ओ३म्
अथ सत्यार्थप्रकाश :
श्रीयुक्तदयानन्दसरस्वतीस्वामिविरचितः
दयाया आनन्दो विलसति परः स्वात्मविदितः, सरस्वत्यस्यान्ते निवसति मुदा सत्यशरणा । तदाख्यातिर्यस्य प्रकटितगुणा राष्ट्रिपरमा, सको दान्तः शान्तो विदितविदितो वेद्यविदितः ॥ १ ॥
सत्यार्थस्य प्रकाशाय ग्रन्थस्तेनैव निर्मितः । वेदादिसत्यशास्त्राणां प्रमाणैर्गुणसंयुतः ॥ २ ॥
विशेषभागीह वृणोति यो हितं, प्रियोऽत्र विद्यां सुकरोति तात्त्विकीम् । अशेषदुःखात्तु विमुच्य विद्यया,
स मोक्षमाप्नोति न कामकामुकः ॥ ३॥
न ततः फलमस्ति हितं विदुषो,
ह्यधिकं परमं सुलभन्नु पदम्।
लभते सुयतो भवतीह सुखी,
कपटी सुसुखी भविता न सदा ॥ ४ ॥
धर्मात्मा विजयी स शास्त्रशरणो विज्ञानविद्यावरोऽ–
धर्मेणैव
हतो विकारसहितोऽधर्मस्सुदुःखप्रदः ।
येनाऽसौ विधिवाक्यमानमननात् पाखण्डखण्डः कृतः,
सत्यं यो विदधाति शास्त्रविहितं धन्योऽस्तु तादृग्घि सः ॥ ५ ॥ १
१. ये श्लोक सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण, १८७५ ) की मूलप्रति में विषयसूची के पश्चात् लिखे हुये हैं । महर्षि दयानन्द के ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका‘, ‘संस्कारविधि‘, ‘आर्याभिविनय‘ आदि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार श्लोक लिखने की शैली मिलती है । ये श्लोक प्रथम और द्वितीय संस्करण में किसी कारणवश प्रकाशित नहीं हो पाये थे । ऋषिकृत श्लोकों को सुरक्षित रखने और उनकी शैलीगत परम्परा को संरक्षित रखने के लिए ये यहां प्रकाशित किये जा रहे हैं।
( परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित संस्करण ३९ में टिप्पणी )
भूमिका
‘सत्यार्थप्रकाश‘ को दूसरी वार शुद्ध कर छपवाया है; क्योंकि जिस समय मैंने यह ग्रन्थ बनाया था, उस समय और उससे पूर्व संस्कृत भाषण करना, पठन–पाठन में संस्कृत ही बोलने का अभ्यास रहना और जन्मभूमि की भाषा ‘गुजराती‘ थी, इत्यादि कारणों से मुझको इस भाषा का विशेष परिज्ञान
चिदानन्दम्, दयानन्दमृषिं नत्वाऽतिश्रद्धया । ‘सत्यार्थस्य‘ समीक्षेयं क्रियते हितकाङ्क्षया ॥ सर्वशास्त्रार्थसारो ऽसौ सत्यासत्यप्रकाशकः । वाञ्छेयं धर्मशास्त्रः स्यात् शुद्धः सर्वाङ्गशोभनः ॥
”
१. महर्षि के हाथ से लिखे वाक्य का मुद्रणसमय में परिवर्तन – मुद्रण– प्रति में यह वाक्य महर्षि ने अपने हस्तलेख में लिखा है । ऊपर महर्षि के उसी हस्तलेख की अनुकृति है । द्वितीय संस्करण (सन् १८८४) में यहां मुद्रणसमय में ” ओ३म् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नमः
पाठ किसी शोधक ने परिवर्तित कर दिया। उन आर्य सम्पादकों को क्या कहा जाये जो आज तक महर्षि के हस्तलिखित वाक्य को तो अग्राह्य और किसी लेखक– शोधक के वाक्य को ग्राह्य मानकर उसे ही आग्रहपूर्वक प्रकाशित करते चले आ रहे हैं। उन्होंने तो स्पष्ट रूप से उस लेखक को महर्षि से बड़ा विद्वान् मान ही लिया है न ? वेस, जग, भद, युमी, विस, जस, उदयपुर सं० आदि द्वितीय संस्करणों में महर्षि लिखित वाक्य ग्रहण नहीं किया है अपितु किसी शोधक द्वारा परिवर्तित वाक्य ग्रहण किया हुआ है।
२. सत्यार्थप्रकाश की प्रेरणा और रचना का विवरण – महर्षि दयानन्द जब ज्येष्ठ संवत् १९३१ ( मई, सन् १८७४ ई०) में काशी पधारे, तब राजा जयकृष्णदास ने, जो वहां डिप्टी कलेक्टर थे, महर्षि से निवेदन किया कि ‘आपके उपदेशामृत का लाभ सभी जन नहीं उठा पाते, आपके विचार अद्भुत हैं, उन्हें चिरस्थायी बनाने के लिए ग्रन्थ के रूप में निबद्ध कर दीजिये । उसके लेखन– प्रकाशन का समस्त व्यय मैं वहन करूँगा।‘
(क) प्रथम संस्करण – राजा जयकृष्णदास के प्रस्ताव को स्वीकार करने के उपरान्त प्रथम आषाढ़ बदि १३, संवत् १९३१ (१२ जून, सन् १८७४) शुक्रवार के दिन काशी में सत्यार्थप्रकाश लिखाने का कार्य आरम्भ हुआ । महर्षि बोलते जाते थे और महाराष्ट्रीय पं० चन्द्रशेखर लिखते जाते थे । उसको पूर्ण करके प्रकाशनार्थ राजा जी को देकर महर्षि अपने कार्यक्रमों पर निकल गये । मुद्रित होते समय उसमें प्रकाशकों ने मृतक श्राद्ध, मांस– यज्ञ, कन्याओं का यज्ञोपवीत संस्कार न करना आदि महर्षि विरुद्ध मन्तव्य मिला दिये । पाठकों द्वारा ध्यान आकृष्ट करने के बाद महर्षि ने संवत् १९३५ में यजुर्वेद भाष्य के श्रावण और भाद्रपद में छपे प्रथम और द्वितीय अंकों के मुखपृष्ठ के पृष्ठभाग में विज्ञापन छपवाकर मृतक श्राद्ध और यज्ञ में मांसविधान आदि वेदविरुद्ध बातों का खण्डन किया था । प्रथम संस्करण में सत्यार्थप्रकाश के चौदह समुल्लास लिखाये गये थे किन्तु राजा जयकृष्णदास ने अंग्रेजों का रोषभाजन बन जाने के भय के कारण विशेष से बारह समुल्लास ही प्रथम संस्करण में छपवाये । चौदह समुल्लासों की हस्तलिखित प्रति राजा जयकृष्णदास के घर सुरक्षित थी, जो अब परोपकारिणी सभा, अजमेर के पास सुरक्षित है ।
(ख) द्वितीय संस्करण – यात्रा काल में पूर्वलिखित और सुलेखित सत्यार्थप्रकाश के मुद्रण– हस्तलेख को, संवत् १९३९ (अगस्त, सन् १८८२) मेँ उदयपुर के नवलखा महल (गुलाब बाग) में आने के बाद, वहां निवास करते हुए महर्षि ने प्रकाशनार्थ प्रेस में भिजवाना आरम्भ किया था । महर्षि के देहान्त (दीपावली, ३० अक्तूबर १८८३) से कम से कम एक मास पूर्व ३० सितम्बर १८८३ को विष दिये जाने तक इस चौदह समुल्लास – युक्त सत्यार्थप्रकाश की तेरहवें (आधे ) समुल्लास तक की मुद्रणप्रति के पृष्ठ ३४५ (३६६) तक का संशोधन ऋषि ने किया था, आगे विषजन्य रुग्णता के कारण वे नहीं कर सके । अर्थात् बाद के डेढ़ समुल्लास असंशोधित ही रह गये । इसी प्रकाशित द्वितीय संस्करण (१८८४) के पृष्ठ ३२० के बाद अर्थात् अन्त के आधे सत्यार्थप्रकाश का निरीक्षण ऋषि नहीं कर सके। महर्षि की दृष्टि से वह असंशोधित ही रहा। इसकी जानकारी मुंशी समर्थदान को लिखे पत्रों से मिलती है। महर्षि के देहान्त तक ग्यारह समुल्लास ही छप पाये। महर्षि के देहान्त के पश्चात् कई मास तक प्रेस बन्द रहा, अत: दिसम्बर १८८४ ई० में द्वितीय संस्करण (१८८४) प्रकाशित होकर पाठकों को मिल पाया।
पत्र व्यवहार से यह भी जानकारी मिलती है कि महर्षि ने सत्यार्थप्रकाश की आरम्भिक सामग्री ( भूमिका के ५ पृष्ठ और प्रथम समुल्लास से लेकर ३२ पृष्ठ आगे के) भाद्रपद बदि १, मंगलवार संवत् १९३९ (२९ अगस्त १८८२) को प्रेस में भेजी थी (ऋषि दयानन्द के पत्र – विज्ञापन, पृ० ३५८) । भूमिका के अन्त में ” स्थान महाराणा जी का उदयपुर“, और ” भाद्रपद शुक्लपक्ष, संवत् १९३९। तिथि लिखी है। ये वाक्य मुद्रण के आरम्भिक समय मुंशी समर्थदान के हस्तलेख में लिखे गये हैं । ‘ ( स्वामी ) दयानन्द सरस्वती‘ नाम भी इन्हीं के हाथ का लिखा है I
द्वितीय संस्करण का एक ‘मूलहस्तलेख‘ उपलब्ध है जो महर्षि ने बोलकर लिखाया था और वेतनभोगी लिपिकरों ने लिखा था। पुनः उसको ऋषि ने स्वहस्त से दो बार संशोधित भी किया। तत्पश्चात् लिपिकरों ने ही उससे देखकर ‘प्रेस कापी‘ (मुद्रण– प्रति) तैयार की जिसमें पुनर्लेखन करते समय भाषा परिवर्तन, वाक्यभेद, कांट–छांट, वाक्य– विस्तार, अनुच्छेद – विस्तार आदि सैंकड़ों परिवर्तन किये हैं तथा सैकड़ों जगह जाने–अनजाने अक्षर, पद एवं वाक्य, पृष्ठ आदि त्रुटित रह गये हैं । इस प्रकार के परिवर्तनों की संख्या लगभग २००० है । वे सभी लेखक घोर रूढ़िवादी एवं जातिवादी संस्कारों के थे, इस कारण कई स्थानों पर उन्होंने पाठ को अपने ढंग से बिगाड़ा है। कार्याधिक्य, समयाभाव और अतिव्यस्तता के कारण महर्षि उसको गम्भीरता से नहीं देख पाये और भाषा के लिए अधिकांशतः वे उन्हीं निष्ठाहीन लेखकों पर ही निर्भर रहे। उसमें बहुत अशुद्धियाँ रह गईं और जब– जब जो ध्यान में आईं आगामी संस्करणों में सम्पादक उनको क्रमशः सुधारते गये। यही कारण है कि द्वितीय संस्करण के प्रत्येक प्रकाशन में उत्तरोत्तर संशोधन मिलते हैं। वे संशोधन फुटकर रूप से ‘मूल हस्तलेख‘ के आधार पर ही होते रहे हैं। पता नहीं क्यों, किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कि दोनों हस्तलेखों का सम्पूर्णतः मिलान करके एक बार ही ‘शुद्ध संस्करण‘ प्रस्तुत कर दिया जाये। परोपकारिणी सभा, अजमेर ने ३७,३८,३९ वें संस्करण के रूप में ‘मूल हस्तलेख‘ को मुख्य आधार बनाकर मुद्रणप्रति व द्वितीय संस्करण में ऋषिकृत संशोधनों, परिवर्तनों, परिवर्धनों को ग्रहण करके छापा है। हमने अवशिष्ट त्रुटियों को इस संस्करण में दूर करने का यथाशक्ति प्रयास किया है। इस महान् ग्रन्थ का ‘शुद्धतम संस्करण‘ प्रस्तुत करना हमारा लक्ष्य है । यह भी सद्भावना है कि एकरूप संस्करण बन सके और वही प्रचलित रहे ।
