द्वादश समुल्लास

ओ३म्

अनुभूमिका (२)

 

जब आर्य्यावर्त्तस्थ मनुष्यों में सत्याऽसत्य का यथावत् निर्णय कारक वेदविद्या छूटकर अविद्या फैलके मतमतान्तर खड़े हुए, यही जैन आदि के विद्याविरुद्धमतप्रचार का निमित्त हुआ। क्योंकि ‘वाल्मीकीय’ और ‘महाभारतादि’ में जैनियों का नाममात्र भी नहीं लिखा और जैनियों के ग्रन्थों में ‘वाल्मीकीय’ और भारत में कथित ‘राम-कृष्णादि’ की गाथा बड़े विस्तारपूर्वक लिखी हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मत इनके पीछे चला, क्योंकि जैसा अपने मत को बहुत प्राचीन जैनी लोग लिखते हैं, वैसा होता तो वाल्मीकीय आदि ग्रन्थों में उनकी कथा अवश्य होती, इसलिये जैनमत इन ग्रन्थों के पीछे चला है।

कोई कहे कि जैनियों के ग्रन्थों में से कथाओं को लेकर वाल्मीकीय आदि ग्रन्थ बने होंगे तो उनसे पूछना चाहिये कि वाल्मीकीय आदि में तुम्हारे ग्रन्थों का नाम लेख भी क्यों नहीं? और तुम्हारे ग्रन्थों में क्यों है? क्या पिता के जन्म का दर्शन पुत्र कर सकता है? कभी नहीं। इससे यही सिद्ध होता है कि जैन-बौद्ध मत; शैव-शाक्तादि मतों के पीछे चला है।

अब इस १२ बारहवें समुल्लास में जो-जो जैनियों के मतविषयक लिखा गया है, सो-सो उनके ग्रन्थों के पतेपूर्वक लिखा है। इसमें जैनी लोगों को बुरा न मानना चाहिये, क्योंकि जो-जो हमने इनके मतविषय में लिखा है, वह केवल सत्याऽसत्य के निर्णयार्थ है, न कि विरोध वा हानि करने के अर्थ। इस लेख को जब जैनी, बौद्ध वा अन्य लोग देखेंगे तब सबको सत्याऽसत्य के निर्णय में विचार और लेख करने का समय मिलेगा और बोध भी होगा। जबतक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेख न किया जाय तबतक सत्याऽसत्य का निर्णय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों में सत्याऽसत्य का निश्चय नहीं होता तभी अविद्वानों को महा अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है, इसलिये सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ सुहृदता से वाद वा लेख करना हम मनुष्य जाति का मुख्य काम है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो सके।

और यह बौद्ध-जैन मत का विषय विना इनके अन्य-मतवालों को अपूर्व लाभ और बोध करनेवाला होगा, क्योंकि ये लोग अपने पुस्तकों को किसी अन्य मतवाले को देखने, पढ़ने वा लिखने को भी नहीं देते। बड़े परिश्रम से मेरे और विशेष आर्यसमाज मुम्बई के मन्त्री ‘सेठ सेवकलाल कृष्णदास’ के पुरुषार्थ से ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं। तथा काशीस्थ ‘जैनप्रभाकर’ यन्त्रालय में छपने और मुम्बई में ‘प्रकरणरत्नाकर’ ग्रन्थ के छपने से भी सब लोगों को जैनियों का मत देखना सहज हुआ है।

भला, यह किन विद्वानों की बात है कि अपने मत के पुस्तक आप ही देखना और दूसरों को न दिखलाना? इसी से विदित होता है कि इन ग्रन्थों के बनानेवालों को प्रथम ही शङ्का थी कि इन ग्रन्थों में असम्भव बातें हैं, जो दूसरे मतवाले देखेंगे तो खण्डन करेंगे और हमारे मतवाले दूसरों के ग्रन्थ देखेंगे तो इस मत में श्रद्धा न रहेगी।

अस्तु, जो हो परन्तु बहुत मनुष्य ऐसे हैं, कि जिनको अपने दोष तो नहीं दीखते, किन्तु दूसरों के दोष देखने में अति उद्युक्त रहते हैं। यह न्याय की बात नहीं, क्योंकि प्रथम अपने दोष देख निकालके पश्चात् दूसरे के दोषों में दृष्टि देके निकालें।

अब इन बौद्ध-जैनियों के मत का विषय सब सज्जनों के सन्मुख धरता हूँ, जैसा है, वैसा विचारें।

 

किमधिकलेखेन बुद्धिमद्वर्य्येषु

 

 

 

 

अथ द्वादशसमुल्लासारम्भः

 

अथ नास्तिकमतान्तर्गतचार्वाकबौद्धजैनमत- खण्डनमण्डनविषयान् व्याख्यास्यामः

कोई एक ‘बृहस्पति’ नामा पुरुष हुआ था जो वेद, ईश्वर और यज्ञादि उत्तम कर्मों को भी नहीं मानता था। देखिये! उनका मत—

यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥

[सर्वदर्शनसंग्रह चार्वाकदर्शन]

कोई मनुष्यादि प्राणी मृत्यु के अगोचर नहीं है अर्थात् सबको मरना है, इसलिये जबतक शरीर में जीव रहै, तबतक सुख से रहै। जो कोई कहे कि “धर्माचरण से कष्ट होता है, जो धर्म को छोड़ें तो पुनर्जन्म में बड़ा दुःख पावें।” उसको ‘चार्वाक’ उत्तर देता है कि अरे भोले भाई! जो मरे के पश्चात् शरीर भस्म हो जाता है कि जिसने खाया-पीया है, वह पुनः संसार में न आवेगा। इसलिये जैसे हो सके वैसे आनन्द में रहो, लोक में नीति से चलो, ऐश्वर्य्य को बढ़ाओ और उससे इच्छित भोग करो। यही लोक समझो, परलोक कुछ नहीं।

देखो! पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इन चार भूतों के परिणाम से यह शरीर बना है, इसमें इनके योग से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे मादक द्रव्य खाने-पीने से मद (नशा) उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जीव शरीर के साथ उत्पन्न होकर शरीर के नाश के साथ आप भी नष्ट हो जाता है, फिर किसको पाप-पुण्य का फल होगा?

तच्चैतन्यविशिष्टदेह एव आत्मा देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात्॥

[चार्वाक दर्शन]

इस शरीर में चारों भूतों के संयोग से जीवात्मा उत्पन्न होकर उन्हीं के वियोग के साथ ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि मरे पीछे कोई भी जीव प्रत्यक्ष नहीं होता। हम एक प्रत्यक्ष ही को मानते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष के विना अनुमानादि होते ही नहीं। इसलिए मुख्य प्रत्यक्ष के सामने अनुमानादि गौण होने से उनका ग्रहण नहीं करते। सुन्दर स्त्री के आलिङ्गन से आनन्द का करना पुरुषार्थ का फल है।

उत्तर—ये पृथिव्यादि भूत जड़ हैं, उनसे चेतन की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। जैसे अब माता-पिता के संयोग से देह की उत्पत्ति होती है, वैसे ही आदि सृष्टि में मनुष्यादि शरीरों की आकृति परमेश्वर कर्त्ता के विना कभी नहीं हो सकती। मद के समान चेतन की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता, क्योंकि मद चेतन को होता है, जड़ को नहीं। पदार्थ ‘नष्ट’ अर्थात् अदृष्ट होते हैं परन्तु अभाव किसी का नहीं होता, इसी प्रकार अदृश्य होने से जीव का भी अभाव न मानना चाहिये। जब जीवात्मा सदेह होता है तभी उसकी प्रकटता होती है। जब शरीर को छोड़ देता है, तब यह शरीर जो मृत्यु को प्राप्त हुआ है, वह जैसा     चेतनयुक्त पूर्व था, वैसा नहीं हो सकता। यही बात बृहदारण्यक में कही है—

नाहं मोहं ब्रवीमि अनुच्छित्तिधर्मायमात्मेति॥

[तुलना—अ॰ ४।ब्रा॰ ५। कं॰ १४]

याज्ञवल्क्य कहते हैं कि “हे मैत्रेयि! मैं मोह से बात नहीं करता किन्तु आत्मा अविनाशी है, जिसके योग से शरीर चेष्टा करता है।” जब जीव शरीर से पृथक् हो जाता है तब शरीर में ज्ञान कुछ भी नहीं रहता। जो देह से पृथक् आत्मा न हो, तो जिसके संयोग से चेतनता और वियोग से जड़ता होती है वह देह से पृथक् है। जैसे आँख सबको देखती है परन्तु अपने को नहीं, इसी प्रकार प्रत्यक्ष का करनेवाला अपने ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। जैसे अपनी आँख से सब घट-पटादि पदार्थ देखता है, वैसे आँख को अपने ज्ञान से देखता है। जो द्रष्टा है वह द्रष्टा ही रहता है, दृश्य कभी नहीं होता। जैसे विना आधार आधेय, कारण के विना कार्य्य, अवयवी के विना अवयव और कर्त्ता के विना कर्म नहीं रह सकते, वैसे कर्त्ता के विना प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है?

जो सुन्दर स्त्री के साथ समागम करने ही को पुरुषार्थ का फल मानो तो क्षणिक सुख और उससे दुःख भी होता है, वह भी पुरुषार्थ ही का फल होगा। जब ऐसा है तो स्वर्ग की हानि होने से दुःख भोगना पड़ेगा। जो कहो दुःख के छुड़ाने और सुख के बढ़ाने में यत्न करना चाहिये तो मुक्ति-सुख की हानि हो जाती है, इसलिये वह पुरुषार्थ का फल नहीं।

चार्वाक—जो दुःख-संयुक्त सुख का त्याग करते हैं, वे मूर्ख हैं। जैसे धान्यार्थी धान्य का ग्रहण और बुस का त्याग करता है, वैसे इस संसार में बुद्धिमान् सुख का ग्रहण और दुःख का त्याग करें। क्योंकि इस लोक के उपस्थित सुख को छोड़के अनुपस्थित स्वर्ग के सुख की इच्छा कर धूर्तकथित वेदोक्त अग्निहोत्रादि कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड का अनुष्ठान परलोक के लिये करते हैं, वे अज्ञानी हैं। जो परलोक है ही नहीं, तो उसकी आशा करना मूर्खता का काम है। क्योंकि—

अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।

बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः॥  [चार्वाकदर्शन]

चार्वाकमतप्रचारक ‘बृहस्पति’ कहता है कि—“अग्निहोत्र, तीन वेद, तीन दण्ड और भस्म का लगाना बुद्धि और पुरुषार्थरहित पुरुषों ने जीविका बना ली है।” किन्तु काँटे लगने आदि से उत्पन्न हुए दुःख का नाम ‘नरक’, लोकसिद्ध राजा ‘परमेश्वर’ और देह का नाश होना ‘मोक्ष’, अन्य कुछ भी नहीं है।

उत्तर—विषयरूपी सुखमात्र को पुरुषार्थ का फल मानकर विषयदुःख-निवारणमात्र में कृतकृत्यता और स्वर्ग मानना मूर्खता है। अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना, उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है, उसको न जानकर वेद, ईश्वर और वेदोक्त धर्म की निन्दा करना धूर्तों का काम है। जो त्रिदण्ड और भस्मधारण का खण्डन है, सो ठीक है।

यदि कण्टकादि से उत्पन्न ही दुःख का नाम नरक हो तो उससे अधिक महारोगादि नरक क्यों नहीं? यद्यपि राजा को ऐश्वर्यवान् और प्रजापालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें, तो ठीक है परन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो, उसको भी परमेश्वरवत् मानते हो, तो तुम्हारे जैसा कोई भी मूर्ख नहीं। शरीर का विच्छेद होना मात्र मोक्ष है, तो गदहे, कुत्ते आदि और तुममें क्या भेद रहा, किन्तु आकृति ही मात्र भिन्न रही। चारवाक—

अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथाऽनिलः।

केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः॥१॥

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः॥२॥

पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।

स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते॥३॥

मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्।

गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्॥४॥

स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः।

प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते॥५॥

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥६॥

यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः।

कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः॥७॥

ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह।

मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्॥८॥

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः।

जर्फरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्॥९॥

अश्वस्यात्र हि शिश्नन्तु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्त्तितम्।

भण्डैस्तद्वत्परं चैव ग्राह्यजातं प्रकीर्त्तितम्॥१०॥

मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम्॥११॥

[चार्वाकदर्शन, श्लोक ११-१२। श्लोक १४-२२]

‘चार्वाक’, ‘आभाणक’, ‘बौद्ध’ और ‘जैन’ भी जगत् की उत्पत्ति स्वभाव से मानते हैं। जो-जो स्वाभाविक गुण हैं, उस-उससे द्रव्य संयुक्त होकर सब पदार्थ बनते हैं, कोई जगत् का कर्त्ता नहीं॥१॥

परन्तु इनमें से चार्वाक ऐसा मानता है। किन्तु परलोक और जीवात्मा बौद्ध-जैन मानते हैं, चार्वाक नहीं। शेष इन तीनों का मत कोई-कोई बात छोड़के एक सा है।

न कोई स्वर्ग, न कोई नरक और न कोई परलोक में जानेवाला आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है॥२॥

जो यज्ञ में पशु को मार होम करने से वह स्वर्ग को जाता हो, तो यजमान अपने पिता आदि को मार यज्ञ में होम करके स्वर्ग को क्यों नहीं भेजता?॥३॥

जो मरे हुए जीवों को श्राद्ध और तर्पण तृप्तिकारक होता है तो परदेश में जानेवाले मार्ग में निर्वाहार्थ अन्न, वस्त्र, धन को क्यों ले जाते? ले[जा]ना व्यर्थ हो जाय। क्योंकि जैसे मृतक के नाम से अर्पण किया हुआ स्वर्ग में पहुँचता है, तो परदेश में जानेवालों के लिए उनके सम्बन्धी भी घर में अर्पण कर देशान्तर में पहुँचा देवें। जो यह नहीं पहुँचता, तो स्वर्ग में क्योंकर पहुँच सकता है?॥४॥

जो मर्त्यलोक में दान करने से स्वर्गवासी तृप्त होते हैं, तो नीचे देने से घर के ऊपर स्थित पुरुष तृप्त क्यों नहीं होता?॥५॥

इसलिए जबतक जीवे, तबतक सुख से जीवे। जो घर में पदार्थ न हो तो ऋण करके आनन्द करे, ऋण देना नहीं पड़ेगा। क्योंकि जिस शरीर में जीव ने खाया-पिया है, उन दोनों का पुनरागमन न होगा, फिर किससे कौन माँगे और देवेगा?॥६॥

जो लोग कहते हैं कि मृत्युसमय जीव शरीर से निकलके परलोक को जाता है, यह बात मिथ्या है, क्योंकि जो ऐसा होता, तो कुटुम्ब के मोह से बद्ध होकर पुनः घर में क्यों नहीं आ जाता?॥७॥

इसलिए यह सब ब्राह्मणों ने अपनी जीविका का उपाय किया है। जो दशगात्रादि मृतकक्रिया करते हैं, यह सब उनकी जीविका की लीला है॥८॥

वेद के करनेहारे भांड, धूर्त्त और राक्षस, ये तीन हैं। ‘जर्फरी’ ‘तुर्फरी’ इत्यादि पण्डितों के धूर्त्ततायुक्त वचन हैं॥९॥

देखो धूर्त्तों की रचना! “घोड़े के लिङ्ग को स्त्री ग्रहण करे।” उसके साथ समागम यजमान की स्त्री से कराना, कन्या से ठट्ठा आदि लिखना, धूर्त्तों के विना नहीं हो सकता॥१०॥

और जो मांस का खाना लिखा है, वह वेदभाग राक्षस का बनाया है॥११॥

उत्तर—विना चेतन परमेश्वर के निर्माण किये जड़ पदार्थ आपस में स्वभाव से नियमपूर्वक मिलकर उत्पन्न नहीं हो सकते। इस वास्ते सृष्टि का कर्त्ता अवश्य होना चाहिये। जो स्वभाव से हों तो द्वितीय पृथिवी, सूर्य, चन्द्र आप से आप क्यों नहीं होते॥१॥

‘स्वर्ग’ सुखभोग और ‘नरक’ दुःखभोग का नाम है। जो जीवात्मा न होता, तो सुख-दुःख का भोक्ता कौन हो सके? जैसे इस समय सुख-दुःख का भोक्ता जीव है, वैसे परजन्म में भी होता है। क्या सत्यभाषणादि दया आदि क्रिया भी वर्णाश्रमियों की निष्फल होगी? कभी नहीं॥२॥

पशु मारके होम करना वेद में कहीं नहीं है, इसलिये यह खण्डन अखण्डनीय है और मृतकों का श्राद्ध भी कपोलकल्पित होने से वेदविरुद्ध पुराण मत-वालों का है॥३, ४, ५॥

जो वस्तु है, उसका अभाव कभी नहीं होता। तो विद्यमान जीव का अभाव कभी नहीं हो सकता। देह भस्म हो जाता है, जीव नहीं। जीव तो दूसरे शरीर में जाता है, इसलिए जो कोई ऋणादि पाप से सुख भोग करेगा, वह दूसरे जन्म में अवश्य भोगेगा॥६॥

देह से निकलके जीव स्थानान्तर और शरीरान्तर [को] प्राप्त होता है, उसको पूर्वजन्म का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता, इसलिए पुनश्च कुटुम्ब में नहीं आता॥७॥

हाँ ब्राह्मणों ने प्रेत का कर्म जीविका के लिये किया है, वेदोक्त नहीं॥८॥

जो चार्वाक आदि ने असल वेद देखे होते, तो वेद की निन्दा कभी न करते। भाँड, धूर्त्त और निशाचरवत् पुरुष टीकाकार हुए हैं, उन्हीं की धूर्त्तता है, वेद की नहीं। परन्तु शोक है चार्वाक, आभाणक, बौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल वेद न सुने, न देखे और न किसी विद्वान् से पढ़े, इसीलिए भ्रष्ट टीका और वाममार्गियों की लीला देखके वेदों से विरोध करके, नष्ट-भ्रष्ट बुद्धि होकर वेदों की निन्दा करने लगे हैं। यही वाममार्गियों की दुष्ट चेष्टा चार्वाक, बौद्ध और जैन मत के होने का कारण है, क्योंकि चार्वाक आदि भी वेदों का सत्य अर्थ [नहीं जान सके]॥९॥

भला! विचार करना चाहिए कि स्त्री [से] अश्व के उपस्थ ग्रहण आदि लीला, और मांस का खाना आदि टीकाकारों की धूर्तता है, वेद की नहीं। सिवाय वाममार्गी लोगों के अन्य भ्रष्ट, वेदार्थ से विपरीत, अशुद्ध व्याख्यान कौन करता? ॥ १०। ११॥

यही चार्वाक बौद्धों के होने का कारण है, क्योंकि बौद्ध लोगों ने चार्वाकों में से बहुत-सा चार्वाकों का मत और थोड़ा-सा अपना भी गाँठ का लगाया है, इसी से बौद्धों की शाखा पृथक् चली है।

अब जो चार्वाकादिकों में भेद है, सो लिखते हैं —

ये चारवाकादि बहुत सी बातों में एक हैं परन्तु चार्वाक देह की उत्पत्ति के साथ जीवोत्पत्ति और उसके नाश के साथ ही जीवन का भी नाश मानता है। पुनर्जन्म और परलोक को नहीं मानता। एक प्रत्यक्ष प्रमाण के विना अनुमानादि प्रमाणों को भी नहीं मानता। चारवाक का अर्थ — जो बोलने में प्रगल्भ और विशेषार्थ वैतण्डिक होता है। और बौद्घ-जैन प्रत्यक्षादि चारों प्रमाण, अनादि जीव, पुनर्जन्म, परलोक और मुक्ति को भी मानते हैं। इतना ही चार्वाक से बौद्घ और जैनियों का भेद है परन्तु नास्तिकता, वेद ईश्वर की निन्दा, परमतद्वेष, छः यतना और जगत् का कर्त्ता कोई नहीं, इत्यादि बातों में सब एक ही हैं। यह चार्वाक का मत संक्षेप से दर्शा दिया है।

अब बौद्धमत के विषय में संक्षेप से लिखते हैं—

कार्य्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात्।

अविनाभावनियमो दर्शनान्तरदर्शनात्॥     [सर्वदर्शनसंग्रह बौद्धदर्शन]

‘कार्य्यकारणभाव’ अर्थात् कार्य्य के दर्शन से कारण और कारण के दर्शन से कार्य्यादि का साक्षात्कार प्रत्यक्ष से शेष में अनुमान होता है, इसके विना प्राणियों के सम्पूर्ण व्यवहार पूर्ण नहीं हो सकते, इत्यादि लक्षण से अनुमान को अधिक मानकर चारवाक से भिन्न शाखा बौद्धों की हुई, अन्य बहुत-सी बातें चारवाकों की ली हैं। ये बौद्ध चार प्रकार के होते हैं—

एक ‘माध्यमिक’, दूसरा ‘योगाचार’, तीसरा ‘सौत्रान्तिक’ और चौथा ‘वैभाषिक’। ‘बुद्ध्या निर्वर्त्तते सः बौद्धः’ जो बुद्धि से सिद्ध हो अर्थात् जो-जो बात अपनी बुद्धि में आवे उस-उस को माने और जो न आवे उसको न मानते।

इनमें से पहला ‘माध्यमिक’ सर्वशून्य मानता है। अर्थात् जितने पदार्थ हैं, वे सब ‘शून्य’ हैं अर्थात् आदि में नहीं होते, अन्त में नहीं रहते, मध्य में जो प्रतीत होता है वह भी प्रतीत समय में है, पश्चात् शून्य हो जाता है। जैसे उत्पत्ति के पूर्व घट नहीं था, प्रध्वंस के पश्चात् नहीं रहता और घटज्ञान समय में भासता और पदार्थान्तर में ज्ञान जाने से घटज्ञान नहीं रहता, इसलिए शून्य ही एक तत्त्व है, ऐसा मानता है।

दूसरा ‘योगाचार’ जो बाह्य शून्य मानता है। अर्थात् पदार्थ भीतर ज्ञान में भासते हैं, बाहर नहीं। जैसे घट का ज्ञान आत्मा में है तभी मनुष्य कहता है कि “यह घट है”, जो भीतर ज्ञान न हो तो नहीं कह सकता, ऐसा मानता है।

तीसरा ‘सौत्रान्तिक’ जो बाहर अर्थ का अनुमान मानता है, क्योंकि बाहर कोई पदार्थ साङ्गोपाङ्ग प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु एकदेश प्रत्यक्ष होने से शेष में अनुमान किया जाता है, इसका ऐसा मत है।

चौथा ‘वैभाषिक’ है, उसका मत बाहर पदार्थ प्रत्यक्ष होता है,भीतर नहीं। जैसे ‘अयं नीलो घटः’ इस प्रतीति में नीलयुक्त घटाकृति बाहर प्रतीत होती है, यह ऐसा मानता है। यद्यपि इनका आचार्य्य बुद्ध उपदेष्टा जनानेवाला एक था तथापि सुननेवाले पुरुषों और शिष्यों के बुद्धिभेद से चार प्रकार शाखा हो गई हैं। जैसे सूर्य के अस्त होने में जार पुरुष जारकर्म, चोर चौरीकर्म और पूर्ण विद्वान् सदाचरण करते हैं। समय एक और अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार भिन्न-भिन्न चेष्टा करते हैं।

अब इन पूर्वोक्त चारों में ‘माध्यमिक’—सबको क्षणिक मानता है। अर्थात् क्षण-क्षण में बुद्धि का परिणाम होने से जो पूर्व क्षण में ज्ञात वस्तु था, वैसा ही दूसरे क्षण में नहीं रहता, इसलिए सबको क्षणिक मानना चाहिए, ऐसे मानता है।

दूसरा ‘योगाचार’ जो-जो प्रवृत्ति है सो-सो सब दुःखरूप है, क्योंकि प्राप्ति में संतुष्ट कोई भी नहीं होता। एक की प्राप्ति में दूसरे अप्राप्तों की इच्छा बनी ही रहती है, इस प्रकार मानता है।

तीसरा ‘सौत्रान्तिक’—सब पदार्थ अपने-अपने लक्षणों से लक्षित होते हैं, जैसे गाय के चिह्नों से गाय और घोड़े के चिह्नों से घोड़ा ज्ञात होता है, वैसे लक्षण लक्ष्य में सदा रहते हैं, ऐसा कहता है।

चौथा ‘वैभाषिक’—शून्य को एक पदार्थ मानता है। प्रथम माध्यमिक सबको शून्य मानता था, उसी का पक्ष वैभाषिक का भी है, इत्यादि बौद्धों में बहुत-से विवाद पक्ष हैं। इस प्रकार चार प्रकार की भावना मानते हैं।

उत्तर—जो सब शून्य हो तो शून्य का जाननेवाला शून्य नहीं होता और जो सब शून्य होवे तो शून्य को शून्य नहीं जान सके, इसलिए शून्य का ज्ञाता और ज्ञेय शून्य दो पदार्थ सिद्ध होते हैं।

और जो योगाचार बाह्य-शून्यत्व मानता है तो पर्वत इसके भीतर होना चाहिये। जो कहे कि पर्वत भीतर है तो उसके हृदय में पर्वत के समान अवकाश कहाँ है? इसलिए बाहर पर्वत है और पर्वतज्ञान आत्मा में रहता है।

सौत्रान्तिक किसी पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं मानता, तो वह आप स्वयं और उसका वचन भी अनुमेय होना चाहिये, प्रत्यक्ष नहीं। जो प्रत्यक्ष न हो तो ‘अयं घटः’ यह प्रयोग न होना चाहिये, किन्तु ‘अयं घटैकदेशः’ यह घड़ा का एक देश है और एक देश का नाम घड़ा नहीं, किन्तु समुदाय का नाम घट है। ‘यह घड़ा है’ वह प्रत्यक्ष है, अनुमेय नहीं, क्योंकि सब अवयवों में अवयवी एक है, उसके प्रत्यक्ष होने से सब घट के अवयव भी प्रत्यक्ष होते हैं, अर्थात् सावयव घट प्रत्यक्ष होता है।

चौथा वैभाषिक जो बाह्य पदार्थों को प्रत्यक्ष मानता है, वह भी ठीक नहीं। क्योंकि जहाँ ज्ञाता और ज्ञान होता है, वहीं प्रत्यक्ष होता है। अर्थात् आत्मा में सबका प्रत्यक्ष होता है। यद्यपि प्रत्यक्ष का विषय बाहर होता है, तथापि तदाकार ज्ञान आत्मा को होता है। वैसे जो क्षणिक पदार्थ और उसका ज्ञान क्षणिक हो तो ‘प्रत्यभिज्ञा’ अर्थात् ‘मैंने वह बात की थी’ अथवा ‘वह चीज देखी थी’ स्मरण न होना चाहिये, परन्तु पूर्व दृष्ट-श्रुत का स्मरण होता है, इसलिये क्षणिकवाद भी ठीक नहीं।

जो सब दुःख ही हो और सुख न हो तो सुख की अपेक्षा के विना दुःख सिद्ध नहीं हो सकता, जैसे रात्रि की अपेक्षा से दिन और दिन की अपेक्षा से रात्रि होती है, इसलिये सबको दुःख मानना ठीक नहीं।

जो स्वलक्षण ही मानें तो नेत्र रूप का लक्षण है और रूप लक्ष्य है जैसे घट का रूप। घट के रूप का लक्षण चक्षु, लक्ष्य से भिन्न है और गन्ध पृथिवी से अभिन्न है, इसी प्रकार भिन्नाऽभिन्न लक्ष्य लक्षण मानना चाहिये।

शून्य का उत्तर जो पूर्व दिया है वही अर्थात् शून्य का जाननेवाला शून्य से भिन्न होता है।

सर्वस्य संसारस्य दुःखात्मकत्वं सर्वतीर्थङ्करसंम्मतम्॥ [बौद्धदर्शन]

[सब संसार दुःखमय है, यह सब तीर्थंकरों का मत है।] जिनको बौद्ध तीर्थंकर मानते हैं, उन्हीं को जैन भी मानते हैं, इसीलिये ये दोनों एक हैं। और पूर्वोक्त ‘भावनाचतुष्टय’ अर्थात् चार भावनाओं से सकल वासनाओं की निवृत्ति से शून्यरूप ‘निर्वाण’ अर्थात् मुक्ति मानते हैं। अपने शिष्यों को ‘योग’ और ‘आचार’ का उपदेश करते हैं—गुरु के वचन का प्रमाण करना, अनादि बुद्धि में वासना होने से बुद्धि ही अनेकाकार भासती है। और चित्तचैत्तात्मक स्कन्ध पांच प्रकार का मानते हैं—रूपविज्ञानवेदनासंज्ञासंस्कारसंज्ञकः॥ [बौद्धदर्शन]

