अथ षष्ठसमुल्लासारम्भः
अथ राजप्रजाधर्मान् व्याख्यास्यामः
राजधर्मान् प्रवक्ष्यामि यथावृत्तो भवेन्नृपः।
संभवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथा॥१॥
ब्राह्मं प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि।
सर्वस्यास्य यथान्यायं कर्त्तव्यं परिरक्षणम्॥२॥ —मनु॰ [७।१-२]॥
अब मनुजी ऋषियों से कहते हैं कि चारों वर्ण और चार आश्रमों के व्यवहार-कथन के पश्चात् राजधर्मों को कहेंगे, कि जिस प्रकार का राजा होना चाहिये, और जैसे इसके होने का सम्भव और जैसे इसको परमसिद्धि प्राप्त होवे, वह प्रकार सब कहते हैं॥१॥
कि जैसा परम विद्वान् ब्राह्मण होता है, वैसा विद्वान् सुशिक्षित होकर क्षत्रिय को योग्य है कि इस सब राज्य की रक्षा न्याय से यथावत् करे॥२॥
उसका प्रकार यह है—
त्रीणि॑ राजाना वि॒दथे॑ पु॒रूणि॒ परि विश्वा॑नि भूषथः॒ सदां॑सि॥
—ऋ॰ मं॰ ३। सू॰ ३८। मं॰ ६॥
ईश्वर उपदेश करता है कि (राजाना) राजा और प्रजा के पुरुष मिलके (विदथे) सुखप्राप्ति और विज्ञानवृद्धिकारक राजा-प्रजा के सम्बन्धरूप व्यवहार में (त्रीणि सदांसि) तीन सभा अर्थात् विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्यसभा और राजार्य्यसभा नियत करके (पुरूणि) बहुत प्रकार के (विश्वानि) समग्र प्रजासम्बन्धी मनुष्यादि प्राणियों को (परिभूषथः) सब ओर से विद्या, स्वातन्त्र्य, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।
तं स॒भा च॒ समि॑तीश्च॒ सेना॑ च॒॥१॥
—अथर्व॰ कां॰ १५। अनु॰ २। व॰ ९। मं॰ २॥
सभ्य॑ स॒भां मे॑ पाहि॒ ये च॒ सभ्याः॑ सभा॒सदः॑॥२॥
—अथर्व॰ कां॰ १९। अनु॰ ७। व॰ ५५। मं॰ ६॥
(तम्) उस राजधर्म को (सभा च) तीनों सभा (समितिश्च) संग्रामादि की व्यवस्था, और (सेना च) सेना मिलकर पालन करें॥१॥
सभासद् और राजा को योग्य है कि राजा सब सभासदों को आज्ञा दे कि—हे (सभ्य) सभा के योग्य मुख्य सभासद्! तू (मे) मेरी (सभाम्) सभा की धर्मयुक्त व्यवस्था की (पाहि) रक्षाकर, और (ये च) जो (सभ्याः) सभा के योग्य (सभासदः) सभासद् हैं, वे भी सभा की व्यवस्था का पालन किया करें॥२॥
इसका अभिप्राय यह है कि एक को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देना चाहिए किन्तु राजा जो सभापति तदधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन, और प्रजा राजसभा के आधीन रहे। यदि ऐसा न करोगे तोः—
राष्ट्रमेव विश्याहन्ति तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः। विशमेव राष्ट्रा-याद्यां करोति तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति न पुष्टं पशुं मन्यत इति॥१॥
—शत॰। का॰ १३। [प्रपा॰] २। ब्रा॰ ३। [कं॰ ७-८]॥
जो प्रजा से स्वतन्त्र स्वाधीन राजवर्ग रहै तो राजपुरुष (राष्ट्रमेव विश्याहन्ति) राज्य में प्रवेश करके प्रजा का नाश किया करें। जिसलिये अकेला राजा स्वाधीन वा उन्मत्त होके (राष्ट्री विशं घातुकः) प्रजा का नाशक होता है अर्थात् (विशमेव राष्ट्रायाद्यां करोति) वह राजा प्रजा को खाये जाता (अत्यन्त पीडा करता) है, इसलिये किसी एक को राज्य में स्वाधीन न करना चाहिए। जैसे—सिंह वा मांसाहारी पुष्ट पशु को मार कर खा लेते हैं, वैसे (राष्ट्री विशमत्ति) स्वतन्त्र राजा प्रजा का नाश करता है, अर्थात् किसी को अपने से अधिक न होने देता। श्रीमान् को लूट, खूँच, अन्याय से दण्ड देके अपना प्रयोजन पूरा करेगा। इसलिए—
इन्द्रो॑ जयाति॒ न परा॑ जयाता अधिरा॒जो राज॑सु राजयातै।
च॒र्कृत्य॒ ईड्यो॒ वन्द्य॑श्चोप॒सद्यो॑ नम॒स्योऽभवे॒ह॥१॥
—अथर्व॰ कां॰ ६। अनु॰ १०। व॰ ९८। मं॰ १॥
