्रियों के वश होके निश्चित बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त होता है; और जब इन्द्रियों को अपने वश में करता है, तभी सिद्धि को प्राप्त होता है।

वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।

न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्॥

—मनु॰ [२।९७]॥

जो दुष्टाचारी, अजितेन्द्रिय पुरुष है, उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते।

वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके।

नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥१॥

नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्।

ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम्॥२॥

—मनु॰ [२।१०५-१०६]॥

वेदादि शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने, सन्ध्योपासनादि पंचमहायज्ञों के करने और होममन्त्रों में अनध्याय और निरोध अर्थात् अननुष्ठान=रुकावट नहीं होती॥ १॥  क्योंकि नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता जैसे श्वास-प्रश्वास सदा लिये जाते हैं, बन्ध नहीं किये जाते, वैसे नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिए, न किसी दिन छोड़ना, क्योंकि अनध्याय में भी अग्निहोत्रादि उत्तम कर्म किया हुआ पुण्यरूप होता है। जैसे झूठ बोलने में सदा पाप और सत्य बोलने में सदा पुण्य होता है, वैसे ही बुरे कर्म करने में सदा अनध्याय और अच्छे कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है[॥२॥]

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्द्धन्त आयुर्विद्या यशो बलम्॥

—मनु॰ [२।१२१]॥

जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसका आयु, विद्या, कीर्ति और बल; ये चार सदा बढ़ते रहते हैं। और जो ऐसा नहीं करते, उनके आयु आदि चार नहीं बढ़ते।

अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्।

वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता॥१॥

यस्य वाङ्मनसे शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा।

स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम्॥२॥

—मनु॰ [२।१५९-१६०]॥

विद्वान् और विद्यार्थियों को योग्य है कि वैरबुद्धि छोड़ के सब मनुष्यों को कल्याण के मार्ग का उपदेश करें; और उपदेष्टा सदा मधुर, सुशीलतायुक्त वाणी बोले। जो धर्म की उन्नति चाहै, वह सदा सत्य में चले और सत्य ही का उपदेश करे॥१॥

जिस मनुष्य के वाणी और मन शुद्ध तथा सुरक्षित सदा रहते हैं; वही सब वेदान्त अर्थात् सब वेदों के सिद्धान्तरूप फल को प्राप्त होता है॥२॥

सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।

अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा॥

—मनु॰ [२।१६२]॥

वही ब्राह्मण समग्र वेद और परमेश्वर को जानता है, जो प्रतिष्ठा से विष के तुल्य सदा डरता है; और अपमान की इच्छा अमृत के समान किया करता है।

अनेन क्रमयोगेन संस्कृतात्मा द्विजः शनैः।

गुरौ वसन् सञ्चिनुयाद् ब्रह्माधिगमिकं तपः॥

—मनु॰ [२।१६४]॥

इसी प्रकार से कृतोपनयन द्विज ब्रह्मचारी कुमार और ब्रह्मचारिणी कन्या धीरे-धीरे वेदार्थ के ज्ञानरूप उत्तम तप को बढ़ाते चले जायें।

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥

—मनु॰ [२।१६८]

जो वेद को न पढ़ के अन्यत्र श्रम किया करता है, वह अपने पुत्र-पौत्रसहित शूद्रभाव को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

वर्जयेन्मधु मांसञ्च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः।

शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम्॥१॥

अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम्।

कामं क्रोधं च लोभं च नर्त्तनं गीतवादनम्॥२॥

द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथानृतम्।

स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च॥३॥

एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत्क्वचित्।

कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः॥४॥

—मनु॰ [२।१७७-१८०]॥

ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का सङ्ग, सब खटाई, प्राणियों की हिंसा॥१॥

अङ्गों का मर्दन, विना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आँखों में अञ्जन, जूते और छत्र का धारण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष और नाच, गान, बाजा बजाना॥२॥

जुआ=द्यूत, जिस किसी की कथा, निन्दा, मिथ्याभाषण, स्त्रियों का दर्शन, आश्रय, दूसरे की हानि आदि कुकर्मों को सदा छोड़ देवें॥३॥

सर्वत्र एकाकी सोवे, वीर्य्य स्खलित कभी न करे। जो कामना से वीर्य्य स्खलित कर दे, तो जानो कि अपने ब्रह्मचर्य्य-व्रत का नाश कर दिया॥४॥

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति। सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्य्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। [भूत्यै न प्रमदितव्यम्।] स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्॥१॥ देवपितृ-कार्य्याभ्यां न प्रमदितव्यम्। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव॥ आचार्य्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि। यान्यस्माकꣳ सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि॥२॥ नो इतराणि। ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणास्तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम्। श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्। अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्॥३॥ ये तत्र ब्राह्मणाः समदशि्रनो युक्ता अयुक्ता अलूक्षा धर्मकामाः स्युर्यथा ते तत्र वर्त्तेरन्। तथा तत्र वर्त्तेथाः। [अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्त्तेरन्। तथा तेषु वर्त्तेथाः॥] एष आदेश एष उपदेश एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्॥४॥       —यह तैत्तिरीयोपनिषद् [१।११] का वचन है।

आचार्य्य अन्तेवासी, अर्थात् अपने शिष्य और शिष्याओं को इस प्रकार उपदेश करे कि तू सदा सत्य बोल, धर्माचार कर, प्रमादरहित होके पढ़-पढ़ा, पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्याओं के ग्रहण और आचार्य्य के लिए प्रिय धन देकर, विवाह करके सन्तानोत्पत्ति कर। प्रमाद से सत्य को कभी मत छोड़, प्रमाद से धर्म का त्याग मत कर, प्रमाद से आरोग्य और चतुराई को मत छोड़, [प्रमाद से उत्तम ऐश्वर्य की वृद्धि को मत छोड़], प्रमाद से पढ़ने और पढ़ाने को कभी मत छोड़। देव, विद्वान् और माता-पितादि की सेवा में प्रमाद मत कर। जैसे विद्वान् का सत्कार करे, उसी प्रकार माता, पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा सदा किया कर। जो अनिन्दित धर्मयुक्त कर्म हैं, उन सत्यभाषणादि को किया कर, उनसे भिन्न मिथ्याभाषणादि कभी मत कर। जो हमारे सुचरित्र अर्थात् धर्मयुक्त कर्म हों, उनका ग्रहण कर और जो हमारे पापाचरण, उनको कभी मत कर। जो कोई हमारे मध्य में उत्तम विद्वान् धर्मात्मा ब्राह्मण हैं, उन्हीं के समीप बैठ और उन्हीं का विश्वास किया कर। श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिए। जब कभी तुझको कर्म वा शील तथा उपासना ज्ञान में किसी प्रकार का संशय उत्पन्न हो; तो जो वे समदर्शी पक्षपातरहित, योगी, अयोगी, आर्द्रचित्त, धर्म की कामना करनेवाले धर्मात्मा जन हों, जैसे वे धर्ममार्ग में वर्त्तें, वैसे तू उसमें वर्त्ता कर। यही आदेश आज्ञा, यही उपदेश, यही वेद की उपनिषत् और यही शिक्षा है। इसी प्रकार वर्त्तना और अपनी चाल-चलन सुधारना चाहिए।

अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्।

यद्यद्धि कुरुते किञ्चित् तत्तत्कामस्य चेष्टितम्॥

—मनु॰ [२।४]॥

मनुष्य को निश्चय करना चाहिए कि निष्काम पुरुष में नेत्र का संकोच-विकास का होना भी सर्वथा असम्भव है, इससे यह सिद्ध होता है कि जो जो-कुछ भी करता है, वह-वह चेष्टा कामना के विना नहीं है।

आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त्त एव च।

तस्मादस्मिन्त्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः॥१॥

आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते।

आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्॥२॥

—मनु॰ [१।१०८-१०९]॥

अर्थ—कहने, सुनने, सुनाने, पढ़ने, पढ़ाने का फल यही है कि वेद और वेदानुकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना। इसलिए धर्माचार में सदा युक्त रहै॥१॥

क्योंकि जो धर्माचरण से रहित है, वह वेदप्रतिपादित धर्मजन्य सुखरूप फल को प्राप्त नहीं हो सकता और जो विद्या पढ़ के धर्माचरण करता है, वही सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होता है॥२॥

योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।

स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥

—मनु॰ [२।११]॥

जो वेद और वेदानुकूल आप्त पुरुषों के किये शास्त्रों का अपमान करता है, उस वेदनिन्दक नास्तिक को जाति, पङ्क्ति और देश से बाह्य कर देना चाहिए, क्योंकि—

श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥

—मनु॰ [२।१२]॥

श्रुति=वेद; स्मृति=वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि शास्त्र; सत्पुरुषों का आचार जो सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्वरोक्त-प्रतिपादित कर्म्म; और अपने आत्मा में प्रिय, अर्थात् जिसको आत्मा चाहता है, जैसा कि सत्यभाषण; ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्हीं से धर्म्माधर्म्म का निश्चय होता है। जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है, उसी का नाम ‘धर्म’ और इससे विपरीत जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहणरूप कर्म है, उसी को ‘अधर्म’ कहते हैं।

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः॥

—मनु॰ [२।१३]॥

जो पुरुष (अर्थ) सुवर्णरत्नादि और (काम) स्त्रीसेवनादि में नहीं फसे हैं, उन्हीं को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है। जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें, वे वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें, क्योंकि धर्माऽधर्म का निश्चय विना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता।