उनमें से प्रथम स्कन्ध—जो इन्द्रियों से रूपादि विषय ग्रहण किया जाता है, वह ‘रूपस्कन्ध’। (दूसरा) आलयविज्ञान, प्रवृत्ति अर्थात् जिसमें रूपादि विषय रहते हैं उनका विज्ञान-प्रवृत्ति का जाननारूप व्यवहार को ‘विज्ञानस्कन्ध’। (तीसरा) रूपस्कन्ध और विज्ञानस्कन्ध से उत्पन्न हुआ सुख-दुःख आदि प्रतीतिरूप व्यवहार को ‘वेदनास्कन्ध’। (चौथा) गौ आदि संज्ञा का सम्बन्ध नामी के साथ मानने रूप को ‘संज्ञास्कन्ध’। (पाँचवाँ) वेदनास्कन्ध से रागद्वेषादि क्लेश और क्षुधा-तृषादि उपक्लेश, मद, प्रमाद, अभिमान, धर्म और अधर्मरूप व्यवहार को ‘संस्कारस्कन्ध’ मानते हैं। सब संसार को दुःखरूप, दुःख का घर और दुःख का साधनरूप भावना करके संसार से छूटना, चारवाकों से अधिक मुक्ति, अनुमान और जीव को मानना, बौद्ध मानते हैं।

देशना लोकनाथानां सत्त्वाशयवशानुगाः।

भिद्यन्ते बहुधा लोके उपायैर्बहुभिः किल॥१॥

गम्भीरोत्तानभेदेन क्वचिच्चोभयलक्षणा।

भिन्ना हि देशनाऽभिन्ना शून्यताऽद्वयलक्षणा॥२॥

द्वादशायतनपूजा श्रेयस्करीति बौद्धा मन्यन्ते—

अर्थानुपाद्य बहुशो द्वादशायतनानि वै।

परितः पूजनीयानि किमन्यैरिह पूजितैः॥३॥

ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चैव तथा कर्मेन्द्रियाणि च।

मनो बुद्धिरिति प्रोक्तं द्वादशायतनं बुधैः॥४॥    [बौद्धदर्शन]

अर्थ—लोकों के स्वामी बुद्ध आदि महान् गुरुओं के उपदेश, समझने वाले शिष्यों की बुद्धि के वश होकर अर्थात् उनकी बुद्धि के भेद के अनुसार और लोक प्रचलित विभिन्न मार्गों या उपायों के कारण भिन्न-भिन्न हो जाते हैं॥ १॥

उनके उपदेश कहीं गम्भीर हैं, कहीं सुस्पष्ट हैं; कहीं गम्भीर और सुस्पष्ट दोनों विशेषताओं से युक्त हैं। इन भेदों के कारण से वे भिन्न प्रतीत होते हैं; किन्तु मूल तत्त्व वा उपदेश सबका एकमात्र ‘शून्यता’ का है, उसमें किसी के दो मत नहीं हैं॥ २॥

जो द्वादशायतन पूजा है, वही मोक्ष करने वाली है—उस पूजा के लिये बहुत से द्रव्यादि पदार्थों को प्राप्त होके ‘द्वादशायतन’ अर्थात् बारह प्रकार के स्थान विशेष बनाके सब प्रकार से पूजा करनी चाहिये, अन्य की पूजा से क्या प्रयोजन?॥३॥

द्वादशायतन पू्जा यह हैः—पाँच ‘ज्ञानेन्द्रिय’ अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और नासिका; पाँच ‘कर्मेन्द्रिय’ अर्थात् वाक्, हस्त, पग, उपस्थ और गुह्य, मन और बुद्धि इन ही का ‘सत्कार’ अर्थात् इनको आनन्द में प्रवृत्त रखना बौद्धों का मत है॥४॥

उत्तर—जो सब संसार दुःखरूप होता तो किसी जीव की प्रवृत्ति न होनी चाहिये। संसार में जीवों की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष दीखती है, इसलिये सब संसार दुःखरूप नहीं हो सकता किन्तु इसमें सुख-दुःख दोनों हैं। और जो बौद्घ यह बात कहते हैं तो खानपानादि और शरीररक्षण करने में प्रवृत्त होकर सुख क्यों मानते हैं? जो कहें कि हम प्रवृत्त तो होते हैं परन्तु इसको दुःख ही मानते हैं तो यह कथन ही सम्भव नहीं। क्योंकि जीव सुख जानकर प्रवृत्त और दुःख जानके निवृत्त होता है। संसार में धर्मक्रिया, विद्या, सत्सङ्ग आदि सब व्यवहार सुखकारक हैं।

जो पंच स्कन्ध कहे हैं, वे भी अपूर्ण हैं। क्योंकि ऐसे जो स्कन्ध विचारने लगें तो एक-एक के अनेक भेद हो सकते हैं।

जिन तीर्थङ्करों को उपदेशक और लोकनाथ मानते हैं, अनादि ईश्वर को नहीं मानते तो उन्होंने उपदेश कहाँ से पाया? जो कहो कि स्वयं प्राप्त हुए तो कारण के विना कार्य्य नहीं हो सकता। न इस समय उपदेश के विना किसी को ज्ञान हो सकता है और जो होता है तो तुम और अन्य को भी हो जायगा। उपदेशक बुद्ध आदि की क्या आवश्यकता है॥१॥

जो शून्यरूप ही अद्वैत उपदेश बौद्धों का है तो विद्यमान वस्तु शून्यरूप कभी नहीं होता; हां, सूक्ष्म कारणरूप तो हो जाता है।

जो द्रव्यों के उपार्जन से पूर्वोक्त द्वादशायतनपूजा मोक्ष का साधन कहा तो दश प्राण और ग्यारहवें जीव की पूजा क्यों नहीं करते? और जब इन्द्रिय और अन्तःकरण की पूजा मोक्षप्रद है तो विषयीजन और बौद्धों में क्या भेद रहा? फिर मुक्ति कहाँ?

पूर्व सब में दुःखरूप भावना की और फिर द्वादशायतनपूजा लगाई। इसलिये इनका मत सर्वांश सत्य नहीं।

‘विवेकविलास’ ग्रन्थ में बौद्धों का मत इस प्रकार कहा है—

बौद्धानां सुगतो देवो विश्वं च क्षणभङ्गुरम्।

आर्य्यसत्याख्यया तत्त्वचतुष्टयमिदं क्रमात्॥१॥

दुःखमायतनं चैव ततः समुदयो मतः।

मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रूयतामतः॥२॥

दुःखं संसारिणः स्कन्धास्ते च पञ्च प्रकीर्त्तिताः।

विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च॥३॥

पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम्।

धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि तु॥४॥

रागादीनां गणो यस्मात् समुदेति नृणां हृदि।

आत्मात्मीयस्वभावाख्यः स स्यात्समुदयः पुनः॥५॥

क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इति या वासना स्थिरा।

स मार्ग इति विज्ञेयः स च मोक्षोऽभिधीयते॥६॥

प्रत्यक्षमनुमानं च प्रमाणद्वितयं तथा।

चतुःप्रस्थानिका बौद्धाः ख्याता वैभाषिकादयः॥७॥

अर्थो ज्ञानान्वितो वैभाषिकेण बहु मन्यते।

सौत्रान्तिकेन प्रत्यक्षग्राह्योऽर्थो न बहिर्मतः॥८॥

आकारसहिता बुद्धिर्योगाचारस्य संमता।

केवलां संविदं स्वस्थां मन्यन्ते मध्यमाः पुनः॥९॥

रागादिज्ञानसन्तानवासनाच्छेदसम्भवा     ।

चतुर्णामपि बौद्धानां मुक्तिरेषा प्रकीर्तिता॥१०॥

कृत्तिः कमण्डलुर्मौण्ड्यं चीरं पूर्वाह्णभोजनम्।

संघो रक्ताम्बरत्वं च शिश्रिये बौद्धभिक्षुभिः॥११॥

[बौद्धदर्शन श्लोक ५-१३। श्लोक १-२]

अर्थ—बौद्धों का सुगतदेव बुद्ध भगवान् पूजनीय देव है और जगत् क्षणभंगुर है। ‘आर्यसत्य’ नाम से प्रसिद्ध उनके चार तत्त्व हैं, वे क्रम से इस प्रकार हैं—॥ १॥

वे हैं—दुःख, दुःख का आश्रय स्थान, समुदय=दुःख की उत्पत्ति का कारण, और मार्ग=दुःख से छूटने का मार्ग। अब इन चारों तत्त्वों=‘आर्य-सत्यों’ की व्याख्या क्रम से सुनो—॥ २॥

संसार में रहनेवाले प्राणियों के पांच स्कन्धों को ‘दुःख’ कहते हैं। वे पांच हैं—विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप॥ ३॥

पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, उनके शब्दादि विषय पाँच और मन-बुद्धि= अन्तःकरण, धर्म का स्थान ये द्वादश हैं॥४॥

जो मनुष्यों के हृदय में रागद्वेषादि समूह की उत्पत्ति होती है जो आत्मा के स्वभाव के नाम से प्रसिद्ध है वह समुदय होता है॥५॥

सब संस्कार क्षणिक हैं जो यह वासना स्थिर होना, वह बौद्धों का ‘मार्ग’ है और वही शून्य तत्त्व शून्यरूप हो जाना ‘मोक्ष’ है॥६॥

बौद्ध लोग प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानते हैं। चार प्रकार के इनके भेद हैं—वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक॥७॥

इनमें से ‘वैभाषिक’ ज्ञान में जो अर्थ है, उसी को विद्यमान मानता है। क्योंकि जो ज्ञान में नहीं है, उसका होना वह सिद्ध पुरुष नहीं मान सकता। और ‘सौत्रान्तिक’ भीतर को प्रत्यक्ष पदार्थ मानता है, बाहर नहीं॥८॥

‘योगाचार’ आकारसहित विज्ञानयुक्त बुद्धि को मानता है और ‘माध्यमिक’ केवल अपने में पदार्थों का ज्ञानमात्र मानता है, पदार्थ को नहीं मानता॥९॥

और रागादि-ज्ञान के प्रवाह की वासना के नाश से उत्पन्न हुई मुक्ति चारों प्रकार के बौद्धों की है॥१०॥

मृगादि का चमड़ा, कमण्डलु, मुंड मुंडाये, वल्कल वस्त्र धारण, पूर्वाह्ण अर्थात् नव बजे से पूर्व भोजन, अकेला न रहै, रक्त वस्त्र का धारण, यह बौद्धों के साधुओं का वेश है॥११॥

उत्तर—जो बौद्धों का सुगत बुद्ध ही देव है, तो उसका गुरु कौन था? जो विश्व क्षणभङ्ग हो, तो चिरदृष्ट पदार्थ का ‘यह वही है’ ऐसा स्मरण न होना चाहिये। जो क्षणभङ्ग होता, तो वह पदार्थ ही नहीं रहता, पुनः स्मरण किसका होवे?॥१॥

जो क्षणिकवाद ही बौद्धों का मार्ग है तो इनका मोक्ष भी क्षणभङ्ग होगा।। जो ज्ञान से युक्त अर्थ द्रव्य हो तो जड़ द्रव्य में भी ज्ञान होना चाहिये, इसलिये ज्ञान में अर्थ का प्रतिबिम्ब सा रहता है। जो भीतर ज्ञान में द्रव्य होवे तो बाहर न होना चाहिये और वह चलनादि क्रिया किस पर करता है? बाहर दीखता है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है? जो आकार से सहित बुद्धि होवे तो दृश्य होना चाहिये। जो केवल ज्ञान ही हृदय में आत्मस्थ होवे, बाह्यज्ञेय पदार्थों को केवल ज्ञान ही माना जाय, तो ज्ञेय के विना ज्ञान ही नहीं हो सकता।। जो वासनाच्छेद ही मुक्ति है, तो सुषुप्ति में भी मुक्ति माननी चाहिये। यह संक्षेप से बौद्ध मत का विषय लिखा है।

यहाँ से आगे जैनमत का वर्णन है, इसको जैन लोग मानते हैं।

प्रकरणरत्नाकर १ भाग, नयचक्रसार में निम्नलिखित बातें लिखी हैं—

बौद्ध लोग समय-समय में नवीनपन से (१) आकाश, (२) काल, (३) जीव, (४) पुद्गल, ये चार द्रव्य मानते हैं और जैनी लोग धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल ये छः द्रव्य मानते हैं। इनमें काल की अस्तिकायता नहीं और ऐसा भी मानते हैं कि काल उपचार से द्रव्य है, वस्तुतः नहीं।

उनमें से ‘धर्मास्तिकाय’ जो गतिपरिणामीपन से परिणाम को प्राप्त हुआ जीव और पुद्गल, इनकी गति के समीप से स्तम्भन करने का हेतु है वह धर्मास्तिकाय, और वह असंख्य प्रदेश परिमाण और लोक में व्यापक है।

और दूसरा ‘अधर्मास्तिकाय’ यह है कि जो स्थिरता से परिणामी हुए जीव तथा पुद्गल की स्थिति के आश्रय का हेतु है।

तीसरा ‘आकाशास्तिकाय’ उसको कहते हैं कि जो सब द्रव्यों का आधार जिसमें अवगाहन, प्रवेश, निर्गम आदि क्रिया करनेवाले जीव तथा पुद्गलों को अवगाहन का जो हेतु और सर्वव्यापी है।

चौथा ‘पुद्गलास्तिकाय’ यह है कि जो कारणरूप सूक्ष्म, नित्य, एकरस, वर्ण, गंध, स्पर्श, कार्य का लिङ्ग, पूरने और गलने के स्वभाववाला होता है।

पाँचवाँ ‘जीवास्तिकाय’ यह है कि जो चेतनालक्षण ज्ञान-दर्शन में उपयुक्त, अनन्त पर्यायों से परिणामी होनेवाला कर्त्ता भोक्ता है।

और छठा ‘काल’ यह है कि जो पूर्वोक्त पंचास्तिकायों का परत्व-अपरत्व, नवीन-प्राचीनता का चिह्नरूप प्रसिद्धि वर्त्तमानरूप पर्यायों से युक्त है, वह काल कहाता है।

समीक्षक—जो बौद्धों ने चार द्रव्य प्रतिसमय में नवीन-नवीन माने हैं, वे झूठे हैं, क्योंकि आकाश, काल, जीव और परमाणु, ये नये वा पुराने कभी नहीं हो सकते। क्योंकि ये अनादि और कारणरूप से अविनाशी हैं, पुनः नया और पुरानापन कैसे घट सकता है? और जैनियों का मानना भी ठीक नहीं। क्योंकि धर्माऽधर्म द्रव्य नहीं किन्तु जीव के गुण हैं, ये दोनों जीवास्तिकाय में आ जाते हैं; इसलिये आकाश, परमाणु, जीव और काल मानते तो ठीक था।

और जो नव द्रव्य वैशेषिक में माने हैं वे ठीक हैं, क्योंकि पृथिव्यादि पांच तत्त्व, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव पृथक्-पृथक् पदार्थ निश्चित हैं। एक जीव को चेतन मानकर ईश्वर को न मानना, जैन-बौद्धों की मिथ्या पक्षपात की बात है।

अब जो बौद्ध और जैनी लोग सप्तभङ्गी न्याय, और स्याद्वाद मानते हैं, वह यह है। देखो प्रथम भंग—

‘सन् घटः’ इसको प्रथम भङ्ग कहते हैं, क्योंकि घट अपनी वर्त्तमानता से युक्त अर्थात् घड़ा है, इसने अभाव का विरोध किया है।

दूसरा भङ्ग—‘असन् घटः’ घड़ा नहीं है, प्रथम घट के भाव से, यह घड़ा के असद्भाव से दूसरा भङ्ग है।

तीसरा भङ्ग यह है कि ‘सन्नसन् घटः’ अर्थात् यह घड़ा तो है परन्तु यह पट नहीं, क्योंकि उन दोनों से पृथक् हो गया।

और ‘घटोऽघटः’ यह चौथा भङ्ग कहाता है। जैसे ‘अघटः पटः’ दूसरे पट के अभाव की अपेक्षा अपने में होने से घट अघट कहाता है, युगपत् उसकी दो संज्ञा अर्थात् घट और अघट भी है।

पाँचवाँ भङ्ग यह है कि जो घट को घट कहने को योग्य अर्थात् घट को पट कहने के अयोग्य। उसमें घटपन वक्तव्य है। और पटपन अवक्तव्य है।

छठा भङ्ग यह है कि जो कुम्भ नहीं है, वह कहने योग्य भी नहीं और जो है वह कहने के योग्य भी है।

और सातवाँ भङ्ग यह है कि जो कहने को इष्ट है परन्तु वह नहीं है और कहने के योग्य भी घट नहीं, यह सप्तम भङ्ग कहाता है। इसी प्रकार—

स्यादस्ति जीवोऽयं प्रथमो भङ्गः ॥१॥

स्यान्नास्ति जीवो द्वितीयो भङ्गः ॥२॥

स्यादस्ति नास्तिरूपो जीवस्तृतीयो भङ्गः  ॥३॥

स्यादवक्तव्यो जीवश्चतुर्थो भङ्गः ॥४॥

स्यादस्ति च अवक्तव्यो जीवः पञ्चमो भङ्गः      ॥५॥

स्यान्नास्ति च अवक्तव्यो जीवः षष्ठो भङ्गः ॥६॥

स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यो जीव इति सप्तमो भङ्गः ॥७॥

[प्रकरण रत्नाकर भाग-१]

अर्थ—“है जीव” ऐसा प्रकथन होवे तो जीव के विरोधी जड़ पदार्थों का जीव में अभावरूप भङ्ग प्रथम कहाता है॥ १॥

दूसरा भङ्ग यह है कि “नहीं है जीव जड़ में” ऐसा कथन भी होता है, इससे यह दूसरा भङ्ग कहाता है॥ २॥

“जब जीव शरीर धारण करता है तब प्रसिद्ध और जब शरीर से पृथक् होता है तब अप्रसिद्ध रहता है” ऐसा कथन होवे, उसको तीसरा भङ्ग कहते हैं॥ ३॥

“जीव कहने के योग्य नहीं” यह चौथा भङ्ग॥ ४॥

“जीव है परन्तु कहने के योग्य नहीं” जो ऐसा कथन है, उसको पञ्चम भङ्ग कहते हैं॥ ५॥

“जीव प्रत्यक्ष प्रमाण से कहने में नहीं आता, इसलिए चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं है” [जो] ऐसा व्यवहार है, उसको छठा भङ्ग कहते हैं॥ ६॥

“एक काल में जीव का अनुमान से होना और दृश्यपन में न होना और एक-सा न रहना किन्तु क्षण-क्षण में परिणाम को प्राप्त होना, अस्ति-नास्ति कथन न होवे और नास्ति-अस्ति व्यवहार भी न होवे,” यह सातवाँ भङ्ग कहाता है॥ ७॥

इसी प्रकार नित्यत्व सप्तभङ्गी, अनित्यत्व सप्तभङ्गी तथा सामान्य धर्म, विशेष धर्म, गुण और पर्य्यायों की प्रत्येक वस्तु में सप्तभङ्गी होती है। वैसे द्रव्य, गुण, स्वभाव और पर्य्यायों के अनन्त होने से सप्तभङ्गी भी अनन्त होती है। ऐसा बौद्धों तथा जैनियों का ‘स्याद्वाद’ और ‘सप्तभङ्गी न्याय’ कहाता है।

समीक्षक—यह कथन एक अन्योऽन्याभाव में साधर्म्य और वैधर्म्य में चरितार्थ हो सकता है। इस सरल प्रकरण को छोड़कर कठिन जाल-रचना केवल अज्ञानियों के फसाने के लिए होती है। देखो! जीव का अजीव में और अजीव का जीव में अभाव रहता ही है। जैसे जीव और जड़ के वर्त्तमान होने से साधर्म्य और चेतन तथा जड़ होने से वैधर्म्य अर्थात् जीव में चेतनत्व (अस्ति) है और जड़त्व (नास्ति) नहीं है। इसी प्रकार जड़ में जड़त्व है और चेतनत्व नहीं है। इससे गुण-कर्म-स्वभाव के समानधर्म, और विरुद्धधर्म के विचार से सब इनका सप्तभङ्गी और स्याद्वाद सहजता से समझ में आता है, फिर इतना प्रपञ्च बढ़ाना किस काम का है? इसमें बौद्ध और जैनों का एक मत है। थोड़ा सा ही पृथक् होने से भिन्नभाव भी हो जाता है।

इसके आगे केवल जैनमत का वर्णन है—

चिदचिद् द्वे परे तत्त्वे विवेकस्तद्विवेचनम्।

उपादेयमुपादेयं हेयं हेयं च कुर्वतः॥१॥

हेयं हि कर्तृरागादि तत्कार्य्यमविवेकिनः।

उपादेयं परं ज्योतिरुपयोगैकलक्षणम्॥२॥ [आर्हतदर्शन]

जैन लोग ‘चित्’ और ‘अचित्’ अर्थात् चेतन और जड़ दो ही परतत्त्व मानते हैं। उन दोनों के विवेचन का नाम ‘विवेक’। जो-जो ग्रहण के योग्य है, उस-उसका ग्रहण और जो-जो त्याग करने योग्य है, उस-उसका त्याग करनेवाले को ‘विवेकी’ कहते हैं॥१॥

जगत् का कर्त्ता और रागादि तथा ईश्वर ने जगत् किया है, इस अविवेकी मत का त्याग और योग से लक्षित परमज्योतिस्वरूप जो जीव है, उसका ग्रहण करना उत्तम है॥२॥

अर्थात् जीव के विना दूसरा चेतनतत्त्व ईश्वर को नहीं मानते। ‘कोई भी अनादि सिद्ध ईश्वर नहीं’, ऐसा बौद्ध-जैन लोग मानते हैं।

इसमें राजा शिवप्रसाद जी ‘इतिहासतिमिरनाशक’ ग्रन्थ में लिखते हैं कि “इनके दो नाम हैं, एक जैन और दूसरा बौद्ध। ये पर्यायवाची शब्द हैं परन्तु बौद्धों में वाममार्गी मद्यमांसाहारी बौद्ध हैं, उनके साथ जैनियों का विरोध है। परन्तु जो महावीर और गौतम गणधर हैं, उनका नाम बौद्धों ने बुद्ध रक्खा है और जैनियों ने गणधर और जिनवर।” इसमें जिनकी परम्परा जैनमत है उन राजा शिवप्रसादजी ने अपने ‘इतिहासतिमिरनाशक’ ग्रन्थ के तीसरे खण्ड [मैडिकल हॉल, बनारस मुद्रित प्रथम संस्करण सन् १८७३, पृष्ठ १०९] में लिखा है कि “स्वामी शङ्कराचार्य्य से पहले जिनको हुए कुल हजार वर्ष के लगभग गुजरे हैं सारे भारतवर्ष में बौद्ध अथवा जैनधर्म फैला हुआ था।” इस पर नोट—“…..बौद्ध कहने से हमारा आशय उस मत से है, जो महावीर के गणधर गौतम स्वामी के समय से शंकर स्वामी के समय तक वेदविरुद्ध सारे भारतवर्ष में फैला रहा और जिसको ‘अशोक’ और ‘सम्प्रति’ महाराज ने माना, उससे जैन बाहर किसी तरह नहीं निकल सकते।…जिन, जिससे जैन निकला और बुद्ध, जिससे बौद्ध निकला दोनों पर्याय शब्द हैं। कोश में दोनों का अर्थ एक ही लिखा है और गौतम को दोनों मानते हैं। वरन् दीपवंश इत्यादि पुराने बौद्ध ग्रन्थों में शाक्यमुनि गौतम बुद्ध को अकसर महावीर ही के नाम से लिखा है। पस उसके समय में एक ही उनका मत रहा होगा।… हमने जो जैन न लिखकर गौतम के मत वालों को बौद्ध लिखा, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि उनको दूसरे देशवालों ने बौद्ध ही के नाम से लिखा है…”।

ऐसा ही अमरकोश में भी लिखा है—

सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराजस्तथागतः।

समन्तभद्रो भगवान् मारजिल्लोकजिज्जिनः॥१॥

षडभिज्ञो दशबलोऽद्वयवादी विनायकः।

मुनीन्द्रः श्रीधनः शास्ता मुनिः शाक्यमुनिस्तु यः॥२॥

स शाक्यसिंहः सर्वार्थः सिद्धश्शौद्धोदनिश्च सः।

गौतमश्चार्कबन्धुश्च मायादेवीसुतश्च सः॥३॥

—अमरकोश कां॰ १। वर्ग १। श्लोक ८ से १० तक॥

अब देखो! ‘बुद्ध’ ‘जिन’ और ‘बौद्ध तथा जैन’ एक के नाम हैं वा नहीं? क्या अमरसिंह भी ‘बुद्ध’ ‘जिन’ के एक लिखने में भूल गया है?

जो अविद्वान् जैन हैं, वे न तो अपना जानते और न दूसरे का, केवल हठमात्र से बर्ड़ाया करते हैं, परन्तु जो जैनों में विद्वान् हैं, वे सब जानते हैं कि ‘बुद्ध’ और ‘जिन’ तथा ‘बौद्ध’ और ‘जैन’ पर्यायवाची हैं।

उन्हीं बौद्धों और जैनियों का नाममात्र भेद है, परन्तु जो मांसाहारी बौद्ध हैं, उनसे जैन भिन्न हैं। बौद्धों और चार्वाकों का मत लेके जैनमत प्रवृत्त हुआ है। और कुछ विरोध भी हैं अर्थात् जैसे चार्वाक और बौद्ध ईश्वर को नहीं मानते और जगत् को अनादिकाल से स्वभाव से सिद्ध तथा प्रत्यक्ष और अनुमान को मानते हैं।

जैनी लोग जीव को अनादि और क्षणिकवाद से विरुद्ध मानते हैं। जीव कर्म का कर्त्ता, स्वयंफल भोक्ता है। फलप्रदाता और जगत् का कर्त्ता कोई नहीं। कर्मक्षय से मुक्ति, दया, क्षमा को धर्म मानते हैं। और अपने तीर्थंङ्करों ही को केवली मुक्तिप्राप्त और परमेश्वर मानते हैं, अनादि परमेश्वर कोई नहीं। सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हन्, केवली, तीर्थकृत, जिन ये छः नास्तिकों के देवताओं के नाम हैं।

अनादि देव का स्वरूप चन्द्रसूरि ने ‘आप्तनिश्चयालङ्कार’ ग्रन्थ में लिखा है—

सर्वज्ञो वीतरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः।

यथा स्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः॥१॥     [आर्हतदर्शन]

तथा चोक्तं तौतातितैः—

सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः।

दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिङ्गं वा योऽनुमापयेत्॥२॥

न चाऽऽगमविधिः कश्चिन्नित्यः सर्वज्ञबोधकः।

न च तत्रार्थवादानां तात्पर्यमपि कल्प्यते॥३॥

न चान्यार्थप्रधानैस्तैस्तदस्तित्वं विधीयते।

न चानुवदितुं शक्यः पूर्वमन्यैरबोधितः॥४॥

अनादेरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान्।

कृत्रिमेण त्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते॥५॥

अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽन्यैः प्रतीयते।

प्रकल्प्येत कथं सिद्धिरन्योऽन्याश्रययोस्तयोः॥६॥

सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता।

कथं तदुभयं सिध्येत् सिद्धमूलान्तरादृते॥७॥

असर्वज्ञप्रणीतात्तु वचनान्मूलवर्जितात्।

सर्वज्ञमवगच्छन्तस्तद्वाक्योक्तं न जानते॥८॥

सर्वज्ञसदृशं किञ्चिद्यदि पश्येम सम्प्रति।

उपमानेन सर्वज्ञं जानीयाम ततो वयम्॥९॥

उपदेशोऽपि बुद्धस्य धर्माधर्मादिगोचरः।

अन्यथा नोपपद्येत सर्वज्ञं यदि नाभवत्॥१०॥

[आर्हतदर्शन]

अर्थ—जो रागादि दोषों को जीतनेहारा सर्वज्ञ सबका ज्ञाता, तीन लोक में पूजित, यथार्थवादी अर्हत् देव है वही परमेश्वर है॥१॥

जो सर्वज्ञ अनादि ईश्वर होता, तो उसको हम लोग देखते नहीं हैं, इसलिये ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं और उसका एक देश वा चिह्न को भी हम लोग नहीं देखते हैं, जिससे अनुमान किया जाय॥२॥

और सर्वज्ञ का बोध करानेवाला कोई आगम अर्थात् किसी शास्त्र का विधि भी नहीं है, इसलिए ईश्वर में शब्दप्रमाण भी नहीं। और उसमें अर्थवाद भी नहीं घटता, क्योंकि जो कोई वस्तु हो उसके गुण-दोष जानकर स्तुति वा निन्दा होवे, तो अर्थापत्ति भी ईश्वर को सिद्ध करे॥३॥

इसलिए अर्थापत्ति से भी ईश्वर सिद्ध नहीं होता॥

और न अन्यार्थ प्रधान लिङ्गों से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है, जैसा कि रचना देखकर रचनावाले का अनुमान करते हैं। ईश्वर का अनुवाद भी कोई नहीं कर सकता, क्योंकि जो पूर्व कथित ईश्वर होता, तो उसका अनुवाद हो सकता॥४॥

और जो सर्वज्ञ आदिमान् है वह अनादि शास्त्र का वा जगत् का कर्त्ता नहीं हो सकता, जो कृत्रिम असत्य जगत् है, उससे अकृत्रिम सत्य ईश्वर सिद्ध क्योंकर हो सकता है॥५॥