३. मुद्रणसमय में मुंशी समर्थदान द्वारा अनर्थकारी परिवर्तन – कभी – कभी कोई व्यक्ति जब ग्रन्थकार की भाषा की गम्भीरता को समझे बिना संशोधन करता है तो ऐसा ही अनर्थ होता है जैसा इस स्थान पर हुआ है। द्वितीय संस्करण (१८८४) में मुद्रणकाल में ऋषि के लिखे हस्तलेख को बदलकर यहां यह अवांछनीय वाक्य बना दिया – “इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी, अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास हो गया है । इसलिए इस ग्रन्थ की भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके, दूसरी बार छपवाया है।” यही आपत्तिजनक पाठ अब सभी द्वि०सं० में मिल रहा है। इस परिवर्तन से यह अनर्थ प्रकट होता है कि महर्षि अब तक अपनी भाषा के अशुद्ध होने, न बोल पाने और न लिख पाने की स्वीकारोक्ति कर रहे हैं। मूलप्रति व मुद्रणप्रति दोनों में यह ठीक पाठ है—“ भाषा का विशेष परिज्ञान न था । अब इसको भाषा के व्याकरणानुसार अच्छे प्रकार जानकर अभ्यास भी कर लिया है, इसलिये इस समय इसकी भाषा पूर्व से उत्तम हुई है ।” पाठक ध्यान दें, “जानकर अभ्यास कर लिया है ” वाक्य मूलह ० में और “इसलिये इसकी भाषा पूर्व से उत्तम हुई है ” मुद्रणह० में ऋषि ने अपने हाथ से लिखे हैं । मुंशी जी ने ऋषि द्वारा लिखित भाषा को भी बदल दिया और आपत्तिजनक पाठ बना दिया। ऋषि तो अपनी भाषा के पूर्व से उत्तम होने का कथन कर रहे हैं, अशुद्ध होने का नहीं। इस सारे अनुच्छेद को कहीं वाक्य काटकर कहीं नये वाक्य जोड़कर मुंशी समर्थदान ने अपने हस्तलेख से बदला है। उपर्युक्त आपत्तिजनक वाक्य ” भाषा अशुद्ध बन गयी थी” भी मुंशी जी के हस्तलेख में है । वह बदला हुआ पाठ द्वितीय संस्करण (१८८४) में इस प्रकार है – “जिस समय मैंने यह ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश‘ बनाया था उस समय और उससे पूर्व संस्कृत भाषण करने पठन–पाठन में संस्कृत ही बोलने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण से मुझको इस भाषा का विशेष परिज्ञान न था इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी। अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास हो गया है। इसलिये इस ग्रन्थ को भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है ।” इस अनुच्छेद में रेखांकित शब्दावली मुंशी जी की है और उन्हीं के हस्तलेख में लिखी हुई है। यह महर्षि की भाषा नहीं है ।
दोनों हस्तलेखों और ऋषि के हस्तलेख की भाषा की उपेक्षा करके मुंशी जी द्वारा आपत्तिजनक रूप में बदली गई भाषा ने विरोधियों को महर्षि पर आक्षेप करने का अवसर दे दिया। इस वाक्य को उद्धृत करके ‘दयानन्द तिमिर भास्कर‘ ग्रन्थ में ज्वालाप्रसाद मिश्र आक्षेप करता है – ” [ प्रथम सत्यार्थप्रकाश] वोह तो अशुद्ध हो चुका, पर अब यह तौ आपके लेखानुसार सम्पूर्ण ही शुद्ध है, क्योंकि इसके बनाने के पूर्व न तो आपको लिखना ही आता था, न शुद्ध भाषा ही बोलनी आती थी। इससे यह भी सिद्ध होता है कि इस सत्यार्थ से पूर्व रचित ‘वेदभाष्यभूमिका‘ तथा यजुर्वेदादि भाष्यों की भाषा भी अशुद्ध होगी, क्योंकि शुद्ध भाषा का ज्ञान तौ आपको इस ‘सत्यार्थप्रकाश‘ के लिखने के समय हुआ है। ” (तृतीय सं०, पृ०३ )
जो सम्पादक तर्क–वितर्क करके उक्त परिवर्तन को सही कहते हैं वे ‘प्रथम संस्करण‘ को ही नहीं, अपितु सभी ऋषि–ग्रन्थों की भाषा को बलात् अशुद्ध सिद्ध कर रहे हैं। प्रथम सं० की भाषा अशुद्ध है ही नहीं, किन्तु बोलचाल की है। दूसरी बात यह है कि साहित्य, शास्त्र और शास्त्रार्थ में अशुद्धि स्वीकार करने का अर्थ निग्रह स्थान में पड़ना और पराजित होना कहाता है जबकि साधारण व्यवहार में त्रुटि को स्वीकार करना उदारता गुण हो सकता है। तो क्या वे आर्यजन परिवर्तित इस वाक्य को बनाये रखने का आग्रह करके ऋषि को निग्रह स्थिति में फंसाना चाहते हैं ? ऐसे लोग ऋषि की शुद्ध भाषा की भी उपेक्षा करते हैं और मुंशी
न था। अब इसको भाषा के व्याकरणानुसार अच्छे प्रकार जानकर अभ्यास भी कर लिया है, इसलिये इस समय इसकी भाषा पूर्व से उत्तम हुई है । कहीं–कहीं शब्द, वाक्यरचना का भेद हुआ है, वह करना उचित था; २ क्योंकि उनका भेद किये विना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी । परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है; प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है। हाँ, जो [ जो] प्रथम छपने में कहीं– कहीं भूल रही थी, वह वह निकाल – शोधकर ठीक–ठीक कर दी गई है।
यह ग्रन्थ १४ चौदह समुल्लासों अर्थात् चौदह विभागों में रचित हुआ है। इसमें १० दश समुल्लास ‘पूर्वार्द्ध‘ और चार ‘उत्तरार्द्ध‘ में बने हैं, परन्तु अन्त‘ के दो समुल्लास और पश्चात् स्वसिद्धान्त किसी कारण से प्रथम नहीं छप सके थे, अब वे भी छपवा दिये हैं ।
१. प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ‘ ओङ्कार‘ – आदि नामों की व्याख्या ।
२. द्वितीय समुल्लास में सन्तानों की शिक्षा ।
३. तृतीय समुल्लास में ब्रह्मचर्य, पठन–पाठनव्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने–पढ़ाने की रीति ।
जी आदि को उनसे बड़ा प्रामाणिक विद्वान् मान लेते हैं। ऋषि की भाषा में आस्था श्रद्धा न होने का यह एक प्रमाण है।
कोई चिन्तनरहित आग्रही व्यक्ति यहां यह कुतर्क भी कर सकता है कि इस प्रकाशित पाठ को ऋषि ने देख लिया था, अतः स्वीकार्य है । उसको यह भी सोच लेना चाहिए कि ऋषि ने तो पृ० ३२० तक प्रकाशित द्वितीय संस्करण को देख लिया था, अतः फिर तो वह भी यथावत् स्वीकार्य होना चाहिए, उसमें भी आपको एक अक्षर के परिवर्तन का अधिकार नहीं है, जबकि सत्य यह है कि सभी सम्पादकों ने उसमें हजारों परिवर्तन कर लिये हैं। जब तक ऐसे कुतर्क और दुराग्रह प्रस्तुत किये जाते रहेंगे तब तक सत्यार्थप्रकाश की स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा ।
१. वर्तनी सम्बन्धी अनेक अशुद्ध परिवर्तन – महर्षि के समय हिन्दी भाषा में क्रिया–प्रयोगों तथा अन्य कुछ शब्दों में ‘ये‘ वर्ण प्रयुक्त होता था, जैसे– किये, दिये, लीजिये, कीजिये, ‘जायगा‘ इसलिये आदि । मूल और मुद्रण दोनों हस्तलेखों में यही वर्तनियां हैं। कुछ आधुनिक सम्पादकों – प्रकाशकों ने अपने संस्करणों में ‘ये‘ के स्थान पर आधुनिक भाषा का ‘ए‘ अक्षर कर दिया है, जैसे – किए, दिए, कीजिए, चाहिए, इसलिए, जाए, जाएगा आदि । इससे सत्यार्थप्रकाश का ऋषि कालीन भाषिक स्वरूप व इतिहास नष्ट होकर वह परवर्ती कालखण्ड की रचना मानी जाने लगेगी। सम्पादकों ने दोनों संस्करणों में कहीं ‘ए‘ और कहीं ‘ये‘ वर्तनी देकर भाषागत अव्यवस्था उत्पन्न करके भाषा की एकरूपता और मानकता को भी नष्ट कर दिया है। इस संस्करण में यह अव्यवस्था दूर कर दी है और महर्षि कालीन वर्तनियों को एकरूपता के साथ रखने का प्रयास किया है।
२. मुद्रणकालीन व्यर्थ पाठान्तर – दोनों हस्तलेखों में “वह करना उचित था” मूल पाठ था, द्विप्र० में व्यर्थ ही ” सो करना
उचित था” शिथिलपरिवर्तन कर दिया । इस पाठान्तर में कोई भाषा एवं अर्थवैशिष्ट्य नहीं है, अतः ग्राह्य नहीं है ।
३. मुद्रणकालीन व्यर्थ पाठान्तर एवं अपप्रयोग – मूलह०, मुद्रणह०, मूलप्रति सं० में “उसके ” और द्विप्र०, द्वि०सं० में “इसके‘
एकवचनात्मक अपप्रयोग हैं। यहाँ ‘शब्द‘ और ” वाक्यरचना” इन दो भेदों के सम्बन्ध से ‘उनका‘ यह बहुवचनात्मक प्रयोग चाहिए ।
४. अपप्रयोग – दोनों हस्तलेखों और तीनों संस्करणों तथा सभी द्वि०संस्करणों में एकवचनान्त “समुल्लास ” प्रयोग है। चौदह संख्या के साथ बहुवचन अपेक्षित है । संशोधन – पुष्टि – आगे “चौदह समुल्लासों” बहुत्र शुद्ध प्रयोग है । द्रष्टव्य पृ० ८ पर बारहवीं पंक्ति, पृ० १२ पर पांचवीं पंक्ति में शुद्ध प्रयोग । भाषात्मक व्यवस्था, एकरूपता एवं मानकता के लिए यह संशोधन आवश्यक है। ५. अपप्रयोग – “अन्त” के स्थान पर ” अन्त्य” अपप्रयोग सभी सं० में है । ” अन्त्य” का अर्थ ‘अन्त के‘ होता है विशेषण के