हे मनुष्यो! जो (इह) इस मनुष्य के समुदाय में (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य का कर्त्ता, शत्रुओं को (जयाति) जीत सके (न पराजयातै) जो शत्रुओं से पराजित न हो (राजसु) राजाओं में (अधिराजः) सर्वोपरि विराजमान (राजयातै) प्रकाशमान हो (चर्कृत्यः) सभापति होने को अत्यन्त योग्य (ईड्यः) प्रशंसनीय गुणकर्मस्वभावयुक्त (वन्द्यः) सत्करणीय (चोपसद्यः) समीप जाने और शरण लेने योग्य (नमस्यः) सबका माननीय (भव) होवे, उसी को सभापति राजा करें।
इ॒मं दे॑वाऽअसप॒त्नꣳ सु॑वध्वं मह॒ते क्ष॒त्राय॑ मह॒ते ज्यैष्ठ्या॑य
मह॒ते जान॑राज्या॒येन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॑॰॥१॥ —यजुः॰ अ॰ ९। मं॰ ४०॥
हे (देवाः) विद्वानो! राजप्रजाजनो! तुम (इमम्) इस प्रकार के पुरुष को (महते क्षत्राय) बड़े चक्रवर्त्तिराज्य (महते ज्यैष्ठ्याय) सबसे बड़े होने (महते जानराज्याय) बड़े-बड़े विद्वानों से युक्त राज्य पालने, और (इन्द्रस्येन्द्रियाय) परम ऐश्वर्ययुक्त राज्य और धन के पालने के लिए (असपत्नꣳसुवध्वम्) सम्मति करके सर्वत्र पक्षपातरहित, पूर्णविद्या-विनययुक्त सबके मित्र सभापति राजा को सर्वाधीश मानके सब भूगोल को शत्रुरहित करो। और—
स्थि॒रा वः॑ स॒न्त्वायु॑धा परा॒णुदे॑ वी॒ळू उ॒त प्र॑ति॒ष्कभे॑।
यु॒ष्माक॑मस्तु॒ तवि॑षी॒ पनी॑यसी॒ मा मर्त्य॑स्य मा॒यिनः॑॥१॥
—ऋ॰ मं॰ १। सू॰ ३९। मं॰ २॥
ईश्वर उपदेश करता है कि हे राजपुरुषो! (वः) तुम्हारे (आयुधा) आग्नेयादि अस्त्र ‘शतघ्नी’ तोप, ‘भुशुण्डी’ बन्दूक, धनुष-बाण, ‘असि’ तलवार आदि शस्त्र; शत्रुओं के (पराणुदे) पराजय करने (उत प्रतिष्कभे) और रोकने के लिए (वीळू) प्रशंसित और (स्थिरा) दृढ़ (सन्तु) हों (युष्माकम्) और तुम्हारी (तविषी) सेना (पनीयसी) प्रशंसनीय (अस्तु) होवे कि जिससे तुम सदा विजयी होओ, परन्तु (मा मर्त्यस्य मायिनः) जो निन्दित अन्यायरूप काम करता है, उसके लिये पूर्व चीजें मत हों।
अर्थात् जब तक मनुष्य धार्मिक रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। महाविद्वानों को विद्यासभाऽधिकारी, धार्मिक विद्वानों को धर्मसभा के अधिष्ठाता और प्रशंसनीय धार्मिक पुरुषों को राजसभा के सभासद् और सब के बीच में जो उत्तम पुरुष हो, उसको राजा सभा का पतिरूप मानके सब प्रकार से उन्नति करें। तीनों सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम नियम और नियमों के आधीन सब लोग वर्त्तें, सब के हितकारक कामों में सम्मति करें। परसर्वहित करने के लिए परतन्त्र और धर्मयुक्त कामों में जो-जो निज के काम हैं, [उन-उन में] स्वतन्त्र रहैं।
फिर उस सभापति के गुण कैसे हों—
इन्द्राऽनिलयमार्काणामग्नेश्च वरुणस्य च।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः॥१॥
तपत्यादित्यवच्चैष चक्षूंषि च मनांसि च।
न चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम्॥२॥
सोऽग्निर्भवति वायुश्च सोऽर्कः सोमः स धर्मराट्।
स कुबेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः॥३॥
— मनु॰ [७।४, ६, ७]॥
वह सभेश राजा ‘इन्द्र’ विद्युत् के तुल्य शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता, ‘वायु’ के समान सब के प्राणवत् प्रिय और हृदय की बात जाननेहारा, ‘यम’ पक्षपातरहित-न्यायाधीश के समान वर्त्तनेवाला, ‘सूर्य्य’ के समान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक, अन्धकार अर्थात् अविद्या अन्याय का निरोधक, ‘अग्नि’ के समान दुष्टों को भस्म करनेहारा, ‘वरुण’ अर्थात् बांधने वाले के सदृश दुष्टों को अनेक प्रकार से बाँधने वाला ‘चन्द्र’ के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता, ‘धनाध्यक्ष’ के समान कोशों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे॥१॥