जो कोई कहे कि उसी के वचनों से अन्य जीव लोग ईश्वर को जानते हैं तो ‘ईश्वर के वचन से ईश्वर की सिद्धि और ईश्वर से वचन की’ यह अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। क्योंकि सर्वज्ञोक्तवचन से वाक्य सत्य और उससे ईश्वर अस्तित्व सिद्ध करना है, यह दोनों एक दूसरे की सिद्धि में अपेक्षा रखते हैं, उसके विना एक-दूसरे की सिद्धि नहीं होती॥६-७॥

जो मूलवर्जित असर्वज्ञप्रणीतवचन से सर्वज्ञ को जानते हैं, वे उसके वाक्योक्तधर्म को नहीं जानते॥८॥

जो हम इस समय किसी को सर्वज्ञ के तुल्य देखें तो उपमान से सर्वज्ञ को मान सकें और उपदेश भी बुद्ध अर्थात् जानकार का धर्माधर्म लक्षणस्वरूप हो सकता है। अन्यथा अर्थात् बुद्धि के विना सर्वज्ञ नहीं हो सकता जो सर्वज्ञ हमको उपदेष्टा प्रत्यक्ष न हो तो हम धर्माधर्म नहीं जान सकें, इसलिए सर्वज्ञ तीर्थंकरों का वचन मानना ‘अनादि ईश्वर कोई नहीं है’॥९-१०॥

इसका खण्डन—

उत्तर—यह सब प्रपञ्च की बात है। क्योंकि जो प्रथम रागादि दोषयुक्त है, वह सदा के लिए कभी नहीं छूट सकता, क्योंकि जो नैमित्तिक दोष हैं तो फिर भी निमित्त होने से हो जायेंगे और जो स्वाभाविक हैं, तो कभी न छूटेंगे। जो देशकाल से परिच्छिन्न वस्तु होता है, वह एकदेशी, और जो एकदेशी होता है, वह सर्वज्ञ नहीं। क्योंकि जो वस्तु अल्प है, उसके गुण, कर्म, स्वाभाव भी अल्प होते हैं, वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता। किन्तु जो सर्वव्यापक अनादि परमात्मा है, वही सनातन ईश्वर है॥१॥

क्या जो वस्तु तुमको प्रत्यक्ष न हो, वह नहीं होता और जो प्रत्यक्ष है वही होता है, ऐसा नियम है? तुम प्रत्यक्ष छः प्रकार का मानते हो। एक श्रावण, दूसरा त्वाच, तीसरा चाक्षुष, चौथा रासन, पाँचवाँ घ्राण और छठा मानस। जैसे पृथिवी के गन्धादि गुण कठिनत्वादि स्वभाव को देख के पृथिवी प्रत्यक्ष होती है, वैसे ही परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और नियम सृष्टि में रचना आदि गुण, कर्म और स्वभाव कार्यनियम देखकर सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, अनादि ईश्वर का प्रत्यक्ष करना चाहिए। और जब जीवात्मा किसी दुष्ट वा श्रेष्ठ काम का ध्यान करता है, उस समय वह तदाकार उसके अभिमुख होता है। उसी समय उसके भीतर से दूसरी प्रेरणा अर्थात् पाप में भय, शङ्का, लज्जा और पुण्य में निर्भय, उत्साह और प्रसन्नता की रहने वाली बुद्धि होती है, वह ईश्वर की ओर से है। वहां गुण-गुणी का तादात्म्य सम्बन्ध है, इसलिये परमात्मा प्रत्यक्ष है। जैसे किसी कृत्रिम पदार्थ को देखकर, उसमें रचनाविशेष लिङ्ग को देखकर, अदृष्ट कर्त्ता को निश्चित जानना होता है। क्या यह ईश्वर में अनुमान का लिङ्ग नहीं॥२॥

आगम अर्थात् आप्त के कहे का प्रमाण मानना चाहिये। तुम्हारे पुस्तकों में अनादि ईश्वर का निरूपण नहीं किया, सो भूल है। जो नित्य सर्वज्ञ न हो तो सादि ज्ञानयुक्त पुरुष का शरीर पालने के पदार्थ कहाँ से हो सकें? क्योंकि शरीर का आदि अन्त होता है, इसका कर्त्ता जीव नहीं हो सकता। जो शरीरादि का कर्त्ता होता, तो शारीरिक क्रिया भी जानता कि इस आँख में कितनी नाड़ी आदि पदार्थों के संयोग-वियोग हैं, उसको जानता। जैसे सांचे में किसी धातु को ढालते हैं, तादृश पात्र बन जाता है। अथवा बीज में जैसी रचना करता है, वैसा ही अंकुर, मूल, शाखा, पत्र, पुष्प, फल उत्पन्न होता है, यह सामर्थ्य जीव वा जड़ का नहीं है क्योंकि जीव को जब शरीर प्राप्त होता है, तभी कुछ कर सकता और ज्ञान वा सामर्थ्य को बढ़ा सकता है अन्यथा नहीं। तो जो अनादि ईश्वर जीव के शरीर वा बीज आदि का योग न करता, तो जगत् में कुछ भी न हो सकता। देखलो! कितना ही कोई विद्वान् वा योगी हो, जब सुषुप्ति को प्राप्त होते हैं, तब कुछ भी भान नहीं रहता।

दूसरा—जब दुःख प्राप्त होता है, तब ज्ञान न्यून हो जाता है। जीव वा जड परमाणुओं से स्वतः कुछ भी रचनाविशेष नहीं हो सकती और अर्थवाद भी ईश्वर में यथावत् घटता है, क्योंकि जगत् में अनन्त विद्या के यथावत् रचित कार्यों को देखने से ईश्वर प्रशंसनीय होता है। जब अन्तर्यामी ईश्वर अपने गुण, कर्म और स्वभाव का प्रकाश जीवात्मा में करे, पुनः दूसरे के सामने परमेश्वर का अनुवाद करना भी सहज है। अन्योऽन्याश्रय दोष अनित्य पदार्थ में आता है नित्य में नहीं। क्योंकि जो साधनसाध्य हो उसी में अनवस्था आती है, नित्य में नहीं। जैसे सूर्य और प्रदीप का प्रकाशक और प्रकाश्य सूर्य और दीप होता है, दूसरा नहीं, इसी प्रकार परमेश्वर का वचन और परमेश्वर नित्य और स्वयं प्रकाश होने से अनवस्था नहीं आसकती। वैसे उपमान से भी ईश्वर सिद्ध होता है। क्योंकि परमेश्वर के सदृश परमेश्वर है वा एकदेश अथवा एक गुण, कर्म, स्वभाव तुल्य, दूसरा आकाश, न्यायाधीश आदि होते हैं, उसकी उपमा से भी ईश्वर सिद्ध होता है। इसलिये जो तीर्थंकरों को परमेश्वर मानते हो तो उनके माता पिता को उत्पन्न किसने किया था? जो कहो कि वे स्वभाव से हुये थे, तो अब भी स्वभाव से मनुष्य क्यों नहीं होते?॥३-१०॥

आस्तिक और नास्तिक का संवाद

इसके आगे प्रकरण रत्नाकर दूसरे भाग से जिसको बड़े-बड़े जैनियों ने अपनी सम्मति के साथ माना और मुम्बई में छपवाया है जैनियों के ईश्वरखण्डन में आस्तिक नास्तिक संवाद के प्रश्नोत्तर यहाँ लिखते हैं।

नास्तिक—ईश्वर की इच्छा से कुछ नहीं होता है, जो कुछ होता है, वह कर्म से।

आस्तिक—कर्म से जो होता है, तो कर्म किससे होता है? जो कहो जीव आदि से, तो उन्हीं के फल भोगना जीव की इच्छानुकूल है। परन्तु पाप के फल दुःख को जीव अपनी इच्छा से नहीं भोगता, ईश्वर के भोगाने से भोगता है। जैसे चोर सुख अपनी इच्छा से भोगता है और दुःख राजा की व्यवस्था से।

नास्तिक—ईश्वर अक्रिय है, क्योंकि जो कर्म करता होता, तो कर्म का फल भी भोगना पड़ता।

आस्तिक—ईश्वर अक्रिय नहीं, क्योंकि चेतन और सृष्टिकर्त्ता है। जैसा तुम्हारा कृत्रिम बनावट का ईश्वर जैसा कि तुमने तीर्थङ्करों को जीव से ईश्वर बने हुये माना है, वैसे कदाचित् होने वाले इस प्रकार के ईश्वर को कोई विद्वान् नहीं मान सकता। क्योंकि जो निमित्तों से ईश्वर बने तो अनित्य हो जाय। क्योंकि ईश्वर बने के पहले जीव था, पश्चात् किसी निमित्त से ईश्वर बना हो, वह फिर भी जीव हो जायगा। क्योंकि यह अनादि काल से जीव था, अनन्त काल तक रहेगा। फिर बीच में ईश्वर बना, वह भी अन्त में पुनः जीव हो जायगा। इसलिये इस अनादि सिद्ध ईश्वर को मानना योग्य है। परमेश्वर पाप कभी नहीं करता। जैसे स्वाभाविक चेष्टा होती है, उसी प्रकार जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता है, इसलिये जगत् का कर्त्ता ईश्वर है। जो स्वभाव से जगत् बनता है, तो जगत् के कारण का स्वभाव जड़त्व है, वह ज्ञानपूर्वक श्रेष्ठ नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें यथायोग्य बनने का ज्ञान ही नहीं। जैसा मट्टी में घट और रूई में कपड़े बनने का स्वतः सामर्थ्य नहीं। दूसरे ज्ञान वाले के बनाने से घड़ा तथा वस्त्र बनता है।

नास्तिक—ईश्वर व्यापक नहीं है। जो व्यापक होता तो सब चेतन होता और बराबर चेतनता क्यों नहीं? ब्राह्मणादि में उत्तम, मध्यम, निकृष्टता क्यों हुई? क्योंकि सबमें ईश्वर एक-सा व्यापक है तो छोटाई बड़ाई क्यों हुई?

आस्तिक—व्याप्य और व्यापक एक नहीं, किन्तु दो होते हैं। जैसे आकाश सब में व्यापक है और सब आकाश के सदृश नहीं होता। वैसे परमेश्वर के चेतन होने से सब जडवस्तु चेतन नहीं होता। जैसे आकाश सब में बराबर है, पृथ्वी आदि के अवयव बराबर नहीं, वैसे परमेश्वर के बराबर कोई नहीं। जैसे विद्वान् अविद्वान्, धर्मात्मा अधर्मात्मा बराबर नहीं होते, वैसे विद्यादि सद्गुण और सत्यभाषणादि कर्म तथा सुशीलतादि स्वभाव के अधिक न्यून होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्त्यज बड़े-छोटे माने जाते हैं। वर्णों की व्याख्या जैसी चतुर्थसमुल्लास में लिख आये हैं, वहाँ देख लो।

नास्तिक—ईश्वर ने जगत् का अधिपतित्व और जगत्रूप ऐश्वर्य किस कारण स्वीकार किया?

आस्तिक—ईश्वर ने कभी अधिपतित्व न छोड़ा था, न ग्रहण किया है, किन्तु अधिपतित्व और जगत्रूप ऐश्वर्य ईश्वर ही में है। न कभी उससे अलग हो सकता है तो ग्रहण क्या करेगा? क्योंकि अप्राप्त का ग्रहण होता है। व्याप्य से व्यापक और व्यापक से व्याप्य पृथक् कभी नहीं हो सकता। इसलिये सदैव स्वामित्व और अनन्त ऐश्वर्य अनादि काल से ईश्वर में है। इसका ग्रहण और त्याग जीवों में घट सकता है, ईश्वर में नहीं।

नास्तिक—जो ईश्वर की रचना से सृष्टि होती है, तो माता पितादि का क्या काम? जब परमात्मा शाश्वत, अनादि, चिदानन्द, ज्ञानस्वरूप है तो जगत् के प्रपञ्च और दुःखरूप में क्यों पड़ा? ऐसा काम कोई साधारण मनुष्य भी आनन्द को छोड़, दुःख को ग्रहण नहीं करता, तो ईश्वर ने क्यों किया?

आस्तिक—ईश्वर की सृष्टि भिन्न और मानुषी सृष्टि भिन्न होती है। इसलिये माता-पिता की आवश्यकता है। जैसे परमात्मा अनादि प्रकृति परमाणुरूप कारण से सृष्टि करता है, वैसे परमात्मा ने माता-पितारूप निमित्त कारण से उत्पत्ति का प्रबन्ध किया है। इसमें कोई दोष नहीं।

परमात्मा किसी प्रपञ्च और दुःख में नहीं गिरता, न अपने आनन्द को छोड़ता है, क्योंकि प्रपञ्च और दुःख में गिरना जो एकदेशी हो उसका हो सकता है; सर्वदेशी का नहीं। जो अनादि, चिदानन्द, ज्ञानस्वरूप परमात्मा जगत् को न बनावे तो अन्य कौन बना सके? जगत् बनाने का जीव में सामर्थ्य नहीं और जड़ में स्वयं बनने का भी सामर्थ्य नहीं। इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा ही जगत् को बनाता और सदा आनन्द में रहता है। जैसे परमात्मा परमाणु रूप कारण से सृष्टि करता है वैसे माता पितारूप निमित्तकारण से भी उत्पत्ति का प्रबन्ध-नियम उसी ने किया है।

नास्तिक—ईश्वर मुक्तिपद को छोड़ जगत् में अनेकरूप पदार्थों की सृष्टिधारण और प्रलय करने के बखेडे़ में क्यों पडा़?

आस्तिक—ईश्वर सदा मुक्त है। तुम्हारे तीर्थङ्करों के सदृश बन्धपूर्वक मुक्ति का होना ईश्वर में नहीं। जगत् को बनाता, धर्ता, पालनकर्त्ता और प्रलय करके भी बन्ध में नहीं पड़ता, क्योंकि बन्ध और मुक्त सापेक्ष है। जो बन्ध न हो, तो मुक्ति नहीं और मुक्ति हो, तो बन्ध नहीं। परमेश्वर में बन्ध-मोक्ष नहीं घट सकता, किन्तु सदा मुक्त है। और जो एकदेशी जीव हैं, वे ही बद्ध और मुक्त सदा हुआ करते हैं। अनन्त सर्वदेशी, सर्वव्यापक, ईश्वर बन्धन वा नैमित्तिक मुक्ति के चक्र में, जैसे कि तुम्हारे तीर्थंकर हैं, कभी नहीं पड़ता।

नास्तिक—पी हुई भांग के नशे के समान जीव अपने-अपने कर्मों के फलों को प्राप्त होता है, इसमें ईश्वर का कुछ काम नहीं।

आस्तिक—विना राजा के डाकू, चोर आदि दुष्ट मनुष्य स्वयं फांसी नहीं चढते और न कारागार में जाते, किन्तु राजा उनके कर्मों का फल देता है, वैसे ईश्वर [की न्याय व्यवस्था] के विना कर्मों का फल कोई भी नहीं भोग सकते, इसलिये ईश्वर का न्यायाधीश होना अवश्य है।

नास्तिक—जगत् में एक ईश्वर नहीं, किन्तु अनेक मुक्त जीव ईश्वररूप हैं।

आस्तिक—यह कहना व्यर्थ है। क्योंकि जो प्रथम बद्ध होकर मुक्त हो, तो पुनः अवश्य बन्ध में पडे़गा, जैसे कि तुम्हारे तीर्थङ्कर। और जो सदा मुक्त है, वह कभी बन्ध में न गिरेगा। और जब बहुत से ईश्वर हैं, तो जैसे जीव अनेक होने से लड़ते भिड़ते फिरते हैं, वैसे ईश्वर भी लड़ा-भिड़ा करेंगे।

नास्तिक—हे मूढ! जगत् का कर्त्ता कोई नहीं, किन्तु जगत् स्वयंसिद्ध है।

आस्तिक—कर्त्ता के विना कोई कर्म और कर्म के विना कोई कार्य नहीं हो सकता। इसलिये ईश्वर जगत् का कर्त्ता है। जो जगत् स्वयं सिद्ध होता तो तुम्हारे खेत के गेहूं स्वयं पिसान, रोटी बन, तुम्हारे पास आकर, मुख में घुसकर, पेट में चला जाय तो विना ईश्वर के किये जगत् भी स्वयं बन जाय।

नास्तिक—ईश्वर विरक्त है वा मोही? जो विरक्त हो तो जगत् के प्रपञ्च में क्यों पड़ै? जो मोहित हो तो जगत् बनाने का सामर्थ्य ही नहीं होगा।

आस्तिक—परमेश्वर में वैराग्य वा मोह नहीं घट सकता। क्योंकि वह सर्वव्यापक, सर्वोत्तम होने से किसी से पृथक् वा किसी से राग नहीं कर सकता। ईश्वर से उत्तम वा उसको अप्राप्त कोई पदार्थ नहीं है, इसलिये किसी में मोह भी नहीं होता। वैराग्य और मोह का होना जीव में घटता है; ईश्वर में नहीं।

नास्तिक—जो जगत् का कर्त्ता, कर्मों के फलों का दाता ईश्वर को मानोगे, तो ईश्वर प्रपञ्ची होकर दुःखी हो जायगा।

आस्तिक—दुःख अज्ञान और अधर्माचरण से होता है। परमेश्वर में ये दोनों नहीं। इसलिए परमेश्वर प्रपञ्ची नहीं। प्रपञ्ची-अप्रपञ्ची जीव होते हैं इत्यादि विचार से ईश्वर की सिद्धि होती है। जो कोई इसको नहीं मानता, वह मूढमत है। हां! तुम अपने और अपने तीर्थंकरों के समान परमेश्वर को भी अपने अज्ञान से समझते हो, सो तुम्हारी अविद्या की लीला है। जो अविद्यादि दोषों से छूटना चाहो, तो वेदादि सत्य शास्त्रों का आश्रय लेओ। क्यों भ्रम में पड़े-पड़े ठोकरें खाते हो?

अब जैनी लोग जीव को अनादि, अनन्त मानते हैं सो ठीक है, परन्तु जो जो विरुद्ध है, उस-उस को दिखलाकर खण्डन किया जायेगा। छः द्रव्यों में एक जीवद्रव्य भी जैनी लोग मानते हैं अर्थात् जगत् में जीव और अजीव दो ही पदार्थ हैं, तीसरा नहीं। ऐसा उनके केवली आचार्य तीर्थङ्कर का वचन है।

मूल—   सामि अणाई अणन्ते, चउगई संसारघोरकान्तारे।

मोहाइ कम्मगुरुठिइ, विवागवसउ भमइ जीवो॥

—प्रकरणरत्नाकर भाग दूसरा (२)। षष्ठीशतक। सूत्र २॥

यह प्रकरणरत्नाकर नामक ग्रन्थ के सम्यक्त्वप्रकाश प्रकरण में गौतम और महावीर का संवाद है। इसका संक्षेप से उपयोगी यह अर्थ है कि यह संसार अनादि अनन्त है। न कभी इसकी उत्पत्ति हुई, न कभी विनाश होता है अर्थात् किसी का बनाया जगत् नहीं। सो ही आस्तिक-नास्तिक के संवाद में—हे मूढ! जगत् का कर्त्ता कोई नहीं; न कभी बना और न कभी नाश होगा।

समीक्षक—अब विचारना चाहिये कि जीव अल्प और अल्पज्ञ है। जगत् का कार्य और कारण जड़ हैं। जो तीसरा अनन्त शक्तियुक्त परमात्मा न हो तो जगत् का उत्पादन, धारण आदि कर्मों को न कर सके। अब पृथिव्यादि भूत और भूगोलों को भी जैनी लोग जीव के शरीर मानते हैं। क्योंकि काची मिट्टी सजीव है, क्षार मट्टी अजीव है, इसलिये उसमें वनस्पति नहीं उगती। वाह रे जैनी लोगो! और धन्य हैं तुम्हारे केवली तीर्थङ्कर जिनको पदार्थ विद्या में बहुत ही भ्रम था। जो पृथिव्यादि किसी एक जीव का शरीर हो तो जैसे बड़ी-बड़ी तिमिङ्गिल मच्छी जिधर चाहती, उधर जाती-आती है, वैसे पृथिवी आदि क्यों नहीं स्वेच्छित चाल चलते हैं? क्या मीठी ही मट्टी में वनस्पति उगता और क्षार मट्टी में नहीं उगता? हाँ! यह तो बात है कि मीठी मट्टी के वनस्पति आदि खारी मट्टी में, खारी मट्टी के वृक्ष आदि मीठी मट्टी में नहीं होते होंगे। किन्तु अपने-अपने ठिकाने सब होते हैं।

जो संयोग से उत्पन्न होता है वह अनादि और अनन्त कभी नहीं हो सकता। और उत्पत्ति तथा विनाश हुए विना कर्म नहीं रहता। जगत् में जितने पदार्थ उत्पन्न होते हैं वे सब ‘संयोगज’ उत्पत्ति-विनाशवाले देखे जाते हैं। पुनः जगत् उत्पन्न और विनाश वाला क्यों नहीं? इसलिये तुम्हारे तीर्थंकरों को सम्यग्बोध नहीं था। जो उनको सम्यग्ज्ञान होता तो ऐसी असम्भव बातें क्यों लिखते? जैसे तुम्हारे गुरु हैं, वैसे तुम शिष्य भी हो। तुम्हारी बातें सुनने वाले को पदार्थज्ञान कभी नहीं हो सकता।

भला! जो प्रत्यक्ष संयुक्त पदार्थ दीखता है उसकी उत्पत्ति और विनाश क्योंकर नहीं मानते? अर्थात् इनके आचार्य वा जैनियों को भूगोल खगोल विद्या भी नहीं आती थी और न अब यह विद्या इनमें है।

प्रश्न—जीव का आकार शरीर के सदृश होता है, जैसे घड़े में जल का आकार बनता है।

उत्तर—जो यह बात सत्य हो तो हाथी का जीव कीड़ी और कीड़ी का जीव हाथी में न समा सके। इसलिये यह बात झूठी है। यह भी एक मूर्खता की बात है! क्योंकि जीव एक सूक्ष्म पदार्थ है जो कि एक परमाणु में भी रह सकता है परन्तु उसकी शक्तियां शरीर में प्राण, बिजुली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त हो रहती हैं, उनसे सब शरीर का वर्त्तमान जानता है। अच्छे सङ्ग से अच्छा और बुरे सङ्ग से बुरा हो जाता है।

जिनदत्त सूरि ने इस प्रकार कहा—

जिनो देवो गुरुः सम्यक् तत्त्वज्ञानोपदेशकः।

ज्ञानदर्शनचारित्र्याण्यपवर्गस्य वर्तिनी॥१॥

स्याद् वादस्य प्रमाणे द्वे प्रत्यक्षमनुमापि च।

नित्यानित्यात्मकं सर्वं नवतत्त्वानि सप्त वा॥२॥

जीवाजीवौ पुण्यपापे चास्रवः संवरोऽपि च।

बन्धो निर्जरणं मुक्तिरेषां व्याख्याऽधुनोच्यते॥३॥

चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवस्तदन्यकः।

सत्कर्म पुद्गलाः पुण्यं पापं तस्य विपर्ययः॥४॥

आस्रवः स्रोतसो द्वारं संवृणोतीति संवरः।

प्रवेशः कर्मणां बन्धो निर्जरणं द्वियोजनम्॥ ५॥

अष्टकर्मक्षयान् मोक्षाथान्तरभावश्च कश्चन।

पुण्यस्य संवरे पापस्यास्रवे क्रियते पुनः॥ ६॥

सरजोहरणा भैक्षभुजो लुञ्चितमूर्द्धजाः।

श्वेताम्बराः क्षमाशीला निःसंगा जैनसाधवः॥७॥

लुञ्चिताः पिच्छिकाहस्ताः पाणिपात्रा दिगम्बराः।

ऊर्ध्वाशिनो गृहे दातुर्द्वितीया स्युर्जिनर्षयः॥८॥

भुङ्क्ते न केवली न स्त्री मोक्षमेति दिगम्बरः।

प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरैः सह॥९॥

—इति [आर्हतदर्शन]

अर्थ—जिन देव अर्थात् तीर्थङ्कर तत्त्व ज्ञान का उपदेशक, ज्ञान, दर्शन और चरित्र ये तीन रत्न अपवर्ग मोक्ष के मार्ग की प्राप्ति में स्याद्वाद के प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण, नित्य और अनित्यस्वरूप सब जगत् जैनमत में नव वा सात तत्त्व हैं॥१-२॥

एक जीव, दूसरा अजीव, तीसरा पुण्य, चौथा पाप, पांचवां आस्रव, छठा संवर, सातवां बन्ध, आठवां निर्जरण और नववां मुक्तितत्त्व मानते हैं। इन नव तत्त्वों की यह व्याख्या है॥३॥

जो चेतन है वह जीव, जो जड़ है वह अजीव, जो सत्कर्म के पुद्गल हैं वह [पुण्य] कर्म और पाप का पुद्गल पाप, कर्मों का योग आस्रव, बन्ध का छुड़ाना निर्जर और ज्ञानावर्णी आदि आठ कर्मों का क्षय होना मुक्ति कहाती है॥ ४-५॥

सभी अष्टकर्मों का पूर्ण क्षय हो जाना। मोक्ष कहाता है। कुछ लोग पुण्य का अन्तर्भाव संवर में करते हैं तथा पाप का आस्रव में। इस प्रकार उनके मत से सात तत्त्व रह जाते हैं॥ ६॥

अब जैनी के साधुओं के लक्षण—धूल झाड़ने की ‘चमरी’ सदा साथरखने वाले, भिक्षान्न भोजन करें, सिर आदि के बाल लूँच डालें, एक श्वेताम्बर शुक्लवस्त्र धारण करनेहारे, क्षमायुक्त, संगदोष से रहित, दूसरे लुञ्चित केश, पिच्छिका हाथ में रक्खें, दिगम्बर वस्त्र धारण न करें, पाणिपात्र हाथ ही पात्र, गृहस्थ के घर में भोजन के पश्चात् भोजन करें और ऋषिसंज्ञक भी साधु होते हैं॥७-८॥

दिगम्बर साधुओं का मत है कि कैवल्य ज्ञान से युक्त ‘केवली’ साधु भोजन पर आश्रित नहीं रहता और स्त्रियों को मोक्ष नहीं मिलता है, जबकि श्वेताम्बर इनके विपरीत मानते हैं कि स्त्रियों को भी मोक्ष मिलता है। दिगम्बरों का श्वेताम्बरों के साथ यही बड़ा मतान्तर है। दिगम्बर पहले के हैं और श्वेताम्बर पीछे हुए हैं॥ ९॥

जैनी—हमारे धर्म अधर्म भी द्रव्य हैं।

विवेकी—धर्म, अधर्म गुण हैं, द्रव्य कभी नहीं हो सकते। जो धर्माधर्म को द्रव्य मानते हो तो रूप, स्पर्श आदि को भी द्रव्य मानो।

प्रश्न—जैनीलोग जगत्, जीव, जीव के कर्म और बन्ध अनादि मानते हैं।

उत्तर—यहाँ भी जैनियों के तीर्थंकर भूल गये हैं, क्योंकि संयुक्त जगत् का कार्य कारण अनादिरूप और कार्य प्रवाहरूप से अनादि हो सकता है। जैसा तुम इस स्थूल जगत् को अनादि मानते हो, सो नहीं बन सकता, क्योंकि संयोगजन्य पदार्थ संयोग से पूर्व संयुक्तावस्था में नहीं होता, किन्तु वियोगावस्था में होता है। जो जीव को अनादिकाल बन्ध है, वह कभी न छूट सकेगा और जो अनादि का भी छूटना मानोगे तो जितने अनादि द्रव्य तुम्हारे मत में हैं, वे सब अनित्य हो जायेंगे। और मुक्ति सब कर्मों के छूटने से तुम मानते हो, तो सब कर्मों के छूटने रूप निमित्त से मुक्ति होने से नैमित्तिक हुई, जो निमित्त से होता है वह सदा नहीं रह सकता। और कर्म, कर्त्ता का नित्य सम्बन्ध होने से कर्म भी कभी न छूटेंगे। इसलिए तुम्हारे मत में जो-जो तीर्थंकर आदि मुक्ति में गये होंगे, वे सब फिर आवेंगे। पुनः तुम्हारे मत में मुक्ति अनित्य हो गई।

प्रश्न—जैसे मैल लगने के कारणों से वस्त्र में मैल लगता है और धोने से छूट जाता है, पुनः मैल लग जाता है, वैसे मिथ्यात्वादि हेतुओं से रागद्वेषादि के आश्रय से जीव को कर्मरूप मल लगता है।

उत्तर—जो मिथ्यात्वादि हेतुओं से जीव मलीन होता है, तो उन निमित्तों के पूर्व जीव को निर्मल मानना पड़ेगा और जो निर्मल को मल लगा, तो अनिर्मोक्षापत्ति तुम्हारे मत में आवेगी। क्योंकि मुक्ति में जीव को तुम निर्मल मानते हो और मल लगने के कारणों से मलों का लगना मानते हो, तो मुक्त जीव संसारी और संसारीजीव मुक्त होता है, ऐसा अवश्य ही मानना पड़ेगा।

प्रश्न—जीव अनादि काल से कर्मसहित है। कर्म छूटे पीछे, नहीं लगते।

उत्तर—जो अनादि से कर्म सहित है, उसका छूटना असम्भव है और विना छूटे मुक्ति कहाँ? इसलिए जीवों के कर्म और मुक्ति को प्रवाह रूप से अनादि मानो। अनादि अनन्तता से नहीं।

प्रश्न—जीव निर्मल कभी नहीं था।

उत्तर—जो कभी निर्मल नहीं था, तो कभी भी निर्मल नहीं हो सकेगा। जैसे वस्त्र का पीछे से लगा मैल धोने से छूट जाता है, पुनः मैल लग जाता है। परन्तु उसका श्वेतपन कभी नहीं छूट सकता।

प्रश्न—जीव पूर्वोपार्जित कर्मों ही से स्वयं शरीर धारण कर लेता है। ईश्वर का मानना व्यर्थ है।

उत्तर—जो केवल कर्म ही जन्म धारण करने में कारण हो, तो वह जीव बुरा जन्म जहाँ कि दुःख हो उसको धारण न करे, किन्तु सदा अच्छे-अच्छे जन्म धारण करे। जो कहो कर्म प्रतिबन्धक है, तो भी कर्म के जड़ होने से निरोधक वा प्रवर्त्तक नहीं हो सकते। इसलिए कर्म का फल प्रदाता परमेश्वर को मानना तुमको उचित है। जो कहो कि नशा के समान कर्म स्वयं परिणाम को प्राप्त होता है, तो विना किया हुआ कर्म परिणाम को प्राप्त क्यों नहीं होता? जो कहो कि जिसका जैसा स्वभाव है, वह वैसा ही होता है, तो विष विना खाये क्यों नहीं किसी को मारता? क्योंकि उसका परिणामी स्वभाव है। जो कहो संयोग के विना कर्म-परिणाम प्राप्त नहीं होता, तो जीव और कर्म को संयुक्त करनेवाला कोई तीसरा मानना पडे़गा। जो न मानोगे, तो जड़ का संयोग स्वतः नहीं हो सकता। इससे यह सिद्ध हुआ कि विना ईश्वर के कर्मफल व्यवस्था नहीं हो सकती।

प्रश्न—जो कर्म से मुक्त होता है, वह ईश्वर कहाता है।

उत्तर—जब अनादि काल से जीव के साथ कर्म लगे हैं तो मुक्त कैसे हो सकता है? और जिसको कर्म लगता है, वह ईश्वर ही नहीं। और कर्म, कर्त्ता का ‘समवाय’ अर्थात् नित्य सम्बन्ध होता है, यह कभी नहीं छूटता; इसलिये जैसा ९वें समुल्लास में लिख आये हैं, वैसा ही मानना ठीक है। जीव चाहै जैसा अपना ज्ञान और सामर्थ्य बढ़ावे, तो भी उसमें परिमितज्ञान और समीम सामर्थ्य रहेगा। ईश्वर के समान कभी नहीं हो सकता। हाँ जितना सामर्थ्य बढ़ना उचित है, उतना योग से बढ़ा सकता है।

प्रश्न—कर्म का बन्ध सादि है।

उत्तर—जो सादि है तो संयोग की आदि के पूर्व जीव निष्कर्म था। जब निष्कर्म को कर्म लग गया, तो जितने तुम्हारे निष्कर्म मुक्त जीव हैं, उनको भी कर्म लगके संसार में गिरेंगे।

प्रश्न—जो पशुओं को मार यज्ञ में होम करने से पशु स्वर्ग में जाय, तो यजमानादि स्वयं अग्नि में अपने शरीर का होम कर स्वर्ग में क्यों नहीं जावें?