साथ “के” कारक–प्रत्यय प्रयुक्त नहीं होगा । संशोधन – पुष्टि – सम्पूर्ण ग्रन्थ में अनेक बार शुद्ध प्रयोग ” अन्त का‘ हैं ( द्र०पृ० ८/१२, ५०९/१७ आदि), “अन्त्य‘ अर्थात् ‘अन्तिम‘ अर्थ होता है।
अन्त में”
६. उचित संशोधन – मूलह० में यहां ” प्रथम समुल्लास में” पाठ है, उसके बाद ‘२में, ३में‘ आदि पाठ है, मुद्रणह० में प्रथम के
बाद “समु० ” यह संक्षिप्त रूप अंकित है। वहीं द्वि०सं० में छप रहा है। इस सं० में “समुल्लास पूर्ण पद का प्रयोग है ।
४. चतुर्थ समुल्लास में [ समावर्तन ] १ विवाह और गृहाश्रम का व्यवहार ।
५. पञ्चम समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम का विधि।
६. छठे समुल्लास में राजधर्म ।
७. सप्तम समुल्लास में वेद ईश्वर विषय ।
८. अष्टम समुल्लास में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय ।
९. नवम समुल्लास में विद्या अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या ।
१०. दशवें समुल्लास में आचार – अनाचार, भक्ष्याभक्ष्य विषय ।
११. एकादश समुल्लास में आर्यावर्तीय मतमतान्तरों के खण्डन– मण्डन का विषय । १२. द्वादश समुल्लास में चार्वाक, बौद्ध और जैन मत का विषय ।
१३. त्रयोदश समुल्लास में ईसाई – मत‘ का विषय ।
१४. चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मत का विषय ।
और चौदह समुल्लासों के अन्त में आर्यों के सनातन वेदविहित मत की विशेष व्याख्या लिखी है, जिसको मैं भी यथावत् मानता हूँ ।
मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का प्रयोजन सत्य – अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना ‘सत्य अर्थ का प्रकाश‘ समझा है । वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश
१. त्रुटित आवश्यक पद – दोनों हस्तलेखों और तीनों सं० तथा प्रायः सभी अन्य सं० में ‘समावर्तन‘ पद त्रुटित रह गया है । विषय की दृष्टि से यह प्रयोग अपेक्षित है। संशोधन पुष्टि – प्रमाण द्रष्टव्य है तृतीय समु० के अन्त का अग्रिम विषय संकेतक वाक्य तथा चतुर्थ समुल्लास का संस्कृत में विषयसंकेतक आदिवाक्य और समापन वाक्य । वहां सर्वत्र ‘समावर्तन‘ पद पठित है ।
–
२. शैलीविरुद्ध प्रयोग – सत्यार्थप्रकाश में महर्षि ने ‘विधि‘ शब्द का पुंल्लिंग में प्रयोग किया है। दोनों हस्त० और तीनों सं० में तथा अन्य सभी सं० में यहाँ ” की विधि” प्रयोग है जो महर्षि की स्वीकृत शैली के विरुद्ध है। कहीं–कहीं जो स्त्रीलिंग का प्रयोग मिलता है वह लिपिकर के प्रमादवश है। इस संस्करण में भाषात्मक व्यवस्था, एकरूपता तथा मानकता के लिए सर्वत्र पुंल्लिंग को ही ग्रहण किया है। (टिप्पणी द्र० पृ० १५२ पर)।
–
३. अपप्रयोग – दोनों हस्त० व तीनों सं० में यहां “मतमतान्तर” पाठ में बहुवचन अपेक्षित है। संशोधन पुष्टि — आगे भूमिका में कई बार बहुवचन में शुद्ध प्रयोग है – ” मतमतान्तरों” ( पृ० ११, पंक्ति ६, ७, १०) आदि । भाषात्मक व्यवस्था, एकरूपता, मानकता के लिए यह संशोधन आवश्यक है। जैसे पृ० ११/१० में संशोधन कर लिया है वैसे यहां भी करना अपेक्षित है । ४. एक वर्तनी एवं पाठग्रहण – सत्यार्थप्रकाश में सभी जगह “चारवाक” वर्तनी मिलती है । किन्तु पृ० ८४० पर समुल्लास– समाप्ति – संकेतक संस्कृत वाक्य में सभी सं० में ” चार्वाक ” शुद्ध वर्तनी है । व्याकरण और स्वयं चार्वाकदर्शन में स्वीकृत शुद्ध वर्तनी ” चार्वाक ” ही है, अतः व्यंग्य प्रयोग को छोड़कर शुद्ध वर्तनी ही ग्राह्य है। मूलप्रति हस्तलेख में यहां ” चार्वाक” और “बौद्ध” पद नहीं हैं, मूलसं० में ग्रहण कर लिये हैं, ये अवश्य ग्राह्य हैं । मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० में ये पद हैं ।
५. मुद्रणकालीन अपवर्तनी – द्विप्र० में ” ईसाइमत” अपवर्तनी है, दोनों हस्त० में शुद्ध है, मूलसं०, द्वि०सं० में संशोधित है। ६. मुद्रणलिपिकर – कृत अपपरिवर्तन – मूलहस्तलेख में “विशेष” प्रयोग शुद्ध है । मुद्रण, द्विप्र०, द्वि०सं० में “विशेषतः ‘
अपपरिवर्तन है । अन्त में केवल वेदविहित मत की विशेष व्याख्या है। यदि अनेक विषय वहां होते तब “विशेषतः ” प्रयोग का औचित्य था, एक विषय में नहीं। “विशेषतः ” पद तुलनात्मक अर्थबोधक है । द्र०पृ० १४ पंक्ति ११, पृ० १५ पंक्ति ४, ६ में शुद्ध प्रयोग। सभी द्वि०संस्करणों में यह अपप्रयोग है। पाठपुष्टि – अन्त में इस प्रसंग में इन्हीं शब्दों का प्रयोग है – ” जिनका विशेष व्याख्यान” और ” इसकी विशेष व्याख्या” ( पृ० १३७ / ९, १०४७/१ आदि) ।
७, ८. ऋषिहस्तलेख – मूलह०, मुद्रणह०, मूलप्रति सं० में “मेरा” “के” पद त्रुटित हैं । द्विप्र० में बढ़ाये हुए हैं जो ग्राह्य हैं।
किया जाय; किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है । जो मनुष्य पक्षपाती होता है वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नहीं होता । इसीलिये विद्वानों [ और ]१ आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें । २ पश्चात् मनुष्य रे लोग स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके, सदा आनन्द में रहैं । ४
यद्यपि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जाननेहारा है, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़, असत्य पर झुक जाता है, ६ परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है, और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि का तात्पर्य है; किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें [ यही मेरा तात्पर्य है ]; क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्यजाति की उन्नति का कारण नहीं है ।
इस ग्रन्थ में १० जो कहीं–कहीं भूल चूक से [कोई त्रुटि ] अथवा शोधने ११ तथा छापने में भूल–चूक रह जाय, उसको जानने– जनाने पर, जैसा वह सत्य होगा, वैसा ही कर दिया जायगा १२ । और जो कोई
‘जिसको…. मानता हूँ” वाक्य मूलसं० में मुद्रणह से गृहीत है। यह मुद्रणप्रति में ऋषिहस्तलेख में लिखित है ।
१. अपप्रयोग – मुद्रणह०, तीनों सं० तथा अन्य सभी सं० में “विद्वान् आप्तों” अपप्रयोग है। यहाँ व्यापक अर्थ हेतु “विद्वानों और आप्तों” या ‘आप्त विद्वानों‘ शुद्ध पाठ अपेक्षित है । ‘विद्वान्‘, ‘आप्तों‘ का विशेषण नहीं बनता । पृ० ७२९ पर भी “विद्वान् ” प्रयोग है ।
२. उचित संशोधन – मुद्रणह०, मूलप्रति सं० में ” कर देना” पाठ है । द्विप्र०, द्वि०सं० में निर्देशात्मक पाठ ” कर दें” उपयुक्त है,
क्योंकि आगे भी ” रहैं” प्रयोग निर्देशात्मक है ।
३. मुद्रणकालीन व्यर्थ पाठान्तर – ” मनुष्य लोग” के स्थान पर ‘वे‘ सर्वनाम द्विप्र०, द्वि०सं० में परिवर्तित है, जो व्यर्थ है ।
मनुष्य लोग” अधिक सटीक स्पष्ट पाठ है। ये पद ऋषि के हाथ से लिखे हुए हैं, उनमें पाठान्तर व्यर्थ है ।
४. ऋषिहस्तलेख–“इसीलिये विद्वानों……. आनन्द में रहैं ” तक पाठ मूलह० में नहीं है, मूलसं० में मुद्रणह०, द्विप्र० से गृहीत है।
यह मुद्रणप्रति में ऋषि के हस्तलेख में लिखित है ।
५. मुद्रणलिपिकर द्वारा त्रुटित पद – मुद्रणह०, द्विप्र० द्वि०सं० में ” यद्यपि ” पद त्रुटित है। संशोधन – पुष्टि – मूलह ० में है और अग्रिम “तथापि” प्रयोग के सम्बन्ध से आवश्यक है। शुद्ध प्रयोग पृ० ११ पंक्ति १० में द्रष्टव्य है । वेस, जग, भद, युमी, विस, जस, उदयपुर सं० में यह पद त्रुटित है ।
६. मुद्रणकालीन व्यर्थ पाठान्तर एवं मुद्रणलिपिकर कृत अपपरिवर्तन – मुद्रणकाल में “जाननेहारा” के स्थान पर ” जानने वाला” व्यर्थ पाठान्तर किया है। मूलह०, मूलप्रति सं० में ” असत्य पर झुक जाता है” शुद्ध पाठ था । मुद्रणह०, द्विप्र० और द्वि०सं० में ” असत्य में झुक जाता है” अपपरिवर्तन है । यही अपपाठ वेस, जग, भद, युमी, विस, उदयपुर सं० में है । ७. अपप्रयोग – मूलह० मुद्रणह०, द्विप्र० और द्वि०सं० में ” किसी की हानि पर तात्पर्य है ” अपप्रयोग है। “हानि का ” शुद्ध ८. त्रुटित आवश्यक पाठ– दोनों सं० में बृहत् कोष्ठकान्तर्गत पाठ त्रुटित रह गया है। अतः यह परिवर्धन ग्राह्य है ९. ऋषिहस्तलेख – मूलसं० में यह वाक्य मुद्रणह से ग्रहण किया है । यह मुद्रणप्रति में ऋषि के हस्तलेख में है । १०. उचित संशोधन – मुद्रणह०, द्वि०सं० में, मूलप्रति सं० के ‘ और‘ के स्थान पर ” इस ग्रन्थ में” संशोधित पाठ हैं । यह ग्राह्य है । ११. अपवाक्य – मूलहस्त०, मुद्रणहस्त० और मूलप्रति सं० में यहाँ ‘शोधक‘ अपपाठ है। कुछ सं० में ‘शोधने‘ उचित संशोधन है। द्विप्र० में एक ही वाक्य में दो बार ” भूल–चूक से……. भूलचूक रह जाये” अपरचनात्मक वाक्य बन गया है। उपर्युक्त वाक्य सही है। अन्य सभी वेस, जग, भद, युमी, उदयपुर सं०, द्वि०सं० आदि में यह अपपाठ है