इस प्रकार आचार्य अपने शिष्य को उपदेश करे। और विशेषकर राजा, इतर क्षत्रिय, वैश्य और उत्तम शूद्र जनों को भी विद्या का अभ्यास अवश्य करावें। क्योंकि जो ब्राह्मण हैं, वे ही केवल विद्याभ्यास करें और क्षत्रियादि न करें, तो विद्या, धर्म, राज्य और धन की वृद्धि कभी नहीं हो सकती। क्योंकि ब्राह्मण तो केवल पढ़ने-पढ़ाने और क्षत्रियादि से जीविका को प्राप्त होके जीवन धारण कर सकते हैं। जीविका के आधीन और क्षत्रियादि के आज्ञादाता और यथावत् परीक्षक दण्डदाता न होने से ब्राह्मणादि सब वर्ण छल-कपट में फस के, विद्याभ्यास धर्म को छोड़ पाखण्ड ही में फस जाते हैं। और जब क्षत्रियादि विद्वान् होते हैं, तब ब्राह्मण भी अधिक विद्याभ्यास और धर्मपथ में चलते हैं और उन क्षत्रियादि विद्वानों के सामने पाखण्ड, झूठा व्यवहार भी नहीं कर सकते।

और जब क्षत्रियादि अविद्वान् होते हैं, तो वे जैसा अपने मन में आता है, वैसा ही करते-कराते हैं। इसलिए ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहैं तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्र का अभ्यास अधिक प्रयत्न से करावें। क्योंकि क्षत्रियादि ही विद्या, धर्म, राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि करनेहारे हैं, वे कभी भिक्षावृत्ति नहीं करते, इसलिए वे विद्या व्यवहार में पक्षपाती भी नहीं हो सकते। और जब सब वर्णों में विद्या सुशिक्षा होती है, तब कोई भी पाखण्डरूप अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार को नहीं चला सकता। इससे क्या सिद्ध हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलानेवाले ब्राह्मण और संन्यासी, तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलानेवाले क्षत्रियादि ही होते हैं। इसलिए सब वर्णों के स्त्री-पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिए।

अब जो-जो पढ़ना-पढ़ाना हो वह-वह अच्छी प्रकार परीक्षा करके होना योग्य है। परीक्षा पाँच प्रकार से होती है—

एक—जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों से अनुकूल हो, वह-वह ‘सत्य’ और उससे विरुद्ध ‘असत्य’ है।

दूसरी—जो-जो सृष्टिक्रम से अनुकूल वह-वह ‘सत्य’ और जो-जो विरुद्ध है, वह सब ‘असत्य’ है। जो कोई कहै—“विना माता-पिता के योग से लड़का उत्पन्न हुआ”, वह सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से असत्य है।

तीसरी—“आप्त” अर्थात् जो धार्मिक, विद्वान्, सत्यवादी, निष्कपटियों का संग, उपदेश के अनुकूल है, वह-वह ‘ग्राह्य’ और जो-जो विरुद्ध है, वह-वह ‘अग्राह्य’ है।

चौथी—अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या के अनुकूल, अर्थात् जैसा अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे सर्वत्र समझ लेना कि मैं भी किसी को दुःख वा सुख दूँगा, तो वह भी अप्रसन्न और प्रसन्न होगा।

और पाँचवीं—आठों प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव। इनमें से प्रत्यक्ष के लक्षणादि में जो-जो नीचे सूत्र लिखेंगे, वे-वे सब न्यायशास्त्र के प्रथम और द्वितीय अध्याय के जानो—

इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि

व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्॥

—न्याय॰॥ अध्याय १॥ आह्निक १॥ सूत्र ४॥

जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और घ्राण का शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के साथ अव्यवहित अर्थात् आवरणरहित सम्बन्ध होता है, इन्द्रियों के साथ मन का और मन के साथ आत्मा के संयोग से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं। परन्तु जो व्यपदेश्य अर्थात् संज्ञासंज्ञी के सम्बन्ध से उत्पन्न होता है, वह वह ज्ञान न हो। जैसा किसी ने किसी से कहा कि “तू जल ले-आ” वह लाके, उसके पास धरके, बोला कि “यह जल है”। परन्तु वहाँ ‘जल’ इस दो अक्षरों की संज्ञा,  लाने वा मंगवाने वाला नहीं देख सकता है। किन्तु जिस पदार्थ का नाम ‘जल’ है, वही प्रत्यक्ष होता है। और जो शब्द से ज्ञान उत्पन्न होता है, वह शब्दप्रमाण का विषय है। ‘अव्यभिचारि’ जैसे किसी ने रात्रि में खम्भे को देख के, पुरुष का निश्चय कर लिया, जब दिन में उसको देखा, तो रात्रि का पुरुषज्ञान नष्ट होकर, स्तम्भज्ञान रहा, ऐसे विनाशी ज्ञान का नाम व्यभिचारी है। ‘व्यवसायात्मक’ किसी ने दूर से नदी की बालू देख के कहा कि “वहाँ वस्त्र सूख रहे हैं, जल है वा और कुछ है”? “वह देवदत्त खड़ा है वा यज्ञदत्त”? जब तक एक निश्चय न हो, तब तक वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है। किन्तु जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारि और निश्चयात्मक ज्ञान है, उसी को ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं।

दूसरा अनुमान—

अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टञ्च॥

—न्याय॰॥ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ ५॥

जो प्रत्यक्षपूर्वक अर्थात् जिसका कोई एक देश वा सम्पूर्ण द्रव्य किसी स्थान वा काल में प्रत्यक्ष हुआ हो, उसका दूर देश से सहचारी एक देश के प्रत्यक्ष होने से अदृष्ट अवयवी का ज्ञान होने को ‘अनुमान’ कहते हैं। जैसे पुत्र को देख के पिता, पर्वतादि में धूम को देख के अग्नि, जगत् में सुख-दुःख देख के पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।

वह अनुमान तीन प्रकार का है। एक ‘पूर्ववत्’ जैसे बद्दलों को देख के वर्षा, विवाह को देख के सन्तानोत्पत्ति, पढ़ते हुए विद्यार्थियों को देख के विद्या होने का निश्चय होता है—इत्यादि। जहाँ-जहाँ कारण को देख के कार्य का ज्ञान हो वह ‘पूर्ववत्’। दूसरा ‘शेषवत्’ अर्थात् जहाँ कार्य को देख के कारण का ज्ञान हो। जैसे नदी के प्रवाह की बढ़ती देख के ऊपर हुई वर्षा का, पुत्र को देख के पिता का, सृष्टि को देख के अनादि कारण का, सृष्टि में रचनाविशेष देखके कर्त्ता ईश्वर का दुःख-सुख देख के पाप-पुण्य के आचरण का ज्ञान होता है, इसी को ‘शेषवत्’ कहते हैं। तीसरा ‘सामान्यतोदृष्ट’ जो कोई किसी का कार्य कारण न हो, परन्तु किसी प्रकार का साधर्म्य एक दूसरे के साथ हो, जैसे कोई भी विना चले दूसरे स्थान को नहीं जा सकता, वैसे ही दूसरों का भी स्थानान्तर में जाना; विना गमन के कभी नहीं हो सकता। अनुमान शब्द का अर्थ यही है कि अनु अर्थात् ‘प्रत्यक्षस्य पश्चान्मीयते ज्ञायते येन तदनुमानम्’ जो प्रत्यक्ष के पश्चात् उत्पन्न हो, जैसे धूम के प्रत्यक्ष देखे विना, अदृष्ट अग्नि का ज्ञान कभी नहीं हो सकता।

तीसरा उपमान—

प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम्॥

—न्याय॰॥ अ॰ १॥ आ॰ १॥ सू॰ ६॥

जो प्रसिद्ध=प्रत्यक्ष साधर्म्य से साध्य अर्थात् सिद्ध करने योग्य ज्ञान की सिद्धि करने का साधन हो, उसको ‘उपमान’ कहते हैं। ‘उपमीयते येन तदुपमानम्’ जैसे किसी ने किसी भृत्य से कहा कि “तू देवदत्त के सदृश विष्णुमित्र को बुला ला’[उस] भृत्य ने कहा कि “मैंने उसको कभी नहीं देखा”। उसके स्वामी ने उससे कहा कि “जैसा यह देवदत्त है, वैसा ही विष्णुमित्र है;” वा “जैसी यह गाय है, वैसा=गवय अर्थात् रोजा नीलगाय होता है”। जब वह वहाँ गया और देवदत्त के सदृश देखा, निश्चय जान लिया कि यही विष्णुमित्र है, उसको ले-आया। अथवा किसी जङ्गल में जिस पशु को गाय के तुल्य देखा, उसको जान लिया कि इसी का नाम गवय है।

चौथा शब्दप्रमाण—

आप्तोपदेशः शब्दः॥ —न्याय॰। अ॰ १। आ॰ १। सू॰ ७॥

जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकारप्रिय, सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय पुरुष जैसा अपने आत्मा में जानता हो और जिससे सुख पाया हो, उसी के कथन की इच्छा से प्रेरित सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेष्टा हो। अर्थात् जितने पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्य्यन्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त होकर उपदेष्टा होता है जो ऐसे पुरुष, और पूर्ण आप्त परमेश्वर के उपदेश वेद हैं, उन्हीं को ‘शब्दप्रमाण’ जानो।

पाँचवाँ ऐतिह्य—

न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्॥

—न्याय॰। अ॰ २। आ॰ २। सू॰ १॥

जो इति ह अर्थात् इस प्रकार का था; उसने इस प्रकार किया। अर्थात् किसी के जीवन-चरित्र का नाम ‘ऐतिह्य’ है।

छठा अर्थापत्ति—

‘अर्थादापद्यते सा अर्थापत्तिः’ केनचिदुच्यते—‘सत्सु घनेषु वृष्टिः, सति कारणे कार्य्यं भवतीति’ किमत्र प्रसज्यते—‘असत्सु घनेषु वृष्टिरसति कारणे च कार्य्यं न भवतीति’ जैसे किसी ने किसी से कहा कि “बद्दल के होने से वर्षा और कारण के होने से कार्य्य उत्पन्न होता है”। इससे, विना कहे यह दूसरी बात सिद्ध होती है कि “विना बद्दल वर्षा और विना कारण के कार्य्य कभी नहीं हो सकता।”