उत्तर—यह बात वेदों की नहीं। अर्थात् पशु मारके होम करना आदि विधि वाममार्गियों ने बनाया है। परन्तु इसको कोई सज्जन नहीं मानता। परन्तु उन्हीं चार्वाक के मत की यह बात है। इसलिए जैनी लोग भी कुछ-कुछ चार्वाक के मत से भी मिलते हैं।

प्रश्न—जैसे तूम्बी में से मट्टी थोड़ी निकलने से वह ऊपर आती है, वैसे जीव के कर्मबन्धन कम-कम होने से जीव की ऊर्ध्वगति होकर सिद्धशिला में जाते हैं।

उत्तर—जैनियों ने ऊपर नीचे की बातें गमारूपन की समझ रक्खी हैं, जो विद्या होती, तो ऐसी निर्मूल बात क्योंकर मानते! देखो! जिसको हम ऊपर कहते हैं, उसी को उससे परे वाले लोग नीचा कहते हैं और जिसको हम नीचा कहते हैं, उसी को उससे नीचे रहने वाले ऊँचा कहते हैं। ऐसे ही अगल-बगल में रहने वालों की बात है। इसलिए सिद्धशिला और शिवपुर को मुक्ति स्थान मानना अविद्या की बात है।

प्रश्न—हमारे मत में साधुओं को रागद्वेष नहीं।

उत्तर—देखो! तुम्हारे मूल आवश्यक सूत्र में क्या लिखा है—

अरिहन्ते सुयरागो सारीसूवं भयारीसु —इत्यादि

अर्थात् अशुभ के छोड़ने में द्वेष, श्रेष्ठ और शुभ कामों में राग करना अच्छा। यह रागद्वेष किसी का नहीं छूटता। अर्थात् बुरे कामों पर द्वेष और अच्छे कामों में प्रीति करना बहुत अच्छी बात है।

अब प्रकरणरत्नाकर के पहिले भाग में जो भी देवचन्द्रजी कृत नयचक्र-सार है, उसी की बातें लिखते हैं। जिसको सब जैन लोग मानते हैं।

तत्र द्रव्यभेदा यथा जीवा अनन्ताः, तत्रैकस्मिन् द्रव्ये प्रतिप्रदेशे स्वरूप एककार्य्यकरणसामर्थ्यरूपा अनन्ता अविभागरूपपर्यायाः, एवं गुणा अप्यनन्ताः प्रतिगुणं प्रतिदेशं पर्यायाः, अप्यनन्ताः, प्रति वस्तूनि अनन्तास्ततोऽनन्तगुणसामर्थ्यपर्यायाः॥

—प्रकरणरत्नाकर भाग १

उत्तर—जीव अनन्त हैं, उनका ज्ञान किसी जीव का सामर्थ्य नहीं, केवल अटकरपच्चासी की बात है। अनन्त के स्थान में असंख्य कहता तो ठीक बात थी। क्योंकि हम जीव लोग जीवों की गणना नहीं कर सकते। अब एक-एक द्रव्य में अपने-अपने एक कार्यकरण सामर्थ्य को अविभाग पर्यायों से अनन्त मानना केवल अविद्या की बात है। क्योंकि जब एक परमाणु द्रव्य की सीमा है, तो उसमें अनन्त अविभाग रूप पर्याय कैसे रह सकते हैं। और एक-एक द्रव्य में अनन्त गुण और एक-एक गुण और प्रदेश में अविभागरूप अनन्त पर्याय का मानना केवल बालकों की बातें हैं। और एक-एक वस्तु में सामर्थ्य पर्याय भी अनन्त मानना केवल अविद्या की बात है। क्योंकि जिसके अधिकरण का अन्त है, उसमें अनन्त कभी नहीं रह सकता। जैसे जैनी कहते हैं कि छोटे से कन्द में अनन्त जीव हैं। जब कन्द का अन्त है तो जीवों का अन्त क्यों नहीं? जितनी विद्याशून्य मिथ्या बातें जैन के ग्रन्थों में है, उतनी अन्यत्र नहीं, और जहाँ कहीं हैं, उनका मूल जैनमार्ग है।

एक उनका नवकार मन्त्र है। उसका स्वरूप—

नमो अरिहन्ताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहूणं। एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो, मंगलाचरणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलम्॥

इस मन्त्र का अर्थ यह है—

(नमो अरिहन्ताणं) सब तीर्थंकरों को नमस्कार। (नमो सिद्धाणं) जैनमत के सब सिद्धों को नमस्कार। (नमो आयरियाणं) जैन मत के सब आचार्यों को नमस्कार। (नमो उवज्झायाणं) जैनमत के सब उपाध्यायों को नमस्कार। (नमो लोए सब्बसाहूणं) जितने जैनमत के साधु इस लोक में हैं, उन सबको नमस्कार है।

यद्यपि मन्त्र में जैनपद नहीं है तथापि जैनियों के अनेक ग्रन्थों में सिवाय जैनमत के अन्य किसी को नमस्कार भी न करना लिखा है। इसलिए यही अर्थ ठीक है।

इसका ऐसा माहात्म्य धरा है कि तन्त्र, पुराण और भाटों की कथा को भी मात कर दिया है। अर्थात् इस मन्त्र के जप से सब पाप नष्ट हो जाते हैं।

श्राद्धदिनकृत्य और आत्मनिन्दाभावना में इसका ऐसा फल लिखा है—

नमुक्कारं तउ पढे॥९॥

तउ कब्बं मन्ताणमंतो परमो इमुत्ति धेयाणधेयं परमं इमुत्ति।

तत्ताणतत्तं परमं पवित्तं संसार सत्ताण दुहाहयाणं॥१०॥

[ताणं अंनंतु नो अत्थि जीवाणं भवसायरे।

बुड्डूं ताणं इमं मुत्तुं नमुक्कारं सुपोययम्॥११॥

कब्बं। अणेगजम्मं तरसं चिआणं। दुहाणं सारीरिअमाणु-साणुसाणं। कत्तोय भव्वाणभविज्जनासो न जावपत्तो नवकार-मंतो॥१२॥]

सब मन्त्रों में यह पवित्र और परम मन्त्र है। ध्येयों के मध्य में परम ध्येय, तत्त्वों में परम तत्त्व, दुःख से पीड़ित संसारी जीवों का यह नवकार मन्त्र जैसी समुद्र के पार उतारने की नौका होती है उस नौका के समान है। संसार में डूबने वाले जीवों का एक यही रक्षक है। अनेक जन्मान्तर शरीर और मन सम्बन्धी दुःख भव्यजीवों के नहीं नष्ट होते, जब तक नवकार मन्त्र का ग्रहण न करे॥९-१२॥

अग्निप्रमुख आठ महाभय नहीं होते, भवसागर से तर जाते हैं। जैसे महारत्न वैडूर्य नामक मणि ग्रहण करने में आवे अथवा शत्रुभय में अमोघ शस्त्र ग्रहण करने में आवे, वैसे श्रुतकेवली का ग्रहण करे। और सब द्वादशाङ्गी का नवकार मन्त्र रहस्य है। [—श्रा॰दि॰कृ॰पृ॰ ३, सूत्र १३]

समीक्षक—यह गपोड़ा नहीं तो क्या है? जो संसार में पाषाणादि मूर्तिपूजा चली है, वह सब बौद्ध और जैनियों से चली है कि जिसने सब जगत् को भरमाया है।

देखलो! श्राद्धदिनकृत्य के पहिले पृष्ठ में लिखा है कि—

सन्ध्या समय के भोजन में जिनबिम्ब अर्थात् उनकी मूर्तियों का पूजना, द्वारपूजा में बड़े-बड़े बखेड़े और नियम, मन्दिर बनाने और पुराने मन्दिरों की मरम्मत करने से मुक्ति हो जाती है।

यह बीसवें पृष्ठ में और तेईसवें पृष्ठ में—

मन्दिर में इस प्रकार जावे, जाकर बैठे, बड़े भाव, प्रीति से पूजा करे। “नमो जिनेन्द्रेभ्यः” इत्यादि मन्त्रों से स्नानादि करावे, जल, चन्दनादि चढावे।

वैसे ही रत्नसारभाग के बारहवें पृष्ठ में मूर्त्तिपूजा का फल—पुजारी को राजा और प्रजा कोई न रोक सके।

तेरहवें पृष्ठ में—मूर्त्तिपूजा से रोग, पीड़ा, महादोष छूट जाय। पांच कौड़ी का फूल चढाया, उसने १८ देश का राज पाया, उसका नाम कुमारपाल हुआ था, इत्यादि।

समीक्षक—जो ये बातें सच्ची हों, तो जैनी लोगों में से राजा और प्रजा का दण्ड, रोग, पीड़ा क्यों भोगते? और महादोषों में क्यों फस रहे हैं। जो मूर्त्तिपूजा से भवसागर से छूट जाय तो ज्ञान, सम्यग्दर्शन और चारित्र की प्राप्ति क्यों करना? वाह! पांच कौड़ी के फूल चढाने से १८ देश का राज मिल जाये, तो सौ रुपये के फूल चढाने से क्या मिल जाय अर्थात् ब्रह्माण्ड में सब लोक-लोकान्तर का भी राजा होता है?

और गोतम का अंगूठा धोके पीये तो अमृत का फल पावे। यह बारहवें पृष्ठ में लिखा है।

तो जैनी लोग गोतम का अंगूठा धोकर पीके अमर क्यों नहीं हो जाते?

अब इनकी मुक्ति का थोड़ा-सा वर्णन करते हैं—

उसी रत्नसारभाग के २३वें पृष्ठ में [लिखा है] सिद्धशिला अर्थात् जिस पर सिद्धपुरुष रहते हैं, वह पैंतालीस लाख योजन लम्बी, पोली और आठ योजन चौड़ी है। एक करोड़, अस्सी लाख कोश लम्बी और पोली है और बत्तीस कोश चौड़ी है। वह सिद्ध शिला चौदहवें लोक की शिखा पर है।

समीक्षक—यह बात महावीर तीर्थङ्कर के मुुख की है और यहीं शिवपुर का भी वर्णन किया है। भला! यह बात किसी बुद्धिमान् के मन में आ सकती है? जो यही मुक्ति का स्थान हो तो बन्धन हो जाय। क्योंकि इसके ऊपर और चारों ओर आकाश ही होगा। फिर उस धाम से बाहर जाने में डरते होंगे। और इतनी लम्बी चौड़ी एक शिला जैनी के तीर्थङ्कर नाप और देख के कहने को आये होंगे। जो ऐसा ही हो तो अब क्यों नहीं कहने को आते? यह जैनी भी मुक्तिविषय में भ्रम से फसे हैं। यह सच है कि विना वेदों के यथार्थ अर्थबोध के मुक्ति के स्वरूप को कभी नहीं जान सकते।

उसी रत्नसार पृष्ठ २९ में आबू, गिरनार, शत्रुञ्जय, शम्मेत शिखर आदि तीर्थ करें, वे धन्य हैं। और कर्म का क्षय मुक्ति पर्यन्त माना है।

समीक्षक—यह भी बुद्धिमानों की समझ से सब प्रकार विरुद्ध है।

और देखो! बड़ा पक्षपात और अन्धाधुन्ध लेख विवेकसार के ५५ पृष्ठ में—गंगादि तीर्थ और काशी आदि क्षेत्रों के सेवने से कुछ भी परमार्थ सिद्ध नहीं होता।

समीक्षक—वाह रे जैनी लोगो! अपने जल, स्थल, पाषाणरूप मूर्त्ति आदि की सेवा से सब पाप क्षय और मुक्तिपर्यन्त फल मानो और दूसरे के जल, स्थल, पाषाणमूर्त्ति का खण्डन करो, यह अपनी मूर्खता, छल, झूठ, मतलबसिन्धु की बात नहीं तो क्या है? सच तो यह है कि तुम दोनों झूठे हो। जल, स्थल और पाषाणादि मूर्त्तियों से पापक्षय और मुक्ति कभी नहीं होती।

यह इनका श्लोक है, जल, चन्दनादि चढाने का—

जलचन्दनधूपनैरथदीपाक्षतकैर्नैवेद्यवस्त्रैः।

उपचारवरैर्वयं जिनेन्द्रान् रुचिरैरद्य यजामहे॥१॥

[विवेकसार पृ॰ ५२]

अर्थात् जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र, अतिरुचिकारक उत्तम उपचार से आनन्दपूर्वक जिनेन्द्रों अर्थात् तीर्थङ्कर की मूर्त्तियों की पूजा करते हैं॥१॥

समीक्षक—जितना यह पूजा का आडम्बर चला है, वह सब जैनों के घर से चला है। यह श्लोक विवेकसार के ५२ पृष्ठ में लिखा है।

पृष्ठ १३६ विवेकसार में दशार्ण राजा चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर के दर्शन करने को गया। वहाँ कुछ अभिमान किया तो वहां महावीर के दर्शन को १६,७७,७२,१६००० इतने इन्द्र के स्वरूप और १३,३७,०५,७२, ८०,००००००० इतनी इन्द्राणी आई थीं। देखकर राजा आश्चर्य [में] हो गया।

समीक्षक—अब विचारना चाहिये कि इन्द्र और इन्द्राणियों के खड़े रहने के लिए ऐसे-ऐसे कई भूगोल हों तो भी नहीं समा सकें। परन्तु इसमें ऐसा होगा कि कितने ही ग्रन्थकार के घर में बैठे होंगे। कितने ही उनके चेलों के घर में और कितने उनके कांधे पर बैठे होंगे और कितने ही पुकारते होंगे।

अब इनके पक्षपात की बातें देखो! अपने तीर्थंकरों का जिन्होंने गृहाश्रम किया, पुत्रोत्पत्ति की, संसार भोगा, पश्चात् साधु हुये, उनका मान करते हैं।

और विवेकसार १०३ पृष्ठ में श्री स्थूलभद्र स्वामी की कथा।

रत्नसारभाग, पृष्ठ ११० में—ब्रह्मा, विष्णु, महादेव स्त्री के गुलाम बताये हैं। रत्नसारभाग, पृष्ठ १११ में—कृष्णादि नव वासुदेव और प्रह्लादादि प्रतिवासुदेव नरक में गये।

रत्नसारभाग, पृष्ठ २०—ब्रह्मा, विष्णु, नारायण आदि सब कामी हैं, इसलिये इनको छोड़ने योग्य कहा है।

समीक्षक—और जिन ऋषभदेव आदि ने विवाह कर गृहाश्रम भोगा, वे त्यक्तव्य क्यों नहीं? जो ये त्यक्तव्य नहीं तो नारायण आदि अच्छे क्यों नहीं? ऋषभदेव संसारदुःख के तरने के लिये काष्ठ की नौका के समान तारने वाले और महादेव, विष्णु आदि पत्थर की नौका के समान डुबाने वाले हैं। भला! यह झूठ, पक्षपात की बात जैसे कूंजरी अपने खट्टे बेरों को मीठे बतलाती है, वैसी यह क्या नहीं है?

विवेकसार पृष्ठ २१—जिनमन्दिर में मोह नहीं आता। भवसागर के पार उतारने वाला है।

विवेकसार पृष्ठ ५१ और ५२—मूर्त्तिपूजा से मुक्ति होती है और जैनमन्दिर में जाने से सद्गुण आते हैं। जो जल चन्दनादि से जिनमूर्त्तियों की पूजा करे वह नरक से छूट स्वर्ग को जाय।

विवेकसार पृष्ठ ५५ में—जिनमन्दिर में ऋषभदेव आदि की मूर्त्तियों के पूजने से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध होता है।

विवेकसार पृष्ठ ६१ में—जिनमूर्त्तियों की पूजा से सब पाप छूट जाते हैं।

पृष्ठ ६७ में—जिनमूर्त्तियों की पूजा करें तो जगत् के क्लेश छूट जांय।

पृष्ठ ८१ में—श्री जिन की पूजा से सब पाप छूट जाते हैं।

इत्यादि बड़े-बड़े विचित्र, असम्भव बातों के गपोड़े उड़ाये हैं।

और यह भी विवेकसार के तीसरे पृष्ठ में लिखा है कि—

जो ‘जिन’ की मूर्त्ति स्थापन करते हैं, उन आचार्यों ने अपनी और अपने कुटुम्ब की आजीविका चलाई है, ऐसा खण्डन भी करते हैं।

और उसी ग्रन्थ के २२५ पृष्ठ में शिव, विष्णु आदि मूर्त्ति की पूजा करनी बहुत बुरी है अर्थात् नरक का साधन है।

समीक्षक—भला! इनके पत्थर और जैनियों के पत्थरों में कुछ भेद है? जो कहै कि हमारी मूर्त्तियां त्यागी और शान्त हैं। भला! हम इनसे पूछते हैं कि तुम्हारी मूर्त्ति तो लाखों रुपये के मन्दिरों में रहतीं और चन्दन, पुष्पादि चढता है, इससे तो अधिक त्यागी और तपस्वी पहाड़ है। और तुम्हारी मूर्त्तियां नंगी मनुष्यों के बीच में लज्जाकारक हैं। भला! वे तो ऐब ढांक रखते हैं। इससे तुम दोनों मूर्त्तिपूजा छोड़ दो। सब मतों की मूर्त्तिपूजा व्यर्थ है।

अब और देखिये लड़केपन की बातें। विवेकसार पृष्ठ १०१ में—एक नन्दीषेण ने दश पूर्व तक भोग किया। एक मुनि वेश्या के घर में रहा, भोग किया, फिर मुनि की दीक्षा ले, स्वर्ग को गया। और स्थूलभद्र मुनि भी ऐसा ही काम करके स्वर्ग को गया।

विवेकसार पृष्ठ २२८ में—एक पुरुष ने कोशा वेश्या का भोग किया, पश्चात् त्यागी होकर स्वर्ग को गया।

विवेकसार पृष्ठ १०१ में—अर्णकमुनि चरित्र से चूक, कई वर्ष दत्त सेठ के घर में भोग किया, पश्चात् देवलोक को गया।

विवेकसार पृष्ठ १०६ में—श्रीकृष्ण तीसरे नरक में गये।

विवेकसार पृष्ठ १४५ में—धन्वन्तरि वैद्य नरक को गया।

और देखो विचित्र लीला! विवेकसार पृष्ठ १०६ में—श्री कृष्ण के पुत्र ढण्ढण मुनि को स्यालिया उठा लेगया और खा गया, पश्चात् देवता हुआ।

जैनियों के सर्व तीर्थङ्कर और उनके गण तथा उनके शिष्य और जैनमतस्थ मनुष्य क्रोडान् क्रोड कोई शिवपुर, कोई सिद्धशिला, कोई देवलोक और कोई स्वर्ग में गये, परन्तु श्रीकृष्णादि और अन्य भी अनेक नरक को गये और जायंगे।

समीक्षक—भला! अब विचारिये कि ये बातें! क्या जैनियों के ही हाथ में स्वर्ग-नरक की कुंजी है? इनको ऐसा महाझूठ लिखते बोलते लज्जा भी नहीं आई कि श्रीकृष्णादि महात्मा नरक में गये और इनके रण्डीबाज भी स्वर्ग और मुक्ति को चले गये। हम जानते हैं कि जितने झूठे, महामूर्ख, हठी और पक्षपाती जैनी लोगों में थे और हैं, वैसे अन्य लोगों में नहीं। भला! इन जैनियों के ऋषभदेवादि तीर्थङ्कर नरक में गये, महापापी थे और सब उनके चेले भी वैसे थे और हैं, ऐसा कोई लिखे वा कहे तो इनको कितना बुरा लगेगा। वैसा ही दूसरे का भी समझ लेना चाहिये। क्योंकि इन महाहठी, दुराग्रही, मूर्खों के संग से सिवाय बुराइयों के, अन्य कुछ भी पल्ले न पड़ेगा। हां! जो जैनियों में उत्तमजनर्ि हैं, उनसे सत्संगादि करने में कुछ भी दोष नहीं।

और भी इनकी धर्म से उल्टी बातें सुनो। विवेकसार पृष्ठ ७ में—जो शुद्ध जिनवचन यथास्थितक है, उसी को सुगुरु अर्थात् अन्य को कुगुरु मानते हैं।

विवेकसार पृष्ठ ४८ में—योगी, जंगम, काजी, मुल्ला कितने ही अज्ञान से तप कष्ट करके कुगति को पाते हैं। रत्नसार भा॰ १ पृष्ठ १७०-१७१ में लिखा है कि नव वासुदेव अर्थात् त्रिपृष्ठ वासुदेव, द्विपृष्ठ वासुदेव, स्वयंभू वासुदेव, पुरुषोत्तम वासुदेव, सिंहपुरुष वासुदेव, पुरुषपुण्डरीक वासुदेव, दत्त वासुदेव, लक्ष्मण वासुदेव और ९ श्रीकृष्ण वासुदेव ये सब ग्यारहवें, बारहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें, अठारहवें, बीसवें और बाईसवें तीर्थकरों के समय नरक को गये। और नव प्रतिवासुदेव अर्थात् अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव, तारक प्रतिवासुदेव, मोदक प्रतिवासुदेव, मधु प्रतिवासुदेव, निशुम्भ प्रतिवासुदेव, बली प्रतिवासुदेव, प्रह्लाद प्रतिवासुदेव, रावण प्रतिवासुदेव और जरासन्ध प्रतिवासुदेव ये भी सब नरक को गये।

विवेकसार पृष्ठ १५४ में—अदेवा गुरवो धर्मेषु या देवगुरुधर्मधीः।

यह श्री हेमचन्द्र सूरि ने लिखा है। अर्थात् ब्रह्मादि अदेव, जैन से भिन्न मार्ग के उपदेशक अगुरु और जैनधर्म से भिन्न सब अधर्म, इनमें देवगुरु, धर्मबुद्धि करना मिथ्यादृष्टि, चौथे गुण ठाणे वाले, असंयति, अविरति, रजोहरणादि साधुवेश रहित जीवों को सम्यग् दृष्टि कहते हैं तो रजोहरणादि भगवान् का वेश तथा शुद्ध धर्म, जैनमार्ग का उपदेशक सम्यग् दृष्टि क्यों कहाता है?

