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ओ3म्
अथ सत्यार्थप्रकाशः
श्रीयुत् दयानन्दसरस्वतीस्वामिविरचितः

दयाया आनन्दो विलसति परस्स्वात्मविदितः सरस्वत्यस्यान्ते निवसति मुदा सत्यशरणा।
तदा ख्यातिर्यस्य प्रकटितगुणा राष्ट्रिपरमा स को दान्तः शान्तो विदितविदितो वेद्यविदितः।। 1।।

सत्यार्थ प्रकाशाय ग्रन्थस्तेनैव निर्मितः।
वेदादिसत्यशास्त्राणां प्रमाणैर्गुणसंयुतः।। 2।।

विशेषभागीह वृणोति यो हितं प्रियोऽत्र विद्यां सुकरोति तात्त्विकीम्।
अशेषदुःखात्तु विमुच्य विद्यया स मोक्षमाप्नोति कामकामुकः।। 3।।

न ततः फलमस्ति हितं विदुषो ह्यदिकं परमं सुलभन्नु पदम्।
लभते सुयतो भवतीह सुखी कपटि सुसुखी भविता न सदा।। 4।।

धर्मात्मा विजयी स शास्त्रशरणो विज्ञानविद्यावरोऽधर्मेणैव हतो विकारसहितोऽधर्मस्सुदुःखप्रदः।
येनासौ विधिवाक्यमानमननात् पाखण्डखण्डः कृतस्सत्यं यो विदधाति शास्त्रविहितन्धन्योऽस्तु तादृग्घि सः।। 5।। .123

१. ये श्लोक सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण, १८७५ ) की मूलप्रति में विषयसूची के पश्चात् लिखे हुये हैं ।
२. महर्षि दयानन्द के ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका‘, ‘संस्कारविधि‘, ‘आर्याभिविनय‘ आदि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार श्लोक लिखने की शैली मिलती है । ये श्लोक प्रथम और द्वितीय संस्करण में किसी कारणवश प्रकाशित नहीं हो पाये थे ।
३. ऋषिकृत श्लोकों को सुरक्षित रखने और उनकी शैलीगत परम्परा को संरक्षित रखने के लिए ये यहां प्रकाशित किये जा रहे हैं।( परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित संस्करण ३९ में टिप्पणी )

भूमिका