सातवाँ सम्भव—

‘सम्भवति यस्मिन् स सम्भवः’ कोई कहे कि “माता-पिता के सङ्ग के विना सन्तानोत्पत्ति, किसी ने मृतक जिलाये, पहाड़ उठाये, समुद्र में पत्थर तराये, चन्द्रमा के टुकड़े किये, परमेश्वर का अवतार हुआ, मनुष्य के सींग देखे और वन्ध्या के पुत्र और पुत्री का विवाह किया” इत्यादि सब असम्भव हैं। क्योंकि ये सब बात सृष्टिक्रम के विरुद्ध हैं। जो बात सृष्टिक्रम के अनुकूल हो, वही ‘सम्भव’ है।

आठवाँ अभाव—

‘न भवति यस्मिन् सोऽभावः’ जैसे किसी ने किसी से कहा कि “हाथी ले आ” उसने वहाँ हाथी का अभाव देखकर, जहाँ हाथी था, वहाँ से ले आया।

ये आठ प्रमाण। इनमें से जो शब्द में ऐतिह्य और अनुमान में अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव की गणना करें, तो चार प्रमाण रह जाते हैं। इन पाँच प्रकार की परीक्षाओं से मनुष्य सत्यासत्य का निश्चय कर सकता है, अन्यथा नहीं।

धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्माभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्॥ —वै॰ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ ४॥

जब मनुष्य धर्म के यथायोग्य अनुष्ठान करने से पवित्र होकर ‘साधर्म्य’ अर्थात् जो तुल्य धर्म जैसा पृथिवी जड़ और जल भी जड़; ‘वैधर्म्य’ अर्थात् पृथिवी कठोर और जल कोमल; इसी प्रकार से द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय छः पदार्थों के तत्त्वज्ञान अर्थात् स्वरूपज्ञान से ‘निःश्रेयसम्’ मोक्ष को प्राप्त होता है।

पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।

—वै॰ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ ५।

पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव द्रव्य हैं।

क्रियागुणवत्समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्॥

—वै॰। अ॰ १। आ॰ १। सू॰ १५॥

‘क्रियाश्च गुणाश्च विद्यन्ते यस्मिँस्तत् क्रियागुणवत्’ जिसमें क्रिया, गुण और केवल गुण भी रहैं, उसको ‘द्रव्य’ कहते हैं। उनमें से पृथिवी, जल, तेज, वायु, मन और आत्मा ये छः द्रव्य क्रिया और गुणवाले हैं। तथा आकाश, काल और दिशा ये तीन क्रियारहित गुणवाले हैं, (समवायि) ‘समवेतुं शीलं यस्य तत् समवायि, प्राग्वृत्तित्वं कारणं, समवायि च तत्कारणं च समवायिकारणम्’, ‘लक्ष्यते येन तल्लक्षणम्’ जो मिलने के स्वभावयुक्त, कार्य से कारण पूर्वकालस्थ हो, जिससे क्रियागुणयुक्त हो, उसको द्रव्य कहते हैं। जिससे लक्ष्य जाना जाय, जैसा आँख से रूप जाना जाता है, उसको लक्षण कहते हैं।

रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी॥  —वै॰। अ॰ २। आ॰ १। सू॰ १॥

जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श है वह ‘पृथिवी’ कहाती है।

व्यवस्थितः पृथिव्यां गन्धः॥   —वै॰। अ॰ २। आ॰ २। सू॰ २॥

पृथिवी में गन्ध गुण स्वाभाविक है। रूप, रस और स्पर्श अग्नि, जल और वायु के योग से हैं। जल में रस, अग्नि में रूप, वायु में स्पर्श और आकाश में शब्द स्वाभाविक है।

रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धाः॥

—वै॰। अ॰ २। आ॰ १। सू॰ २॥

रूप, रस और स्पर्शवाला, द्रवीभूत और कोमल है, सो ‘जल’ कहाता है। परन्तु इनमें जल का रस स्वाभाविक गुण तथा रूप-स्पर्श, अग्नि और वायु के योग से हैं।

अप्सु शीतता॥    —वै॰। अ॰ २। आ॰ २। सू॰ ५॥

और जल में शीतलत्व भी गुण स्वाभाविक है।

तेजो रूपस्पर्शवत्॥        —वै॰। अ॰ २। आ॰ १। सू॰ ३॥

जो रूप और स्पर्शवाला है, वह ‘तेज’ है। परन्तु इसमें रूप स्वाभाविक और स्पर्श वायु के योग से रहते हैं।

स्पर्शवान् वायुः॥          —वै॰। अ॰ २। आ॰ १। सू॰ ४॥

स्पर्श गुणवाला ‘वायु’ है। परन्तु इसमें भी उष्णता शीतता, तेज और जल के योग से रहते हैं।

त आकाशे न विद्यन्ते॥     —वै॰। अ॰ २। आ॰ १। सू॰ ५॥

रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आकाश में नहीं हैं। किन्तु ‘शब्द’ ही आकाश का गुण है।

निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिङ्गम्॥

—वै॰। अ॰ २। आ॰ १। सू॰ २०॥

जिसमें प्रवेश और निकलना होता है, वह ‘आकाश’ का लिङ्ग है।

कार्य्यान्तराप्रादुर्भावाच्च शब्दः स्पर्शवतामगुणः॥

—वै॰। अ॰ २। आ॰ १। सू॰ २५।

अन्य पृथिवी आदि कार्यों से प्रकट न होने से शब्द; स्पर्शगुणवाले भूमि आदि का गुण नहीं है। किन्तु शब्द आकाश ही का गुण है।

अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि॥

—वै॰। अ॰ २। आ॰ २। सू॰ ६॥

जिसमें अपर, पर, (युगपत्) एक वार, (चिरम्) विलम्ब, (क्षिप्रम्) शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते हैं, उसको ‘काल’ कहते हैं।

नित्येष्वभावादनित्येषु भावात्कारणे कालाख्येति॥

—वै॰। अ॰ २। आ॰ २। सू॰ ९॥

जो नित्य पदार्थों में न हो और अनित्यों में हो, इसीलिए कारण में ही काल संज्ञा है।

इत इदमिति यतस्तद्दिश्यं लिङ्गम्॥  —वै॰। अ॰ २। आ॰ २। सू॰ १०॥

यहाँ से यह पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे, जिसमें यह व्यवहार होता है, उसी को ‘दिशा’ कहते हैं।

आदित्यसंयोगाद् भूतपूर्वाद् भविष्यतो भूताच्च प्राची॥

—वै॰ अ॰ २। आ॰ २। सू॰ १४।

जिस ओर प्रथम आदित्य का संयोग हुआ, है, होगा, उसको ‘पूर्व’ दिशा कहते हैं। और जहाँ अस्त हो, उसको ‘पश्चिम’, पूर्वाभिमुख मनुष्य के दाहिनी ओर ‘दक्षिण’ और बांई ओर ‘उत्तर’ दिशा कहाती है।

एतेन दिगन्तरालानि व्याख्यातानि॥

—वै॰ अ॰ २। आ॰ २। सू॰ १६॥

इससे जो पूर्व-दक्षिण के बीच [की] दिशा है उसको ‘आग्नेयी’, दक्षिण-पश्चिम के बीच को ‘नैऋर्ति’, पश्चिम-उत्तर के बीच को ‘वायवी’ और उत्तर-पूर्व के बीच को ‘ऐशानी’ दिशा कहते हैं।

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति॥

—न्याय॰ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ १०॥

जिसमें (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ; सुख; दुःख; (ज्ञान) जानना गुण हों, वह जीवात्मा। वैशेषिक में इतना विशेष है—

प्राणाऽपाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः

सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि॥

—वै॰ अ॰ ३। आ॰ २। सू॰ ४॥

(प्राण) भीतर से वायु को निकालना, (अपान) बाहर से वायु को भीतर लेना, (निमेष) आँख को नीचे ढांकना, (उन्मेष) आँख को ऊपर उठाना, (जीवन) प्राण का धारण करना, (मनः) मनन विचार अर्थात् ज्ञान, (गति) यथेष्ट गमन करना, (इन्द्रिय) इन्द्रियों को विषयों में चलाना, उनसे विषयों का ग्रहण करना, (अन्तर्विकार) क्षुधा, तृषा, ज्वर, पीडा आदि विकारों का होना, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ये सब आत्मा के लिङ्ग अर्थात् कर्म और गुण हैं।

युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्॥

—न्याय॰। अ॰ १। आ॰ १। सू॰ १६॥

जिससे एक काल में दो पदार्थों का ग्रहण, ज्ञान नहीं होता, उसको ‘मन’ कहते हैं।

यह द्रव्य का स्वरूप और लक्षण कहा। अब गुणों को कहते हैं—

रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोग-विभागौ परत्वाऽपरत्वे बुद्धयः सुखदुःखेच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणाः॥

—वै॰। अ॰ १। आ॰ १। सू॰ ६॥

रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द ये २४ गुण कहाते हैं।

द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति

गुणलक्षणम्॥     —वै॰। अ॰ १। आ॰ १। सू॰ १६॥

गुण उसको कहते हैं कि जो द्रव्य के आश्रय रहै, अन्य गुण का धारण न करे, संयोग और विभागों में कारण न हो, (अनपेक्ष) अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा न करे, उसका नाम ‘गुण’ है।

श्रोत्रोपलब्धिर्बुद्धिनिर्ग्राह्यः प्रयोगेणाऽभिज्वलित

आकाशदेशः शब्दः॥ —महाभाष्य [१।१।२।२]॥

जिसकी श्रोत्रों से प्राप्ति हो, जिसका बुद्धि से ग्रहण हो, जो प्रयोग से प्रकाशित हो और आकाश जिसका देश हो, वह ‘शब्द’ कहाता है।