विवेकसार पृष्ठ १५६ में—लिङ्गधारी अर्थात् वेशधारी मात्र का भी सत्कार श्रावक लोग करें। चाहे वे शुद्ध चरित्र हों वा अशुद्ध चरित्र।

विवेकसार पृष्ठ १६८ में—जैन साधु चरित्रहीन भी हो तो भी अन्य साधुओं से श्रेष्ठ ही है।

विवेकसार पृष्ठ १७१ में—श्रावक लोग जैन के साधुओं को धर्मरहित भ्रष्ट देखकर भी निस्नेह न होने चाहियें।

विवेकसार पृष्ठ १९४ में—जिन मत में स्थित होना सार, शेष सब संसार के मत असार।

विवेकसार पृष्ठ १९६ में—अन्य मत की अभिलाषा जैनी को न करनी चाहिए। उनकी बात सुनने में भी दोष है।

विवेकसार पृष्ठ २१६ में—एक चोर ने पांच मूठी लोच के चारित्र ग्रहण किया। बड़ा कष्ट और पश्चात्ताप किया। छठे महीने में केवलज्ञान पाके सिद्ध हो गया।

विवेकसार पृष्ठ २२१ में—अन्य मत वाले को खाने-पीने की चीज़ भी न देनी चाहिये।

विवेकसार पृष्ठ २२१ में—१. ‘परमती की स्तुति’ अर्थात् उनका गुण कीर्तन, २. ‘नमस्कार’ उनको वन्दना, ३. ‘आलपन’ अर्थात् उनसे थोड़ा बोलना, ४. ‘संलपन’ अर्थात् उनसे वार-वार बोलना, ५. ‘अन्नादिदान’ अर्थात् उनको खाने-पीने की चीज देना, ६. ‘गन्धपुष्पादिदान’ अर्थात् परमती की प्रतिमा के पूजने के लिये गन्ध, पुष्प देना। ये छः यतना अर्थात् इन छः कर्मों को जैनी लोगों को नहीं करना चाहिये।

ऐसे इनके सब ग्रन्थों में लिखा है।

समीक्षक—अब बुद्धिमानों को यहां विचार करना चाहिये कि जैसे जैनमती दूसरे मत के विरोधी, निन्दक, हानिकारक हैं, वैसे दूसरे मत के नहीं हैं। जहां देखो, वहां बहुधा अपने मत की प्रशंसा स्तुति और दूसरे मतवालों की निन्दाओं से इनके ग्रन्थों का खजाना भरा है। सच है जो ऐसा जाल न रचते, तो ऐसे विद्याविरुद्ध अज्ञानियों के मत में फसकर बन्धन में फसे क्योंकर रहते। इसीलिये जैनीलोग कुत्ते आदि को तो लड्डू लप्सी खिलावें, परन्तु दूसरे मत के मनुष्यों में प्रीति करने वाला करोड़ों में एक आध है।

अब देखिये! इनका साधु कैसा ही भ्रष्ट-नष्ट हो तो भी उत्तम, और दूसरा चाहे कितना भी श्रेष्ठ हो, तो कुछ नहीं समझते। यद्यपि विवेकसार पृष्ठ २१७ में—अनुकम्पा अर्थात् दुःखियों का निष्कारण दुःख दूर करने की इच्छा अर्थात् कुछ प्रयोजन न विचारना कि मुझको स्वर्ग, देवलोक वा मुक्ति होगी, ऐसे ही इच्छा करनी। यह कहने मात्र है वा कोई कभी जैनमत में आग्रह न होगा वा किसी के दबाव से करता होगा, वह जानो नहीं करने के समान है। क्योंकि—

‘प्रयोजनमननुदिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्त्तते’ इति न्यायात्।

अर्थात् प्रयोजन के विना किसी की भी प्रवृत्ति नहीं होती है।

विवेकसार पृष्ठ १०८ में लिखा है कि मथुरा के राजा के नमुची नामक दीवान को जैनमतियों ने अपना विरोधी समझकर मार डाला और आलोयणा करके शुद्ध हो गये।

यह भी दया और क्षमा का नाशक कर्म है। जब अन्य मतवालों पर प्राण लेने पर्यन्त वैर बुद्धि रखते हैं तो इनको दयालु के स्थान पर हिंसक कहना ही सार्थक है।

और भी देखो इनकी मिथ्या बातें! जिन तीर्थंकरों को जैन लोग सम्यग्ज्ञानी और परमेश्वर मानते हैं, उनकी मिथ्या बातों के ये नमूने हैं—रत्नसार भाग १ के पृष्ठ १४५—इस ग्रन्थ को जैन लोग मानते हैं, और यह ईसवी सन् १८७९ अप्रैल तारीख २८ में बनारस जैनप्रभाकर प्रेस में नानकचन्द जती ने छपवा कर प्रसिद्ध किया है, उसके पूर्वोक्त पृष्ठ [एवं पृष्ठ १४६-१४७] में काल की इस प्रकार व्याख्या की है—

‘समय’ का नाम सूक्ष्मकाल है। असंख्यात समयों को ‘आवलि’ कहते हैं। एक क्रोड़, सड़सठ लाख, सतत्तर सहस्र, दो सौ सोलह आवलियों का एक ‘मुहूर्त्त’ होता है। तीस मुर्हूर्त्तों का एक ‘दिवस’, वैसे पन्द्रह दिवसों का एक ‘पक्ष’, वैसे दो पक्षों का एक ‘महीना’, वैसे बारह महीनों का एक ‘वर्ष’ होता है। सत्तर लाख क्रोड़ और छप्पन सहस्र करोड़ वर्षों का एक ‘पूर्व’, असंख्यात पूर्वों का एक ‘पल्योपम’ काल।

असंख्यात इसको कहते हैं कि—एक चार कोश का चौरस और गहिरा भी चार कोश के खाढे में जुगुलिये मनुष्य के शरीर के निम्नलिखित बालों के टुकड़ों से भरना। अर्थात् वर्त्तमान मनुष्य के शरीर के बालों से जुगुलिये मनुष्य के बाल चार हजार छानवें भाग सूक्ष्म हैं। अर्थात् जुगुलिये मनुष्यों के चार सहस्र छानवें बालों को इकट्ठे करने से मनुष्यों का एक बाल होता है। ऐसे जुगुलिये मनुष्यों के एक बाल का एक अङ्गुल टुकड़ा सात वार करना, फिर उसके आठ-आठ टुकड़े करना, तो २२९३७६ अर्थात् दो लाख उनत्तीस सहस्र तीन सौ छियत्तर एक बाल के इतने टुकड़े होते हैं। ऐसे टुकड़ों से वह कुआ भरना, सौ वर्ष के अन्तरे एक एक टुकड़ा निकालना, जब सब टुकड़े निकल जावें और कुआ खाली हो जाय, वह भी संख्यात काल है। और एक-एक टुकड़े का असंख्यात टुकड़ा करना, टुकड़ा करके, उसी कुए को ऐसा ठस भरना कि ऊपर से चक्रवर्त्ती राजा की सेना चली जाय, तो भी दबे नहीं। उन टुकड़ों में से एक सौ वर्ष में एक टुकड़ा निकालना, जब वह कुआ खाली हो जाय, तब उसका नाम असंख्यात। असंख्यात पूर्व पड़ें, तब एक ‘पल्योपम’। वह पल्योपम कुआ के दृष्टान्त से जानना।

जब दशकरोड़ान् करोड़ पल्योपम काल बीत जायें, तब एक ‘सागरोपम’ होता है। जब दशकरोड़ान् करोड़ सागरोपम काल व्यतीत हो जायें, तब एक ‘उत्सर्प्पिणी’ काल हो। जब दश करोड़ान् करोड़ उत्सर्पिणीकाल व्यतीत हो जायें तब एक अवसर्पिणी काल हो। एक उत्सर्प्पिणी और अवसर्प्पिणी काल व्यतीत हो जाय तब एक ‘कालचक्र’ हो। अनन्त कालचक्र व्यतीत होंवे तब एक ‘पुद्गलपरावर्त्त’ होता है।

अब अनन्तकाल किसको कहते हैं कि जो सिद्धान्त पुस्तकों में नव दृष्टान्तों से काल की संख्या कही है, उससे उपरान्त ‘अनन्तकाल’ कहाता है। वैसे अनन्त पुद्गलपरावर्त्त काल जीव को भ्रमते हुए बीते हैं।

सुनो भाई! गणितविद्यावाले लोगो! जैनियों के ग्रन्थों की कालसंख्या कर सकोगे वा नहीं? और तुम इसको सच भी मान सकोगे वा नहीं? देखो! इन तीर्थंकरों ने ऐसी गणितविद्या पढ़ी थी। ऐसे-ऐसे तो इनके मत में गुरु और शिष्य हैं, जिनकी अविद्या का कुछ पारावार नहीं। और भी इनका अन्धेर सुनो—

रत्नसार भाग १ पृष्ठ १३४ से लेके जो कुछ ‘बूट्टाबोल’ अर्थात् जैनियों के सिद्धान्तग्रन्थ जो कि उनके ‘तीर्थंकर’ अर्थात् ऋषभदेव से लेके महावीर पर्य्यन्त चौबीस हुए हैं, उनके वचनों का सारसंग्रह है, ऐसा रत्नसारभाग पृ. १४८ में लिखा है कि—पृथिवीकाय के जीव मट्टी पाषाणादि पृथिवी के भेद जानना। उनमें रहनेवाले जीवों के शरीर का परिमाण एक अङ्गुल का असंख्यातवाँ भाग समझना, अर्थात् अतीव सूक्ष्म होते हैं। उनका आयुमान अर्थात् वे अधिक से अधिक २२ सहस्र वर्ष पर्यन्त जीते हैं।

रत्नसार पृष्ठ १४९—वनस्पति के एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं, वे साधारण वनस्पति कहाती हैं। जो कि कन्दमूलप्रमुख और अनन्तकायप्रमुख होते हैं, उनको साधारण वनस्पति के जीव कहने चाहिएँ। उनका आयुमान अन्तर्मुहूर्त्त होता है परन्तु यहाँ पूर्वोक्त इनका मुहूर्त्त समझना चाहिए।

और एक शरीर में जो ‘एकेन्द्रिय’ अर्थात् स्पर्श इन्द्रिय इनमें है और उसमें एक जीव रहता है, उसको प्रत्येक-वनस्पति कहते हैं। उसका देहमान एक सहस्र योजन अर्थात् पुराणियों का योजन ४ कोश का परन्तु जैनियों का योजन १०००० दश सहस्र कोशों का होता है, ऐसे चार सहस्र कोश का शरीर होता है, उसका आयुमान अधिक से अधिक दश सहस्र वर्ष का होता है।

अब दो इन्द्रियवाले जीव अर्थात् एक उनका शरीर और एकमुख जो शङ्ख, कौड़ी और जूं आदि होते हैं, उनका देहमान अधिक से अधिक अड़तालीस कोश का स्थूल शरीर होता है और उनका आयुमान अधिक से अधिक बारह वर्ष का होता है।

यहाँ बहुत ही भूल गया क्योंकि इतने बड़े शरीर का आयु अधिक लिखता, और अड़तालीस कोश की स्थूल जूं जैनियों के शरीर में पड़ती होगी और उन्हींने देखी भी होगी, और का भाग्य ऐसा कहाँ, जो इतनी बड़ी जूं को देखे!!!

रत्नसार भाग १ पृष्ठ १५०—और देखो इनका अन्धाधुन्ध! बीछू, बगाई, कसारी और मक्खी एक योजन के शरीरवाले होते हैं। इनका आयुमान अधिक से अधिक छः महीने का है।

देखो भाई! चार-चार कोश का बीछू अन्य किसी ने देखा न होगा। जो आठ मील तक का शरीरवाला बीछू और मक्खी भी जैनियों के मत में होती है। ऐसे बीछू और मक्खी उन्हींके घर में रहते होंगे और उन्हींने देखे होंगे, अन्य किसी ने संसार में नहीं देखे होंगे। कभी ऐसे बीछू किसी जैनी को काटें तो उसका क्या होता होगा?

जलचर मच्छी आदि के शरीर का मान एक सहस्र योजन अर्थात् १०००० कोश के योजन के हिसाब से १,००,००,००० एक करोड़ कोश का शरीर होता है और एक करोड़ पूर्व वर्षों का इनका आयु होता है।

वैसा स्थूल जलचर सिवाय जैनियों के अन्य किसी ने न देखा होगा।

और चतुष्पात् हाथी आदि का देहमान दो कोश से नव कोशपर्य्यन्त और आयुमान चौरासी सहस्र वर्षों का इत्यादि।

ऐसे बड़े-बड़े शरीरवाले जीव भी जैनी लोगों ने देखे होंगे और मानते हैं। और कोई बुद्धिमान् नहीं मान सकता।

रत्नसार भाग १ पृष्ठ १५१—जलचर गर्भज जीवों का देहमान उत्कृष्ट एक सहस्र योजन अर्थात् १००००००० एक क्रोड़ कोशों का और आयुमान एक क्रोड़ पूर्व वर्षों का होता है।

इतने बड़े शरीर और आयुवाले जीवों को भी इन्हीं के आचार्यों ने स्वप्न में देखे होंगे! क्या यह महा झूठ बात नहीं कि जिसका कदापि सम्भव न हो सके?

अब सुनिये भूमि के परिमाण को रत्नसार भाग १ पृष्ठ १५२—इस तिरछे लोक में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं। इन असंख्यात का प्रमाण अर्थात् अढ़ाई सागरोपम काल में जितना समय हो, उतने द्वीप तथा समुद्र जानना। अब इस पृथिवी में एक ‘जम्बूद्वीप’ प्रथम सब द्वीपों के बीच में है। इसका प्रमाण एक लाख योजन अर्थात् चार लाख कोश का है और उसके चारों ओर ‘लवण’ समुद्र है, उसका प्रमाण दो लाख योजन का है अर्थात् आठ लाख कोश का। इस जम्बूद्वीप के चारों ओर जो ‘धातकीखण्ड’ नाम द्वीप है, उसका चार लाख योजन अर्थात् सोलह लाख कोश का प्रमाण है और उसके पीछे ‘कालोदधि’ समुद्र है, उसका आठ लाख [योजन] अर्थात् बत्तीस लाख कोश का प्रमाण है। उसके पीछे ‘पुष्करावर्त्त’ द्वीप है, उसका प्रमाण सोलह लाख कोश का है। उस द्वीप के भीतर की कोरें हैं। उस द्वीप के आधे में मनुष्य बसते हैं और उसके उपरान्त असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, उनमें तिर्यग् योनि के जीव रहते हैं।

रत्नसार भाग १ पृष्ठ १५३—जम्बूद्वीप में एक हिमवन्त, एक ऐरण्यवन्त, एक हरिवर्ष, एक रम्यक्, एक देवकुरु, एक उत्तरकुरु ये छः क्षेत्र हैं।

समीक्षक—सुनो भाई! भूगोलविद्या के जाननेवाले लोगो! भूगोल के परिमाण करने में तुम भूले वा जैन? जो जैन भूल गये हों तो तुम उनको समझाओ और जो तुम भूले हो, तो उनसे समझ लेओ। थोड़ा सा विचार कर देखो, तो यही निश्चय होता है कि जैनियों के आचार्य्य और शिष्यों ने भूगोल, खगोल और गणितविद्या कुछ भी नहीं पढ़ी थी। जो पढ़े होते, तो महा असम्भव गपोड़ा क्यों मारते?

भला ऐसे अविद्वान् पुरुष जगत् को अकर्तृक और ईश्वर को न मानें इसमें क्या आश्चर्य है? इसलिये जैनी लोग अपने पुस्तकों को किसी विद्वान्, अन्य मतस्थों को नहीं देते। क्योंकि जिनको ये लोग प्रामाणिक तीर्थङ्करों के बनाये हुए सिद्धान्तग्रन्थ मानते हैं, उनमें इसी प्रकार की अविद्यायुक्त बातें भरी पड़ी हैं, इसलिये नहीं देखने देते। जो देवें तो पोल खुल जाय। इनके विना जो कोई मनुष्य कुछ भी बुद्धि रखता होगा, वह कदापि इस गपोड़ाध्याय को सत्य नहीं मान सकेगा।

यह सब प्रपञ्च जैनियों ने जगत् को अनादि मानने के लिये खड़ा किया है परन्तु यह निरा झूठ है। हां, जगत् का कारण अनादि है, क्योंकि वह परमाणु आदितत्त्वस्वरूप अकर्तृक हैं, परन्तु उनमें नियमपूर्वक बनने वा बिगड़ने का सामर्थ्य कुछ भी नहीं। क्योंकि जब एक परमाणु द्रव्य किसी का नाम है और स्वभाव से पृथक्-पृथक्-रूप और जड़ हैं, वे अपने आप यथायोग्य नहीं बन सकते। इसलिये इनका बनानेवाला चेतन अवश्य है और वह बनानेवाला ज्ञानस्वरूप है। देखो! पृथिवी सूर्यादि सब लोकों को नियम में रखना अनन्त, अनादि, चेतन परमात्मा का काम है। जिसमें संयोगरचना विशेष दीखता है, वह स्थूल जगत् अनादि कभी नहीं हो सकता। जो कार्य जगत् को नित्य मानोगे, तो उसका कारण कोई न होगा, किन्तु वही कार्य कारणरूप हो जायगा। जो ऐसा कहोगे तो अपना कार्य्य और कारण आप ही होने से अन्योऽन्याश्रय और ‘आत्माश्रय’ दोष आवेगा, जैसे अपने कन्धे पर आप चढ़ना और अपना पिता पुत्र आप नहीं हो सकता, इसलिये जगत् का कर्त्ता अवश्य ही मानना है।

प्रश्न—जो ईश्वर को जगत् का कर्त्ता मानते हो, तो ईश्वर का कर्त्ता कौन है?

उत्तर—कर्त्ता का कर्त्ता और कारण का कारण कोई भी नहीं हो सकता। क्योंकि प्रथम कर्त्ता और कारण के होने से ही कार्य्य होता है। जिसमें संयोग-वियोग नहीं होता, जो प्रथम संयोग-वियोग का कारण है, उसका कर्त्ता वा कारण किसी प्रकार नहीं हो सकता। इसकी विशेष व्याख्या आठवें समुल्लास, सृष्टि की व्याख्या में लिखी है, देख लेना।

अब ‘जीव’ और ‘अजीव’ इन दो पदार्थों के विषय में जैनियों का निश्चय ऐसा है—

चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवस्तदन्यकः।

सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं पापं तस्य विपर्ययः॥

यह ‘जिनदत्तसूरि’ का वचन है। और यही प्रकरणरत्नाकर भाग पहिले में नयचक्रसार में भी लिखा है कि चेतनालक्षण ‘जीव’ और चेतनारहित ‘अजीव’ अर्थात् जड़ है। सत्कर्मरूप पुद्गल पुण्य और पापकर्मरूप पुद्गल पाप कराते हैं।

समीक्षक—जीव और जड़ का लक्षण तो ठीक है, परन्तु जो जड़रूप पुद्गल हैं, वे पापपुण्ययुक्त कभी नहीं हो सकते। क्योंकि पाप-पुण्य करने का स्वभाव चेतन में होता है। देखो! ये जितने जड़ पदार्थ हैं, वे सब पाप-पुण्य से रहित हैं। जो जीवों को अनादि मानते हैं, यह तो ठीक है। परन्तु उसी अल्प और अल्पज्ञ जीव को मुक्ति दशा में सर्वज्ञ मानना झूठ है। क्योंकि जो अल्प और अल्पज्ञ है, उसका सामर्थ्य भी सर्वदा ससीम रहेगा।

प्रश्न—जैसे धान्य का छिलका उतारने वा अग्नि के संयोग होने से बीज पुनः नहीं ऊगता, इसी प्रकार मुक्ति में गया हुआ जीव पुनः जन्ममरणरूप संसार में नहीं आता।

उत्तर—जीव और कर्म का सम्बन्ध छिलके और बीज के समान नहीं है, किन्तु इनका समवायसम्बन्ध है, इससे अनादि काल से जीव और उसमें कर्म और कर्तृत्वशक्ति का सम्बन्ध है। जो उसमें कर्म करने की शक्ति का भी अभाव मानोगे, तो सब जीव पाषाणवत् हो जायेंगे और मुक्ति को भोगने का भी सामर्थ्य नहीं रहेगा। जैसे अनादि काल का कर्मबन्धन छूटकर जीव मुक्त होता है, तो तुम्हारी नित्य मुक्ति से भी छूटके बन्धन में पड़ेगा। साधनों से सिद्ध हुआ पदार्थ नित्य कभी नहीं हो सकता और जो साधन-सिद्ध के विना मुक्ति मानोगे, तो कर्मों के विना ही बन्ध प्राप्त हो सकेगा।

अब सम्यक्त्व दर्शनादि के लक्षण ‘आर्हत प्रवचन-संग्रह’ ‘परमागमसार’ में कथित हैं। सम्यक् श्रद्धान=सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन मोक्ष मार्ग के साधन हैं। इनकी व्याख्या योगदेव ने की है। जिस रूप से जीवादि द्रव्य अवस्थित हैं, उसी रूप से जिनप्रतिपादित ग्रन्थानुसार विपरीत अभिनिवेशादिरहित जो ‘श्रद्धा’ अर्थात् जिनमत में प्रीति है, सो ‘सम्यक् श्रद्धान’ वा ‘सम्यग् दर्शन’ है।

रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते। [आर्हतदर्शन]

जिनोक्त तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा करनी चाहिए, अर्थात् अन्यत्र कहीं नहीं।

यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तरेण वा।

योऽवबोधस्तमत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः॥ [आर्हतदर्शन]

जिस प्रकार के जीवादि तत्त्व हैं, उनका संक्षेप वा विस्तार से जो बोध होता है, उसीको ‘सम्यग् ज्ञान’ बुद्धिमान् कहते हैं।

सर्वथाऽनवद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते।

कीर्त्तितं तदहिंसादिव्रतभेदेन पञ्चधा॥

अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्य्यापरिग्रहाः॥     [आर्हतदर्शन]

सब प्रकार से निन्दनीय अन्य मतसम्बन्ध का त्याग ‘चारित्र’ कहाता है और अहिंसादि भेद से पाँच प्रकार का व्रत है। एक (अहिंसा) अर्थात् किसी प्राणिमात्र को न मारना। दूसरा (सूनृता) प्रिय वाणी बोलना। तीसरा (अस्तेय) अर्थात् चोरी न करना। चौथा (ब्रह्मचर्य्य) अर्थात् उपस्थ इन्द्रिय का संयमन। और पाँचवाँ (अपरिग्रह) सब वस्तुओं का त्याग करना।

इनमें बहुत-सी अच्छी बातें हैं, अर्थात् अहिंसा और चोरी आदि निन्दनीय कर्मों का त्याग अच्छी बात है परन्तु ये सब ‘अन्य मत की निन्दा करनी’ आदि दोषों से अच्छी बातें भी दोषयुक्त हो गई हैं। जैसे प्रथम सूत्र में लिखी है—‘अन्य हरि हरादि का धर्म संसार से उद्धार करनेवाला नहीं।’ क्या यह छोटी निन्दा है कि जिनके ग्रन्थ देखने से ही पूर्ण विद्या और धार्मिकता पाई जाती है, उसको बुरा कहना? और अपने महा असम्भव जैसा कि पूर्व लिख आये, वैसी बातों के कहनेवाले अपने तीर्थंकरों की स्तुति करना, केवल हठ और मूर्खता की बातें हैं। ऐसे कथन करनेवाले मनुष्यों को भ्रान्त और बालबुद्धि न कहा जाय तो क्या कहें? इसमें यही विदित होता है कि इनके आचार्य बड़े स्वार्थी थे, पूर्ण विद्वान् नहीं। क्योंकि जो सबकी निन्दा न करते तो ऐसी झूठी बातों में कोई न फसता, न उनका प्रयोजन सिद्ध होता। देखो! यह तो सिद्ध होता है कि जैनियों का मत डुबानेवाला और वेदमत सबका उद्धार करनेहारा है।

प्रकरणरत्नाकर और जैनियों के सिद्धान्तग्रन्थों से किया संग्रह

प्रकरणरत्नाकर भाग दूसरा, पत्र ६२७ में लिखा है कि—

चाहे कुछ भी न कर सके, एक अर्हन्तदेव को माने अर्थात् जैनमत ही को माने, क्योंकि जैनियों के वीतराग का कहा धर्म, वही धर्म तारनेहारा है, दूसरा कोई नहीं। जो जैनी के देव, वे ही देव हैं, अन्य हरिहरादि कुदेव हैं।

समीक्षक—हरिहरादि देव ‘सुदेव’ और इनके ऋषभदेवादि सब ‘कुदेव’ दूसरे लोग कहैं, तो क्या वैसा ही उनको बुरा न लगेगा।

प्रकरणरत्नाकर पृष्ठ ६२० में—

जिनमत के सिवाय न कोई तरा, न कोई सुनने में आया और न आवेगा।

[समीक्षक—] वाह! वाह!! क्या कहना!!!

प्रकरणरत्नाकर, दूसरा भाग, षष्ठीशतक मूलसूत्र—

[मूल]— जइ न कुणसि तव चरणं,

न पढसि न गुणेसि देसि नो दाणं।

ता इत्तियं न सक्किसि जं देवो इक्क अरिहन्तो॥२॥

संक्षेप से अर्थ—हे मनुष्य! जो तू तप चारित्र नहीं कर सकता, न सूत्र पढ़ सकता, न प्रकरणादि का विचार कर सकता और सुपात्रादि को दान नहीं दे सकता तो भी जो तू देवता एक अरिहन्त ही हमारे आराधना के योग्य सुगुरु, सुधर्म जैन-मत में श्रद्धा रखना सर्वोत्तम बात और उद्धार का कारण है॥२॥

समीक्षक—भला, जो जैनी कुछ चारित्र न कर सके, न पढ़ सके, न दान देने का सामर्थ्य हो, तो भी ‘जैन मत सच्चा है’, क्या इतना कहने ही से वह उत्तम हो जाए? और अन्य मत वाले श्रेष्ठ भी अश्रेष्ठ हो जायें?॥ २॥

मूल—   रे जीव भव दुहाइं, इक्कं चिय हरइ जिणमयं धम्मं।

इयराणं पणमन्तो, सुह कय्ये मूढ मुसिओसि॥३॥

—प्रकरणरत्नाकर भाग २। षष्टीशतक ६१। सूत्राङ्क ३॥

संक्षेप से अर्थ—रे जीव! एक ही जिनमत श्रीवीतरागभाषित धर्म संसार-सम्बन्धी जन्म-जरा-मरणादि दुःखों का हरणकर्त्ता है। इसी प्रकार सुदेव और सुगुरु भी जैन मत-वाले को जानना। इतर जो वीतराग ऋषभदेव से लेके महावीर पर्य्यन्त वीतराग देवों से भिन्न अन्य हरि, हर, ब्रह्मादि कुदेव हैं, उनकी अपने कल्याणार्थ जो जीव पूजा करते हैं, वे सब मनुष्य ठगाये गये हैं। इसका यह भावार्थ है कि जैनमत के सुदेव, सुगुरु तथा सुधर्म को छोड़ के अन्य कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म को सेवने से कुछ भी कल्याण नहीं होता॥३॥

समीक्षक—अब विद्वानों को विचारना चाहिये कि कैसे निन्दायुक्त इनके धर्म के पुस्तक हैं॥ ३॥

मूल—   अरिहं देवो सुगुरु, सुद्धं धम्मं च पंच नवकारो।

धन्नाणं कयच्छाणं, निरंतरं वसइ हिययम्मि॥

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ ६१। सू॰ १॥

संक्षेप से अर्थ—जो अरिहन् देवेन्द्रकृत पूजादिकन के योग्य, दूसरा पदार्थ उत्तम कोई नहीं, ऐसा जो देवों का देव शोभायमान अरिहन्त देव-ज्ञान क्रियावान्, शास्त्रों का उपदेष्टा; शुद्ध कषायमलरहित सम्यक्त्व विनय दयामूल श्रीजिनभाषित जो धर्म है, वही दुर्गति में पड़नेवाले प्राणियों का उद्धार करनेवाला है और अन्य हरि-हरादि का धर्म संसार से उद्धार करनेवाला नहीं; और पञ्च अरिहन्तादिक परमेष्ठी तत्सम्बन्धी उनको नमस्कार; ये चार पदार्थ धन्य हैं, अर्थात् श्रेष्ठ हैं। अर्थात् दया, क्षमा, सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन और चारित्र यह जैनों का धर्म है॥ १॥

समीक्षक—जब मनुष्यमात्र पर दया नहीं वह दया न क्षमा, ज्ञान के बदले अज्ञान, दर्शन अन्धेर और चारित्र के बदले भूखे मरना कौन-सी अच्छी बात है। यह केवल मूर्खों को प्रलोभन देकर अपने मत में फसाने की बातें हैं, अर्थात् जो इनके आचार्य ऐसा न लिखें तो उनके मत में कौन फसे और जो न फसे तो उनका प्रयोजन सिद्ध न हो। जैनियों के वीतरागोक्त दया, क्षमा, ज्ञान, दर्शन, चारित्र यही हैं। इसमें दया का नाश, क्षुद्र जीव और अपने मत वालों के अतिरिक्त दूसरे किसी को न मानना, निन्दा करना, सुख न देना दया कहाँ? और क्षमाशील होते तो दूसरे की निन्दा और अपने मुख अपनी बड़ाई क्यों करते। तीसरा ज्ञान जो कि उनके जीव, अजीवादि नव तत्त्व हैं, उनका जानना सो भी ठीक-ठीक नहीं है। सम्यक् दर्शन उनके तीर्थंकरों को होता, तो सहस्रों प्रकार की असम्भव बातें क्यों लिखते? चारित्र—उपवास करना, स्नान न करना इत्यादि से भी क्या हो सकता है। इसलिए जो इतनी ही बातों का नाम धर्म मानकर फूले-फूले फिरना बेसमझ का काम है। तारनेवाला इनका धर्म नहीं, किन्तु डुबानेवाला है। देखो! हरि, हरादि श्रेष्ठ पुरुषों को कुदेव कहना और अपने मलीनों को देव कहना, अपने मत वालों के विना संसार से कोई भी नहीं तरा। यह केवल असम्भव और झूठी बात है।

यद्यपि दया और क्षमा अच्छी वस्तु है, तथापि पक्षपात में फसने से दया अदया और क्षमा अक्षमा हो जाती है। इसका प्रयोजन यह है कि किसी जीव को दुःख न देना; यह बात सर्वथा सम्भव नहीं हो सकती। क्योंकि दुष्टों को दण्ड देना भी दया में गणनीय है। जो एक दुष्ट को दण्ड न दिया जाय तो सहस्रों मनुष्यों को दुःख प्राप्त हो, इसलिये वह दया अदया और क्षमा अक्षमा हो जाय। यह तो ठीक है कि सब प्राणियों के दुःखनाश और सुख की प्राप्ति का उपाय करना दया कहाती है। केवल जल छान के पीना, क्षुद्र जन्तुओं को बचाना ही दया नहीं कहाती, किन्तु इस प्रकार की दया जैनियों के कथनमात्र ही है, क्योंकि वैसा वर्त्तते नहीं। क्या मनुष्यादि पर चाहे किसी मत में क्यों न हो, दया करके उसका अन्नपानादि से सत्कार करना और दूसरे मत के विद्वानों का मान्य और सेवा करना दया नहीं है?॥ १॥

और भी इनके आचार्य और माननेवालों की भूल देख लो।

प्रकरणरत्नाकर, भाग २, षष्ठीशतक, मूलसूत्र—

[मूल]— जिणवर आणा भंगं, उमग्ग उस्सुत्त लेस देसणउ।

आणा भंगे पावं ता जिणमय दुक्करं धम्मम्॥११॥

संक्षेप से अर्थ—जैन के धर्म को मिथ्यात्वी प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि बड़ा कठिन है। जिस प्रकार जिनाज्ञा का भङ्ग न हो, उस प्रकार करना चाहिए। जो जैन मार्ग से उलटा चलना, उसका नाम उन्मार्ग, जिन वचनों से उलटा बोलना उत्सूत्र, जिन आज्ञारहित जो धर्म हैं, वे सब पापफल के देनेवाले हैं और वे सब मिथ्यात्वी कहाते हैं॥ ११॥

समीक्षक—जो अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा और अपने धर्म को बड़ा कहना और दूसरे की निन्दा करनी है, वह मूर्खता की बात है। क्योंकि प्रशंसा उसी की ठीक है जिसकी दूसरे विद्वान् करें। अपने मुख से अपनी प्रशंसा तो चोर भी करते हैं, तो क्या वे प्रशंसनीय हो सकते हैं? इसी प्रकार की इनकी बातें हैं॥ ११॥

[मूल]— बहु गुण विज्झा निलओ, उस्सुत्तभासी तहा विमुत्तव्वो।

जह वरमणिजुत्तो विहु, विग्घकरो विसहरो लोए॥१८॥

संक्षेप से अर्थ—जैसे विषधर सर्प में मणि त्यागने योग्य है, वैसे उत्सूत्रभाषी, द्रव्यलिंगी अर्थात् अन्यमार्गी जो जैनमत में नहीं है, वह कितना बड़ा पण्डित हो, उसका त्याग कर देना ही जैनियों को उचित है॥ १८॥