१२. अपवर्तनी – द्वि०सं० में “जायेगा” वर्तनी ग्रन्थकार की स्वीकृत वर्तनी के अनुकूल नहीं। मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र० में यहां तथा
पक्षपात से अन्यथा शङ्का वा खण्डन– मण्डन करेगा, उस पर ध्यान न दिया जायगा । हाँ, जो वह मनुष्यमात्र का हितैषी होकर कुछ जनावेगा, उसको सत्य – सत्य समझने पर, उसका मत संगृहीत होगा ।
यद्यपि आज–कल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतरे में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र – सिद्धान्त अर्थात् जो–जो बातें सबके अनुकूल, सबमें सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक–दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें – वर्तावें, तो जगत् का पूर्ण हित होवे । क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर, अनेकविध दुःखों की वृद्धि और सुखों की हानि होती है । इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डुबा दिया है। इनमें से जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य‘ में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग विरोध करने में तत्पर होकर, अनेक प्रकार विघ्न करते हैं । परन्तु —
सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ”
[ मुण्डक उप० ३।१।६]
= सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और सत्य से ही विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है । इस दृढ़निश्चय के आलम्बन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थ प्रकाश करने से नहीं हटते। यह बड़ा दृढ़निश्चय है कि–
सम्पूर्ण ग्रन्थ में ” जायगा ” वर्तनी है जो महर्षि के लेखन समय में प्रचलित थी। यही उपयुक्त है। ” जायेगा” नवीन वर्तनी है १. श्रवणभ्रान्ति से अव्यवस्थित वर्तनी – इस भूमिका भाग में चार बार ‘यद्यपि ‘ पद का प्रयोग हुआ है। महर्षि ने एक शुद्ध शब्द ही बोला होगा, किन्तु दोनों हस्त० में अव्यवस्थित मति लिपिकरों ने दो बार ” यद्यपि ” लिखा है और दो बार तद्भव रूप में प्रयुक्त होने वाला ” यदपि ” लिखा है । अतः तीनों सं० में यही अव्यवस्थित प्रयोग स्थिति है । भाषिक व्यवस्था, एकरूपता और मानकता के लिए “यद्यपि ” एक ही प्रयोग ग्राह्य है, क्योंकि ग्रन्थ में अन्यत्र बहुत्र ” यद्यपि ” प्रयोग है। यही शुद्ध हिन्दी में स्वीकृत है । युमी, विस, द्वि०सं०, मूलसं०, उदयपुर सं० में भी यही अव्यवस्था है । वेस, भद, जग, जस में सभी का संशोधन कर दिया है, युमी, विस में एक संशोधित और एक असंशोधित है ।
२. अव्यवस्थित वर्तनी – सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश में और भूमिका में भी अधिकतर ” आजकल ” हिन्दी का प्रयोग मिलता है । कुछ स्थानों पर ‘“ आजकाल ” वर्तनी भी है । यह गुजराती बोली का प्रयोग है। कई सम्पादकों वेस, जग, मूलसं० आदि ने संशोधन कर लिया है। भाषागत एकरूपता के लिए सर्वत्र हिन्दी का शुद्ध प्रयोग ” आजकल ” ही ग्राह्य है ।
३. अपप्रयोग – दोनों हस्त०, तीनों सं० में यहाँ “मतों” बहुवचन का प्रयोग अशुद्ध है। ” प्रत्येक” के साथ एकवचन चाहिए । ४. श्रवणभ्रान्ति से अपप्रयोग – श्रवणभ्रान्ति से लिपिकर ने यहां ” अनेकविधि” प्रयोग लिखा है । ” अनेकविध ” अपेक्षित है।
यह दुःख–सुख का विशेषण है । दुःख–सुख में बहुवचन होगा । द्विप्र० में संशोधित है।
५. अपवर्तनी – मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र०, द्विसं० में यहां “लक्ष” अपवर्तनी है। संशोधन – पुष्टि – शुद्ध वर्तनी पृ० ४७ पर ‘लक्ष्मी‘
नाम के निर्वचन में तथा पृ० ५८६ / १९, २० में द्रष्टव्य है। मूलसं०, जग, जस, उदयपुर सं० में संशोधित हैं
६. अपप्रयोग — मूलह०, मुद्रणह० और तीनों सं० में “जयति” प्रयोग है। उपनिषद् में “जयते” मूल पाठ है। संशोधन– पुष्टि – यही शुद्ध वर्तनी पृ० १०४६ पर प्रयुक्त है। वहां यही प्रमाण उद्धृत है । अतः भाषात्मक व्यवस्था, एकरूपता और मानकता के लिए एक ही पाठ, और वह भी शुद्ध पाठ ही यहां ग्राह्य है। इसके अतिरिक्त ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका‘ में भी “जयते” प्रयोग है ( पृ० ८३) । वेस, भद, युमी, विस, जग, जस में शुद्ध पाठ है, उदयपुर सं० में अशुद्ध पाठ है।
७. अपप्रयोग – दोनों हस्त०, द्विप्र०, द्वि०सं० में ” हठते ” अप–क्रियाप्रयोग है। हिन्दी में “हटना ” अर्थ में ‘हठ‘ कोई धातु नहीं है, अतः सर्वत्र ‘हटना‘ प्रयोग ही शुद्ध है। द्वि०सं० और मूलसं० में कई स्थलों पर तो ” हठते” के स्थान पर संशोधन करके “हटते” शुद्धरूप बना दिया है किन्तु कई स्थानों पर अशुद्ध ही है। यहां परोप० ५, मूलसं०, जग, विस, जस में ” हटते” संशोधित कर दिया है। अन्यत्र संशोधन जैसे – वेस पृ० ३४, भद २७, द्वि०सं० २३, जग २५, विस २३५, जस २८ आदि । हिन्दी में ‘हठते‘ विपरीतार्थक क्रिया होने से विपरीत अर्थ देती है। यहां भी इसका विपरीत अर्थ बनता है– ‘सत्यार्थ प्रकाश करने से कभी नहीं हठते अर्थात् आग्रह नहीं करते और शिथिल रहते हैं।‘ इसी प्रकार “विघ्न हठ जायें” (७०/१२ ) का अर्थ बनेगा
” यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‘ 1 यह गीता का वचन है [ १८ । ३७ ] | इसका अभिप्राय यह है कि जो–जो विद्या और धर्मप्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं; ऐसी बातों को चित्त में धरके मैंने इस ग्रन्थ को रचा है। श्रोता वा पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देखके, इस ग्रन्थ का सत्य – सत्य तात्पर्य जानकर यथेष्ट करें।
,
इसमें यह अभिप्राय रक्खा गया है कि जो–जो सब मतों में सत्य – सत्य बातें हैं, वे वे सबमें अविरुद्ध होने से उनका स्वीकार करके, जो–जो सब मतमतान्तरों में मिथ्या बातें हैं उन–उनका खण्डन किया है । इसमें यह भी अभिप्राय रक्खा है कि सब मतमतान्तरों की गुप्त वा प्रगट बुरी बातों का प्रकाश कर, विद्वान् – अविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रक्खा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर, परस्पर प्रेमी होके, एक सत्यमतस्थ होवें ।
।
यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूँ; तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों४ की झूठी बातों का पक्षपात न कर, यथातथ्य‘ प्रकाश करता हूँ, वैसे ही दूसरे देश वा मत– वालों के साथ भी वैसा ही वर्तता हूँ। जैसा स्वदेशवालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्तता हूँ, वैसा विदेशियों के साथ भी [ वर्तता हूँ ] ; तथा सब सज्जनों को भी वैसा वर्तना योग्य है । क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता, तो जैसे आजकल के [मत वाले ] ‘ स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और [ उसको ] ९ बन्द १° करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं
‘विघ्न न हटें, बने रहें ।‘ इसके विपरीत ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर ‘हठ‘ धातु के प्रयोग हैं जो शुद्ध अर्थ में हैं, जैसे – ” हठ से मांगते” (पृ० ६४६/९), “हठ– दुराग्रह…. रहित ( पृ० ६४७/११) । संशोधन – पुष्टि – महर्षिकृत अन्य ग्रन्थों में ” हट ‘हटा‘ शुद्ध प्रयोग हैं। (संस्कार० पृ० १४९, ३०६ )
१. अप–उद्धरणपाठ – मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र० में “परिणामेमृतोपमम्” अपपाठ है। अन्य सभी सं० में संशोधित है।
ऋषिहस्तलेख – ” श्रोता वा….. यथेष्ट करें” पाठ मूलसं० में मुद्रणह से लिया है। यह मुद्रणह० में ऋषिहस्तलेख में है । २. श्रवणभ्रान्ति से अपप्रयोग – मूलह०, मुद्रणह० और द्विप्र० में यहां “जब मतान्तरों” अपप्रयोग है। यह मूललिपिकर से
श्रवणभ्रान्ति से लिखा गया है। परोप० ३०, द्विसं०, मूलसं०, उदयपुर सं० आदि सभी में “सब मतमतान्तरों” संशोधित है । ३. उचित संशोधन – मूलह०, मूलप्रति सं० में ” हुआ” क्रिया त्रुटित है। सभी द्वि०सं० में संशोधित है ।
५.