नेत्र से जिसका ग्रहण हो वह ‘रूप’, जीभ से जिस मिष्टादि अनेक प्रकार का ग्रहण होता है वह ‘रस’, नासिका से जिसका ग्रहण हो वह ‘गन्ध’, त्वचा से जिसका ग्रहण होता है वह ‘स्पर्श’, एक-द्वि इत्यादि संख्या=जिससे पदार्थों की गणना होती है, (परिमाण) जिससे तोल अर्थात् हल्का वा भारी विदित होता है, (पृथक्त्व) एक दूसरे से अलग, (संयोग) एक दूसरे के साथ मिलना, (विभाग) एक मिले हुए के अनेक टुकड़े होना, (परत्व) इससे यह परे है, (अपर) उससे यह उरे है, (बुद्धि) ज्ञान, (सुख) आनन्द, (दुःख) क्लेश, (इच्छा) राग, (द्वेष) विरोध, वैर, (प्रयत्न) अनेक प्रकार का बल पुरुषार्थ, (गुरुत्व) भारीपन, (द्रवत्व) पिघल जाना, (स्नेह) प्रीति और चिकनापन, (संस्कार) दूसरे के योग से वासना का होना, (धर्म) न्यायाचरण और कठिनत्वादि, (अधर्म) अन्यायाचरण और कठिनता से विरुद्ध कोमलता, ये २४ चौबीस गुण हैं।

उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि॥

—वै॰ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ ७॥

(उत्क्षेपण) ऊपर को चेष्टा करना, (अवक्षेपण) नीचे को चेष्टा करना, (आकुञ्चन) सङ्कोच करना, (प्रसारण) फैलाना, (गमन) समभाग में गति करना अर्थात् चलना, आना-जाना, घूमना आदि होते हैं, इनको कर्म कहते हैं। इनका लक्षण—

एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति

कर्मलक्षणम्॥     —वै॰ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ १७॥

‘एकं द्रव्यमाश्रय आधारो यस्य तदेकद्रव्यम्, न विद्यते गुणो यस्मिंस्तदगुणम्, संयोगेषु विभागेषु चाऽपेक्षारहितं कारणं तत्कर्म-लक्षणम्’ अथवा ‘यत् क्रियते तत्कर्म, लक्ष्यते येन तल्लक्षणम्, कर्मणो लक्षणं कर्मलक्षणम्’ एक द्रव्य के आश्रित, गुणों से रहित, संयोग और विभाग होने में अपेक्षारहित कारण हो, उसको ‘कर्म’ कहते हैं।

द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यं कारणं सामान्यम्॥

—वै॰ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ १८॥

जो कार्य-द्रव्य, गुण और कर्म का कारण द्रव्य है, वह सामान्य द्रव्य है।

द्रव्याणां द्रव्यं कार्य्यं सामान्यम्॥    —वै॰ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ २३॥

जो द्रव्यों का कार्यद्रव्य है, वह कार्यपन से सब कार्यों में सामान्य है।

द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वञ्च सामान्यानि विशेषाश्च॥

—वै॰ अ॰ १। आ॰ २। सू॰ ५॥

द्रव्यों में द्रव्यपन, गुणों में गुणपन, कर्मों में कर्मपन ये सब ‘सामान्य’ और ‘विशेष’ कहाते हैं। क्योंकि द्रव्यों में द्रव्यत्व सामान्य, और गुणत्व कर्मत्व से द्रव्यत्व विशेष है, इसी प्रकार सर्वत्र जानना।

सामान्यं विशेष इति बुद्ध्यपेक्षम्॥    —वै॰ अ॰ १। आ॰ २। सू॰ ३॥

सामान्य और विशेष, बुद्धि की अपेक्षा से सिद्ध होते हैं। जैसे—मनुष्य व्यक्तियों में मनुष्यत्व सामान्य और पशुत्वादि से विशेष तथा स्त्रीत्व और पुरुषत्व, इनमें ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, शूद्रत्व भी विशेष हैं। ब्राह्मण व्यक्तियों में ब्राह्मणत्व सामान्य और क्षत्रियादि से विशेष है, इसी प्रकार सर्वत्र जानो।

इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः स समवायः॥

—वै॰ अ॰ ७। आ॰ २। सू॰ २६॥

इसमें यह, जैसे द्रव्य में क्रिया, गुणी में गुण, व्यक्ति में जाति, अवयवों में अवयवी, कार्यों में कारण अर्थात् क्रिया-क्रियावान्, गुण-गुणी, जाति-व्यक्ति, कार्य-कारण, अवयव-अवयवी, इनका नित्य सम्बन्ध होने से ‘समवाय’ कहाता है। और जो दूसरा द्रव्यों का परस्पर सम्बन्ध होता है, वह संयोग अर्थात् अनित्य सम्बन्ध है।

द्रव्यगुणयोः सजातीयारम्भकत्वं साधर्म्यम्॥

—वै॰ अ॰ १। आ॰ १। सू॰ ९॥

जो द्रव्य और गुण का समानजातीयक कार्य्य का आरम्भ होता है, उसको ‘साधर्म्य’ कहते हैं। जैसे पृथिवी में जड़त्व धर्म और घटादि कार्योत्पादकत्व स्वसदृश धर्म है, वैसे जल में भी जड़त्व और हैम आदि स्वसदृश कार्य का आरम्भ, पृथिवी के साथ जल का और जल के साथ पृथिवी का तुल्य धर्म है। अर्थात् ‘द्रव्यगुणयोर्विजातीयारम्भकत्वं वैधर्म्यम्’ यह विदित हुआ कि जो द्रव्य और गुण का विरुद्ध धर्म और कार्य का आरम्भ है, उसको ‘वैधर्म्य’ कहते हैं, जैसे पृथिवी में कठिनत्व, शुष्कत्व और गन्धवत्त्व धर्म जल से विरुद्ध और जल का द्रवत्व, कोमलता और रसगुणयुक्तता पृथिवी से विरुद्ध है।

कारणाऽभावात्कार्याऽभावः॥   —वै॰ अ॰ १। आ॰ २। सू॰ १॥

कारण के न होने से, कार्य कभी नहीं होता।

कारणभावात्कार्यभावः॥      —वै॰ अ॰ ४। आ॰ १। सू॰ ३॥

कारण के होने ही से कार्य्य होता है।

न तु कार्याभावात्कारणाभावः॥ —वै॰ अ॰ १। आ॰ २। सू॰ २॥

कार्य के अभाव से, कारण का अभाव नहीं होता।

कारणगुणपूर्वकः कार्यगुणो दृष्टः॥    —वै॰ अ॰ २। आ॰ १। सू॰ २४॥

जैसे कारण में गुण होते हैं, वैसे ही कार्य में होते हैं।

परिमाण दो प्रकार का है—

अणुमहदिति तस्मिन्विशेषभावाद्विशेषाभावाच्च॥

—वै॰ अ॰ ७। आ॰ १। सू॰ ११॥

(अणु) सूक्ष्म, (महत्) बड़ा, सापेक्ष है। जैसे त्रसरेणु लिक्षा से छोटा और द्व्यणुक से बड़ा है, तथा पहाड़ पृथिवी से छोटे, वृक्षों से बड़े हैं।

सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता॥

—वै॰ अ॰ १। आ॰ २। सू॰ ७॥

जो द्रव्य, गुण और कर्मों में सत् शब्द अन्वित रहता है, अर्थात् (सद् द्रव्यम्—सन् गुणः—सत्कर्म) सत् द्रव्य, सत् गुण, सत् कर्म अर्थात् वर्त्तमान कालवाची शब्द का अन्वय सबके साथ रहता है।

भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात्सामान्यमेव॥  —वै॰अ॰ १। आ॰ २। सू॰ ४॥

जो सबके साथ अनुवर्त्तमान होने से सत्तारूप भाव है, सो ‘महासामान्य’ कहाता है। यह क्रम भावरूप द्रव्यों का है। और जो अभाव है, वह पाँच प्रकार का होता है।

क्रियागुणव्यपदेशाभावात्प्रागसत्॥   —वै॰ अ॰ ९। आ॰ १। सू॰ १॥

क्रिया और गुण के विशेष निमित्त के अभाव से प्राक् अर्थात् पूर्व (असत्) न था। जैसे घट, वस्त्रादि उत्पत्ति के पूर्व नहीं थे, इसका नाम ‘प्रागभाव’। दूसरा—

सदसत्॥ —वै॰ अ॰ ९। आ॰ १। सू॰ २॥

जो होके न रहै। जैसे घट उत्पन्न होके नष्ट हो जाय, यह ‘प्रध्वंसाभाव’ कहाता है। तीसरा—

सच्चासत्॥ —वै॰ अ॰ ९। आ॰ १। सू॰ ४॥

जो होवे और न होवे। जैसे ‘अगौरश्वोऽनश्वो गौः’ यह घोड़ा गाय नहीं और गाय घोड़ा नहीं। अर्थात् घोड़े में गाय का और गाय में घोड़े का अभाव और गाय में गाय, घोड़े में घोड़े का भाव है। यह ‘अन्योऽन्याभाव’ कहाता है। चौथा—

यच्चान्यदसदतस्तदसत्॥            —वै॰ अ॰ ९। आ॰ १। सू॰ ५॥

जो पूर्वोक्त तीनों अभावों से भिन्न है, उसको ‘अत्यन्ताभाव’ कहते हैं। जैसे—‘नरशृङ्ग’ अर्थात् मनुष्य का सींग, ‘खपुष्प’ आकाश का फूल और बन्ध्या का पुत्र, इत्यादि। पाँचवाँ—

नास्ति घटो गेह इति सतो घटस्य गेहसंसर्गप्रतिषेधः॥

—वै॰ अ॰ ९। आ॰ १। सूत्र १०॥

घर में घड़ा नहीं अर्थात् अन्यत्र है, घर के साथ घड़े का सम्बन्ध नहीं है। ये पाँच अभाव कहाते हैं।