जो सूर्यवत् प्रतापी सबके बाह्य और भीतर मनों को अपने तेज से तपानेहारा, जिसको पृथिवी में करड़ी दृष्टि से देखने को कोई भी समर्थ न हो॥२॥
और जो अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य्य, सोम, धर्मप्रकाशक, धनवर्द्धक, दुष्टों का बन्धनकर्त्ता, बड़े ऐश्वर्यवाला होवे, वही ‘सभाध्यक्ष’ ‘सभेश’ होवे॥३॥
सच्चा राजा कौन है
स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः।
चतुर्णामाश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः॥१॥
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्त्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः॥२॥
समीक्ष्य स धृतः सम्यक् सर्वा रञ्जयति प्रजाः।
असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वतः॥३॥
दुष्येयुः सर्ववर्णाश्च भिद्येरन्सर्वसेतवः।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्॥४॥
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति॥५॥
तस्याहुः संप्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम्।
समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम्॥६॥
तं राजा प्रणयन्सम्यक् त्रिवर्गेणाभिवर्द्धते।
कामात्मा विषमः क्षुद्रो दण्डेनैव निहन्यते॥७॥
दण्डो हि सुमहत्तेजो दुर्धरश्चाकृतात्मभिः।
धर्माद्विचलितं हन्ति नृपमेव सबान्धवम्॥८॥
सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
न शक्यो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेषु च॥९॥
शुचिना सत्यसन्धेन यथाशास्त्रानुसारिणा।
प्रणेतुं शक्यते दण्डः सुसहायेन धीमता॥१०॥
—मनु॰ अ॰ ७। [१७-१९, २४-२८, ३०-३१]॥
जो दण्ड है वही पुरुष राजा, वही न्याय का प्रचारकर्त्ता, और सबका शासनकर्त्ता, वही चार वर्ण और चार आश्रमों के धर्म का ‘प्रतिभू’ अर्थात् जामिन है॥१॥
वही प्रजा का शासनकर्त्ता, सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है, इसीलिये बुद्धिमान् लोग दण्ड ही को ‘धर्म’ कहते हैं॥२॥
जो दण्ड अच्छे प्रकार विचार से धारण किया जाय तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है॥३॥
विना दण्ड के सब वर्ण दूषित और सब मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जांय। दण्ड के यथावत् न होने से सब लोगों का प्रकोप हो जावे॥४॥
जहाँ कृष्णवर्ण रक्तनेत्र भयङ्कर पुरुष के समान पापों का नाश करनेहारा दण्ड विचरता है, वहां प्रजा मोह को प्राप्त न होके आनन्दित होती है, परन्तु जो दण्ड का चलानेवाला पक्षपातरहित विद्वान् हो तो॥५॥
जो उस दण्ड का चलानेवाला सत्यवादी; विचार के करनेहारा; बुद्धिमान्; धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि करने में पण्डित राजा है; उसी को उस दण्ड का चलानेहारा विद्वान् लोग कहते हैं॥६॥
जो दण्ड को अच्छे प्रकार राजा चलाता है; वह धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि से बढ़ता है; और जो विषय में लम्पट, टेढ़ा, ईर्ष्या करनेहारा, क्षुद्र, नीचबुद्धि न्यायाधीश, राजा होता है; वह दण्ड से ही मारा जाता है॥७॥
जब दण्ड बड़ा तेजोमय है, उसको अविद्वान् अधर्मात्मा धारण नहीं कर सकता, तब वह दण्ड धर्म से रहित कुटुम्बसहित राजा ही का नाश कर देता है॥८॥
क्योंकि जो आप्त पुरुषों के सहाय, विद्या, सुशिक्षा से रहित, विषयों में आसक्त मूढ़ है; वह न्याय से दण्ड को चलाने में समर्थ कभी नहीं हो सकता॥९॥
और जो पवित्र आत्मा, सत्याचार और सत्पुरुषों का सङ्गी, यथावत् नीतिशास्त्र के अनुकूल चलनेहारा, श्रेष्ठ पुरुषों के सहाय से युक्त बुद्धिमान् है, वही न्यायरूपी दण्ड को चलाने में समर्थ होता है॥१०॥ इसलिये—