४. उचित संशोधन – मूलह०, मूलप्रति सं० में ” मतमतान्तर” एकवचन – प्रयोग अशुद्ध है । मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० में
संशोधित है। प्रमाणार्थं देखिए पृ० ८ पर टिप्पणी संख्या ३ ।
अप–संशोधन– दोनों हस्तलेखों, द्विप्र० और मूलप्रति सं० में ” यथातथ्य ” प्रयोग है । द्वि०सं० में ‘याथातथ्य‘ अप–संशोधित है । हिन्दी में ‘यथातथ्य‘ भी प्रचलित है। पाठपुष्टि – पृ० ४५४ पर ” यथातथ्य ” प्रयोग है। शुद्ध प्रयोग पृ० ३६२ पर भी देखें । ६. मुद्रणसमय अप परिवर्तन – द्विप्र० में यहां “मतोन्नति वालों‘ अपपाठ है। अन्य सभी में संशोधित है। इसके पूर्व मुद्रणह०,
द्विप्र० और सभी द्वि०सं० में ‘देशस्थ‘ अपसंशोधन है। ” देशस्थ ….के” या “देशस्थ …. वालों” के पाठ नहीं बनता । ७. त्रुटित क्रिया – तीनों सं० में कोष्टान्तर्गत क्रिया त्रुटित है । ऋषिहस्तलेख – “ मनुष्योन्नति…. योग्य है ” मुद्रणप्रति में है । ८– ९. त्रुटित आवश्यक पद – यहां बृहत् कोष्ठान्तर्गत पद तीनों सं० में त्रुटित हैं । ये पद पूर्ण वाक्य हेतु आवश्यक हैं
१०.अपपाठ – दोनों हस्त० और तीनों सं० में ” दूसरे मत की…..बन्ध करने में” अपपाठ है । हिन्दी में ” बन्ध” के स्थान पर ” बन्द” प्रयोग वांछित है । आगे बहुशः ‘बन्द‘ का प्रयोग इस अर्थ में महर्षि ने किया है। हिन्दी में ‘बन्ध‘ शब्द ‘मुक्ति‘ से विपरीत अर्थ में विकसित हो चुका है, जैसे– ‘मुक्ति और बन्ध‘ भाषात्मक व्यवस्था, एकरूपता और मानकता के लिए ‘बन्द‘ पाठ ही सर्वत्र ग्राह्य है। संशोधन – पुष्टि – “बंद‘ ( पृ० ९२२/२) “बंद” पर आधारित ” बंदीघर” (स०प्र० पृ० ६४८/१९, ६९३/११) आदि प्रयोग शुद्ध हैं। मूलहस्तलेख पृ० ५१४ (इस शोध सं० में पृ० ६९३) पर तो यह शब्द ऋषि ने स्वयं अपने हाथ से लिखा है। अधिकतर सम्पादकों वेस, भद, जग आदि ने कई स्थानों पर संशोधित कर लिया है ( पृ० १०२, १७६ आदि)
भी होता; परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बहिः हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् होकर निर्बलों को दुःख देते और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाके वैसे ही कर्म करते हैं, तो वे मनुष्य–स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं । और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है, वही ‘मनुष्य‘ कहाता है । और जो स्वार्थवश होकर परहानि – मात्र करता रहता है, वह जानो ३ ‘पशुओं का बड़ा भाई‘ है ।
आर्यावर्तीयों के विषय में विशेषकर ग्यारहवें समुल्लास तक लिखा है । इन समुल्लासों में जो सत्यमत प्रकाशित किया है, वह वेदोक्त होने से मुझको सर्वथा मन्तव्य है, और जिन नवीन पुराण, तन्त्रादि ग्रन्थोक्त बातों का खण्डन किया है, वे त्यक्तव्य हैं । ५
यद्यपि जो १२ वें समुल्लास में चार्वाक का मत लिखा है वह इस समय क्षीणास्त–सा है, और यह चार्वाक बौद्ध–जैन से बहुत सम्बन्ध ‘अनीश्वरवाद‘ आदि में रखता है। यह चार्वाक सबसे बड़ा नास्तिक शिरोमणि है । इसकी चेष्टा को रोकना आवश्यक‘ है; क्योंकि जो मिथ्या बात न रोकी जाय, तो संसार में बहुत–से अनर्थ प्रवृत्त हो जायं ।
चार्वाक का जो मत है वह बौद्ध और जैन का मत है, ९ वह भी १२ वें समुल्लास में संक्षेप से लिखा गया है । और बौद्धों का भी जैनियों और चार्वाक के मत के साथ मेल है, १० और कुछ थोड़ा–सा विरोध
१. मुद्रणकालीन व्यर्थ पाठान्तर – द्विप्र० और सभी द्वि०सं० में यहां “बहिः ” प्रयोग के स्थान पर ” बाहर ” व्यर्थ पाठान्तर किया है । पाठपुष्टि – मूलह०, मुद्रणह० तथा सभी सं० में अन्तिम अनुच्छेद में ” बहिः ” ( पृ० १६ / १६) पाठ यथावत् रखा हुआ है। महर्षिप्रोक्त प्रयोग “बहिः ” अनेक स्थलों पर अब भी ग्रन्थ में विद्यमान है। ( द्र०पू० ९४३ / ७, १०४५/१६ भी ) ।
२. अपप्रयोग – मूलह०, मुद्रणह०, द्वि०सं० में यहां ” वैसा ही ” अपप्रयोग है, “वैसे ही ” बहुवचनान्त ग्राह्य है ।
३. उचित संशोधन – द्विप्र०, द्वि०सं० में “जानो” परिवर्धित पद है, जो सार्थक होने से ग्राह्य है । मूलप्रति सं० में नहीं है ।
४. व्यर्थ प्रयोग व उचित संशोधन – मूलह०, मूलप्रति सं० में ” अब आर्यावर्त के ” अपपाठ है। मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० में
संशोधित है– अब आर्यावर्तीयों के‘ । यही शुद्ध और ग्राह्य है। इस वाक्य में “अब ” अनावश्यक प्रयोग है ।
५. अपप्रयोग एवं उचित परिवर्धन – मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० में ” है” क्रिया परिवर्धित है। यह मूलप्रति सं० में नहीं है । यह वाक्यपूर्ति
के लिए ग्राह्य है । मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० में “जो कि सत्यमत” में ” कि ” अनावश्यक प्रयोग है। इसी प्रकार “जो नवीन‘ के स्थान पर ” जिन नवीन” पाठ अपेक्षित है।
६. मुद्रणलिपिकर द्वारा त्रुटित पाठ – मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० में ” लिखा है वह ” पाठ त्रुटित है। इसके बिना उचित एवं पूर्ण
वाक्य संरचना नहीं होती । मूलह०, मूलप्रति सं० में यह पाठ विद्यमान है। उदयपुर सं० में परिवर्धित कर लिया है।
७. ऋषि – हस्तलेख – ” चार्वाक का मत…..रखता है” पाठ मूलह० में ऋषि हस्तलेख में है ।
८. अपपाठ – दोनों हस्त० और तीनों सं० तथा सभी अन्य द्वि०सं० में यह अपवाक्य है– “उसकी चेष्टा को रोकना अवश्य है” । यहां पूर्वोक्त ‘यह‘ पद के सम्बन्ध से ‘इसकी‘ और ‘आवश्यक‘ विशेषणात्मक प्रयोग शुद्ध हैं। संशोधन – पुष्टि – पृ० २४/२, ९५७/९, ९६५/९ आदि में ग्रन्थकार द्वारा कृत शुद्ध प्रयोग हैं।
९. सम्पादकों द्वारा अपपरिवर्तन – परोप० ४, स्वामी वेदानन्द जी सरस्वती और पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक ने इस वाक्य में कुछ पदों का परिवर्धन करके यह परिवर्तन किया है – ” चार्वाक का जो मत है वह तथा बौद्ध जैन का जो मत है, वह भी १२ वें समुल्लास में बौद्धों तथा जैनियों का भी…..।” यहां महर्षिप्रोक्त मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० का पाठ स्पष्ट और पूर्ण है । उसको गम्भीरता से समझा नहीं गया है । क्रमशः ऋषि यह कह रहे हैं कि चार्वाक का ही मत बौद्ध और जैन का है तथा चार्वाक के मत से बौद्ध और जैन का मेल है, बौद्ध से जैन और चार्वाक का तथा जैन से चार्वाक और बौद्ध का मेल है । इनको बारहवें समुल्लास में एक साथ लिखा है, क्योंकि इनकी अधिकांश मूल बातें एक जैसी हैं। वेस द्वारा कृत इसी अप परिवर्तन का अनुकरण जग, युमी, विस, जस, भद, ‘उदयपुर सं०‘ में किया गया है I
१०. अपपाठ – दोनों हस्त० और तीनों सं० में यह अपवाक्य है– “बौद्धों और जैनियों का भी चार्वाक के मत के साथ मेल है” । ग्रन्थकार का बारहवें समुल्लास में वर्णनक्रम यह है कि उन्होंने पहले चार्वाक, फिर बौद्ध और फिर जैनमत के साम्य वैषम्य की
भी है । और जैन–मत भी बहुत–से अंशों में चार्वाक और बौद्धों के साथ मेल रखता है; और थोड़ी–सी बातों में भेद है। इसलिये जैनों की भिन्न शाखा गिनी जाती है । वह भेद १२वें समुल्लास में लिख दिया है, यथायोग्य वहीं समझ लेना । जो इनका वैभिन्न्य है, सो भी बारहवें समुल्लास में दिखलाया है । बौद्धमत और जैनमत का विषय भी लिखा है ।
इनमें से बौद्धों के ‘दीपवंश‘ आदि प्राचीन ग्रन्थों से रे बौद्धमत संग्रह ‘सर्वदर्शनसंग्रह‘ में दिखलाया है, उसमें से यहाँ लिखा है । और जैनियों के निम्नलिखित सिद्धान्तों के पुस्तक हैं, उनमें से–
४ (चार) मूल सूत्र ५ – १. आवश्यक सूत्र, २. विशेष आवश्यक सूत्र, ३. दशवैकालिक सूत्र, और ४. पाक्षिक सूत्र ।
११ ( ग्यारह ) अङ्ग – १. आचारांगसूत्र, २. सुगडांगसूत्र, ६ ३. थाणांगसूत्र, ४. समवायांगसूत्र, ५. भगवतीसूत्र, ६. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, ७. उपासकदशासूत्र, ८. अन्तगड़दशासूत्र, ९. अनुत्तरोववाईसूत्र, १०. विपाकसूत्र और ११. प्रश्नव्याकरणसूत्र ।
.