इन्द्रियदोषात्संस्कारदोषाच्चाविद्या॥

—वै॰अ॰ ९। आ॰ २। सू॰ १०॥

इन्द्रियों और संस्कार के दोष से अविद्या उत्पन्न होती है।

तद्दुष्टं ज्ञानम्॥    —वै॰ अ॰ ९। आ॰ २। सू॰ ११॥

जो दुष्ट अर्थात् विपरीत ज्ञान है, उसको ‘अविद्या’ कहते हैं।

अदुष्टं विद्या॥     —वै॰ अ॰ ९। आ॰ २। सू॰ १२॥

जो अदुष्ट अर्थात् यथार्थ ज्ञान है, उसको ‘विद्या’ कहते हैं।

पृथिव्यादिरूपरसगन्धस्पर्शा द्रव्यानित्यत्वादनित्याश्च॥

एतेन नित्येषु नित्यत्वमुक्तम्॥       —वै॰ अ॰ ७। आ॰ १। सू॰ २-३॥

जो कार्यरूप पृथिव्यादि पदार्थ और उनमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श गुण हैं, ये सब द्रव्यों के अनित्य होने से अनित्य हैं। और जो इस[के] कारणरूप पृथिव्यादि नित्य द्रव्यों में गन्धादि गुण हैं, वे नित्य हैं।

सदकारणवन्नित्यम्॥ —वै॰ अ॰ ४। आ॰ १। सू॰ १॥

जो विद्यमान हो और जिसका कारण कोई भी न हो, वह नित्य है अर्थात्—‘सत्कारणवदनित्यम्’ जो कारण वाले कार्यरूप द्रव्य गुण हैं, वे ‘अनित्य’ कहाते हैं।

अस्येदं कार्यं कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङ्गिकम्॥

—वै॰ अ॰ ९। आ॰ २। सू॰ १॥

इसका यह, कार्य वा कारण है, इत्यादि समवायि, संयोगि, एकार्थसमवायि और विरोधि यह चार प्रकार का लैङ्गिक अर्थात् जो लिङ्ग-लिङ्गी के सम्बन्ध से ज्ञान होता है। ‘समवायि’ जैसे आकाश परिमाण वाला है, ‘संयोगि’ जैसे शरीर त्वचा वाला है, इत्यादि का नित्य संयोग है, ‘एकार्थसमवायि’ एक अर्थ में दो का रहना, जैसे कार्यरूप—स्पर्श कार्य का लिङ्ग अर्थात् जनाने वाला है, ‘विरोधि’—जैसे हुई भई वृष्टि होने वाली वृष्टि का विरोधी लिङ्ग है।

‘व्याप्ति’—

नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्तिः॥

निजशक्त्युद्भवमित्याचार्याः॥

आधेयशक्तियोग इति पञ्चशिखः॥      —सांख्यशास्त्र २९, ३१, ३२॥

जो दोनों साध्य साधन अर्थात् सिद्ध करने योग्य और जिससे सिद्ध किया जाए, उन दोनों अथवा एक, साधनमात्र का निश्चित धर्म का सहचार है, उसी को ‘व्याप्ति’ कहते हैं। जैसे धूम और अग्नि का सहचार है॥२९॥

तथा व्याप्य जो धूम उसकी निज शक्ति से उत्पन्न होता है अर्थात् जब देशान्तर में दूर धूम जाता है, तब विना अग्नि के योग के भी धूम स्वयं रहता है, उसी का नाम व्याप्ति है, अर्थात् अग्नि के छेदन, भेदन, सामर्थ्य से जलादि पदार्थ धूमरूप प्रकट होता है॥३१॥

जैसे महत्तत्त्वादि में प्रकृत्यादि की व्यापकता, बुद्ध्यादि में व्याप्यता धर्म के सम्बन्ध का नाम व्याप्ति है, जैसे शक्ति आधेयरूप और शक्तिमान् आधाररूप का सम्बन्ध है॥३२॥

इत्यादि शास्त्रों के प्रमाणादि से परीक्षा करके पढ़ें और पढ़ावें। अन्यथा विद्यार्थियों को सत्य बोध कभी नहीं हो सकता। जिस-जिस ग्रन्थ को पढ़ावें, उस-उसकी पूर्वोक्त प्रकार से परीक्षा करके जो सत्य ठहरे, वह-वह ग्रन्थ पढ़ावें। जो-जो इन परीक्षाओं से विरुद्ध हों, उन-उन ग्रन्थों को न पढ़ें, न पढ़ावें। क्योंकि—

लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः॥

लक्षण जैसा कि ‘गन्धवती पृथिवी’ [न्याय॰ वा॰ भा॰ ३।१।२८] जो पृथिवी है, वह गन्धवाली है। ऐसे लक्षण और प्रत्यक्षादि प्रमाण, इनसे सब सत्याऽसत्य और पदार्थों का निर्णय हो जाता है। इसके विना कुछ भी नहीं होता।

अथ पठनपाठनविधिः

अब पढ़ने-पढ़ाने का प्रकार लिखते हैं—प्रथम पाणिनिमुनिकृतशिक्षा जो कि सूत्ररूप है, उसकी रीति अर्थात् इस अक्षर का यह स्थान, यह प्रयत्न, यह करण है। जैसे ‘प’ इसका ओष्ठ स्थान, स्पृष्ट प्रयत्न और प्राण तथा जीभ की क्रिया करनी ‘करण’ कहाता है। इसी प्रकार यथायोग्य सब अक्षरों का उच्चारण माता, पिता, आचार्य सिखलावें। तदनन्तर व्याकरण अर्थात् प्रथम अष्टाध्यायी के सूत्रों का पाठ, जैसे ‘वृद्धिरादैच्’ [अष्टा॰ अ॰ १। पा॰ १। सू॰ १] फिर पदच्छेद जैसे ‘वृद्धिः, आत्, ऐच्’, वा आदैच्, फिर समास ‘आच्च ऐच्च आदैच्’, और अर्थ जैसे ‘आदैचां वृद्धिसंज्ञा क्रियते’ कि आ, ऐ, औ की वृद्धि संज्ञा है। ‘तः परो यस्मात्स तपरस्तादपि परस्तपरः’। तकार जिससे परे और जो तकार से भी परे हो, वह तपर कहाता है। इससे [यह] सिद्ध हुआ जो आकार से परे त् और त्कार से परे ऐच् दोनों तपर हैं। तपर का प्रयोजन यह है कि ह्रस्व और प्लुत की वृद्धि संज्ञा न हुई।

उदाहरण ‘भागः’ यहाँ ‘भज’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय के परे ‘घ्, ञ्’ की इत्संज्ञा, लोप, भकारस्थ अकार के स्थान में “आ” वृद्धि हुई तो ‘भाज्’। पुनः ‘ज्’ को ग् हो, अकार के साथ मिलके ‘भागः’ ऐसा प्रयोग हुआ।

‘अध्यायः’ यहाँ अधिपूर्वक ‘इङ्’ धातु के ह्रस्व इकार के स्थान में ‘घञ्’ प्रत्यय के परे ‘ऐ’ वृद्धि हो और उसको ‘आय्’ हो, मिलके ‘अध्यायः’।

‘नायकः’ यहाँ ‘नीञ्’ धातु के दीर्घ ईकार के स्थान में ‘ण्वुल्’ प्रत्यय के परे ‘ऐ’ वृद्धि और उसको ‘आय्’ होकर मिलके ‘नायकः’।

और ‘स्तावकः’ यहाँ ‘स्तु’ धातु से ‘ण्वुल्’, ह्रस्व उकार [को] ‘औ’ वृद्धि, ‘आव्’ आदेश होकर अकार में मिल गया, तो ‘स्तावकः’।

‘कृञ्’ धातु से आगे ‘ण्वुल्’, उसके ‘ण्, ल्’ की इत्संज्ञा होके लोप, ‘वु’ के स्थान में ‘अक’ आदेश और ऋकार के स्थान में ‘आर्’ वृद्धि होकर ‘कारकः’ सिद्ध हुआ। और जो-जो सूत्र आगे-पीछे के, प्रयोग में लगें, उनका कार्य सब बतलाता जाय और सिलेट अथवा लकड़ी के पट्टे पर दिखला-दिखला के कच्चारूप धरके, जैसे ‘भज+घञ्+सु’। प्रथम धातु के अकार का लोप, पश्चात् घ्कार और ञ् का लोप होकर ‘भज्+अ+सु’ ऐसा रहा, फिर ‘भाग्+अ+सु’, फिर ‘भाग+सु’ फिर ‘भागरूँ’, फिर ‘भागर्’, पुनः ‘भागः’। जिस-जिस सूत्र से जो-जो कार्य होना है, उस-उस को पढ़के, लिख-लिखवा के कार्य्य करता-कराता जाय। इस प्रकार पढ़ने-पढ़ाने से बहुत दृढ़ बोध होता है।

एक वार इसी प्रकार अष्टाध्यायी पढ़ाके धातुपाठ, अर्थ और दश लकारों के रूप तथा प्रक्रियासहित सूत्रों के उत्सर्ग अर्थात् सामान्यसूत्र जैसे—‘कर्मण्यण्’ [अष्टा॰ ३।२।१] कर्म उपपद लगा हो तो धातुमात्र से अण् प्रत्यय हो, जैसे ‘कुम्भकारः’। पश्चात् अपवाद सूत्र जैसे ‘आतोऽनुपसर्गे कः’ [अष्टा॰ ३।२।३] उपसर्गभिन्न कर्म उपपद लगा हो तो आकारान्त धातु से ‘क’ प्रत्यय होवे। अर्थात् जो बहुव्यापक जैसा कि कर्मोपपद लगा हो तो सब धातुओं से ‘अण्’ प्राप्त होता है, उससे विशेष अर्थात् अल्प विषय उसी पूर्व सूत्र के विषय में से आकारान्त धातु को ‘क’ प्रत्यय ने ग्रहण कर लिया। जैसे उत्सर्ग के विषय में अपवाद सूत्र की प्रवृत्ति होती है, वैसे अपवाद के विषय में उत्सर्ग की प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे चक्रवर्त्ती राजा के राज्य में माण्डलिक और भूमिदारों की प्रवृत्ति होती है, वैसे माण्डलिक राजादि के राज्य में चक्रवर्त्ती की प्रवृत्ति नहीं होती। इसी प्रकार पाणिनि महर्षि ने सहस्र श्लोकों के बीच में अखिल शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की विद्या प्रतिपादित कर दी है।