सैन्यापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति॥१॥
दशावरा वा परिषद् यं धर्मं परिकल्पयेत्।
त्र्यवरा वापि वृत्तस्था तं धर्मं न विचालयेत्॥२॥
त्रैविद्यो हैतुकस्तर्की नैरुक्तो धर्मपाठकः।
त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत्स्याद्दशावरा॥३॥
ऋग्वेदविद्यजुर्विच्च सामवेदविदेव च।
त्र्यवरा परिषज्ज्ञेया धर्मसंशयनिर्णये॥४॥
एकोऽपि वेदविद्धर्मं यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः।
स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः॥५॥
अव्रतानाममन्त्राणां जातिमात्रोपजीविनाम्।
सहस्रशः समेतानां परिषत्त्वं न विद्यते॥६॥
यं वदन्ति तमोभूता मूर्खा धर्ममतद्विदः।
तत्पापं शतधा भूत्वा तद्वक्तॄननुगच्छति॥७॥
—मनु॰ [१२।१००, ११०-११५]॥
सब सेना और सेनापतियों के ऊपर राज्याधिकार, दण्ड देने की व्यवस्था के सब कार्यों का आधिपत्य, और सबके ऊपर वर्त्तमान सर्वाधीश राजाधिकार, इन चारों अधिकारों में सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों में प्रवीण, पूर्ण विद्यावाले, धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, सुशील जनों को स्थापित करना चाहिये। अर्थात् मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधिकारी, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान और राजा ये चार सब विद्याओं में पूर्ण विद्वान् होने चाहियें॥१॥
न्यून से न्यून दश विद्वानों अथवा बहुत न्यून हों तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे, उस ‘धर्म’ अर्थात् व्यवस्था का उल्लङ्घन कोई भी न करे॥२॥
इस सभा में चारों वेद, न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हों परन्तु वे ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ हों तब वह सभा कि जिसमें दश विद्वानों से न्यून न होने चाहियें॥३॥
और जिस सभा में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के जानने वाले तीन सभासद् होके व्यवस्था करें, उस सभा की की हुई व्यवस्था को भी कोई उल्लङ्घन न करे॥४॥
यदि एक अकेला सब वेदों का जाननेहारा द्विजों में उत्तम संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे, वही श्रेष्ठ धर्म है, क्योंकि अज्ञानियों के सहस्रों, लाखों और करोड़ों मिलके जो कुछ व्यवस्था करें, उसको कभी न मानना चाहिये॥५॥
जो ब्रह्मचर्य-सत्यभाषणादि-व्रत, वेदविद्या वा विचार से रहित, जन्ममात्र से शूद्रवत् वर्त्तमान हैं उन सहस्रों मनुष्यों के मिलने से भी सभा नहीं कहाती॥६॥
अविद्यायुक्त मूर्ख, वेदों के न जानने वाले मनुष्य जिस धर्म को कहैं, उसको कभी न मानना चाहिये। क्योंकि जो मूर्खों के कहे हुए धर्म के अनुसार चलते हैं, उनके पीछे सैकड़ों प्रकार के पाप लग जाते हैं॥७॥
इसलिये तीनों अर्थात् विद्यासभा, धर्मसभा और राजसभाओं में मूर्खों को कभी भरती न करें। किन्तु सदा विद्वान् और धार्मिक पुरुषों का स्थापन करे। और सब लोग ऐसे—
त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां दण्डनीतिं च शाश्वतीम्।
आन्वीक्षिकीं चात्मविद्यां वार्त्तारम्भाँश्च लोकतः॥१॥
इन्द्रियाणां जये योगं समातिष्ठेद्दिवानिशम्।
जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः॥२॥
दश कामसमुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च।
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥३॥
कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः।
वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु॥४॥
मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः।