समीक्षक—देखो! कितनी मूढ़ता की बात है कि अपने मत का कैसा भी दुराचारी हो, उसको मानना, अन्य मत का कितना ही श्रेष्ठ विद्वान् हो उसको जैन लोग कभी न मानें। इससे बड़ी मूर्खता और पक्षपात की बात कौन होगी? क्या सुवर्ण को मल वा धूड़ में पड़े को कोई त्यागता है?॥१८॥

और उसी के सत्ताईसवें सूत्र में—

मूल—   नामंपि तस्स असुहं, जेण निदिट्ठाई मिच्छ पव्वाइ।

जेसिं अणुसंगाउ, धम्मीणवि होई पाव मइ॥ २७॥

संक्षेप से अर्थ—जैन धर्म से विरुद्ध सब धर्म मनुष्यों को पापी करनेवाले हैं, इसलिए किसी के धर्म को न मानना॥ २७॥

समीक्षक—इससे यह सिद्ध होता है—सबको डुबोनेवाला जैन मार्ग है। क्योंकि सबकी सब प्रकार निन्दा करते हैं। इसलिए जिन्होंने ऐसा लिखा है वे ही महा अधर्मी थे। हाँ! ऐसा लिखते कि—सबकी सच्ची बातें मान लें और अपनी झूठी बातें छोड़ दें, तो धर्मात्मा गिने जाते॥ २७॥

इसी प्रकार बहुत से सूत्र रत्नसार भाग २, षष्ठीशतक में लिखे हैं। अर्थात् २९वें सूत्र में —

मूल—   अइसय पाविय पावा, धम्मिअ पब्बेसु तोवि पावरया।

न चलंति सुद्घ धम्मा, धन्ना किविपाव पव्वेसु॥ २९॥

प्रकर॰ भाग २ । पष्टी॰ सू॰ २९ [पृ॰ ६३९ पं॰ २४-२५]

संक्षेप से अर्थ—अन्य दर्शनी कुलिङ्गी अर्थात् जैनमत विरोधी अन्यमार्गी अर्थात् जो जैनी न हो, उसका दर्शन भी न करना॥ २९॥

समीक्षक—यह बात कितने पामरपन की है। क्योंकि जो दूसरे का दर्शन करे, तो इनकी पोल निकल जाय॥ २९॥

और ३५वें सूत्र में—

मूल—हा हा गुरु अ अकज्झं, सामी न हु अच्छि कस्स पुक्करिमो।

कह जिण वयण कह सुगुरु, सावया कह इय अकज्झं॥३५॥

संक्षेप से अर्थ—सर्वज्ञभाषित जिनवचन जैन सुगुरु कहाँ? और कहाँ उनसे विरुद्ध कुगुरु अर्थात् अन्य मार्गी के भाषित और उपदेशक अर्थात् हमारी सब बातें अच्छी, अन्य की सब बुरी॥ ३५॥

समीक्षक—हाँ! कूंजरी भी अपने बेर को खट्टे नहीं कहती। अर्थात् अपने मार्ग से भिन्न मार्गी की सेवा में बड़ा अकार्य्य अर्थात् पाप गिनते हैं॥ ३५॥

और देखो! प्रकरणरत्नाकर भाग २, मूल सूत्र—

सप्पो इक्कं मरणं, कुगुरु आणंताइ देइ मरणाइ।

तो वरि सप्पं गहियुं, मा कुगुरुसेवणं भद्दम्॥३७॥

संक्षेप से अर्थ—इस सूत्र में लिखा है कि जैन भिन्न कुगुरु सर्प्प से भी बुरे हैं। उनकी सेवा पूजा करना कभी न चाहिये। जो अन्यमार्गी की कुछ भी सेवा करेगा तो बहुत दुःख में पड़ेगा॥ ३७॥

समीक्षक—देखिये! कितने दुराग्रही हैं कि इनके सदृश कठोर, भ्रान्त, निन्दक, मूर्ख दूसरे मत वाले नहींं हैं। यह सब स्वार्थ की बातें हैं कि हमारा मान्य, हमारी सेवा और हमारी ही प्रतिष्ठा हो, अन्य किसी की न हो। तभी इनके चेले महामूढता में फसे हैं कि किसी अच्छे महात्मा पुरुष की सेवा, न दर्शन और संग भी नहीं करते। यह इनके दौर्भाग्य की बात है। जो सब मतवालों में योग्य पुरुषों की सेवा करते, उनके मार्ग की बातें सुनते और अपनी कहते तो उनके गुण [ग्रहण] और अपनी भूल को छोड़ कर, सत्यमार्ग जानकर अपने मनुष्य जन्म के फल को प्राप्त होते॥ ३७॥

प्रकरणरत्नाकर भाग २, मूल सूत्र—

किं भणिमो किं करिमो, ताण हयासाण धिट्ठ दुट्ठाणं।

जे दंसिऊण लिंगं, खिवंति नरयम्मि मुद्धजणम्॥४०॥

सं॰ अर्थ—अन्य मार्गी के कुगुरु मुनि का वेष धारण करके लोगों के लिये ऐसे हैं कि जैसे अन्धे सिंह की आँख खोलने को जाय, तो सिंह उसी को खाय। वैसे उन अन्य मार्गी कुगुरुओं का उपकार करना अपना नाश कर लेना है। इसलिये उनका उपकार कभी न करना चाहिये॥ ४०॥

समीक्षक—जैसे जैन लोग विचारते हैं, वैसे दूसरे मत वाले भी विचारें तो जैनियों की कितनी दुर्दशा हो? और उनका कोई किसी प्रकार का उपकार न करे तो उनके बहुत से काम नष्ट होकर कितना दुःख प्राप्त हो, वैसा अन्य के लिये जैनी लोग क्यों नहीं विचारते?॥ ४०॥

प्रकरत्नाकर भाग २, मूलसूत्र—

जह जह तुट्टइ धम्मो, जह जह दुट्ठाण होइ अइ उदउं।

समद्दिट्ठि जियाणं, तह तह उल्लसइ समत्तं॥४२॥

सं॰ अर्थ—जैसे-जैसे अन्य दर्शनी, त्रिदण्डी, परिव्राजक और विप्रादि दुष्टलोगों का अति उदय होता है, वैसे-वैसे जैनधर्म के सम्यक् दृष्टि जीवों का सम्यक्त्व विशेष प्रकाशित होता है॥ ४२॥

समीक्षक—यह बड़ा आश्चर्य है अर्थात् जैन के साधु भी आपस में लड़ मरते हैं। अब देखो! इन जैनों से अधिक ईर्ष्याद्वेषयुक्त, निन्दक दूसरा कौन होगा? और द्वेष ही पाप का मूल है, इसलिये जैनियों में पापाचर क्यों न हो? ॥ ४२॥

प्रकरणरत्नाकर, भाग २, शतक ६०, मूलसूत्र—

संगोवि जाण अहिउ, तेसिं धम्माइ जे पकुब्बन्ति।

मुत्तूण चोरसंगं, करंति ते चोरियं पावा॥७५॥

सं॰ अर्थ—इसका मुख्य आशय इतना है कि जैसे मूढजन चोर के संग से नासिका छेदादि दण्ड से भय नहीं करते, वैसे जैन भिन्न चोरधर्मों में स्थित जन भय नहीं करते॥ ७५॥

समीक्षक—यहाँ इतना ही वक्तव्य है कि जो स्वयं चोरधर्म वाले हैं, दूसरों के साथ अतीव ईर्ष्या, द्वेषादि दुष्टता से युक्त जैसा जैनमत है, वैसा अन्य नहीं॥ ७५॥

मूल—   जच्छ पसुमहिस लरका, पव्वं होमंति पाव नवमीए।

पुअंति तंपि सढ्ढा, हा हीला वीयरायस्स॥७६॥

[सं॰ अर्थ—जिन दुर्गा नवमी आदि पर्वों पर पशुओं को मार कर उनसे होम किया जाता है, वह पर्व नहीं, पापनवमी है। जो उस पर्व को मानते हैं, वे शठ है, क्योंकि वे जैनेन्द्र के वचनों का तिरस्कार करते हैं॥ ७६॥]

समीक्षक—देखो नौमी का नाम पापनौमी और गणेश चतुर्थी आदि व्रतों की निन्दा करना और अपने पञ्चखाण आदि व्रतों को श्रेष्ठ कहना मूढपुरुषों का काम है। क्या तुम्हारे पजूसण आदि व्रत बुरे नहीं हैं, जिनसे महाकष्ट होता है? ये दोनों के झूठे और जो सत्यभाषणादि व्रत हैं, वे दोनों के सच्चे॥ ७६॥

प्रकरणरत्नाकर भाग २, शतक ६०—

मूल—किं सोपि जणणि जाओ जाणो जणणीइ किं गओ विद्धिं।

जइं मिच्छरओ जाओ, गुणेसु तह मच्छरं वहइ॥८१॥

वेसाण बंदियाणय, माहण डुंबाण जरकसिरकाणं।

भत्ता भरकट्ठाणं, वियाणं जंति दूरेणं॥८२॥

सं॰ अर्थ—देखो इनका न्याय—जैनमत विरोधी सब मिथ्यात्वी अर्थात् मिथ्या धर्म वाले हैं। वे क्यों जन्मे और जो जन्मे तो बढे क्यों? अर्थात् शीघ्र ही नष्ट हो जाते तो अच्छा होता॥८१॥

इसका मुख्य प्रयोजन यह है कि जो वेश्या, चारण, भाटादि लोगों, ब्राह्मण, यक्ष, गणेशादिक मिथ्यादृष्टि देवी आदि देवताओं का भक्त है, जो इनके माननेवाले हैं, वे सब डूबने और डुबानेवाले हैं। जो देव देवी आदि को मानते हैं वे दुःख देते हैं। क्योंकि उन्हीं के पास वे सब वस्तुएँ माँगते और बलिदान मांगते हैं। वीतरागियों के पास नहीं जाते॥ ८२॥

समीक्षक—देखो! जैनमत की दया की लहरें कि अपने मत से भिन्न मनुष्यों का जन्म होना और बढना अच्छा नहीं मानते, किन्तु उनका नाश ही होना अच्छा मानते हैं, तो दया और क्षमा कहाँ रही। जब अन्य के देव-देवियों को नहीं मानते, तो अपनी शासनदेवी आदि हिंसक जिसने थप्पड़ मारके मनुष्य की आँख निकाल दी, उसके बदले बकरे की आँख निकालकर उस मनुष्य के लगादी, इस देवी को हिंसक क्यों नहीं मानते? क्या यह दुर्गा और काली की छोटी बहिन नहीं है?॥ ८१-८२॥

रत्नसार भाग १ पृष्ठ ६७ में देखो क्या लिखा है—मरुतदेवी पथिकों को पत्थर की मूर्ति होकर सहाय करती थी।

इसको भी सच न मानना चाहिये।

प्रकरणरत्नाकर, भाग २, षष्ठीशतक, मूलसूत्र—

सुद्धे मग्गे जाया, सुहेण गच्छत्ति सुद्ध मग्गंमि।

जे पुण अमग्गजाया, मग्गे गच्छन्ति ते चुय्यं॥८३॥

सं॰ अर्थ—जो जैन कुल में जन्म लेकर मुक्ति को जाय तो कुछ आश्चर्य नहीं। परन्तु जैनभिन्न कुल में जन्मे हुये मिथ्यात्वी अन्यमार्गी मुक्ति को प्राप्त होवे, इसमें बड़ा आश्चर्य है। अर्थात् मुक्ति ही नहीं होती। और कुमार्ग अर्थात् जैनभिन्न सम्प्रदाय में उत्पन्न होकर अर्थात् चेले चांटी होकर सुमार्ग में चले, यह बड़ा आश्चर्य है। क्योंकि जो उन्मार्गी अर्थात् जैनभिन्न मार्ग में हैं, वे सब नरक में पड़ेंगे जो ऐसा जानके भी जैनमत में नहीं आवे॥ ८३॥

समीक्षक—क्या जैनकुल में कोई दुष्ट नहीं होता और सभी मुक्ति को जायेंगे? और अन्य कुलों में कोई भी श्रेष्ठ नहीं और मुक्ति को न जायगा? क्या पागलपन की बातें हैं? महामूढमनुष्यों के विना और कौन मान सकता है?॥ ८३॥

प्रकरणरत्नाकर, भाग २, शतक ६०—

तिच्छयराणं पूआ, सम्मत्त गुणाणकारिणी भणिया।

साविय मिच्छत्तयरी, जिण समये देसिया पूआ॥९०॥

सं॰ अर्थ—जिन मूर्तियों की पूजा सार, इससे भिन्न अन्य मार्गियों की मूर्तिपूजा असार है। जो जिन आज्ञा को पालता है, वह तत्त्वज्ञानी, और जो नहीं पालता है, वह तत्त्वज्ञानी नहीं॥ ९०॥

समीक्षक—वाह! क्या कहना!! तुम्हारी मूर्त्ति पाषाणादि जड़ पदार्थों की नहीं? जैसी वैष्णवादि की हैं, वैसी ही तुम्हारी पाषाणादिपूजा है। जैसी तुम्हारी मिथ्या है, वैसी ही वैष्णवादिकों की भी मिथ्या है। जैसे तुम जैनी तत्त्वज्ञानी बनते हो और अन्य को अतत्त्वज्ञानी बनाते हो। इससे विदित होता है कि तुम्हारे मत में तत्त्वज्ञान नहीं है॥ ९०॥

प्रकरणरत्नाकर, भाग २, शतक ६०, मूलसूत्र—

जिण आणाए धम्मो, आणारहि आण फुडं अहमुत्ति।

इय मुणिऊणय तत्तं, जिण आणाए कुणहु धम्मं॥९२॥

सं॰ अर्थ—जिनदेव की आज्ञा, क्षमा, दयादि रूप धर्म है, अन्य सब अधर्म॥ ९२॥

समीक्षक—क्या जैनमत से भिन्न पुरुष सत्य आज्ञा करे, वह धर्म न मानना चाहिये। हां! जो जैनमतस्थ पुरुषों के मुख-जिह्वा चमड़े-हाड की न होंगी औरों के चमड़े-हाड की होंगी। इससे उन्हीं के मुख के वचन की बड़ाई करना, जानो भांडों के बड़े भाई की बातें हैं॥ ९२॥

प्रकरणरत्नाकर, भाग २, शतक ६०, मूलसूत्र—

वन्नेमि नारयाउवि, जेसिं दुरकाइ सम्भरं ताणम्।

भव्वाण जणइ हरिहर, रिद्धि समिद्धी वि उद्घोसं॥९५॥

[इअराण ठुक्कराणवि, आणाभंगेण होइ मरण दुहं।]

किं पुण तिलोअ पहुणों, जिणिंद देवाइ देवस्स॥९८॥

इसका मुख्य तात्पर्य यह है कि जो हरि हरादि की विभूति है, वह नरक का हेतु है, उसको देखके जैनियों के रोमांच खड़े हो जाते हैं॥ ९५॥ जैसे राजाज्ञा भंग करने से मरण तक दुःख पाता है तो जिनेन्द्र आज्ञाभङ्ग से क्यों न जन्म मरण दुःख पावेगा॥ ९८॥

समीक्षक—देखिए! जैन लोग दूसरे की उन्नति नहीं देख सकते। देखकर भीतर जलते हैं अर्थात् चाहते होंगे कि यह विभूति हमको मिल जाय। बहुधा वैसे व्यवहार भी करते होंगे। यह फोकट राजाज्ञाभंग के दृष्टान्त से मूर्खों को भय दिखलाकर मूंडने की बातें हैं और राजाज्ञा का दृष्टान्त इसलिये देते हैं कि ये जैन लोग राज्य के बड़े खुशामदी, झूठे और डरपुकने हैं। क्या झूठी बात भी राजा की मान लेनी चाहिये? जो ईर्ष्याद्वेषी हो, तो जैनियों से बढ़के दूसरा कोई भी न होगा॥ ९५, ९८॥

प्रकरणरत्नाकर, भाग २, शतक ६०, मूलसूत्र—

जो देइ सुद्ध धम्मं, सो परमप्पा जयम्मि न हु अन्नो।

किं कप्पद्दुम सरिसो, इयर तरू होइ कइया वि॥१०१॥

सं॰ अर्थ—मूर्ख लोग वे हैं जो जैनधर्म से विरुद्ध हैं और जो जिनेन्द्रभाषितधर्मोपदेष्टा हैं, वे तीर्थंकरों के तुल्य हैं। उनके तुल्य दूसरा कोई भी नहीं॥ १०१॥

समीक्षक—क्यों न हो, जो जैनी लोग छोकरबुद्धि न होते तो ऐसी बातें क्यों मानते और क्यों करते? जैसे जैनमार्ग के उपदेष्टा को अच्छा मानते हो, वैसे दूसरे को क्यों नहीं मानते? यह सब तुम्हारा अज्ञान का माहात्म्य है॥ १०१॥

प्रकरणरत्नाकर, भाग २, शतक ६०, मूल सूत्र—

मूल—जे अमुणिअ गुणदोषा ते कहअ वुहाण हुंति मझच्छा।

अह तेवि हु मझच्छा ता विस अमिआण तुल्लतं॥१०२॥

मूल—मूलं जिणिंद देवो, तव्वयणं गुरुजणं महासयाणं।

सेसं पावट्ठाणं, परमप्पाणं च वज्जेमि॥१०३॥

सं॰ अर्थ—जिनेन्द्र देव, तदुक्त सिद्धान्त और उपदेष्टा ग्राह्य और सब अन्य मत के वचन, सिद्धान्त और उपदेष्टाओं का त्याग करना चाहिये॥ १०२, १०३॥

समीक्षक—यह तुम्हारा हठ, पक्षपात और अविद्या का फल है। क्योंकि तुम्हारी थोड़ी-सी बात छोड़कर सब बातें त्यक्तव्य हैं। जिसको थोड़ी-सी बुद्धि होगी वह जैनियों के देव, सिद्धान्तग्रन्थ और उपदेष्टाओं को देखे, सुने, विचारे, तो उसी समय निःसन्देह छोड़ देगा॥ १०२,१०३॥

मूल—वयणे वि सुगुरु जिणवल्लहस्स केसिं न उल्लसइ सम्मं।

अह कह दिणमणि तेयं, उलुआणं हरइ अंधत्तं॥ १०८

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ सू॰ १०८॥

सं॰ अ॰—जो जिनवचन के अनुकूल चलते हैं, वे पूजनीय और जो विरुद्ध चलते हैं, वे अपूज्य हैं। जैन गुरुओं को मानना अर्थात् अन्यमार्गियों को न मानना॥१०८॥

समीक्षक—भला, जो जैन लोग अन्य अज्ञानियों को पशुवत् चेले करके न बाँधते तो उनके जाल में से छूटकर, अपनी मुक्ति के साधन कर, जन्म सफल कर लेते। भला जो कोई तुमको कुमार्गी, कुगुरु, मिथ्यात्वी और कूपदेष्टा कहैं, तो तुमको कितना दुःख लगे? वैसे ही जो तुम दूसरे को दुःखदायक हो, इसीलिये तुम्हारे मत में असार बातें बहुत-सी भरी हैं॥ १०८॥

मूल—जे रज्ज धणाईणं कारणभूया हवंति वावारा।

ते वि हु अइपावजुया, धन्ना छड्डंति भवभीया॥ ११९

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ ११९॥

सं॰ अर्थ—जो मृत्युपर्यन्त दुःख हो तो भी कृषि-व्यापारादि कर्म जैनी लोग न करें, क्योंकि ये कर्म नरक में लेजाने वाले हैं॥११९॥

समीक्षक—अब कोई जैनियों से पूछे कि तुम व्यापारादि कर्म क्यों करते हो? इन कर्मों को क्यों नहीं छोड़ देते? और जो छोड़ देओ तो तुम्हारे शरीर का पालन-पोषण भी न हो सके और जो तुम्हारे कहने से सब लोग छोड़ दें, तो तुम क्या पत्थर खाके जीओगे? ऐसा अत्याचार का उपदेश करना सर्वथा व्यर्थ है। क्या करें बिचारे! विद्या, सत्सङ्ग के विना जो मन में आया, सो बक दिया॥ ११९॥

मूल—तइया हमाण अहमा, कारण रहिया अनाणगव्वेण।

जे जंपंति उस्सुत्तं, तेसिं धिद्धिच्छ पंडिच्चं॥ १२१॥

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ सू॰ १२१॥

सं॰ अर्थ—जो जैनागम से विरुद्ध शास्त्रों के माननेवाले हैं, वे अधमाऽधम हैं। चाहें कोई प्रयोजन भी सिद्ध होता हो, तो भी जैनमत से विरुद्ध न बोले, न माने। चाहें कोई प्रयोजन सिद्ध होता है, तो भी अन्य मत का त्याग कर दे॥१२१॥

समीक्षक—तुम्हारे मूलपुरुषों से लेके आजतक जितने हो गये और होंगे, उन्होंने विना दूसरे मत को गालिप्रदान के अन्य कुछ भी दूसरी बात न की और न करेंगे। भला, जहाँ-जहाँ जैनी लोग अपना प्रयोजन सिद्ध होना देखते हैं, वहाँ चेलों के भी चेले बन जाते हैं, तो ऐसी मिथ्या लम्बी-चौड़ी बातों के हाँकने में तनिक भी लज्जा नहीं आती, यह बड़े शोक की बात है॥ १२१॥

मूल—जं वीरजिणस्स जिओ, मिरई उस्सुत्त लेस देसणओ।

सागर कोडाकोडिं, हिंडइ अइ भीमभवरण्णे॥ १२२॥

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ सू॰ १२२॥

सं॰ अर्थ—जो कोई ऐसा कहे कि जैन साधुओं में धर्म है, हमारे और अन्य में भी धर्म है, तो वह मनुष्य क्रोड़ान्क्रोड़ वर्ष तक नरक में रहकर फिर भी नीच जन्म पाता है॥१२२॥

समीक्षक—वाह रे! वाह!! विद्या के शत्रुओ! तुमने यही विचारा होगा कि हमारे मिथ्या वचनों का कोई खण्डन न करे, इसीलिए यह भयङ्कर वचन लिखा है, सो असम्भव है। अब कहां तक तुमको समझावें? तुमने तो झूठ, निन्दा और अन्य मतों से वैर-विरोध करने पर ही कमर बांध अपना प्रयोजन सिद्ध करना, मोहनभोग के समान समझ लिया है॥ १२२॥

मूल—दूरे करणं दूरम्मि, साहणं तह पभावणा दूरे।

जिणधम्म सद्दहाणं, पि तिरकदुरकाइ निट्ठवइ॥ १२७॥

—प्रक॰ भा॰ २। षष्ठी॰ सू॰ १२७॥

सं॰ अर्थ—जिस मनुष्य से जैन धर्म का कुछ भी अनुष्ठान न हो सके तो भी जो ‘जैन धर्म सच्चा है, अन्य कोई नहीं’ इतनी श्रद्धामात्र ही से दुःखों से तर जाता है॥१२७॥

समीक्षक—भला! इससे अधिक मूर्खों को अपने मतजाल में फसाने की दूसरी कौनसी बात होगी? क्योंकि कुछ कर्म करना न पड़े और मुक्ति हो ही जाय, ऐसा भूंदू मत कौनसा होगा?॥ १२७॥

मूल—कइया होही दिवसो, जइया सुगुरूण पायमूलम्मि।

उस्सुत्त लेस विसलव, रहिओ निसुणेसु जिणधम्मं॥ १२८॥

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ सू॰ १२८॥

सं॰ अर्थ—मनुष्य ‘जिनागम’ अर्थात् ‘जैनों के शास्त्रों को सुनूँगा, उत्सूत्र अर्थात् अन्य मत के ग्रन्थों को कभी न सुनूँगा’ इतनी इच्छामात्र ही से दुःखसागर से तर जाता है॥१२८॥

समीक्षक—यह भी बात भोले मनुष्यों को फसाने के लिए है। क्योंकि इस पूर्वोक्त इच्छा से यहाँ के दुःखसागर से भी नहीं तरता और पूर्वजन्म के भी सञ्चित पापों के दुःखरूपी फल भोगे विना नहीं छूट सकता। जो ऐसी-ऐसी झूठ अर्थात् विद्याविरुद्ध बात न लिखते तो इनके अविद्यारूप ग्रन्थों को वेदादिशास्त्र देख-सुन सत्याऽसत्य जानकर इनके पोकल ग्रन्थों को छोड़ देते। परन्तु ऐसा जकड़कर इन अविद्वानों को बांधा है कि इस जाल से कोई एक बुद्धिमान् सत्संगी चाहें छूट सके तो सम्भव है, परन्तु अन्य जड़बुद्धियों का छूटना तो अति कठिन है॥ १२८॥

मूल—जह्मा जेणहिं भणियं, सुय ववहारं विसोहियं तस्स।

जायइ विसुद्ध बोही, जिण आणाराह गत्ताओ॥ १३८॥

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ सू॰ १३८॥

सं॰ अर्थ—जो जिनाचार्यों ने कहे सूत्र, निरुक्ति, वृत्ति, भाष्य, चूर्णी मानते हैं, वे ही शुभ व्यवहार और दुःसह व्यवहार के करने से चारित्रयुक्त होकर सुखों को प्राप्त होते हैं, अन्य मत के ग्रन्थ देखने से नहीं॥१३८॥

समीक्षक—क्या अत्यन्त भूखे मरने आदि कष्ट सहने को ‘चारित्र’ कहते हैं? जो भूखा-प्यासा मरना आदि ही चारित्र है तो बहुत से मनुष्य अकाल वा जिनको अन्नादि नहीं मिलते, भूखे मरते हैं, वे शुद्ध होकर शुभ फलों को प्राप्त होने चाहिएँ। सो न ये शुद्ध होवें और न तुम, किन्तु पित्तादि के प्रकोप से रोगी होकर सुख के बदले दुःख को प्राप्त होते हैं।

‘धर्म’ तो न्यायाचरण, ब्रह्मचर्य्य, सत्यभाषणादि है और असत्यभाषण अन्यायाचरणादि ‘पाप’ हैै। और सबसे प्रीतिपूर्वक परोपकारार्थ वर्त्तना ‘शुभ चरित्र’ कहाता है, जैनमतस्थों का भूखा-प्यासा रहना आदि धर्म नहीं। इन सूत्रादि को मानने से थोड़ा सा सत्य और अधिक झूठ को प्राप्त होकर दुःखसागर में डूबते हैं॥ १३८॥

[मूल—जंचिअ लोओ मन्नइ, तंचिअ मन्नंति सयल लोआवि।

जं मन्नइ जिणनाहो, तंचि अ मन्नंति किवि विरला॥ १४६॥]

[मूल—  साहंमि आउ अहिओ, बंधसुआईसु जाण अणुराओ।

तेसिं नहु सम्मत्तं, विन्नेयं समयनीईये॥१४७॥]

मूल—   जइ जाणिसि जिण नाहो, लोयायारा विपरकए भूओ।

ता तं तं मन्नंतो, कह मन्नसि लोअ आयारं॥ १४८॥

[मूल—जे मन्न वि जिणिदं, पुणोवि पणमन्ति इअर देवाणं।

मिच्छत्त सन्निवायग, गच्छाणं ताण को विज्जो॥ १४९॥]

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ सू॰[१४६-१४७ पृ॰६९१]

१४८ [१४९ पृ॰ ६९२]॥

सं॰ अर्थ—जो उत्तम प्रारब्धवान् मनुष्य होते हैं, वे ही जिन-धर्म का ग्रहण करते हैं। अर्थात् जो जिनधर्म का ग्रहण नहीं करते, उनका प्रारब्ध नष्ट है। [१४६]

समीक्षक—क्या यह बात मूर्खता की और झूठ नहीं है? क्या अन्य मत में श्रेष्ठ-प्रारब्धी और जैनमत में नष्ट-प्रारब्धी कोई भी नहीं है?