धातुपाठ के पश्चात् उणादिगण के पढ़ाने में सर्व सुबन्त का विषय अच्छी प्रकार पढ़ा के, पुनः दूसरी वार शङ्का, समाधान, वार्त्तिक, कारिका, परिभाषा की घटनापूर्वक अष्टाध्यायी की द्वितीयानुवृत्ति पढ़ावें। तदनन्तर महाभाष्य पढ़ावें। अर्थात् जो बुद्धिमान्, पुरुषार्थी, निष्कपटी, विद्यावृद्धि के चाहनेवाले नित्य प्रति पढ़ें-पढ़ावें, तो डेढ़ वर्ष में अष्टाध्यायी और डेढ़ वर्ष में महाभाष्य पढ़ के तीन वर्ष में पूर्ण वैय्याकरण होकर, वैदिक और लौकिक शब्दों का व्याकरण से बोध होकर, पुनः अन्य शास्त्रों को शीघ्र सहज में पढ़-पढ़ा सकते हैं किन्तु जैसा बड़ा परिश्रम व्याकरण में होता है, वैसा श्रम अन्य शास्त्रों में करना नहीं पड़ता। और जितना बोध इनके पढ़ने से तीन वर्ष में होता है, उतना बोध कुग्रन्थ सारस्वत, चन्द्रिका, कौमुदी, मनोरमादि के पढ़ने से पचास वर्षों में भी नहीं हो सकता। क्योंकि जो महाशय महर्षि लोगों ने सहजता से महान् विषय अपने ग्रन्थों में प्रकाशित किया है, वैसा इन क्षुद्राशय मनुष्यों के कल्पित ग्रन्थों में क्योंकर हो सकता है! महर्षि लोगों का आशय, जहाँ तक हो सके वहाँ तक सुगम और जिसके ग्रहण में समय थोड़ा लगे, इस प्रकार का होता है। और क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहाँ तक बने, वहाँ तक कठिन रचना करनी, जिसको बड़े परिश्रम से पढ़ के अल्प लाभ उठा सकें, जैसे पहाड़ का खोदना, कौड़ी का लाभ होना। और आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना।

व्याकरण को पढ़ के यास्कमुनिकृत निघण्टु और निरुक्त छः वा आठ महीने में सार्थक पढ़ें और पढ़ावें। अन्य नास्तिककृत अमरकोशादि में अनेक वर्ष व्यर्थ न खोवें। तदनन्तर पिङ्गलाचार्यकृत छन्दोग्रन्थ जिससे वैदिक लौकिक छन्दों का परिज्ञान, नवीन रचना और श्लोक बनाने की रीति भी यथावत् सीखें। इस ग्रन्थ और श्लोकों की रचना तथा प्रस्तार को चार महीनों में सीख पढ़-पढ़ा सकते हैं। और वृत्तरत्नाकर आदि अल्पबुद्धिप्रकल्पित ग्रन्थों में अनेक वर्ष न खोवें। तत्पश्चात् मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तम सभ्यता प्राप्त हो, वैसे को काव्यरीति अर्थात् पदच्छेद, पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य, विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें। इनको एक वर्ष के भीतर पढ़ लें।

तदनन्तर पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त अर्थात् जहाँ तक बन सके, वहाँ तक ऋषिकृत व्याख्यासहित अथवा उत्तम विद्वानों की सरल-व्याख्यायुक्त छः शास्त्रों को पढ़ें-पढ़ावें। परन्तु वेदान्त सूत्रों के पढ़ने के पूर्व ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेयी, तैत्तिरेयी, छान्दोग्य और बृहदारण्यक इन दश उपनिषदों को पढ़के छः शास्त्रों के भाष्य वृत्तिसहित सूत्रों को दो वर्ष के भीतर पढ़ावें और पढ़ लेवें।

तत्पश्चात् छः वर्षों के भीतर चारों ब्राह्मण अर्थात् ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथब्राह्मणों के सहित चारों वेदों को स्वर, शब्द, अर्थ, सम्बन्ध तथा क्रियासहित पढ़ना योग्य है।

इसमें प्रमाण—

स्था॒णुर॒यं भा॑रहा॒रः कि॒लाभू॑द॒धीत्य॒ वेदं॒ न वि॑जा॒नाति॒ योऽर्थ॑म्। योऽर्थ॑ज्ञ॒ इत्स॒क॑लं भ॒द्रम॑श्नुते॒ नाक॑मेति॒ ज्ञान॑विधूतपाप्मा॥

—यह निरुक्त [१।१८] में मन्त्र है।

जो वेद को स्वर और पाठमात्र पढ़के अर्थ नहीं जानता, वह जैसा वृक्ष—डाली, पत्ते, फल, फूल और अन्य पशु—धान्य आदि का भार उठाता है, वैसे भारवाह अर्थात् भार का उठानेवाला है। और जो वेद को पढ़ता और उनका यथावत् अर्थ जानता है, वही ज्ञान से पापों को छोड़, सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त होके पवित्र धर्माचरण के प्रताप से देहान्त के पश्चात् सर्वानन्द को प्राप्त होता है।

उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम्।

उ॒तो त्व॑स्मै त॒न्वं१॒॑ वि स॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑॥

—ऋ॰ मं॰ १०। सू॰ ७१। मं॰ ४॥

जो अविद्वान् हैं, वे सुनते हुए नहीं सुनते, देखते हुए नहीं देखते, बोलते हुए नहीं बोलते अर्थात् अविद्वान् लोग इस विद्या वाणी के रहस्य को नहीं जान सकते। किन्तु जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध का जाननेवाला है, उसके लिए—जैसे सुन्दर वस्त्र, आभूषण धारण करती, अपने पति की कामना करती हुई स्त्री अपना शरीर और स्वरूप का प्रकाश पति के सामने करती है, वैसे विद्या विद्वान् के लिए अपना स्वरूप प्रकाश करती है, अविद्वानों के लिए नहीं।

ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न्यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः।

यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत्तद्वि॒दुस्त इ॒मे समा॑सते॥

—ऋ॰ मं॰ १। सू॰ १६४। मं॰ ३९॥

जिस व्यापक अविनाशी सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर में सब विद्वान् और पृथिवी, सूर्य आदि सब लोक स्थित हैं, कि जिसमें सब वेदों का मुख्य तात्पर्य है, उस ब्रह्म को जो नहीं जानता, वह ऋग्वेदादि से क्या कुछ सुख को प्राप्त हो सकता है? नहीं-नहीं, किन्तु जो वेदों को पढ़के धर्मात्मा योगी होकर उस ब्रह्म को जानते हैं, वे सब परमेश्वर में स्थित होके, मुक्तिरूपी परमानन्द को प्राप्त होते हैं। इसलिए जो कुछ पढ़ना वा पढ़ाना हो, वह अर्थज्ञानसहित चाहिए। इस प्रकार सब वेदों को पढ़के, ‘आयुर्वेद’ अर्थात् जो चरक, सुश्रुत आदि ऋषि-मुनि-प्रणीत वैद्यक शास्त्र है, उसको अर्थ, क्रिया, शस्त्र-छेदन-भेदन, लेप, चिकित्सा, निदान, औषध, पथ्य, शारीर, देश, काल और वस्तु के गुण-ज्ञानपूर्वक ४ चार वर्ष के भीतर पढ़ें-पढ़ावें।

तदनन्तर ‘धनुर्वेद’ अर्थात् जो राज्यसम्बन्धी काम करना है, इसके दो भेद—एक निज राजपुरुषसम्बन्धी और दूसरा प्रजासम्बन्धी होता है। राजकार्य में सब सभा, सेना के अध्यक्ष, शस्त्रास्त्रविद्या, नाना प्रकार के व्यूहों का अभ्यास अर्थात् जिसको आजकल ‘क़वायद’ कहते हैं जो कि शत्रुओं से लड़ाई के समय में क्रिया करनी होती है, उनको यथावत् सीखें। और जो-जो प्रजा के पालन और वृद्धि करने का प्रकार है, उनको सीखके, न्यायपूर्वक सब प्रजा को प्रसन्न रक्खें, दुष्टों को यथायोग्य दण्ड और श्रेष्ठों के पालन का प्रकार सब प्रकार सीख लें।

इस राजविद्या को २ दो वर्ष में सीखकर ‘गान्धर्ववेद’ कि जिसको गानविद्या कहते हैं उसमें स्वर, राग, रागिणी, समय, ताल, ग्राम, तान, वादित्र, नृत्य, गीत आदि को यथावत् सीखें, परन्तु मुख्य करके सामवेद का गान वादित्रवादनपूर्वक सीखें और नारदसंहिता आदि जो-जो आर्ष ग्रन्थ हैं, उनको पढ़ें, परन्तु भड़ुवे, वेश्या और विषयासक्तिकारक वैरागियों के गर्दभ शब्दवत् व्यर्थ आलाप कभी न करें।

अर्थवेद कि जिसको शिल्पविद्या कहते हैं उसको पदार्थ गुण-विज्ञान-क्रियाकौशल, नानाविध पदार्थों का निर्माण, पृथिवी से लेके आकाशपर्यन्त की विद्या को यथावत् सीखके, अर्थ अर्थात् जो ऐश्वर्य को बढ़ानेवाला है, उस विद्या को सीख के, दो वर्ष में ज्योतिषशास्त्र सूर्यसिद्धान्तादि जिसमें बीजगणित, अङ्क, भूगोल, खगोल और भूगर्भविद्या है, उसको यथावत् सीखें।

तत्पश्चात् सब प्रकार की हस्तक्रिया, यन्त्रकला आदि को सीखें, परन्तु जितने ग्रह, नक्षत्र, जन्मपत्र, राशि, मुहूर्त आदि के फल के विधायक ग्रन्थ हैं, उनको झूठ समझके कभी न पढें और न पढ़ावें।