१२ (बारह) उपाङ्ग – १. उपवाईसूत्र, २. रावप्सेनीसूत्र, ३. जीवाभिगमसूत्र, ४. पन्नगणासूत्र, ५. जम्बुद्वीपपन्नतिसूत्र, ६. चन्दपन्नतिसूत्र, ७. सूरपन्नतिसूत्र, ८. निरियावलीसूत्र, ९. कप्पियासूत्र, १०. कपबड़ीसयासूत्र, ११ पुप्पियासूत्र और १२ पुष्पचूलियासूत्र ।
चर्चा की है, चार्वाक की पहले हो चुकी । इस वाक्य में बौद्ध मत का कथन है, अतः यह वाक्य ग्रन्थकार के आशय के अनुकूल नहीं है। इसका संशोधन आवश्यक था, अन्यथा अगला जैनमत का वाक्य व्यर्थ हो जायेगा । अगले जैन – मत–सम्बन्धी वाक्य से
यह संकेत मिलता है कि यह पहला केवल बौद्ध–सम्बन्धी वाक्य है और यह उसी शैली में होना चाहिए ।
१. अपपाठ और अपपरिवर्तन – तीनों सं० में यहां यह अपवाक्य मिलता है – “जो इसका भिन्न है सो–सो” । यह पाठ इस प्रकार उपयुक्त है – ” जो इनका वैभिन्न्य है सो” । ‘जो‘ के सम्बन्ध से एक बार ‘सो‘ प्रयोग भी अभीष्ट है। वेस, भद, जग में “जो इसका भेद हैं” अप परिवर्तन है । जस में यह पाठ ही उड़ा दिया है। युमी, विस, उदयपुर सं० में अपपाठ है।
२. ऋषिहस्तलेख व विस्तार – मूलप्रति में ” यद्यपि जो १२वें समुल्लास में…… विषय भी लिखा है ” तक पाठ एक–दो पंक्तियों
में है । यह मुद्रण– हस्त० में बढ़ाया गया है । “जो इनका …. दिखलाया है ” मूलह० में ऋषिहस्तलेख में है
३. अपपाठ – मूलह०, मुद्रणह० और तीनों सं० में यहां “ग्रन्थों में बौद्धमत संग्रह ” अपप्रयोग है। यहां ‘से‘ कारक प्रत्यय होना
चाहिए। वेस, भद, युमी, जग, विस, उदयपुर सं० में भी अपपाठ है । जस ने पाठ विकृत करके स्वच्छन्दता से नया बनाया है ।
४. ऋषिहस्तलेख – ” इनमें से …. और जैनियों” पाठ मूलह० में ऋषिहस्तलेख में परिवर्धित है ।
मुद्रणकालीन व्यर्थ पाठान्तर और अपपद – दोनों हस्त० में यह पद नहीं है । द्विप्र० में सिद्धान्तग्रन्थों के शीर्षक के आगे नौ बार
जैसे” उदाहरण बोधक पद जोड़ा है, जो निरर्थक है। यहां उदाहरण नहीं है, अपितु संख्या में पूर्ण ग्रन्थ हैं।
६. अव्यवस्थित वर्तनियां– लिपिकरों और शोधकों के प्रमाद से, दोनों हस्तलेखों और तीनों सं० में जैनग्रन्थों के अनेक नामों की वर्तनियों में अराजकता मिलती है, जैसे– सुयगडांगसूत्र‘ (मूलह०, मूलसं०) ‘सुगडांगसूत्र‘, (द्वि०सं०) ‘सुयड़ाणांगसूत्र‘ (द्विप्र० ) । ‘थाणांग सूत्र‘ (मूलह० मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं०) ‘ठाणांगसूत्र‘ (मूलसं०) । ‘उपवाईसूत्र‘ (मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं०), ‘उववाईयसूत्र‘ (मूलसं०) । ‘रावप्सेनीसूत्र‘ (मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र०, द्विप्र०), ‘रायपसेनीसूत्र‘ (मूलसं०) । ‘जम्बूद्वीपपण्णतिसूत्र‘ (मूलसं०), ‘जम्बुद्वीपपन्नतीसूत्र‘ (मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० ) । ‘ चन्दपन्नतिसूत्र‘ (मूलसं०) ‘चन्दपन्नतीसूत्र‘ (मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं०); किन्तु द्विप्र० ४५६, द्वि०सं० ३१६, मूलसं० ५६१ पर ‘चन्दपन्नति‘ वर्तनी है जो ‘प्रकरण रत्नाकर‘ के अनुसार शुद्ध है । ‘सूरियपण्णतिसूत्र‘ (मूलसं०) ‘सूरपन्नतीसूत्र‘ (मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० ); किन्तु द्विप्र० ४३६, द्वि०सं० ३१६, मूलसं० ५६१ पर ‘सूरपन्नति‘ वर्तनी है। ‘निरियावलीसूत्र‘ (मूलह०, मुद्रणह० द्विप्र० द्वि०सं०), ‘निरीयावलिकासूत्र‘ (मूलसं०) मूलसं में ‘पुप्पियासूत्र‘ वर्तनी है जबकि अन्य सभी में ‘पूप्पियासूत्र‘ है। मूलह० और मूलसं० में ‘पुप्पचूलियासूत्र‘ शुद्ध वर्तनी है जबकि अन्य सभी में ‘पुप्यचूलियासूत्र‘ अशुद्ध है । यह अशुद्धि मुद्रणलिपिकर से हुई है जो बाद के सं० में उसी प्रकार छप रही हैं। ‘पिंडनिरुक्तीसूत्र‘ ‘औघनिरुक्तीसूत्र‘ ‘निरुक्ती ‘ मूलह० में वर्तनियां हैं। मुद्रणह० में लिपिकर ने यही वर्तनियां लिखी
५ (पाँच) कल्पसूत्र – १. उत्तराध्ययनसूत्र, २. निशीथसूत्र, ३. कल्पसूत्र, ४. व्यवहारसूत्र और जीतकल्पसूत्र ।
६ (छः ) छेद – १. महानिशीथबृहद्वाचनासूत्र, २. महानिशीथलघुवाचनासूत्र, ३. मध्यमवाचनासूत्र, ४. पिण्डनिरुक्तिसूत्र, ५. औघनिरुक्तिसूत्र, ६. पर्यूषणासूत्र ।
१० (दश) पयन्न – सूत्र – १. चतुस्सरणसूत्र, २. पञ्चखाणसूत्र, ३. तदुलवैयालिकसूत्र, ४. भक्तिपरिज्ञानसूत्र, ५. महाप्रत्याख्यानसूत्र, ६. चन्दाविजयसूत्र, ७. गणीविजयसूत्र, ८. मरणसमाधिसूत्र, ९. देवेन्द्रस्तवनसूत्र, और १०. संसारसूत्र तथा नन्दीसूत्र, अनुयोगोद्धारसूत्र भी प्रामाणिक मानते हैं ।
५ पञ्चाङ्ग – १. पूर्व सब ग्रन्थों की टीका, २. निरुक्ति, ३. चरणी, ४. भाष्य; ये चार अवयव और सब ‘मूल‘ मिलके ‘पञ्चाङ्ग‘ कहाते हैं ।
इनमें ‘ ढूंढिया‘ अवयवों को नहीं मानते। और इनसे भिन्न भी अनेक ग्रन्थ हैं कि जिनको जैनी लोग मानते हैं । इनके मत पर विशेष विचार बारहवें समुल्लास में देख लीजिये ।
जैनियों के ग्रन्थों में लाखों पुनरुक्त – दोष हैं। और इनका यह भी स्वभाव है कि जो अपना ग्रन्थ दूसरे मत वाले के हाथ में हो, वा छपा हो, तो कोई–कोई उस ग्रन्थ को अप्रमाण कहते हैं । यह बात उनकी मिथ्या है; क्योंकि जिसको कोई माने, कोई न माने, इससे वह ग्रन्थ जैनमत से बाहर नहीं हो सकता। हाँ, जिसको कोई न माने” और न कभी किसी जैनी ने माना हो, तब तो अग्राह्य हो सकता है; परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं है कि जिसको कोई भी जैनी न मानता हो। इसलिये जो जिस ग्रन्थ को मानता होगा, उस ग्रन्थस्थ विषयक खण्डन– मण्डन भी उसी के लिये समझा जाता है; परन्तु कितने ही ऐसे भी हैं कि उस ग्रन्थ को मानते – जानते हों, तो भी सभा वा संवाद में बदल जाते हैं । इसी हेतु से जैन लोग अपने ग्रन्थों को छिपा रखते हैं, दूसरे मतस्थ को न देते, न सुनाते, न पढ़ाते; इसलिये कि उनमें
थीं, किन्तु शोधक का प्रमाद देखिए कि पहले नाम की वर्तनी को शुद्ध करके उसमें लघु ‘इ‘ की मात्रा बना दी जबकि अगली दोनों अशुद्ध हैं । यही अशुद्ध स्थिति द्विप्र० की है। अब मूलसं० और द्वि०सं० में तीनों वर्तनियों को संशोधित कर दिया गया है। मूलसं० में ‘पयन्नासूत्र‘ अशुद्ध है जबकि दोनों हस्तलेखों, द्विप्र०, द्वि०सं० में ‘ पयन्नसूत्र‘ शुद्ध है। मूलह०, मूलसं० में ‘ अनुयोगोद्धारसूत्र‘ नाम है जबकि मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० में इसको ‘योगोद्धारसूत्र‘ लिखा गया है। ग्रन्थनामों में मूलसं० में ‘सूत्र‘ पद को पृथक् करके लिख दिया गया है जबकि अन्य सभी में ‘सूत्र‘ पद नाम में संयुक्तरूप से लिखित हैं। विद्वान् और पाठक ‘सत्यार्थप्रकाश‘ की इस लिपिकर व सम्पादककृत भाषागत अराजक स्थिति पर गम्भीरता से विचार करके देखें कि क्या यह प्रामाणिक स्थिति है कि अप्रामाणिक ? सवा सौ वर्षों में इसकी भाषा को एकरूप व सुव्यवस्थित क्यों नहीं किया जा सका ? इस प्रश्न पर आर्य विद्वानों को चिन्तन करना चाहिए ।
१. अपपाठ – दोनों हस्त०, तीनों सं० और उदयपुर सं० में यह अपपाठ है– “इनका विशेष मत पर विचार ” । परोप० ४ में उक्त
शोधन किया है। ऋषिहस्तलेख – “जैनियों के ग्रन्थों में लाखों पुनरुक्त दोष हैं” मूलह० में ऋषि द्वारा लिखित है ।
२. उचित संशोधन – मूलप्रति सं० में ” इनमें ” अपप्रयोग है। मुद्रणह०, द्विप्र०, द्वि०सं० में “इनका ” शुद्ध है । ३,५. मुद्रणलिपिकरकृत और मुद्रणकालीन भ्रष्टपाठ – मुद्रण– लिपिकर ने इन वाक्यों में अनावश्यक परिवर्तन किया – ” कोई माने, कोई नहीं” इससे पहले “जिसको” पद छोड़ दिया। मुद्रणकाल में द्विप्र० में यह पाठ विकृत कर दिया – “कोई न माने, कोई नहीं इससे…..कोई माने और न कभी जैनी ने माना हो” बाद में द्वि०सं० में इसको ग्रहण कर लिया है। मूलह०, मूलसं० में महर्षिप्रोक्त पूर्ण एवं शुद्ध पाठ है। वह ग्राह्य है ।
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४. अव्यवस्थित वर्तनी – दोनों हस्तलेखों व तीनों सं० में यहां ” बाहर ” वर्तनी है । ग्रन्थ में ” बाहिर ” वर्तनी भी है ( पृ० ८२२) ।
भाषात्मक व्यवस्था, एकरूपता और मानकता के लिए ‘बाहर‘ ग्राह्य है, यद्यपि भाषा प्रयोग की दृष्टि से दोनों शुद्ध हैं
ऐसी–ऐसी असम्भव बातें भरी हैं जिनका कोई भी उत्तर जैनियों में से नहीं दे सकता । झूठ बात का छोड़ देना ही उत्तर है ।