तौर्य्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः॥५॥
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम्।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः॥६॥
द्वयोरप्येतयोर्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः।
तं यत्नेन जयेल्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ॥७॥
पानमक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम्।
एतत्कष्टतमं विद्याच्चतुष्कं कामजे गणे॥८॥
दण्डस्य पातनं चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे।
क्रोधजेऽपि गणे विद्यात्कष्टमेतत्त्रिकं सदा॥९॥
सप्तकस्यास्य वर्गस्य सर्वत्रैवानुषङ्गिणः।
पूर्वं पूर्वं गुरुतरं विद्याद् व्यसनमात्मवान्॥१०॥
व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
व्यसन्यधोऽधो व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः॥११॥
—मनु॰ [७।४३-५३]॥
राजा और राजसभा के सभासद् तब हो सकते हैं कि जब चारों वेदों की कर्मोपासना-ज्ञान-विद्याओं के जानने वालों से तीनों विद्या, सनातन दण्डनीति, न्यायविद्या, आत्मविद्या अर्थात् परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव-स्वरूप को यथावत् जाननेरूप ब्रह्मविद्या और लोक से वार्ताओं का आरम्भ कहना और पूछना सीखकर सभासद् वा सभापति हो सकें॥१॥
सब सभासद् और सभापति इन्द्रियों के जीतने अर्थात् अपने वश में रखके सदा धर्म में वर्तें और अधर्म से हठे-हठाये रहें। इसलिये रात-दिन नियत समय में योगाभ्यास भी करते रहें। क्योंकि जो जितेन्द्रिय कि अपनी इन्द्रियों (मन, प्राण और शरीर प्रजा है, इस) को जीते विना बाहर की प्रजा को अपने वश में स्थापन करने को समर्थ कभी नहीं हो सकता॥२॥
दृढ़ोत्साही होकर जो काम से दश और क्रोध से आठ दुष्ट व्यसन कि जिनमें फसा हुआ मनुष्य कठिनता से निकल सके, उनको प्रयत्न से छोड़ और छुड़ा देवे॥३॥
क्योंकि जो राजा काम से उत्पन्न हुए दश दुष्ट व्यसनों में फसता है, वह अर्थ अर्थात् राज्य, धनादि और धर्म से रहित हो जाता है। और जो क्रोध से उत्पन्न हुए आठ बुरे व्यसनों में फसता है, वह शरीर से भी रहित हो जाता है॥४॥
काम से उत्पन्न हुए व्यसन—मृगया करना; चौपड़ खेलना, (द्यूत) अर्थात् जुवा करना; दिन में सोना; कामकथा वा दूसरे की निन्दा किया करना; स्त्रियों का अति सङ्ग; मादकद्रव्य मद्य, अफीम, भाँग, गांजा आदि का सेवन; गाना, बजाना, नाचना, [नाच] करना वा करवाना वा सुनना, देखना; वृथा इधर-उधर घूमते फिरना ये दश कामोत्पन्न व्यसन हैं॥५॥
क्रोध से उत्पन्न व्यसन—‘पैशुन्य’ अर्थात् चुग़ली करना; विना विचारे बलात्कार किसी की स्त्री से बुरा काम करना; द्रोह रखना; ‘ईर्ष्या’ अर्थात् दूसरे की बड़ाई वा उन्नति देख-सुन जला करना; ‘असूया’ दोषों में गुण, गुणों में दोषारोपण करना; ‘अर्थदूषण’ अर्थात् अधर्मयुक्त बुरे कामों में धनादि का व्यय करना; कठोर वचन [बोलना] और विना अपराध करड़ा वा अधिक दण्ड देना; ये आठ दुर्गुण क्रोध से उत्पन्न होते हैं॥६॥
जिसे सब विद्वान् लोग कामज और क्रोधजों का मूल जानते हैं कि जिससे ये सब दुर्गुण मनुष्य को प्राप्त होते हैं, उस लोभ को प्रयत्न से छोड़े॥७॥
काम व्यसनों में बड़े दुर्गुण एक मद्यादि मादक द्रव्यों का सेवन, दूसरा पासों आदि से खेलना, तीसरा स्त्रियों का विशेष सङ्ग, चौथा मृगया करना, ये चार महादुष्ट व्यसन हैं और कामजों में अत्यन्त दुःखदायक दोष हैं॥८॥
विना अपराध दण्ड का निपातन, कठोर वचन बोलना और धनादि का अन्याय में खर्च करना, ये तीन क्रोध से उत्पन्न हुए बड़े दुःखदायक दोष हैं॥९॥