ऐसा प्रयत्न पढ़ने और पढ़ानेवाले करें कि जिससे बीस वा इक्कीस वर्ष के भीतर समग्र विद्या, उत्तम शिक्षा प्राप्त होके मनुष्य लोग कृतकृत्य होकर सदा आनन्द में रहैं। जितनी विद्या इस रीति से बीस वा इक्कीस वर्षों में हो सकती है, उतनी अन्य प्रकार से शतवर्ष में भी नहीं हो सकती।

ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिए पढ़ना चाहिए कि वे बड़े विद्वान्, सर्वशास्त्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात् जो अल्प शास्त्र पढ़े हैं और जिनका आत्मा पक्षपातसहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी वैसे ही हैं।

पूर्वमीमांसा पर व्यासमुनिकृत व्याख्या, वैशेषिक पर गोतममुनिकृत प्रशस्तपादभाष्य, गोतममुनिकृत न्यायसूत्र पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य, पतञ्जलिमुनिकृत सूत्र पर व्यासमुनिकृत भाष्य, कपिलमुनिकृत सांख्यसूत्र पर भागुरिमुनिकृत भाष्य, व्यासमुनिकृत वेदान्तसूत्र पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य अथवा बौधायनमुनिकृत भाष्य वृत्तिसहित पढ़ें-पढ़ावें। इत्यादि सूत्रों को कल्प अङ्ग में भी गिनना चाहिए।

जैसे ऋग्, यजुः, साम और अथर्व चारों वेद ईश्वरकृत हैं, वैसे ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ चारों ब्राह्मण; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघण्टु-निरुक्त, छन्द और ज्योतिष छः वेदों के अङ्ग, मीमांसादि छः शास्त्र वेदों के उपाङ्ग; आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थवेद ये चार वेदों के उपवेद इत्यादि सब ऋषि-मुनि के किये ग्रन्थ हैं। इनमें भी जो-जो वेदविरुद्ध प्रतीत हो, उस-उस को छोड़ देना, क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रान्त, स्वतःप्रमाण अर्थात् वेद का प्रमाण वेद ही से होता है। ब्राह्मणादि सब ग्रन्थ परतःप्रमाण अर्थात् इनका प्रमाण वेदाधीन है। वेद की विशेष व्याख्या ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिए और इस ग्रन्थ में भी आगे लिखेंगे।

अब जो परित्याग के योग्य ग्रन्थ हैं उनका परिगणन संक्षेप से किया जाता है अर्थात् जो-जो नीचे ग्रन्थ लिखेंगे, वह-वह जालग्रन्थ समझना चाहिए। व्याकरण में कातन्त्र, सारस्वत, चन्द्रिका, मुग्धबोध, कौमुदी, शेखर, मनोरमादि। कोश में अमरकोशादि। छन्दोग्रन्थों में वृत्तरत्नाकरादि। शिक्षा में ‘अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा’ इत्यादि। ज्योतिष में शीघ्रबोध, मुहूर्त्तचिन्तामणि आदि। काव्य में नायिकाभेद कुवलयानन्द, रघुवंश, माघ, किरातार्जुनीयादि। मीमांसा में धर्मसिन्धु, व्रतार्कादि। वैशेषिक में तर्कसंग्रहादि। न्याय में जागदीशी आदि। योग में हठप्रदीपिकादि। सांख्य में सांख्यतत्त्वकौमुद्यादि। वेदान्त में योगवासिष्ठ, पञ्चदश्यादि। वैद्यक में शार्ङ्गधरादि। स्मृतियों में एक मनु[स्मृति के] प्रक्षिप्त श्लोक [और] अन्य सब स्मृति, सब तन्त्र ग्रन्थ, सब पुराण, सब उपपुराण, तुलसीदासकृत भाषारामायण, रुक्मिणी-मङ्गलादि और सर्वभाषाग्रन्थ—ये सब कपोलकल्पित मिथ्या ग्रन्थ हैं।

प्रश्न—क्या इन ग्रन्थों में कुछ भी सत्य नहीं?

उत्तर—थोड़ा सत्य तो है, परन्तु इसके साथ बहुत-सा असत्य भी है। इससे ‘विषसम्पृक्तान्नवत् त्याज्याः’ जैसे अत्युत्तम अन्न विष से युक्त होने से, छोड़ने योग्य होता है, वैसे ये ग्रन्थ हैं।

प्रश्न—क्या आप पुराण, इतिहास को नहीं मानते?

उत्तर—हाँ मानते हैं, परन्तु सत्य को मानते हैं, मिथ्या को नहीं।

प्रश्न—कौन सत्य और कौन मिथ्या है?

उत्तर—ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा

नाराशंसीरिति॥    यह गृह्यसूत्रादि का वचन है।

[तुलना—आश्व॰ गृ॰ सू॰ अ॰ ३। कं॰ ३। मं॰ १-२;

तै॰ आ॰ प्रपा॰ २। अनु॰ ९]

जो ऐतरेय, शतपथादि ब्राह्मण लिख आये उन्हीं के इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी पाँच नाम हैं, श्रीमद्भागवतादि के नहीं।

प्रश्न—जो त्याज्य ग्रन्थों में सत्य है, उसका ग्रहण क्यों नहीं करते?

उत्तर—जो-जो उनमें सत्य है, सो-सो वेदादि सत्य शास्त्रों का है और मिथ्या उनके घर का है। वेदादि सत्य शास्त्रों के स्वीकार में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है। जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहे, तो मिथ्या भी उसके गले लिपट जावे। इसलिए ‘असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्त्याज्यमिति’ असत्य से युक्त ग्रन्थस्थ सत्य को भी वैसे छोड़ देना चाहिए जैसे विषयुक्त अन्न को।

प्रश्न—तुम्हारा मत क्या है?

उत्तर—वेद अर्थात् जो-जो वेद में करने और छोड़ने की शिक्षा की है, उस-उसको हम यथावत् करना, छोड़ना मानते हैं। जिसलिए वेद हमको मान्य है, इसलिए हमारा मत वेद है। ऐसा ही मानकर सब मनुष्यों को, विशेष आर्यों को ऐकमत्य होकर रहना चाहिए।

प्रश्न—जैसा सत्यासत्य और एक-दूसरे ग्रन्थों का परस्पर विरोध है, वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टिविषय में छः शास्त्रों का विरोध है—मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु, योग पुरुषार्थ, सांख्य प्रकृति और वेदान्तशास्त्र ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है, क्या यह विरोध नहीं है?

उत्तर—नहीं, प्रथम तो विना सांख्य और वेदान्त के, दूसरे चार शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी और इनमें विरोध भी नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूँ कि विरोध किस स्थल में होता है? क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में?

प्रश्न—एक विषय में अनेकों का परस्पर विरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं। यहाँ भी सृष्टि एक ही विषय है।

उत्तर—क्या विद्या एक है वा दो? एक है। जो एक है, तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न विषय क्यों है? जैसा एक विद्या में अनेक विद्या के अवयवों का, एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टिविद्या के भिन्न-भिन्न छः अवयवों का छः शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं। जैसे घड़े के बनने में कर्म, समय, मट्टी, विचार, संयोग-वियोगादि का पुरुषार्थ, प्रकृति के गुण और कुम्भार कारण है, वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है, उसकी व्याख्या मीमांसा में, समय की व्याख्या वैशेषिक में, उपादानकारण की व्याख्या न्याय में, पुरुषार्थ की व्याख्या योग में, तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याख्या सांख्य में और निमित्तकारण जो परमेश्वर है, उसकी व्याख्या वेदान्तशास्त्र में है। इससे कुछ भी विरोध नहीं। जैसे वैद्यकशास्त्र में निदान, चिकित्सा, ओषध-दान और पथ्य के प्रकरण भिन्न-भिन्न कथित हैं, परन्तु सबका सिद्धान्त रोग की निवृत्ति है, वैसे ही सृष्टि के छः कारण हैं। इनमें से एक-एक कारण की व्याख्या एक-एक शास्त्रकार ने कही है। इसलिए इनमें कुछ भी विरोध नहीं। इसकी विशेष व्याख्या सृष्टिप्रकरण में कहेंगे।

जो विद्या पढ़ने-पढ़ाने के विघ्न हैं, उनको छोड़ देवें। जैसा कुसङ्ग अर्थात् दुष्ट विषयी जनों का संग, दुष्टव्यसन जैसा मद्यादि सेवन और वेश्यागमनादि, बाल्यावस्था में विवाह अर्थात् पच्चीस वर्षों से पूर्व पुरुष और सोहलवें वर्ष से पूर्व स्त्री का विवाह हो जाना; पूर्ण ब्रह्मचर्य न होना; राजा, माता, पिता और विद्वानों का प्रेम वेदादि शास्त्रों के प्रचार में न होना; अतिभोजन, अति जागरण करना; पढ़ने-पढ़ाने; परीक्षा लेने वा देने में आलस्य वा कपट करना; सर्वोपरि विद्या का लाभ न समझना; ब्रह्मचर्य से वीर्य बल, बुद्धि, पराक्रम, आरोग्य, राज्य, धन की वृद्धि न मानना; ईश्वर का ध्यान छोड़ अन्य पाषाणादि जड़ मूर्त्ति के दर्शन-पूजन में व्यर्थ काल खोना; माता, पिता, अतिथि और आचार्य, विद्वान् इन सत्यमूर्त्तिमानों की सेवा और संग न करना; वर्णाश्रम के धर्म को छोड़ ऊर्ध्वपुण्ड्र, त्रिपुण्ड्र, तिलक, कंठी, मालाधारण, एकादशी, त्रयोदशी आदि व्रत करना; काश्यादि तीर्थ और राम, कृष्ण, नारायण, शिव, भगवती, गणेशादि के नामस्मरण से पाप दूर होने का विश्वास; पाखण्डियों के उपदेश से विद्या पढ़ने में अश्रद्धा का होना, विद्या, धर्म, योग, परमेश्वर की उपासना के विना, मिथ्या पुराणनामक भागवतादि की कथादि से मुक्ति का मानना; लोभ से धनादि में प्रवृत्ति होकर विद्या में प्रीति न रखना; इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना इत्यादि मिथ्या व्यवहारों में फसके ब्रह्मचर्य और विद्या के लाभ से रहित होकर रोगी और मूर्ख बने रहते हैं।