१३ वें समुल्लास में ईसाइयों का मत लिखा है । ये लोग ‘बाइबल‘ को अपना धर्मपुस्तक मानते हैं । इनका विशेष समाचार उसी तेरहवें समुल्लास में देखिये ।
और चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मतविषय में लिखा है । ये लोग ‘कुरान‘ को अपने मत का मूल पुस्तक मानते हैं । इनका भी विशेष व्यवहार १४वें समुल्लास में देखिये । और इसके आगे वैदिकमत – विषय में लिखा है ।
जो कोई इस ग्रन्थ को कर्त्ता के तात्पर्य से विरुद्ध मनसा से देखेगा, उसको कुछ भी अभिप्राय विदित न होगा। क्योंकि वाक्यार्थबोध में चार कारण होते हैं– आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और
१. मुद्रणलिपिकर द्वारा अपपरिवर्तन – मूलहस्त० और मूलप्रति सं० में यह वाक्य सही है। मुद्रण– हस्तलेख में लिपिकर ने इसको बदलकर अपूर्ण और अशुद्ध बना दिया । तदनुसार द्विप्र० और सभी द्वि०सं० में छपा है – ” जो कोई इस ग्रन्थकर्त्ता के तात्पर्य से विरुद्ध मनसा से देखेगा” । लिपिकर ने असावधानीवश परिवर्तन करके जो भाव इस वाक्य में प्रकट कर दिया वह ग्रन्थकार का है ही नहीं, यह पूर्वापरकथन से स्पष्ट ज्ञात होता है । ग्रन्थकार यह कहना चाहते हैं कि जिस अभिप्राय अथवा उद्देश्य से यह ग्रन्थ रचा है उस अभिप्राय के विरुद्ध ग्रन्थ को न देखें। संशोधन – पुष्टि – देखिए, इसी बात को दूसरे प्रकार से आगे तीसरी ही पंक्ति में पुनः स्पष्ट किया है – ” जो पुरुष ग्रन्थ को देखता है….. उसको ग्रन्थ का अभिप्रायः…” । व्याकरणानुसार मुद्रणलिपिकरकृत परिवर्तन इस कारण भी अशुद्ध है, क्योंकि उसमें ‘कर्म‘ या ‘उद्देश्य‘ रहा ही नहीं। इस अपूर्ण वाक्य को पढ़कर प्रश्न उठेगा– ‘किसको देखेगा ?’ वह सम्पूर्ण वाक्य में कहीं नहीं रहा । और देखा ग्रन्थ जाता है, तात्पर्य नहीं । पाठपुष्टि – दशम समुल्लास के अन्त में भी ग्रन्थकर्त्ता ने इसी भाषा का प्रयोग किया है – “इन चौदह समुल्लासों को पक्षपात छोड़ न्याय दृष्टि से देखेगा….” और “जो कोई इसको यथावत् विचारेगा वह इस ग्रन्थ को सुभूषित….. करेगा । ” अतः मूलह० का महर्षिप्रोक्त पाठ ग्राह्य है, मुद्रणलिपिकर– निर्मित अशुद्ध पाठ नहीं। वेस, भद, युमी, जग, विस, जस, उदयपुर सं० में मुद्रणलिपिकर–निर्मित अपपाठ है । मनसा=मंशा, आशय ।
२. वाक्यार्थबोध में कारण – वाक्य के अर्थ को समझने में कुछ सहायक तत्त्व होते हैं । वाक्य में उन गुणों के होने पर कोई वाक्य
‘समर्थ वाक्य‘ कहलाता है, ऐसा दार्शनिकों और काव्यशास्त्रियों का सिद्धान्त है । वे हैं–
(क) ‘आकांक्षा‘ के अर्थ हैं– ‘इच्छा‘, ‘अपेक्षा‘ और ‘जिज्ञासा‘ । वाक्य में प्रयुक्त शब्दों में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह वक्ता के अभीष्ट पूर्ण अर्थ को प्रकट करें और पाठक की अर्थजिज्ञासा या अपेक्षा को पूर्ण कर सकें। आकांक्षा की पूर्ति के बिना वाक्य अपूर्ण और असमर्थ रहता है। काव्य में इसका उदाहरण दिया जाता है, जैसे– ‘ राम ‘ । यह वाक्य नहीं, क्योंकि इतना कहने से पाठक की जिज्ञासा पूर्ण नहीं होती। वह विचारता रह जाता है कि ‘राम क्या करता है ?” क्या करना चाहता है ?” आदि । किन्तु जब वक्ता कहता है – ‘ राम पुस्तक पढ़ता है‘ तो पूर्णवाक्य बन जाता है, जो पाठक की जिज्ञासा को पूर्ण करता है । ग्रन्थकार यहां कहना चाहते हैं कि वक्ता जो कहना चाहता है वाक्य में ऐसे पूर्ण पदों का प्रयोग होना चाहिए जो उस आकांक्षा को स्पष्ट करें और पाठक की जिज्ञासा को भी पूर्ण करें। ऐसा वाक्य ‘आकांक्षा‘ तत्त्व से युक्त होता है ।
(ख) ‘योग्यता‘ का अर्थ है – ‘क्षमता‘ । वाक्य में प्रोक्त पदों में पारस्परिक सम्बन्ध को क्रियात्मक रूप देने की और प्रसंगानुकूल भाव का बोध कराने की क्षमता होनी चाहिए। ‘वह आग से सींचता है‘ इसमें शब्द तो सार्थक हैं किन्तु पारस्परिक सम्बन्ध की योग्यता नहीं हैं, क्योंकि आग से सींचा नहीं जाता; अतः इसको वाक्य नहीं माना जा सकता । ‘वह जल से सींचता है‘ सही वाक्य है । यह अर्थमूलक क्षमता का उदाहरण है। एक व्याकरणमूलक क्षमता भी होती है। उसे व्याकरणिक शुद्धता, अन्विति या एकरूपता कहा जाता है। वाक्य में कर्त्ता, कर्म, क्रिया, लिंग, विशेषण आदि की शुद्धतायुक्त क्षमता वाला पदसमूह ही वाक्य कहाता हैं, जैसे– ‘ श्रीराम जाती है। ” श्रीमती राम जाता है‘, ‘सीता बैठा है‘, ‘लोक–लोकान्तर को बनाये ”सबको दास बनाये‘ ‘वेदों को व्यास जी ने इकट्ठे किये‘ आदि वाक्य व्याकरणिक अयोग्यता के कारण वाक्य नहीं कहला सकते, अथवा कहिए कि ये अशुद्ध वाक्य हैं। अतः सही वाक्य वह होगा जिसमें ‘योग्यता‘ गुण
हो ।
( ग ) ‘ आसत्ति‘ का अर्थ है– ‘समीपता‘ या ‘सन्निधि‘ । वाक्य में प्रयुक्त पदों में समय और व्याकरणिक क्रम की दृष्टि से अन्वय या उचित निकटता होनी चाहिए। यदि ‘राम गया‘ वाक्य को कोई आज ‘राम‘ बोले और दूसरे दिन ‘गया‘ बोले, तो
तात्पर्य । जब इन चारों बातों पर ध्यान देकर, जो पुरुष ग्रन्थ को देखता है, तब उसको ग्रन्थ का अभिप्राय यथायोग्य विदित होता है–
‘आकांक्षा‘ – किसी विषय पर वक्ता की और वाक्यस्थ पदों की आकांक्षा परस्पर होती है । ‘योग्यता‘ – वह कहती है कि जिससे जो हो सके; जैसे, जल से सींचना ।
‘आसत्ति‘ – जिस पद के साथ जिसका सम्बन्ध हो, उसी के समीप उस पद को बोलना वा लिखना ।
‘तात्पर्य ‘ – जिसके लिये वक्ता ने शब्दोच्चारण वा लेख किया हो, उसी के साथ उस वचन वा लेख को युक्त करना ।
बहुत–से हठी – दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं, विशेषकर मत वाले लोग। क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अन्धकार में फसके नष्ट हो जाती है । इसलिये जैसा मैं पुराणों, जैनियों के ग्रन्थों, बाइबल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर, उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्यजाति की उन्नति के लिये प्रयत्न करता हूँ, वैसा सबको करना योग्य है ।
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इन मतों के थोड़े–थोड़े ही दोष प्रकाशित किये हैं, जिनको देखकर मनुष्य लोग सत्यासत्य मत का निर्णय कर सकें और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने – कराने में समर्थ होवें । क्योंकि एक मनुष्य जाति में बहकाकर, विरोध–बुद्धि करके, एक–दूसरे को शत्रु बना, लड़ा मारना विद्वानों के स्वभाव से बहि: है ।
यद्यपि इस ग्रन्थ को देखकर अविद्वान् लोग अन्यथा ही विचारेंगे, तथापि बुद्धिमान् लोग यथायोग्य इसका अभिप्राय समझेंगे । इसलिये मैं अपने परिश्रम को सफल समझता हूँ और अपना अभिप्राय सब सज्जनों के सामने धरता हूँ । इसको देख – दिखलाके, मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार
वह वाक्य नहीं होता। इसी प्रकार वाक्योक्त पदों में कर्त्ता, कर्म, विशेषण, क्रिया आदि की व्याकरणिक निकटता भी होनी चाहिए । ‘है राम जाता दिल्ली प्रातः काल प्रतिदिन‘ वाक्य नहीं, क्योंकि इसमें पदों की उचित व्याकरणिक समीपता नहीं है । अत: सही वाक्य वही माना जायेगा जिसमें ‘आसत्ति‘ गुण हो ।
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(घ) ‘तात्पर्य‘ का अर्थ है– ‘वक्ता का अभीष्ट उद्देश्य अथवा आशय ।‘ वक्ता ने वाक्य में जिस उद्देश्य और आशय से पदों का प्रयोग किया हो, पाठक को उनका उसी प्रसंगानुकूल और आशययुक्त अर्थ ग्रहण करना चाहिए । मन्तव्य या प्रसंगविरुद्ध और उद्देश्य या आशय– विरुद्ध अर्थ वक्ता का अभीष्ट नहीं माना जाता। इस प्रकार ‘तात्पर्य ‘ भी अर्थग्रहण में सहायक एक तत्त्व । ग्रन्थकार द्वारा पृ० २३ पर दिया गया ‘हे भृत्य ! त्वं सैन्धवम् आनय‘-‘ हे सेवक ! तू सैन्धव ले आ‘ उदाहरण इसको समझने के लिए उपयोगी है। ‘सैन्धव‘ के ‘घोड़ा‘ और ‘नमक‘ दो अर्थ होते हैं। भोजन के समय घोड़ा और जाने के समय नमक ले आना, वक्ता के तात्पर्य के विरुद्ध है। यह प्रकरण का उदाहरण है । समर्थ व प्रामाणिक वाक्य वही है जो स्वयं में भावबोधक हो । १. उचित परिवर्धन – मूलप्रति सं० में ” तब” पद त्रुटित है । ‘जब‘ के साथ ‘तब‘ अपेक्षित है। द्विप्र०, द्वि०सं० में परिवर्धित है। २. अपवर्तनी व अपपाठ – दोनों हस्त० व दोनों द्वितीय सं० में यह अपपाठ है – ” जैसा मैं पुरान, जैनियों के ग्रन्थ, बाइबल और कुरान को “। यहां अयोग्य लिपिकरों द्वारा लिखित अशुद्ध वर्तनी मूलसं० में संशोधित कर दी है। द्विप्र०, द्वि०सं० में अभी अशुद्ध वर्तनी ‘पुरान‘ है । अन्य सभी सं० में संशोधित कर दी गई वर्तनी “पुराण” है । किन्तु ‘पुराण‘ नहीं, ‘पुराणों‘; ‘ग्रन्थ‘ नहीं, ‘ग्रन्थों‘ बहुवचनान्त शुद्ध प्रयोग वांछनीय हैं।