जो ये सात दुर्गुण दोनों कामज और क्रोधज दोषों में से गिने हैं, इनमें से पूर्व-पूर्व अर्थात् व्यर्थ व्यय से कठोर वचन, कठोर वचन से अन्याय से दण्ड देना, इससे मृगया खेलना, इससे स्त्रियों का अत्यन्त सङ्ग, इससे जुआ अर्थात् द्यूत करना और इससे भी मद्यादि सेवन करना बड़ा भारी दुष्ट व्यसन है॥१०॥
इसमें यह निश्चय है कि दुष्ट व्यसन में फसने से मर जाना अच्छा है। क्योंकि जो दुष्टाचारी पुरुष है, वह अधिक जियेगा तो अधिक-अधिक पाप करके नीच-नीच गति अर्थात् अधिक-अधिक दुःख को प्राप्त होता जायगा और जो किसी व्यसन में नहीं फसा, वह मर भी जायगा तो भी सुख को प्राप्त होता है। इसलिये विशेष राजा और सब मनुष्यों को उचित है कि कभी मृगया और मद्यपानादि दुष्ट कामों में न फसें और दुष्ट व्यसनों से पृथक् होकर, धर्मयुक्त गुण-कर्म-स्वभावों में सदा वर्त्तके अच्छे-अच्छे काम किया करें॥११॥
राजसभासद् और मन्त्री कैसे होने चाहियें—
मौलान्शास्त्रविदः शूराँल्लब्धलक्ष्यान्कुलोद्गतान्।
सचिवान्सप्त चाष्टौ वा प्रकुर्वीत परीक्षितान्॥१॥
अपि यत्सुकरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्।
विशेषतोऽसहायेन किन्नु राज्यं महोदयम्॥२॥
तैः सार्द्धं चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं सन्धिविग्रहम्।
स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च॥३॥
तेषां स्वं स्वमभिप्रायमुपलभ्य पृथक् पृथक्।
समस्तानाञ्च कार्येषु विदध्याद्धितमात्मनः॥४॥
अन्यानपि प्रकुर्वीत शुचीन् प्राज्ञानवस्थितान्।
सम्यगर्थसमाहर्तॄनमात्यान्सुपरीक्षितान् ॥५॥
निवर्त्तेतास्य यावद्भिरितिकर्तव्यता नृभिः।
तावतोऽतन्द्रितान् दक्षान् प्रकुर्वीत विचक्षणान्॥६॥
तेषामर्थे नियुञ्जीत शूरान् दक्षान् कुलोद्गतान्।
शुचीनाकरकर्मान्ते भीरूनन्तर्निवेशने॥७॥
दूतं चैव प्रकुर्वीत सर्वशास्त्रविशारदम्।
इङ्गिताकारचेष्टज्ञं शुचिं दक्षं कुलोद्गतम्॥८॥
अनुरक्तः शुचिर्दक्षः स्मृतिमान् देशकालवित्।
वपुष्मान्वीतभीर्वाग्मी दूतो राज्ञः प्रशस्यते॥९॥
—मनु॰ ७। [५४-५७, ६०-६४]॥
स्वराज्य स्वदेश में उत्पन्न हुए, वेदादि शास्त्रों के जाननेहारे, शूरवीर, जिनों का लक्ष्य अर्थात् विचार निष्फल न हो, और कुलीन, अच्छे प्रकार परीक्षित, सात वा आठ उत्तम धार्मिक चतुर ‘सचिवान्’ अर्थात् मन्त्री करे॥१॥
क्योंकि विशेषकर सहाय के विना जो सुगम कर्म है, वह भी एक के करने में कठिन हो जाता है, जब ऐसा है तो महान् राज्यकर्म एक से कैसे हो सकता है? इसलिये एक को राजा और एक की बुद्धि पर राज्य के कार्य्य का निर्भर रखना बहुत ही बुरा काम है॥२॥
इससे सभापति को उचित है कि नित्यप्रति उन राज्यकर्मों में कुशल विद्वान् मन्त्रियों के साथ सामान्य करके किसी से (सन्धि) मित्रता, किसी से (विग्रह) विरोध, (स्थान) स्थिति समय को देखके चुपचाप रहना, अपने राज्य की रक्षा करके बैठे रहना, (समुदयम्) जब अपना उदय अर्थात् वृद्धि हो तब दुष्ट शत्रु पर चढ़ाई करना, (गुप्तिम्) मूल राज, सेना, कोश आदि की रक्षा, (लब्धप्रशमनानि) जो-जो देश प्राप्त हो, उस-उसमें शान्तिस्थापन उपद्रवरहित करना, इन छः गुणों का विचार नित्यप्रति किया करे॥३॥
विचार ऐसे करना कि उन सभासदों का पृथक्-पृथक् अपना-अपना विचार और अभिप्राय को सुनकर बहुपक्षानुसार कार्यों में जो कार्य अपना और अन्य का हितकारक हो, वह करने लगना॥४॥
अन्य भी पवित्रात्मा, बुद्धिमान्, निश्चितबुद्धि, पदार्थों के संग्रह करने में अतिचतुर, सुपरीक्षित मन्त्री करे॥५॥
जितने मनुष्यों से राज्यकार्य्य सिद्ध होसके, उतने आलस्यरहित, बलवान् और बड़े चतुर प्रधान पुरुषों को अधिकारी अर्थात् नौकर रक्खे॥६॥