आजकल के सम्प्रदायी और स्वार्थी ब्राह्मण आदि जो दूसरों को विद्या-सत्संग से हठा और अपने जाल में फसाके उनका तन, मन, धन नष्ट कर देते हैं, और चाहते हैं कि जो क्षत्रियादि वर्ण पढ़कर विद्वान् हो जाएँगे, तो हमारे पाखण्डजाल से छूट और हमारे छल को जानकर, हमारा अपमान करेंगे इत्यादि विघ्नों को राजा और प्रजा दूर करके, अपने लड़कों और लड़कियों को विद्वान् करने के लिए तन, मन, धन से प्रयत्न किया करें।

प्रश्न—क्या स्त्री और शूद्र भी वेद पढ़ें? जो ये पढ़ेंगे तो हम फिर क्या करेंगे? और इनके पढ़ने में प्रमाण भी नहीं है, जैसा यह निषेध है—

स्त्रीशूद्रौ नाधीयातामिति श्रुतेः।  [वेदान्तदर्शन शांकरभाष्य २.३.४]

स्त्री और शूद्र न पढ़ें—यह श्रुति है।

उत्तर—सब स्त्री और पुरुष अर्थात् मनुष्यमात्र को पढ़ने का अधिकार है। तुम कुआ में पड़ो। और यह श्रुति तुम्हारी कपोलकल्पना से हुई है। किसी प्रामाणिक ग्रन्थ की नहीं। और सब मनुष्यों के वेदादि पढ़ने-सुनने के अधिकार का प्रमाण यजुर्वेद के छब्बीसवें अध्याय में दूसरा मन्त्र है—

यथे॒मां वाचं कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः।

ब्र॒ह्म॒रा॒जन्या॒भ्याᳬ शू॒द्राय॒ चार्या॑य च॒ स्वाय॒ चार॑णाय॥

[यजुः अ॰ २६।२]॥

परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्यः) सब मनुष्यों के लिए, (इमाम्) इस, (कल्याणीम्) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी, (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का, (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो।

यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि जन शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्मृत्यादि ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही के वेदों के पढ़ने का अधिकार लिखा है; स्त्री और शूद्रादि का नहीं।

उत्तर—(ब्रह्मराजन्याभ्यां) इत्यादि। देखो! परमेश्वर स्वयं कहता है कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय, (अर्य्याय) वैश्य, (शूद्राय) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अतिशूद्रादि के लिए भी वेदों का प्रकाश किया है; अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ़-पढ़ा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढ़ाके, अच्छी बातों का ग्रहण और बुरी बातों को त्याग करके दुःखों से छूटकर, आनन्द को प्राप्त हों। कहिए! अब तुम्हारी बात मानें वा परमेश्वर की? परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है। इतने पर भी जो कोई इसको न मानेगा, वह नास्तिक कहावेगा, क्योंकि ‘नास्तिको वेदनिन्दकः’ वेदों का निन्दक और न माननेवाला नास्तिक कहाता है। क्या परमेश्वर शूद्रों का भला करना नहीं चाहता? क्या ईश्वर पक्षपाती है कि वेदों के पढ़ने-सुनने का शूद्रों के लिए निषेध और द्विजों के लिए विधि करे? जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढ़ाने-सुनाने का न होता, तो इनके शरीर में वाक् और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिए बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिए प्रकाशित किये हैं। और जहाँ कहीं निषेध किया है, उसका यह अभिप्राय है कि जिसको पढ़ने-पढ़ाने से कुछ भी न आवे, वह निर्बुद्धि और मूर्ख होने से शूद्र कहाता है। उसका पढ़ना-पढ़ाना व्यर्थ है। और जो स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है। देखो! वेद में कन्याओं के पढ़ने का प्रमाण—

ब्र॒ह्म॒चर्य्ये॑ण क॒न्या॒३॒॑ युवा॑नं विन्दते॒ पति॑म्॥

—अथर्व॰॥ अनु॰ ३। प्र॰ २४। कां॰ ११। मं॰ १८

जैसे लड़के ब्रह्मचर्य-सेवन से पूर्ण विद्या और सुशिक्षा को प्राप्त होके युवती, विदुषी, अपने अनुकूल, प्रिय, सदृश स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं, वैसे (कन्या) कुमारी (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य-सेवन से वेदादि शास्त्रों को पढ़, पूर्ण विद्या और उत्तम शिक्ष़ा को प्राप्त, युवती होके, पूर्ण युवावस्था में अपने सदृश, प्रिय, विद्वान् (युवानम्) पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष को (विन्दते) प्राप्त होवे, इसलिए स्त्रियों को भी ब्रह्मचर्य और विद्या का ग्रहण अवश्य करना चाहिए।

प्रश्न—क्या स्त्री लोग भी वेदों को पढ़ें?

उत्तर—अवश्य; देखो! श्रौतसूत्रादि में—

इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्।

अर्थात् स्त्री यज्ञ में इस मन्त्र को पढ़े। जो वेदादि शास्त्रों को न पढ़ी होवे, तो यज्ञ में स्वरसहित मन्त्रों का उच्चारण और संस्कृतभाषण कैसे कर सके? भारतवर्ष की स्त्रियों में भूषणरूप गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढ़के पूर्ण विदुषी हुई थीं—यह शतपथब्राह्मण में स्पष्ट लिखा है। भला! जो पुरुष विद्वान् और स्त्री अविदुषी और स्त्री विदुषी और पुरुष अविद्वान् हो तो नित्यप्रति देवासुर-संग्राम घर में मचा रहै, फिर सुख कहाँ? इसलिए जो स्त्री न पढ़ें, तो कन्याओं की पाठशाला में अध्यापिका क्योंकर हो सकें तथा राजकार्य न्यायाधीशत्वादि; गृहाश्रम का कार्य जो पति को स्त्री और स्त्री को पति प्रसन्न रखना; घर के सब काम स्त्री के आधीन रहना, इत्यादि काम विना विद्या के अच्छे प्रकार कभी ठीक नहीं हो सकते।

देखो! आर्य्यावर्त्त के राजपुरुषों की स्त्रियाँ धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या भी अच्छी प्रकार जानती थीं, क्योंकि जो न जानती होती, तो कैकेयी आदि दशरथ आदि के साथ युद्ध में क्योंकर जा सकती और युद्ध कर सकती? इसलिए ब्राह्मणी को सब विद्या, क्षत्रिया को सब विद्या और युद्ध तथा राजविद्याविशेष, वैश्या को व्यवहारविद्या और शूद्रा को पाकादि सेवा की विद्या अवश्य पढ़नी चाहिए। जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और अपने व्यवहार की विद्या न्यून-से-न्यून अवश्य पढ़नी चाहिए। वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिये। क्योंकि इनके सीखे विना सत्याऽसत्य का निर्णय; पत्यादि से अनुकूल वर्त्तमान, यथायोग्य सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, वर्द्धन और सुशिक्षा करना, घर के सब कार्यों को जैसा चाहिए वैसा करना-कराना, वैद्यकविद्या से औषधवत् अन्न-पान बना और बनवाना नहीं कर सकती। जिससे घर में रोग कभी न आवे और सब लोग सदा आनन्दित रहैं। शिल्पविद्या के जाने विना घर का बनवाना, वस्त्र-आभूषण आदि का बनाना-बनवाना, गणितविद्या के विना सब का हिसाब समझना-समझाना, वेदादि शास्त्रविद्या के विना ईश्वर और धर्म को न जानके, अधर्म से कभी नहीं बच सकते।

इसलिए वे ही धन्य और कृतकृत्य हैं कि जो अपने सन्तानों को ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षा और विद्या से शरीर और आत्मा के पूर्ण बल को बढ़ावें। जिससे वे सन्तान मातृ, पितृ, पति, सासु, श्वसुर, राजा, प्रजा, पड़ोसी, इष्टमित्र और सन्तानादि से यथायोग्य धर्म से वर्तें। यही कोश अक्षय है। इसको जितना व्यय करे, उतना ही बढ़ता जाए। अन्य सब कोश व्यय करने से घट जाते हैं और दायभागी भी निज भाग ले लेते हैं और विद्याकोश का चोर वा दायभागी कोई भी नहीं हो सकता। इस कोश का, रक्षा और वृद्धि करनेवाला विशेष राजा और प्रजा भी हैं।

कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्॥

—मनु॰ [७।१५२]॥

राजा को योग्य है कि सब कन्या और लड़कों को उक्त समय से उक्त समय तक ब्रह्मचर्य में रखके विद्वान् कराना। जो कोई इस आज्ञा को न माने, तो उसके माता-पिता को दण्ड देना अर्थात् राजा की आज्ञा से आठ वर्ष के पश्चात् लड़का वा लड़की किसी के घर में न रहने पावें, किन्तु आचार्य्यकुल में रहैं। जब तक समावर्त्तन का समय न आवे, तब तक विवाह न होने पावे।

सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।

वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम्॥

—मनु॰ [४।२३३]॥

संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण और घृतादि इन सब दानों से वेदविद्या का दान अतिश्रेष्ठ है। इसलिए जिससे जितना बन सके उतना प्रयत्न, और धन का विद्या की वृद्धि में व्यय किया करें। जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य, विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है, वही देश सौभाग्यवान् होता है।

यह ब्रह्मचर्याश्रम की शिक्षा संक्षेप से लिखी गई। इसके आगे चौथे समुल्लास में समावर्त्तन, विवाह और गृहाश्रम की शिक्षा लिखी जाएगी।

इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे

सुभाषाविभूषिते शिक्षाविषये

तृतीयः समुल्लासः सम्पूर्णः॥३॥