३. ऋषि – हस्तलेख – ” प्रयत्न करता…..इन मतों के ” पाठ मूलह० में ऋषि के हस्तलेख में परिवर्धित है ।
४. उचित संशोधन – मूलह०, मुद्रणह०, द्विप्र० और मूलप्रति सं० में ” धर्त्ता” अपप्रयोग है । द्वि०सं०, उदयपुर सं० आदि में
पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करना मुझ वा सब महाशयों का मुख्य कर्त्तव्य कर्म है ।
सर्वात्मा, सर्वान्तर्यामी, सच्चिदानन्द परमात्मा अपनी कृपा से इस आशय को विस्तृत और चिरस्थायी करे ।२
॥ अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्–विद्वद्वरशिरोमणिषु ॥ ३
॥ इति भूमिका ॥
स्थान महाराणा जी का उदयपुर
भाद्रपद, शुक्लपक्ष, सम्वत् १९३९५
दयानन्दसरखतीं
(स्वामी) दयानन्द सरस्वती ̈
संशोधित है । ” धर्त्ता” विशेषण है, जबकि यहां क्रिया अपेक्षित है, और क्रिया की वर्तनी ‘धरता‘ ही होती है। अयोग्य लिपिकरों ने अयोग्यता से यह अशुद्धि की है। संशोधन – पुष्टि – शुद्ध क्रिया–प्रयोग “धरता” के लिए द्रष्टव्य है पृ० ७३० / १९ । १. मुद्रणकाल में अपपाठ – द्विप्र०, द्वि०सं० में “सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझ वा सब महाशयों का मुख्य कर्त्तव्य कर्म है । ” अपपाठ है। दोनों हस्तलेखों में और मूलप्रति सं० में ” करना” शुद्ध है । यह मुद्रण के समय हुई अशुद्धि है । प्रायः सभी सं० में इसका संशोधन कर लिया गया है। किन्तु युमी, द्वि०सं० ने इस अतिस्पष्ट अशुद्धि का संशोधन नहीं किया है । मुद्रणलिपिकर द्वारा मूलहस्तलेख से मुद्रणप्रति बनाते समय लगभग २००० पाठ परिवर्तित किये गये हैं और द्वितीय संस्करण (१८८४ ) में कई हजार मुद्रणदोष उत्पन्न हो गये हैं, उन सबका निराकरण होने पर ही सत्यार्थप्रकाश का ‘शुद्धतम संस्करण‘ बन पायेगा ।
२. पाठग्रहण – मूलहस्त० में भूमिका संक्षिप्त है, मुद्रणहस्त० में उसका कुछ परिवर्धन किया गया है। मुद्रणहस्त० की वही विस्तारित
भूमिका मूलप्रति सं० और द्वि०सं० में प्रकाशित की गई है।
३. मीमांसक जी का ग्राह्य विचार – पं० मीमांसक जी के मतानुसार, दोनों हस्तलेखों और तीनों सं० में यहां यह अपपाठ मिलता है। शोधकों ने भी इसके शोधन में प्रमाद किया है – “बुद्धिमद्वरशिरोमणिषु “। पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक का विचार है कि यहां प्रसिद्ध और पूर्ण कथन “बुद्धिमद्विद्वद्वरशिरोमणिषु” पाठ होना चाहिए था, जो शीघ्रता में लिपिकर से अशुद्ध लिखा गया है। पं० जी का यह कथन उचित प्रतीत होता है । संशोधन – पुष्टि – ग्रन्थ में पर्यायवाची पद के भेद से ठीक ऐसा ही प्रयोग आगे भी किया गया है—“विपश्चिद्वरशिरोमणिषु” (पृ० ५१२, एकादश समुल्लास की अनुभूमिका के अन्त में) ४–७. मुंशी जी का लेख – ४, ५, ६ संख्यांक की पंक्तियों में अंकित स्थान, विवरण, तिथि तथा नाम तीनों ही हस्तलेखों में नहीं हैं । प्रकाशन के समय मुद्रणहस्तलेख में इनको मुंशी समर्थदान जी ने अपने हाथ से लिखा है । मास, पक्ष और संवत् भी उसी समय लिखा गया है । मुद्रणप्रति में ‘शुक्लपक्ष‘ का उल्लेख नहीं है, खाली स्थान छोड़ा हुआ है । प्रकाशित प्रति में यहां ” भाद्रपद शुक्लपक्ष, संवत् १९३९ ” लिखा मिलता है। जो यह संकेत देता है कि मुद्रण प्रारम्भ करने से पूर्व ये पाठ जोड़े हैं। महर्षि ने उदयपुर निवास के समय प्रेसप्रति के भूमिका के ५ पृष्ठ और सत्यार्थप्रकाश के आरम्भिक ३२ पृष्ठ भाद्रपद कृष्णपक्ष १, मंगलवार, संवत् १९३९ (२९ अगस्त १८८२) को प्रकाशनार्थ मुंशी समर्थदान को डाक द्वारा प्रयाग स्थित यन्त्रालय में प्रेषित किये थे । भाद्रपद शुक्लपक्ष में उन्होंने मुद्रण प्रारम्भ करने का विचार किया । तभी ये मास, पक्ष आदि लिखे गये । प्रायः सभी संस्करणों में भूमिका के अन्त में ग्रन्थकार का नाम प्रकाशित अक्षरों में मिलता है । परोपकारिणी सभा के संस्करण ३७–३९ में ऋषि के हस्ताक्षरों की अनुकृति भी अंकित कर दी है ताकि सत्यार्थप्रकाश में ऋषि के हस्ताक्षर का नमूना भी सुरक्षित रहे और पाठक उसको देख सकें | वस्तुतः भूमिका के अन्त में ऋषि ने स्वयं न नाम लिखा था, न हस्ताक्षर किये थे। मुंशी जी ने इन पंक्तियों में इतिहास को सुरक्षित करके महत्त्वपूर्ण प्रशंसनीय कार्य किया है।
॥ ओ३म् ॥
अथ सत्यार्थप्रकाशः
[ अथ प्रथमसमुल्लासारम्भः ]
[ अथ – ओङ्कारादि–ईश्वरनामानि व्याख्यास्यामः ]२
[ इस समुल्लास में ‘ओङ्कार‘ आदि ईश्वर – नामों की व्याख्या करेंगे ] ३
ओ३म् शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नौ भवत्वर्य॒मा ।
। ।
शन्न॒ऽइन्द्रो बृह॒स्पति॒ शन्नो विष्णुरुरुक्रमः ॥
नमो॒ ब्रह्म॒णे॒ नम॑स्ते वायो॒ त्वमे॒व प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामे॒व प्र॒त्यक्षं ब्रह्म॑ वदिष्यामि ऋतं व॑दि॒ष्यामि स॒त्य॑ व॑दिष्यामि तन्माम॑वतु॒ तद॒क्तार॑म॒वतु॒ । अव॑तु॒ माम॑वतु व॒क्तार॑म् ओ३म् शान्ति॒श्शान्ति॒श्शान्तिः ॥ १ ॥ ४ [ तुलना – तैत्ति०आ०, प्रपा० ७ । अनु० १]
१– ३. समुल्लास के विषय का उल्लेख – बृहत् कोष्ठकों में अंकित प्रथम समुल्लास के विषय का उल्लेख आदि सम्पादक या लिपिकर के प्रमाद से रह गया प्रतीत होता है। अधिकांश समुल्लासों में महर्षि द्वारा ‘आदि – अन्त में विषय के उल्लेख‘ की आर्षशैली गृहीत है, देखिए – अन्य सभी समुल्लासों के आरम्भ में विषयसंकेतक संस्कृत वाक्य और ३,१०,११,१३,१४ समुल्लासों में संस्कृत–हिन्दी दोनों भाषाओं के वाक्य । यहां इस विषय का उल्लेख भी महर्षि के शब्दों के अनुसार ही किया है। महर्षि ने भूमिका में इन्हीं शब्दों में इस समुल्लास के विषय का निर्देश किया है – ” प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओङ्कार आदि नामों की व्याख्या” (पृ० ७) । प्रथम समुल्लास की समाप्ति पर भी इसी विषय का उल्लेख “ईश्वरनामविषये प्रथमः समुल्लासः सम्पूर्णः ” ( पृ० ५७) पदों से किया है। प्रथम समुल्लास का यह विषय महर्षि द्वारा स्वयं निर्दिष्ट किया गया है, अतः ग्रन्थ की शैली की एकरूपता और मानकता की दृष्टि से परिवर्धित करना आवश्यक है।
आचार्य राजेन्द्रनाथ जी शास्त्री ( संन्यासनाम स्वामी सच्चिदानन्द जी योगी) ने अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थप्रकाश के संशोधनों की समीक्षा‘ में ( पृ० १५ ) पर संशोधनों की समीक्षा करते हुए स्वामी वेदानन्द जी आदि के संशोधनों को अनुचित ठहराया है T अध्ययन के बाद यह देखने में आया है कि आचार्य की अधिकांश समीक्षाएं पूर्वाग्रहपूर्ण और अयुक्तियुक्त हैं। इस स्थान पर ‘ विषय तथा समुल्लास – संकेतक‘ वाक्यों को उन्होंने यह कह कर नकारा है कि यह ऋषि की शैली नहीं है। शैली विशिष्ट पद्धति को कहते हैं, सम्पादकीय त्रुटि को नहीं । संकेतवाक्य न देना सम्पादकीय भूल है। आचार्य जी ने एक–दो पुस्तकों के उदाहरण देकर भ्रमित करने का यह प्रयास किया है कि ऋषि के अन्य ग्रन्थों में भी ग्रन्थ के आरम्भ में प्रथम विषय का संकेत नहीं। जिन ग्रन्थों में प्रथम विषय का संकेत है उनके उदाहरण वे छिपा गये । देखिए ऋषि की शैली–
(क) ‘संस्कारविधि‘ में – ” अथेश्वर – स्तुति – प्रार्थना – उपासना मन्त्राः ” फिर ” अथ स्वस्तिवाचनम् ” आदि ।
ख) ‘पंचमहायज्ञविधि‘ में – ” अथ सन्ध्योपासनादि पञ्चमहायज्ञविधिः ।”
(ग) ‘वेदविरुद्धमत खण्डन‘ में – ” अथ वल्लभादिमतस्थान् प्रति प्रश्नाः खण्डनं च । ”
(घ) ‘गोकरुणानिधि‘ में – ” अथ समीक्षा”
अतः आचार्य जी की आलोचना तथ्यों पर आधारित नहीं है। मानकता के लिए यह आदि सम्पादकीय त्रुटि दूर होनी चाहिये । ४. स्वरांकन का अभाव और अशुद्धि – दोनों हस्तलेखों में इन मन्त्रों पर स्वरांकन नहीं हैं। इन पर स्वरांकन द्वितीय संस्करण (१८८४) के मुद्रणकाल में किया गया है। आदि– सम्पादकों के प्रमादवश, ग्रन्थ के अन्य मन्त्रों पर भी हस्तलेखों और द्वितीय संस्करण (१८८४) में स्वरांकन नहीं था, बाद के संस्करणों में सम्पादकों ने अपनी ओर से किया है। वेद के तथा अन्य मन्त्रों पर स्वरांकन मन्त्रों का भाग है, अतः उद्धरण में भी आवश्यक है। इसके अतिरिक्त वैदिक स्वरविद्या की रक्षार्थ स्वरांकन ग्राह्य