इनके आधीन शूरवीर, बलवान्, कुलोत्पन्न, पवित्र भृत्यों को बड़े-बड़े कर्मों में नियुक्त करे और भीरु डरपुकनों (=डरनेवालों) को भीतर के कर्मों में नियुक्त करे॥७॥
जो प्रशंसित कुल में उत्पन्न, चतुर, पवित्र, हावभाव और चेष्टा से भीतर हृदय, और भविष्यत् में होने वाली बात को जाननेहारा, सब शास्त्रों में विशारद=चतुर हो, उस दूत को भी रक्खे॥८॥
वह ऐसा हो—राजकाम में अत्यन्त उत्साह-प्रीतियुक्त, निष्कपटी, पवित्रात्मा, चतुर, बहुत समय की बात को भी न भूलने वाला, देश और कालानुकूल वर्त्तमान का कर्त्ता, सुन्दररूपयुक्त, निर्भय और बड़ा वक्ता हो, वही राजा का ‘दूत’ होने में प्रशस्त है॥९॥
किस-किस को क्या-क्या अधिकार देवे—
अमात्ये दण्ड आयत्तो दण्डे वैनयिकी क्रिया।
नृपतौ कोशराष्ट्रे च दूते सन्धिविपर्ययौ॥१॥
दूत एव हि संधत्ते भिनत्त्येव च संहतान्।
दूतस्तत्कुरुते कर्म भिद्यन्ते येन मानवाः॥२॥
बुद्ध्वा च सर्वं तत्त्वेन परराजचिकीर्षितम्।
तथा प्रयत्नमातिष्ठेद्यथात्मानं न पीडयेत्॥३॥
धनुर्दुर्गं महीदुर्गमब्दुर्गं वार्क्षमेव वा।
नृदुर्गं गिरिदुर्गं वा समाश्रित्य वसेत्पुरम्॥४॥
एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः।
शतं दशसहस्राणि तस्माद् दुर्गं विधीयते॥५॥
तत्स्यादायुधसम्पन्नं धनधान्येन वाहनैः।
ब्राह्मणैः शिल्पिभिर्यन्त्रैर्यवसेनोदकेन च॥६॥
तस्य मध्ये सुपर्याप्तं कारयेद् गृहमात्मनः।
गुप्तं सर्वर्त्तुकं शुभ्रं जलवृक्षसमन्वितम्॥७॥
तदध्यास्योद्वहेद्भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्।
कुले महति सम्भूतां हृद्यां रूपगुणान्विताम्॥८॥
पुरोहितं प्रकुर्वीत वृणुयादेव चर्त्विजम्।
तेऽस्य गृह्याणि कर्माणि कुर्य्युर्वैतानिकानि च॥९॥
—मनु॰ [७।६५-६६, ६८, ७०, ७४-७८]॥
अमात्य को दण्डाधिकार, दण्ड में विनय-क्रिया अर्थात् जिससे अन्यायरूप दण्ड न होने पावे, राजा के आधीन कोश और राजकार्य्य तथा सभा के आधीन सब कार्य्य और दूत के आधीन किसी से मेल वा विरोध करना अधिकार देवे॥१॥
दूत उसको कहते हैं जो फूट में मेल और मिले हुए दुष्टों को फोड़-तोड़ देवे। दूत वह कर्म करे जिससे शत्रुओं में फूट पड़े॥२॥
वह सभापति और सब सभासद् वा दूत आदि यथार्थ से दूसरे विरोधी राजा के राज्य का अभिप्राय जानके वैसा प्रयत्न करें कि जिससे अपने को पीडा न हो॥३॥
इसके लिये सुन्दर जङ्गल धन-धान्ययुक्त देश में (धनुर्दुर्गम्) धनुर्धारी पुरुषों से गहन (महीदुर्गम्) मट्टी से किया हुआ (अब्दुर्गम्) जल से घेरा हुआ (वार्क्षम्) अर्थात् चारों ओर वन (नृदुर्गम्) चारों ओर सेना रहे (गिरिदुर्गम्) अर्थात् चारों ओर पहाड़ों के बीच में कोट बनाके इसके मध्य में नगर बनावे॥४॥
और नगर के चारों ओर (प्राकार) प्रकोट बनावे, क्योंकि उसमें स्थित हुआ एक वीर धनुर्धारी शस्त्रयुक्त पुरुष सौ के साथ, और सौ दश हजार के साथ युद्ध कर सकते हैं, इसलिये दुर्ग का बनाना उत्तम है॥५॥
वह दुर्ग शस्त्रास्त्र, धन, धान्य, वाहन, ब्राह्मण जो पढ़ाने, उपदेश करनेहारे हों (शिल्पी) कारीगर, यन्त्र, नाना प्रकार की कला, (यवसेन) चारा घास और जल आदि से सम्पन्न अर्थात् परिपूर्ण हो॥६॥
उसके मध्य में जल वृक्ष पुष्पादियुक्त, सब प्रकार से रक्षित, सब ऋतुओं में सुखकारक, श्वेतवर्ण अपने लिये घर जिसमें सब राजकार्य्य का निर्वाह हो, वैसा बनवावे॥७॥
इतना अर्थात् ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़के, यहाँ तक राजकाम करके, रूप गुण सौन्दर्य युक्त, हृदय को प्रिय, बड़े उत्तम कुल में उत्पन्न, सुन्दर लक्षणयुक्त, अपने क्षत्रियकुल की कन्या जोकि अपने सदृश विद्यादि गुण-कर्म-स्वभाव में हो, उस एक ही स्त्री से विवाह करे। दूसरी सब स्त्रियों को अगम्य समझ कर दृष्टि से भी न देखे॥८॥