और जो यह कहा “कि ‘साधर्मी’ अर्थात् जैन धर्मवाले आपस में क्लेश न करें किन्तु प्रीतिपूर्वक वर्त्तें,” इससे यह बात सिद्ध होती है कि दूसरे के साथ कलह करने में बुराई जैन लोग नहीं मानते होंगे। यह भी इनकी बात अयुक्त है, क्योंकि सज्जन पुरुष सज्जनों के साथ प्रेम और दुष्टों को शिक्षा देकर सुशिक्षित करते हैं। [१४७]

और जो यह लिखा कि “ब्राह्मण, ‘त्रिदण्डी, ‘परिव्राजकाचार्य’ अर्थात् संन्यासी और ‘तापसादि’ अर्थात् वैरागी आदि सब जैनमत के शत्रु हैं।” अब देखिये कि सबको शत्रुभाव से देखते और निन्दा करते हैं तो जैनियों की दया और क्षमारूप धर्म कहां रहा? क्योंकि जब दूसरे पर द्वेष रखना, दया क्षमा का नाश और इसके समान कोई दूसरा हिंसारूप दोष नहीं। जैसे द्वेषमूर्त्तियाँ जैनी लोग हैं, वैसे दूसरे थोड़े ही होंगे॥१४८॥

ऋषभदेव से लेके महावीरपर्यन्त २४ तीर्थंकरों को रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी कहैं और जैनमत माननेवालों को सन्निपातज्वर से फसे हुए मानें और उनका धर्म नरक और विष के समान समझें, तो जैनियों को कितना बुरा लगेगा? [१४९]

इसलिये जैनी लोग निन्दा और परमतद्वेषरूप नरक में डूबकर महाक्लेश भोग रहे हैं, इस बात को छोड़ दें, तो बहुत अच्छा होवे।

मूल—एगो अ गुरू एगो वि सावगो चेईआणि विवहाणि।

तच्छय जं जिणदव्वं, परुप्परं तं न विच्चंति॥ १५०॥

—प्रक॰ भा॰ २। षष्टी॰ सू॰ १५०॥

सं॰ अर्थ—सब श्रावकों का देव गुरु धर्म एक है ‘चैत्यवन्दन’ अर्थात् जिन-प्रतिबिम्ब मूर्त्ति देवल और जिन-द्रव्य की रक्षा और मूर्त्ति की पूजा करना धर्म है॥१५०॥

समीक्षक—अब देखो! जितना मूर्त्तिपूजा का झगड़ा चला है, वह सब जैनियों के घर से। और पाखण्डों का मूल भी जैनमत है॥ १५०॥

[सन् १८७६ में बनारस जैनप्रभाकर प्रेस में मुद्रित] श्राद्धदिनकृत्य पृष्ठ १ में मूर्त्तिपूजा के प्रमाण—

नवकारेण विवोहो॥१॥ अनुसरणं सावउ॥२॥ वयाइं इमे॥३॥ जोगो॥४॥ चिय वन्दणगो॥५॥ पच्चरखाणं तु विहि पुच्छम्॥६॥ इत्यादि—

श्रावकों को पहिले द्वार में नवकार का जप कर जागना॥१॥

दूसरा नवकार जपे पीछे “मैं श्रावक हूँ” स्मरण करना॥२॥

तीसरे ‘अणुव्रतादिक’ हमारे कितने हैं॥३॥

चौथे द्वारे चार वर्ग में अग्रगामी मोक्ष है, उसका कारण ज्ञानादिक है सो ‘योग’, उसका सब अतीचार निर्मल करने से छः आवश्यक कारण सो भी उपचार से योग कहाता है, सो योग कहेंगे॥४॥

पाँचवें ‘चैत्यवन्दन’ अर्थात् मूर्त्ति को नमस्कार द्रव्यभाव पूजा कहेंगे॥५॥

छठा प्रत्याख्यान द्वार नवकारसीप्रमुख विधिपूर्वक कहूंगा, इत्यादि॥६॥

तत्त्वविवेक पृष्ठ १६९—जो मनुष्य लकड़ी-पत्थर को देवबुद्धि कर पूजता है, वह अच्छे फलों को प्राप्त होता है।

समीक्षक—जो ऐसा हो तो सब कोई दर्शन करके सुखरूप फलों को प्राप्त क्यों नहीं होते?

रत्नसार भाग १ पृष्ठ १०—पार्श्वनाथ की मूर्त्ति के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं।

कल्पभाष्य पृष्ठ ५१ में लिखा है कि—“सवालाख मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया” इत्यादि मूर्त्तिपूजाविषय में इनका बहुत सा लेख है, इसी से समझा जाता है कि मूर्त्तिपूजा का मूलकारण जैनमत है।

और कल्पभाष्य में लिखा है कि—“ऋषभदेव से लेके महावीर पर्य्यन्त २४ तीर्थङ्कर सब मोक्ष को प्राप्त हुए।”

अब और थोड़ी सी असम्भव बातें इनकी सुनो—

विवेकसार पृष्ठ ७८—एक करोड़ साठ लाख कलशों से महावीर को जन्म समय में स्नान कराया।

श्राद्धनिकृत्य आत्मनिन्दा भावना पृष्ठ ३१ में लिखा है कि—बावड़ी, कुआ और तालाब न बनवाना चाहिये।

समीक्षक—भला, जो सब मनुष्य जैनमत में हो जायें और कुआ, तालाब, बावड़ी आदि कोई भी न बनवावें, तो सब लोग जल कहाँ से पियें?

प्रश्न—तालाब आदि बनवाने से जीव पड़ते हैं, उससे बनवानेवाले को पाप लगता है, इसलिये हम जैनी लोग इस काम को नहीं करते।

उत्तर—तुम्हारी बुद्धि नष्ट क्यों हो गई? क्योंकि जैसे क्षुद्र-क्षुद्र जीवों के मरने से पाप गिनते हो, तो बड़े-बड़े गाय आदि पशु और मनुष्यादि प्राणियों के जल पीने आदि से महापुण्य होगा, उसको क्यों नहीं गिनते?

तत्त्वविवेक पृष्ठ १९६—इस नगरी में एक नन्द मणिकार सेठ ने बावड़ी बनवाई, उससे धर्मभ्रष्ट होकर सोलह महारोग हुए, मरके उसी बावड़ी में मेडूका हुआ, महावीर के दर्शन से उसको जातिस्मरण हो गया। महावीर कहते हैं कि मेरा आना सुनकर वह पूर्व जन्म के धर्माचार्य्य जान वन्दना को आने लगा। मार्ग में श्रेणिक के घोड़े की टाप से मरकर शुभ ध्यान के योग से दर्दुराङ्क नाम महर्द्धिक देवता हुआ। अवधिज्ञान से मुझको यहाँ आया जान वन्दनापूर्वक ऋद्धि दिखाके गया।

समीक्षक—इत्यादि विद्याविरुद्ध असम्भव मिथ्या बात के कहनेवाले महावीर को सर्वोत्तम मानना महाभ्रान्ति की बात है।

श्राद्धदिनकृत्य॰ पृष्ठ ३६ में लिखा है कि—मृतकवस्त्र साधु ले लेवें।

समीक्षक—देखिये! इनके साधु भी महाब्राह्मण के समान हो गये। वस्त्र तो साधु लेवें, परन्तु मृतक के आभूषण कौन लेवे? बहुमूल्य होने से घर में रख लेते होंगे, तो आप कौन हुए?

रत्नसार पृष्ठ १०५—भूंजना, कूटना, पीसना, अन्न पकाने आदि में पाप होता है।

समीक्षक—अब देखिये इनकी विद्याहीनता! भला ये कर्म न किये जायें, तो मनुष्यादि प्राणी कैसे जी सकें? और जैनी लोग भी पीड़ित होकर मर जायें।

रत्नसार पृष्ठ १०४—बगीचा लगाने से एक लक्ष पाप माली को लगता है।

समीक्षक—जो माली को लक्ष पाप लगता है, तो अनेक जीव पुष्प, फल और छाया से आनन्दित होते हैं, तो करोड़ों गुणा पुण्य भी होता ही है। इस पर कुछ ध्यान भी न दिया, यह कितना अन्धेर है?

तत्त्वविवेक पृष्ठ २०२—एक दिन लब्धि साधु भूल से वेश्या के घर में चला गया और धर्म से भिक्षा मांगी। वेश्या बोली कि यहां धर्म का काम नहीं, किन्तु अर्थ का काम है, तो उस लब्धि साधु ने साढ़े बारह लाख अशर्फी-वर्षा, उसके घर में कर दी।

समीक्षक—इस बात को सत्य विना नष्टबुद्धि पुरुष के कौन मानेगा?

रत्नसार भाग १ पृष्ठ ६७ में लिखा है कि—एक पाषाण की मूर्त्ति घोड़े पर चढ़ी हुई, उसका जहाँ स्मरण करे, वहां उपस्थित होकर रक्षा करती है।

समीक्षक—कहो जैनीजी! आजकल तुम्हारे यहां चोरी, डाका आदि और शत्रु से भय होता ही है तो तुम उसका स्मरण करके अपनी रक्षा क्यों नहीं करा लेते हो? क्यों जहाँ-तहाँ पुलिस आदि राज-स्थानों में मारे-मारे फिरते हो?

कल्पसूत्रभाष्य पृष्ठ १०८—केशलुञ्चन करे, गौ के बालों के तुल्य रक्खे।

समीक्षक—अब कहिये जैन लोगो! तुम्हारा दया धर्म कहाँ रहा? क्या यह हिंसा अर्थात् चाहें अपने हाथ से लुञ्चन करे, उसका गुरु करे वा अन्य कोई, परन्तु कितना बड़ा कष्ट उस जीव को होता होगा? जीव को कष्ट देना ही हिंसा कहाती है।

विवेकसार पृष्ठ ७—संवत् १६३३ के साल में श्वेताम्बरों में से ढूँंढिया और ढूँढियों में से तेरहपन्थी आदि ढोंगी निकले हैं। ढूंढिये लोग पाषाणादि मूर्त्ति को नहीं मानते और वे भोजन-स्नान को छोड़ सर्वदा मुख पर पट्टी बांधे रहते हैं। और जती आदि भी जब पुस्तक बाँचते हैं, तभी मुख पर पट्टी बांधते हैं, अन्य समय नहीं।

प्रश्न—मुख पर पट्टी अवश्य बांधना चाहिए, क्योंकि ‘वायुकाय’ अर्थात् जो वायु में सूक्ष्म शरीरवाले जीव रहते हैं, वे मुख के बाफ की उष्णता से मरते हैं और उसका पाप मुख पर पट्टी न बांधनेवाले पर होता है, इसलिये हम लोग मुख पर पट्टी बाँधना अच्छा समझते हैं।

उत्तर—यह बात विद्या और प्रत्यक्षादि प्रमाणादि की रीति से अयुक्त है। क्योंकि जीव अजर-अमर हैं, फिर वे मुख की बाफ से कभी नहीं मर सकते। इनको तुम भी अजर-अमर मानते हो।

प्रश्न—जीव तो नहीं मरता, परन्तु जो मुखके उष्ण वायु से उनको पीड़ा पहुँचती है, उस पीड़ा पहुँचानेवाले को पाप होता है, इसलिए मुख पर पट्टी बाँधना अच्छा है।

उत्तर—यह भी तुम्हारी बात सर्वथा असम्भव है। क्योंकि पीड़ा दिए विना, किसी जीव का किञ्चित् भी निर्वाह नहीं हो सकता। जब मुखके वायु से तुम्हारे मत में जीवों को पीड़ा पहुँचती है, तो चलने, फिरने, बैठने, हाथ उठाने और नेत्रादि के चलाने में भी पीड़ा अवश्य पहुँचती होगी, इसलिए तुम भी जीवों को पीड़ा पहुँचाने से पृथक् नहीं रह सकते।

प्रश्न—हाँ, जब तक बन सके, वहाँ तक जीवों की रक्षा करनी चाहिए और जहाँ हम नहीं बचा सकते, वहाँ अशक्त हैं। क्योंकि सब वायु आदि पदार्थों में जीव भरे हुए हैं। जो हम मुख पर कपड़ा न बाँधें तो बहुत जीव मरें। कपड़ा बाँधने से न्यून मरते हैं।

उत्तर—यह भी तुम्हारा कथन युक्तिशून्य है। क्योंकि कपड़ा बाँधने से जीवों को अधिक दुःख पहुँचता है। जब कोई मुख पर कपड़ा बाँधे, तो उसका मुख का वायु रुक के, नीचे वा पार्श्व और मौन समय में नासिका द्वारा इकट्ठा होकर वेग से निकलता है, उससे उष्णता अधिक होकर जीवों को विशेष पीड़ा तुम्हारे मताऽनुसार पहुँचती होगी। देखो! जैसे घर वा कोठरी के सब दरवाजे बंध किये वा पड़दे डाले जायें तो उसमें उष्णता विशेष होती है, खुला रखने से उतनी नहीं होती, वैसे मुख पर कपड़ा बाँधने से उष्णता अधिक होती है और खुला रखने से न्यून। वैसे तुम अपने मतानुसार जीवों को अधिक दुःखदायक हो। और जब मुख बंध किया जाता है, तब नासिका के छिद्रों से वायु रुक, इकट्ठा होकर वेग से निकलता हुआ, जीवों को अधिक धक्का और पीड़ा करता होगा।

देखो! जैसे कोई मनुष्य अग्नि को मुख से फूँकता और कोई नली से, तो मुख का वायु फैलने से कम बल और नली का वायु इकट्ठा होने से अधिक बल से अग्नि में लगता है, वैसे ही मुख पर पट्टी बाँधकर वायु को रोकने से नासिका द्वारा अति वेग से निकलकर जीवों को अधिक दुःख देता है। इससे मुख-पट्टी बाँधनेवालों से नहीं बाँधनेवाले धर्मात्मा हैं।

और मुख पर पट्टी बाँधने से अक्षरों का यथायोग्य स्थान-प्रयत्न के साथ उच्चारण भी नहीं होता। निरनुनासिक अक्षरों को सानुनासिक बोलने से तुमको दोष लगता है। तथा मुख पट्टी बाँधने से दुर्गन्ध भी अधिक बढ़ता है, क्योंकि शरीर के भीतर दुर्गन्ध भरा है। शरीर से जितना वायु निकलता है, वह दुर्गन्धयुक्त प्रत्यक्ष है। जो वह रोका जाय तो दुर्गन्ध भी अधिक बढ़ जाय, जैसा कि बंध ‘जाजरूर’ अधिक दुर्गन्धयुक्त और खुला हुआ न्यून दुर्गन्धयुक्त होता है, वैसे ही मुख-पट्टी बाँधने, दन्तधावन, मुखप्रक्षालन, स्नान न करने तथा अच्छे प्रकार वस्त्र न धोने से तुम्हारे शरीरों से अधिक दुर्गन्ध उत्पन्न होकर संसार में बहुत रोग करके जीवों को जितनी पीड़ा पहुँचाते हैं, उतना पाप तुमको अधिक होता है।

जैसे मेले आदि में अधिक दुर्गन्ध होने से विसूचिका अर्थात् हैजा आदि बहुत प्रकार के रोग उत्पन्न होकर जीवों को दुःखदायक होते हैं, और न्यून दुर्गन्ध होने से रोग भी न्यून होकर जीवों को बहुत दुःख नहीं पहुँचता। इससे तुम अधिक दुर्गन्ध बढ़ाने में अधिक अपराधी; और जो मुख-पट्टी नहीं बाँधते, दन्तधावन, मुखप्रक्षालन, स्नान करके स्थान-वस्त्रों को शुद्ध रखते हैं, वे तुमसे बहुत अच्छे हैं। जैसे अन्त्यजों की दुर्गन्ध के सहवास से पृथक् रहने वाले बहुत अच्छे हैं। जैसे अन्त्यजों की दुर्गन्ध के सहवास से निर्मल बुद्धि नहीं होती, वैसे तुम और तुम्हारे संगियों की बुद्धि नहीं बढ़ती। जैसे रोग की अधिकता और बुद्धि के स्वल्प होने से धर्माऽनुष्ठान की बाधा होती है, वैसे ही दुर्गन्धयुक्त तुम्हारा और तुम्हारे संगियों का भी वर्त्तमान होता होगा।

प्रश्न—जैसे बन्ध मकान में जलाये हुए अग्नि की ज्वाला बाहर निकलके बाहर के जीवों को दुःख नहीं पहुँचा सकती, वैसे हम मुखपट्टी बाँध के वायु को रोककर बाहर के जीवों को न्यून दुःख पहुँचानेवाले हैं। मुखपट्टी बाँधने से बाहर के वायु के जीवों को पीड़ा नहीं पहुँचती। और जैसे सामने अग्नि जलाता है, उसको आड़ा हाथ देने से आँच कम लगती है। और वायु के जीव शरीरवाले होने से उनको पीड़ा अवश्य पहुँचती है।

उत्तर—यह तुम्हारी बात लड़केपन की है। प्रथम तो देखो, जहाँ छिद्र और भीतर के वायु का योग बाहर के वायु के साथ न हो तो वहाँ अग्नि जल ही नहीं सकता। जो इसको प्रत्यक्ष देखना चाहो तो किसी फानूस में दीप जलाकर सब छिद्र बंध करके देखो तो दीप उसी समय बुझ जायगा। जैसे पृथिवी पर रहनेवाले मनुष्यादि प्राणी बाहिर के वायु के योग के विना नहीं जी सकते, वैसे अग्नि भी नहीं जल सकता। जब एक ओर से अग्नि का वेग रोका जाय, तो दूसरी ओर अधिक वेग से निकलेगा और हाथ की आड़ करने से मुख पर आँच न्यून लगती है, परन्तु वह आँच हाथ पर अधिक लग रही है, इसलिए तुम्हारी बात ठीक नहीं।

प्रश्न—इसको सब कोई जानता है कि जब किसी बड़े मनुष्य से छोटा मनुष्य कान में वा निकट होकर बात कहता है तब मुख पर पल्ला वा हाथ लगाता है, इसलिए कि मुख से थूक उड़कर वा दुर्गन्ध उसको न लगे और जब पुस्तक बाँचता है, तब अवश्य थूक उड़कर उस पर गिरने से उच्छिष्ट होकर वह बिगड़ जाता है, इसलिए मुख-पट्टी बाँधना अच्छा है।

उत्तर—इससे यह सिद्ध हुआ कि जीवरक्षार्थ मुखपट्टी बाँधना व्यर्थ है। और जब कोई बड़े मनुष्य से बात करता है, तब मुख पर हाथ वा पल्ला इसलिए रखता है कि उस गुप्त बात को दूसरा कोई न सुन लेवे। क्योंकि जब कोई प्रसिद्ध बात करता है, तब कोई भी मुख पर हाथ वा पल्ला नहीं धरता। इससे क्या विदित होता है कि गुप्त बात के लिए यह बात है। दन्तधावनादि न करने से तुम्हारे मुखादि अवयवों से अत्यन्त दुर्गन्ध निकलता है और जब तुम किसी के पास वा कोई तुम्हारे पास बैठता होगा, तो विना दुर्गन्ध के अन्य क्या आता होगा, इत्यादि।

मुख के आड़ा हाथ वा पल्ला देने के प्रयोजन अन्य बहुत हैं। जैसे बहुत मनुष्यों के सामने गुप्त बात करने में जो हाथ वा पल्ला न लगाया जाय तो दूसरों की ओर वायु के फैलने से बात भी फैल जाय। जब वे दोनों एकान्त में बात करते हैं, तब मुख पर हाथ वा पल्ला इसलिए नहीं लगाते कि यहाँ तीसरा कोई सुननेवाला नहीं।

जो बड़ों ही के ऊपर थूक न गिरे, इससे क्या छोटों के ऊपर थूक गिराना चाहिए? और उस थूक से बच भी नहीं सकता। क्योंकि हम दूरस्थ बात करें और वायु हमारी ओर से दूसरे की ओर जाता हो तो सूक्ष्म होकर उसके शरीर पर वायु के साथ त्रसरेणु अवश्य गिरेंगे, उसका दोष गिनना अविद्या की बात है।

क्योंकि जो मुख की उष्णता से जीव मरते वा उनको पीड़ा     पहुँचती हो, तो वैशाख वा ज्येष्ठ महीने में सूर्य्य की महा उष्णता से वायुकाय के जीवों में से मरे विना एक भी न बच सके। सो उस उष्णता से भी वे जीव नहीं मर सकते, इसलिये यह तुम्हारा सिद्धान्त झूठा है। क्योंकि जो तुम्हारे तीर्थङ्कर भी पूर्ण विद्वान् होते, तो ऐसी व्यर्थ बातें क्यों करते?

देखो! पीड़ा उसी जीव को पहुँचती है, जिसकी वृत्ति सब अवयवों के साथ विद्यमान हो। इसमें प्रमाण—

पञ्चावयवयोगात्सुखसंवित्तिः॥

—यह सांख्यशास्त्र [५।२७] का सूत्र है॥

जब पाँचों इन्द्रियों का पाँच विषयों के साथ सम्बन्ध होता है तभी सुख वा दुःख की प्राप्ति जीव को होती है। जैसे बधिर को गाली प्रदान, अन्धे को रूप वा आगे से सर्प्प-व्याघ्रादि भयदायक जीवों का चला जाना, शून्य बहिरीवाले को स्पर्श, पिन्नस रोगवाले को गन्ध और शून्य जिह्वावाले को रस प्राप्त नहीं हो सकता, इसी प्रकार उन जीवों की भी व्यवस्था है।

देखो! जब मनुष्य का जीव सुषुप्ति दशा में रहता है तब उसको सुख वा दुःख की प्राप्ति कुछ भी नहीं होती, क्योंकि वह शरीर के भीतर तो है, परन्तु उसका बाहर के अवयवों के साथ उस समय सम्बन्ध न रहने से सुख-दुःख की प्राप्ति नहीं कर सकता।

और जैसे वैद्य वा आजकाल के डाक्तर लोग नशा की वस्तु खिला वा सुंघा के रोगी पुरुष के शरीर के अवयवों को काटते वा चीरते हैं, उसको उस समय कुछ भी दुःख विदित नहीं होता, वैसे वायुकाय अथवा अन्य स्थावर शरीरवाले जीवों को सुख वा दुःख प्राप्त कभी नहीं हो सकता।

जैसे मूर्च्छित प्राणी सुख-दुःख को प्राप्त नहीं हो सकता, वैसे वे वायुकायादि के जीव भी अत्यन्त मूर्च्छित होने से सुख-दुःख को प्राप्त नहीं हो सकते, फिर इनको पीड़ा से बचाने की बात सिद्ध कैसे हो सकती है? जब उनको सुख-दुःख की प्राप्ति ही प्रत्यक्ष नहीं होती, तो अनुमानादि यहाँ कैसे युक्त हो सकते हैं।

प्रश्न—जब वे जीव हैं तो उनको सुख-दुःख क्यों नहीं होता होगा?

उत्तर—सुनो भोले भाइयो! जब तुम सुषुप्ति में होते हो तब तुमको सुख-दुःख प्राप्त क्यों नहीं होते? सुख-दुःख की प्राप्ति के हेतु प्रसिद्ध सम्बन्ध है। अभी हम इसका उत्तर दे आये हैं कि नशा सुंघा के डाक्तर लोग अङ्गों को चीरते-फाड़ते और काटते हैं, जैसे उनको दुःख विदित नहीं होता, उसी प्रकार अतिमूर्च्छित जीवों को सुख-दुःख क्योंकर प्राप्त होवे? क्योंकि वहाँ प्राप्ति होने का साधन कोई भी नहीं।

प्रश्न—देखो! ‘निलोति’ अर्थात् जितने हरे शाक, पात और कन्दमूल हैं, उनको हम लोग नहीं खाते, क्योंकि निलोति में बहुत और कन्दमूल में अनन्त जीव हैं। जो हम उनको खावें तो उन जीवों को मारने और पीड़ा पहुँचने से हम लोग पापी हो जायं।

उत्तर—यह तुम्हारी बड़ी अविद्या की बात है। क्योंकि हरित शाक के खाने में जीव का मरना, उनको पीड़ा पहुँचनी क्योंकर मानते हो? भला, जब तुमको पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दीखती, और जो दीखती है तो हमको भी दिखलाओ। तुम कभी न प्रत्यक्ष देख वा हमको दिखा सकोगे। जब प्रत्यक्ष नहीं, तो अनुमान, उपमान और शब्दप्रमाण भी कभी नहीं घट सकता।

फिर जो हम ऊपर उत्तर दे आये हैं, वह इस बात का भी उत्तर है। क्योंकि जो अत्यन्त अन्धकार, महासुषुप्ति और महा नशा में जीव हैं, इनको सुख-दुःख की प्राप्ति मानना तुम्हारे तीर्थंकरों की भी भूल विदित होती है, जिन्होंने तुमको ऐसी युक्ति और विद्याविरुद्ध उपदेश किया है। भला, जब घर का अन्त है तो उसमें रहनेवाले अनन्त क्योंकर हो सकते हैं? जब कन्द का अन्त हम देखते हैं, तो उसमें रहनेवाले जीवों का अन्त क्यों नहीं? इससे यह तुम्हारी बात बड़ी भूल की है।

प्रश्न—देखो! तुम लोग विना उष्ण किए कच्चा पानी पीते हो, वह बड़ा पाप करते हो। जैसे हम उष्ण पानी पीते हैं, वैसे तुम लोग भी पिया करो।

उत्तर—यह भी तुम्हारी बात भ्रमजाल की है। क्योंकि जब तुम पानी को उष्ण करते हो, तब पानी के जीव सब मरते होंगे और उनका शरीर भी जल में रंधकर वह पानी सोंफ के अर्क के तुल्य होने से जानो तुम उनके शरीरों का ‘तेजाब’ पीते हो, इसमें तुम बड़े पापी हो। और जो ठंढा जल पीते हैं वे नहीं, क्योंकि जब ठंढा पानी पियेंगे, तब उदर में जाने से किञ्चित् उष्णता पाकर श्वास के साथ वे जीव बाहर निकल जायेंगे। जलकाय जीवों को सुख-दुःख प्राप्त पूर्वोक्त रीति से नहीं हो सकता, पुनः इसमें पाप किसी को नहीं होगा।

प्रश्न—जैसे जाठराग्नि की उष्णता पाके श्वास के साथ जीव बाहर निकल जाते हैं, वैसे अग्नि की उष्णता पाके जल से बाहर जीव क्यों न निकल जायेंगे?

उत्तर—हाँ निकल तो जाते, परन्तु जब तुम मुख के वायु की उष्णता से जीव का मरना मानते हो, तो जल उष्ण करने से तुम्हारे मताऽनुसार जीव मर जावेंगे वा अधिक पीड़ा पाकर निकलेंगे और उनके शरीर उस जल में रंध जायेंगे, इससे तुम अधिक पापी होगे वा नहीं?

प्रश्न—हम अपने हाथ से उष्ण जल नहीं करते और न किसी गृहस्थ को उष्ण जल करने की आज्ञा देते हैं, इसलिए हमको पाप नहीं।

उत्तर—जो तुम उष्ण जल न लेते, न पीते, तो गृहस्थ उष्ण क्यों करते? इसलिए उस पाप के भागी तुम ही हो, प्रत्युत अधिक पापी हो। क्योंकि जो तुम किसी एक गृहस्थ को उष्ण करने को कहते, तो एक ही ठिकाने उष्ण होता। जब वे गृहस्थ इस भ्रम में रहते हैं कि न जाने साधुजी किसके घर को आवेंगे, इसलिए प्रत्येक गृहस्थ अपने-अपने घरों में उष्ण जल कर रखते हैं, इसके पाप के भागी मुख्य तुम ही हो।

दूसरा—अधिक काष्ठ और अग्नि के जलने-जलाने से भी ऊपर लिखे प्रमाणे रसोई, खेती और व्यापारादि में अधिक पापी और नरकगामी होते हो। फिर जब तुम उष्ण जल कराने के मुख्य निमित्त और तुम उष्ण जल के पीने और ठंढे के न पीने के उपदेश करने से तुम ही मुख्य पाप के भागी हो। और जो तुम्हारा उपदेश मानकर ऐसी बातें करते हैं, वे भी पापी हैं।

अब देखो! कि तुम बड़ी अविद्या में होते हो, वा नहीं? कि—छोटे-छोटे जीवों पर दया करनी और अन्य मत वालों की निन्दा, अनुपकार करना क्या थोड़ा पाप है? जो तुम्हारे तीर्थंकरों का मत सच्चा होता, तो सृष्टि में इतनी वर्षा, नदियों का चलना और इतना जल क्यों उत्पन्न ईश्वर ने किया? और सूर्य्य को भी उत्पन्न न करता, क्योंकि इनमें क्रोड़ान्क्रोड़ जीव तुम्हारे मताऽनुसार मरते ही होंगे। जब वे विद्यमान थे और तुम जिनको ईश्वर मानते हो, उन्होंने दया कर सूर्य्य का ताप और मेघ को बंध क्यों न किया? और पूर्वोक्त प्रकार से विना विद्यमान साधनों के प्राणियों को दुःख-सुख की प्राप्ति, कन्दमूलादि पदार्थों में रहनेवाले जीवों को नहीं होती।

सर्वथा सब जीवों पर दया करना भी दुःख का कारण होता है। क्योंकि जो तुम्हारे मताऽनुसार सब मनुष्य हो जावें, चोर-डाकुओं को कोई भी दण्ड न देवे तो कितना बड़ा पाप खड़ा हो जाय? इसलिए दुष्टों को यथावत् दण्ड देने और श्रेष्ठों के पालन करने में दया और इससे विपरीत करने में दया क्षमारूप धर्म का नाश है।

कितनेक जैनी लोग दुकान करते, उन व्यवहारों में झूठ बोलते, पराया धन मारते और गरीबों को छलने आदि कुकर्म करते हैं, उनके निवारण में विशेष उपदेश क्यों नहीं करते और मुखपट्टी बाँधने आदि ढोंग में क्यों रहते हो?

जब तुम चेला-चेली करते हो। तब केशलुञ्चन और बहुत दिवस भूखे रहने में पराये वा अपने आत्मा को पीड़ा दे और पीड़ा को प्राप्त होके, दूसरों को दुःख देते और ‘आत्महत्या’ अर्थात् आत्मा को दुःख देनेवाले होकर हिंसक क्यों बनते हो? जब हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट पर चढ़ने, मनुष्यों को मजूरी कराने में पाप, जैनी लोग क्यों नहीं गिनते? जब तुम्हारे चेले ऊटपटांग बातों को सत्य नहीं कर सकते, तो तुम्हारे तीर्थङ्कर भी सत्य नहीं कर सकते। जब तुम कथा बांचते हो, तब मार्ग में श्रोताओं के और तुम्हारे मतानुसार जीव मरते ही होंगे, इसलिए तुम इस पाप के मुख्य कारण क्यों होते हो? इस थोड़े कथन से बहुत समझ लेना कि उन जल, स्थल, वायु के स्थावर शरीरवाले अत्यन्त मूर्च्छित जीवों को दुःख वा सुख कभी नहीं पहुँच सकता।

अब जैनियों की और भी थोड़ी सी असम्भव कथा लिखते हैं, सुनना चाहिए। और यह भी ध्यान में रखना कि अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का धनुष होता है और काल की संख्या जैसी पूर्व लिख आये हैं, वैसी ही समझना। रत्नसार भाग १, पृष्ठ १६६-१६७ तक में लिखा है—

(१) ऋषभदेव का शरीर ५०० पाँच सौ धनुष् लम्बा और ८४००००० (चौरासी लाख) पूर्व का आयु।

(२) अजितनाथ का ४५० धनुष् परिमाण का शरीर और ७२००००० (बहत्तर लाख) पूर्व वर्ष का आयु।

(३) संभवनाथ का ४०० चार सौ धनुष् परिमाण शरीर और ६०००००० (साठ लाख) पूर्व वर्ष का आयु।

(४) अभिनन्दन का ३५० साढ़े तीन सौ धनुष् का शरीर और ५०००००० (पचास लाख) पूर्व वर्ष का आयु।

(५) सुमतिनाथ का ३०० धनुष् परिमाण का शरीर और ४०००००० (चालीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु।

(६) पद्मप्रभ का १४० धनुष् का शरीर और ३०००००० (तीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु।

(७) सुपार्श्वनाथ का २०० धनुष् का शरीर और २०००००० (बीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु।

(८) चन्द्रप्रभ का १५० धनुष् परिमाण का शरीर और १०००००० (दश लाख) पूर्व वर्षों का आयु।

(९) सुविधिनाथ का १०० सौ धनुष् का शरीर और २००००० (दो लाख) पूर्व वर्ष का आयु।

(१०) शीतलनाथ का ९० नब्बे धनुष् का शरीर और १००००० (एक लाख) पूर्व वर्ष का आयु।

(११) श्रेयांसनाथ का ८० धनुष् का शरीर और ८४००००० (चौरासी लाख) वर्ष का आयु।

(१२) वासुपूज्य स्वामी का ७० धनुष् का शरीर और ७२००००० (बहत्तर लाख) वर्ष का आयु।

(१३) विमलनाथ का ६० धनुष् का शरीर और ६०००००० (साठ लाख) वर्षों का आयु।

(१४) अनन्तनाथ का ५० धनुष् का शरीर और ३०००००० (तीस लाख) वर्षों का आयु।

(१५) धर्मनाथ का ४५ धनुषों का शरीर और १०००००० (दश लाख) वर्षों का आयु।

(१६) शान्तिनाथ का ४० धनुषों का शरीर और १००००० (एक लाख) वर्ष का आयु।

(१७) कुन्थुनाथ का ३५ धनुष् का शरीर और ९५००० (पच्चानवे सहस्र) वर्षों का आयु।

(१८) अमरनाथ का ३० धनुषों का शरीर और ८४००० (चौरासी सहस्र) वर्षों का आयु।

(१९) मल्लीनाथ का २५ धनुषों का शरीर और ५५००० (पचपन सहस्र) वर्षों का आयु।

(२०) मुनि सुव्रत का २० धनुषों का शरीर और ३०००० (तीस सहस्र) वर्षों का आयु।

(२१) नमिनाथ का १४ धनुषों का शरीर और १०००० (दशसहस्र) वर्षों का आयु।

(२२) नेमिनाथ का १० धनुषों का शरीर और १००० (एक सहस्र) वर्ष का आयु।

(२३) पार्श्वनाथ का ९ हाथ का शरीर और १०० (सौ) वर्ष का आयु।

(२४) महावीर स्वामी का ७ हाथ का शरीर और ७२ वर्षों का आयु।

ये चौवीस तीर्थंकर जैनियों के मत चलानेवाले आचार्य और गुरु हैं, इन्हीं को जैनी लोग परमेश्वर मानते है और ये सब मोक्ष को गये हैं। इसमें बुद्धिमान् लोग विचार लेवें कि इतने बड़े शरीर और इतना आयु मनुष्यदेह का होना कभी सम्भव है? इस भूगोल में बहुत ही थोड़े मनुष्य वस सकते हैं। इन्हीं जैनियों के गपोड़े लेकर जो पुराणियों ने एक लाख, दश सहस्र और एक सहस्र वर्ष का आयु लिखा सो भी सम्भव नहीं हो सकता, तो जैनियों का कथन सम्भव कैसे हो सकता है?

अब और भी सुनो—कल्पभाष्य पृष्ठ ४—नागकेत ने ग्राम की बराबर एक शिला अंगुली पर धर ली!

कल्पभाष्य पृष्ठ ३५—महावीर ने अंगूठे से पृथिवी को दबाई, उससे शेषनाग कंप गया!

कल्पभाष्य पृष्ठ ४६—महावीर को सर्प ने काटा, रुधिर के बदले दूध निकला। और वह सर्प ८वें स्वर्ग को गया।

कल्पभाष्य पृष्ठ ४७—महावीर के पग पर खीर पकाई और पग न जले।

कल्पभाष्य पृष्ठ १६—छोटे से पात्र में ऊँट बुलाया।

रत्नसार भाग १, पृष्ठ १४—शरीर के मैल को न उतारें और न खुजलावें।

विवेकसार भाग १, पृष्ठ १५—जैनियों के एक दमसार साधु ने क्रोधित होकर उद्वेगजनक सूत्र पढ़कर एक शहर में आग लगा दी और महावीर तीर्थङ्कर का अति प्रिय था।

विवेकसार भाग १, पृष्ठ १२७—राजा की आज्ञा अवश्य माननी चाहिये।

विवेकसार पृष्ठ २२७—एक कोशा वेश्या ने थाली में सरसों की ढेरी लगा उसके ऊपर फूलों से ढकी हुई सुई खड़ी कर उसपर अच्छे प्रकार नाच किया, परन्तु सुई पग में गड़ने न पाई और सरसों की ढेरी बिखरी नहीं।

तत्त्वविवेक पृष्ठ २२८—इसी कोशा वेश्या के साथ एक स्थूलमुनि ने १२ वर्ष तक भोग किया और पश्चात् दीक्षा लेकर सद्गति को गया और कोशा वेश्या भी जैनधर्म को पालती हुई सद्गति को गई।

विवेकसार भाग १, पृष्ठ १८४—एक सिद्ध की कन्था जो गले में पहनी जाती है, वह ५०० अशर्फी एक वैश्य को नित्य देती रही।

विवेकसार भाग १, पृष्ठ २२८—बलवान् पुरुष की आज्ञा; देव की आज्ञा; घोर वन में कष्ट से निर्वाह; गुरु के रोकने, माता, पिता, कुलाचार्य्य, ज्ञातीय लोग और धर्मोंपदेष्टा इन छः के रोकने से धर्म में न्यूनता होने से धर्म की हानि नहीं होती।

समीक्षक—अब देखिये इनकी मिथ्या बातें! एक मनुष्य ग्राम के बराबर पाषाण की शिला को अंगुली पर कभी धर सकता है?॥१॥

और पृथिवी के ऊपर अंगूठे से दाबने से पृथिवी कभी दब सकती है? और जब शेषनाग ही नहीं तो कंपेगा कौन?॥२॥

भला, शरीर के काटने से दूध निकलना किसी ने नहीं देखा, सिवाय इन्द्रजाल के दूसरी बात नहीं। उसको काटनेवाला सर्प तो स्वर्ग में गया और महात्मा श्रीकृष्ण आदि तीसरे नरक को गये, यह कितनी मिथ्या बात है?॥३॥

जब महावीर के पग पर खीर पकाई तब उसके पग जल क्यों न गये?॥४॥

भला, छोटे से पात्र में कभी ऊंट आ सकता है?॥५॥

जो शरीर का मैल नहीं उतारते और न खुजलाते होंगे, वे दुर्गन्धरूप महा नरक भोगते होंगे॥६॥

जिस साधु ने नगर जलाया उसकी दया और क्षमा कहाँ गई? जब महावीर के संग से भी उसका पवित्र आत्मा न हुआ, तो अब महावीर के मरे पीछे, उसके आश्रय से जैन लोग कभी पवित्र न होंगे॥७॥

राजा की आज्ञा माननी चाहिये परन्तु जैन लोग बनिये हैं, इसलिये राजा से डरकर यह बात लिख दी होगी॥८॥

कोशा वेश्या चाहे उसका शरीर कितना ही हल्का हो तो भी सरसों की ढेरी पर सुई खड़ी करके उसके ऊपर नाचना, सुई का न छिदना और सरसों का न बिखरना, अतीव झूठ नहीं तो क्या है॥९-१०॥

भला, कन्था वस्त्र का होता है वह नित्यप्रति ५०० अशर्फी किस प्रकार दे सकता है?॥११॥

धर्म्म किसी को किसी अवस्था में भी न छोड़ना चाहिये, चाहे कुछ भी हो जाय?॥१२॥

अब ऐसी-ऐसी असम्भव कहानी इनकी लिखें तो जैनियों के थोथे पोथों के सदृश बहुत बढ़ जाय, इसलिये अधिक नहीं लिखते। अर्थात् थोड़ी सी इन जैनियों की बातें छोड़के शेष सब मिथ्या-जाल भरा है। देखिये—

दो ससि दो रवि पढमे। दुगुणा लवणंमि धायई संमे॥

बारस ससि बारस रवि। तप्पभिइ निदिट्ठ ससि रविणो॥ ७७॥

तिगुणा पुव्विल्ल जुया। अणंतरा णंतरं मिखित्तंमि॥

कालो ए बायाला। बिसत्तरी पुस्कर द्धंमि॥ ७८॥

—प्रकरणरत्नाकर भा॰ ४। संग्रहणी सूत्र ७७-७८॥

जो जम्बूद्वीप लाख योजन अर्थात् ४ चार लाख कोश का लिखा है, उनमें यह पहिला द्वीप कहाता है। इसमें दो चन्द्र और दो सूर्य्य हैं और वैसे ही लवण समुद्र में उससे दुगुणे अर्थात् ४ चन्द्रमा और ४ सूर्य हैं तथा धातकीखण्ड में बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य्य हैं॥७७॥

और इनको तिगुणा करने से छत्तीस होते हैं। उनके साथ दो जम्बूद्वीप के और चार लवण समुद्र के मिलकर बयालीस चन्द्रमा और बयालीस सूर्य्य कालोदधि समुद्र में हैं। इसी प्रकार अगले-अगले द्वीप और समुद्रों में पूर्वोक्त ब्यालीस को तिगुणा करें तो एक सौ छब्बीस होते हैं। उनमें धातकीखण्ड के बारह, लवण समुद्र के ४ चार और जम्बूद्वीप के दो इस रीति से मिला कर १४४ एक सौ चवालीस चन्द्र, १४४ सूर्य्य पुष्करद्वीप में हैं। यह भी आधे मनुष्यक्षेत्र की गणना है। परन्तु जहां मनुष्य नहीं रहते हैं, वहां बहुत से सूर्य्य और बहुत से चन्द्र हैं। और जो पिछले अर्ध पुष्करद्वीप में बहुत चन्द्र और बहुत सूर्य्य हैं, वे स्थिर हैं। पूर्वोक्त एक सौ चवालीस को तिगुणा करने से ४३२ और उनमें पूर्वोक्त जम्बूद्वीप के दो चन्द्रमा, दो सूर्य्य, चार-चार लवण समुद्र के और बारह-बारह धातकीखण्ड के और बयालीस कालोदधि के मिलाने से ४९२ चन्द्रमा तथा ४९२ सूर्य पुष्कर समुद्र में हैं॥७८॥

ये सब बातें श्रीजिनभद्रगणीक्षमाश्रमण ने बड़ी ‘सङ्घयणी’ में तथा ‘योतिष्करण्डकपयन्ना’ मध्ये और ‘चंदपन्नती’ तथा ‘सूरपन्नती’ प्रमुख सिद्धान्तग्रन्थों में इसी प्रकार कही हैं॥

समीक्षक—अब सुनिये भूगोल-खगोल के जाननेवालो! इस एक भूगोल में एक प्रकार ४९२ चार सौ बानवे और दूसरी प्रकार असंख्य चन्द्र और सूर्य जैनी लोग मानते हैं! आप लोगों का बड़ा भाग्य है कि वेदमतानुयायी सूर्य्यसिद्धान्तादि ज्योतिष ग्रन्थों के अध्ययन से ठीक-ठीक भूगोल-खगोल विदित हुए। जो कहीं जैन के महा अन्धेर मत में होते तो जन्मभर अन्धेर में रहते, जैसे कि जैनी लोग आजकाल हैं। इन अविद्वानों को यह शङ्का हुई कि जम्बूद्वीप में एक सूर्य और एक चन्द्र से काम नहीं चलता, क्योंकि इतनी बड़ी पृथिवी को तीस घड़ी में दूसरे भाग में चन्द्र-सूर्य कैसे आ सकें? क्योंकि पृथिवी को ये लोग सूर्यादि से भी बड़ी और स्थिर मानते हैं, यही इनकी बड़ी भूल है।

दो ससि दो रवि पंती, एगंतरिया छसट्ठि संखाया॥

मेरुं पयाहिणंता। माणुस खित्ते परिअडंति॥ ७९॥

—संग्रहणी सूत्र ७९॥

अर्थ—मनुष्यलोक में चन्द्रमा और सूर्य की पङ्क्ति की संख्या कहते हैं। दो चन्द्रमा और दो सूर्य की पङ्क्ति (श्रेणी) हैं, वे एक-एक लाख-लाख योजन अर्थात् चार-चार लाख कोश के आन्तरे चलते हैं। जैसे एक सूर्य की पङ्क्ति के आन्तरे एक पङ्क्ति चन्द्रमा की है इसी प्रकार चन्द्रमा की पङ्क्ति के आन्तरे सूर्य की पङ्क्ति है, इसी रीति से चार पङ्क्ति हैं। वे एक-एक चन्द्र पङ्क्ति में ६६ चन्द्रमा और एक-एक सूर्य की पङ्क्ति में ६६ सूर्य हैं। वे चारों पङ्क्ति जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करती हुई मनुष्यक्षेत्र में परिभ्रमण करती हैं। अर्थात् जिस समय जम्बूद्वीप के मेरु से एक सूर्य दक्षिण दिशा में विहरता, उस समय दूसरा सूर्य उत्तर दिशा में फिरता है। वैसे ही लवण समुद्र की एक-एक दिशा में दो-दो सूर्य चलते-फिरते, धातकीखण्ड के ६, कालोदधि के २१, पुष्करार्द्ध के ३६, इस प्रकार सब मिलकर ६६ सूर्य दक्षिण दिशा और ६६ सूर्य उत्तर दिशा में अपने-अपने क्रम से फिरते हैं। और जब इन दोनों दिशाओं के सब सूर्य मिलाये जायें तो १३२ सूर्य, ऐसे ही छासठ-छासठ चन्द्रमा की दोनों दिशाओं की पङ्क्तियाँ मिलाई जायें, तो १३२ चन्द्रमा मनुष्यलोक में चाल चलते हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा के साथ नक्षत्रादि की भी पङ्क्तियाँ बहुत सी जाननी॥७९॥

समीक्षक—अब देखो भाई! इस भूगोल में १३२ सूर्य और १३२ चन्द्रमा जैनियों के घर पर तपते होंगे! भला जो तपते होंगे तो वे जीते कैसे हैं? और रात्रि में भी शीत के मारे जैनी लोग जकड़ जाते होंगे? ऐसी असम्भव बात में भूगोल-खगोल के न जाननेवाले फसते हैं, अन्य नहीं। जब एक सूर्य इस भूगोल के सदृश अन्य अनेक भूगोलों को प्रकाशता है तो इस छोटे से भूगोल की क्या कथा कहनी? और जो पृथिवी न घूमे और सूर्य पृथिवी के चारों ओर घूमे तो कै एक वर्षों का दिन और रात होवे। और सुमेरु विना हिमालय के दूसरा कोई भी नहीं। यह सूर्य के सामने एक घड़े के सामने तिल के बराबर भी नहीं है। इन बातों को जैनी लोग, जब-तक उसी मत में रहेंगे, तबतक नहीं जान सकते, किन्तु सदा अन्धेर में रहेंगे॥ ७९॥

सम्मत्त चरण सहिया। सव्वं लोगं फुसे निरवसेसं।

सत्तय चउदसभाए। पंचय सुय देस विरईए॥ १३५॥

—संग्रहणी सूत्र १३५॥

अर्थ—सम्यक्चारित्र सहित जो केवली, वे केवल समुद्घात अवस्था से सर्व चौदह राज्य-लोक अपने आत्मप्रदेश करके फिरेंगे॥१३५॥

समीक्षक—जैनी लोग १४ चौदह राज्य मानते हैं, उनमें से चौदहवें की शिखा पर सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा से ऊपर थोड़े दूर पर सिद्धशिला तथा दिव्य आकाश को शिवपुर कहते हैं। उसमें ‘केवली’ अर्थात् जिनको केवलज्ञान, सर्वज्ञता, पूर्ण पवित्रता प्राप्त हुई है, वे उस लोक में जाते हैं और अपने आत्मप्रदेश से सर्वज्ञ रहते हैं। जिसका प्रदेश होता है वह विभु नहीं, जो विभु नहीं, वह सर्वज्ञ केवलज्ञानी कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जिसका आत्मा एकदेशी है, वही जाता-आता है और बद्ध, मुक्त, ज्ञानी, अज्ञानी होता है। सर्वव्यापी सर्वज्ञ वैसा कभी नहीं हो सकता। जो जैनियों के तीर्थंकर जीवरूप अल्प-अल्पज्ञ होकर स्थित थे, वे सर्वव्यापक-सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकते। किन्तु जो परमात्मा अनाद्यनन्त, सर्वव्यापक, पवित्र, ज्ञानस्वरूप है, उसको जैनी लोग नहीं मानते कि जिसमें सर्वज्ञतादि गुण यथातथ्य घटते हैं॥ १३५॥

गब्भनर ति पलियाऊ। तिगाउ उक्कोस ते जहन्नेणं।

मुच्छिम दुहावि अंत मुहु। अंगुल असंख भागतणू॥ २४१॥

—संग्रहणी २४१॥

अर्थ—यहाँ मनुष्य दो प्रकार के हैं। एक गर्भज, दूसरे जो गर्भ के विना उत्पन्न हुए। उनमें गर्भज मनुष्य का उत्कृष्ट तीन पल्योपम का आयुष जानना और तीन कोश का शरीर॥२४१॥

समीक्षक—भला, तीन पल्योपम का आयु और तीन कोश के शरीरवाले मनुष्य इस भूगोल में बहुत थोड़े समा सकें और फिर तीन पल्योपम कि जैसी पूर्व लिख आये हैं, उतने समय तक जीयें तो वैसे ही उनके सन्तान भी तीन-तीन कोश के शरीरवाले होने चाहियें, जैसे मुम्बई में दो-एक और कलकत्ते में तीन वा चार मनुष्य निवास कर सकते हैं। जो ऐसा तो जैनियों ने एक नगर में लाखों मनुष्य लिखे हैं तो उनके रहने का नगर भी लाखों कोशों का चाहिये, तो सब भूगोल में वैसा एक नगर भी न बस सके॥ २४१॥

पणयाल लरकजोयण। विरकंभा सिद्धिसिल फलिह विमला।

तदुवरि गजोयणंते। लोगंतो तच्छ सिद्धठिई॥२५८॥

अर्थ—जो सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा से ऊपर १२ योजन सिद्धशिला है, वह वाटला और लम्बेपन और पोलपन में ४५ पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है, वह सब धवला अर्जुन सुवर्णमय स्फटिक के समान निर्मल सिद्धशिला की सिद्धभूमि है। इसको कोई ‘ईषत् प्राग्भारा’ ऐसा नाम कहते हैं। यह सर्वार्थसिद्धशिला विमान से १२ योजन अलोक भी है। यह परमार्थ केवली बहुश्रुत जानता है। यह शिद्धशिला सर्वथा मध्य भाग में ८ योजन स्थूल है। वहाँ से ४ दिशा और ४ उपदिशा में घटती-घटती मक्खी की पाँख के सदृश पतली उत्तानछत्र और आकार करके सिद्धशिला की स्थापना है, उस शिला से ऊपर १ एक योजन के आँतरे लोकान्त है, वहाँ सिद्धों की स्थिति अर्थात् निवास होता है॥२५८॥

समीक्षक—अब विचारना चाहिए कि जैनियों के मुक्ति का स्थान सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा के ऊपर पैंतालीस लाख योजन की शिला अर्थात् चाहे ऐसी अच्छी और निर्मल हो तथापि उसमें रहनेवाले मुक्त जीव एक प्रकार के बद्ध हैं, क्योंकि उस शिला से बाहर निकलने से मुक्ति के सुख से छूट जाते होंगे। और जो भीतर रहते होंगे तो उनको वायु भी न लगता होगा। यह केवल कल्पनामात्र अविद्वानों को फसाने के लिए भ्रमजाल है॥ २५८॥

[जोयणसहस्स महियं। एगिंदियदेह मुक्कोसं॥ २६६॥]

बि ति चउरिंदिय सरीरं। बारस जोयण तिकोस चउकोसं।

जोयण सहस पणिंदिय। उहे वुच्छं विसेसंतु॥ २६७॥

—संग्रह सू॰ २६७॥

अर्थ—सामान्यपन से एकेन्द्रिय का शरीर १ सहस्र योजन के शरीरवाला उत्कृष्ट जानना॥ २६६॥ और दो इन्द्रियवाले जो शंखादि उनका शरीर १२ योजन का जानना। वैसे ही [तीन इन्द्रिय वाले] कीड़ी-मकोड़ादि का [शरीर] ३ तीन कोश का जानना। और चतुरिन्द्रिय भ्रमरादि का शरीर ४ कोश का और पञ्चेन्द्रिय एक सहस्र योजन अर्थात् ४ सहस्र कोश के शरीरवाले जानना॥२६७॥

समीक्षक—चार-चार सहस्र कोश के प्रमाणवाले शरीर हों तो भूगोल में तो बहुत थोड़े मनुष्य अर्थात् सैकड़ों मनुष्यों से भूगोल ठस भर जाय, किसी को चलने की जगह भी न रहे। फिर वे जैनियों से रहने का ठिकाना और मार्ग पूछें। और जो इन्होंने लिखा है, तो अपने घर में रख लें। परन्तु चार सहस्र कोश के शरीरवाले को निवासार्थ कोई एक के लिए ३२ सहस्र कोश का घर तो चाहिए। ऐसे एक घर के बनाने में जैनियों का सब धन चुक जाय, तो भी घर न बन सके। इतने बड़े आठ सहस्र कोश की छत्त बनाने के लिए लट्ठे कहाँ से लावेंगे? और जो उसमें खंभा लगावें तो वह भीतर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिए ऐसी बातें मिथ्या हुआ करती हैं॥ २६६-२६७॥

ते थूला पल्ले विहु। संखिज्जाचेवहुंति सव्वेवि।

ते इक्किक्क असंखे। सुहुमे खंडे पकप्पेह॥ ४॥

—प्रकरण॰ भा॰ ४। लघुक्षेत्रसमासप्रकरण ४॥

अर्थ—पूर्वोक्त एक अंगुल लोम के खण्डों से ४ कोश का चौरस और उतना ही गहिरा कुआ हो, अंगुल प्रमाण लोम का खण्ड सब मिलके २२९३७६ दो लाख उनत्तीस सहस्र तीन सौ छिहत्तर होते हैं और अधिक से अधिक (३३०७६२१०४, २४६५६२५, ४२१९९६०, ९७५३६००, ०००००००) तैंतीस करोड़ा-करोड़ी, सात लाख बासठ हजार एक सौ चार करोड़ा-करोड़ी, चौवीस लाख पैंसठ हजार छः सौ पच्चीस इतने करोड़ा-करोड़ी तथा बयालीस लाख उन्नीस हज़ार नौ सौ साठ इतनी करोड़ा-करोड़ी तथा सत्तानवे लाख त्रेपन हजार और छः सौ क्रोड़ाक्रोड़ी, इतनी वाटला घन जोजन पल्योपम में सर्व स्थूल रोम खण्ड की संख्या होवे, यह भी संख्यातकाल होता है। पूर्वोक्त एक-एक लोम खण्ड के असंख्यात खंड मन से कल्पे तब असंख्यात सूक्ष्म रोमाणु होवें॥४॥

समीक्षक—अब देखिये इनकी गिनती की रीति! एक अंगुल प्रमाण लोम के कितने खंड किये! यह कभी किसी की गिनती में आ सकते हैं? और उसके उपरान्त मन से असंख्य खंड कल्पते हैं, इससे पूर्वोक्त खंड जैनियों ने हाथों से किये होंगे, ऐसा विदित होता है। यह बात कभी सम्भव नहीं॥ ४॥

जंबूद्वीव पमाणं गुलजोयाण लरक वट्ट विरकंभो।

लवणाई यासेसा। वलयाभा दुगुण दुगुणाय॥१२॥

—प्र॰ भा॰ ४ लघुक्षेत्रस॰ १२॥

अर्थ—प्रथम जम्बूद्वीप का लाख योजन का प्रमाण और पोला है। और बाकी लवणादि सात समुद्र तथा सात द्वीप, जम्बूद्वीप के प्रमाण से दुगुणे-दुगुणे हैं। इस एक पृथिवी में जम्बूद्वीपादि सात द्वीप और सात समुद्र हैं, जैसे कि पूर्व लिख आये हैं॥१२॥

समीक्षक—अब जम्बूद्वीप से दूसरा द्वीप दो लाख योजन, तीसरा चार लाख योजन, चौथा आठ लाख योजन, पाँचवाँ सोलह लाख योजन, छठा बत्तीस लाख योजन और सातवाँ चौसठ लाख योजन और उतने प्रमाण वा उनसे अधिक समुद्र के प्रमाण से इस पन्द्रह सहस्र [कोश] परिधिवाले भूगोल में क्योंकर समा सकते हैं? इससे यह बात केवल मिथ्या है॥ १२॥

कुरु नइ चुलसी सहसा। छच्चेवंतर नईउ पइ विजयं।

दो दो महा नईउ। चउ दस सहसाउ पत्तेयं॥६३॥

प्रकरणरत्ना॰ भा॰ ४, लघुक्षेत्रस॰ ६३॥

अर्थ—कुरुक्षेत्र में ८४ चौरासी सहस्र नदी हैं॥६३॥

समीक्षक—भला, कुरुक्षेत्र बहुत छोटा देश है, उसको न देखकर एक मिथ्या बात लिखने में इनको लज्जा भी न आई॥ ६३॥

जामुत्तराउ ताउ। इगेग सिंहासणाउ अइपुव्वं।

चउसुवि तासु नियासण, दिसिभवजिणमज्जणं होइ॥ ११९॥

—प्र॰ भा॰ ४। लघुक्षेत्रस॰ सू॰ ११९॥

अर्थ—उस शिला के विशेष दक्षिण और उत्तर दिशा में एक-एक सिंहासन जानना चाहिये। उन शिलाओं के नाम दक्षिण दिशा में अति-पाण्डु-कम्बला, उत्तर दिशा में अति-रक्त-कम्बला शिला है। उन सिंहासनों पर तीर्थङ्कर बैठते हैं॥११९॥

समीक्षक—देखिये इनके तीर्थङ्करों के जन्मोत्सवादि करने की शिला को! ऐसी ही मुक्ति की सिद्धशिला है। ऐसी इनकी बहुत बातें गोलमाल पोलपाल बहुत-सी हैं, कहाँ तक लिखें?॥ ११९॥

किन्तु जल छान के पीना, और सूक्ष्म जीवों पर नाममात्र दया करना, रात्रि को भोजन न करना ये तीन बातें अच्छी हैं। बाकी जितना इनका कथन है, सब असम्भवग्रस्त है।

इतने ही लेख से बुद्धिमान् लोग बहुत सा जान लेंगे, यह थोड़ा सा दृष्टान्तमात्र लिखा है। जो इनकी असम्भव सब बातें लिखें तो इतने पुस्तक हो जायें कि एक पुरुष आयुभर में पाठ भी न कर सके।

इसलिये एक हण्डे में चुड़ते चावलों में से एक चावल की परीक्षा से कच्चे वा पक्के हैं, सब चावल विदित हो जाते हैं। ऐसे ही इस थोड़े से लेख से सज्जन लोग बहुत सी बातें समझ लेंगे। बुद्धिमानों के सामने बहुत लिखना आवश्यक नहीं। क्योंकि दिग्दर्शनवत् सम्पूर्ण आशय को बुद्धिमान् लोग जान ही लेते हैं।

इसके आगे ईसाइयों के मत के विषय में लिखा जायगा।

इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिनिर्मिते सत्यार्थप्रकाशे

सुभाषाविभूषिते नास्तिकमतान्तर्गतचार्वाक-

बौद्धजैनमतखण्डनमण्डनविषये

द्वादशः समुल्लासः सम्पूर्णः॥१२॥