पुरोहित और ऋत्विज् का स्वीकार इसलिये करे कि वे अग्निहोत्र और पक्षेष्टि आदि सब राजघर के कर्म किया करें, और आप सर्वदा राजकार्य में तत्पर रहै अर्थात् यही राजा का सन्ध्योपासनादि कर्म है, जो रात-दिन राजकार्य्य में प्रवृत्त रहना और कोई राजकाम बिगड़ने न देना॥९॥
साँवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारयेद् बलिम्।
स्याच्चाम्नायपरो लोके वर्त्तेत पितृवन्नृषु॥१॥
अध्यक्षान्विविधान्कुर्यात् तत्र तत्र विपश्चितः।
तेऽस्य सर्वाण्यवेक्षेरन् नॄणां कार्याणि कुर्वताम्॥२॥
आवृत्तानां गुरुकुलाद्विप्राणां पूजको भवेत्।
नृपाणामक्षयो ह्येष निधिर्ब्राह्मोऽभिधीयते॥३॥
समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन् प्रजाः।
न निवर्तेत संग्रामात् क्षात्रं धर्ममनुस्मरन्॥४॥
आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः।
युध्यमानाः परं शक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः॥५॥
न च हन्यात्स्थलारूढं न क्लीबं न कृताञ्जलिम्।
न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्॥६॥
न सुप्तं न विसन्नाहं न नग्नं न निरायुधम्।
नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्॥७॥
नायुधव्यसनं प्राप्तं नार्त्तं नातिपरिक्षतम्।
न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्॥८॥
यस्तु भीतः परावृत्तः सङ्ग्रामे हन्यते परैः।
भर्त्तुर्यद्दुष्कृतं किञ्चित्तत्सर्वं प्रतिपद्यते॥९॥
यच्चास्य सुकृतं किञ्चिदमुत्रार्थमुपार्जितम्।
भर्त्ता तत्सर्वमादत्ते परावृत्तहतस्य तु॥१०॥
रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः।
सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत्॥११॥
राज्ञश्च दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः।
राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम्॥१२॥
—मनु॰ [७।८०-८२, ८७, ८९, ९१-९७]
प्रजा से वार्षिक कर आप्तपुरुषों के द्वारा ग्रहण करे और जो सभापतिरूप राजा आदि प्रधान पुरुष हैं वे सब, सभा वेदानुकूल होकर, प्रजा के साथ पिता के समान वर्तें॥१॥
उस राज्यकार्य्य में विविध प्रकार के विद्वान् अध्यक्षों को सभा नियत करे। इनका यही काम है कि जितने-जितने जिस-जिस काम में राजपुरुष हों, वे नियमानुसार वर्त्त कर, यथावत् काम करते हैं वा नहीं; जो यथावत् करें तो उनका सत्कार और जो विरुद्ध करें तो उनको यथावत् दण्ड किया करें॥२॥
सदा जो राजाओं का वेदप्रचाररूप अक्षय-कोष है, इसके प्रचार के लिये जो कोई यथावत् ब्रह्मचर्य से वेदादि शास्त्रों को पढ़कर गुरुकुल से आवें, उनका सत्कार राजसभा यथावत् करे, और उनका भी कि जिनके पढ़ाये हुए विद्वान् हों॥३॥
इस बात के करने से राज्य में विद्या की उन्नति होकर अत्यन्त उन्नति होती है॥
जब कभी प्रजा का पालन करने वाले राजा को कोई अपने से छोटा, तुल्य और उत्तम संग्राम में आह्वान करे तो क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करके, संग्राम से कभी निवृत्त न हो। अर्थात् बड़ी चतुराई के साथ उनसे युद्ध करे, जिससे अपना विजय हो॥४॥
जब संग्रामों में एक दूसरे को हनन करने की इच्छा करते हुए राजा लोग; जितना अपना सामर्थ्य हो विना डर, पीठ न दिखा, युद्ध करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं, इससे विमुख कभी न हो, किन्तु कभी-कभी शत्रु को जीतने के लिये उनके सामने से छिप जाना उचित है, क्योंकि जिस प्रकार से शत्रु को जीत सके, वैसे काम करें, जैसा सिंह क्रोध से सामने आकर शस्त्राग्नि में शीघ्र भस्म हो जाता है, वैसे मूर्खता से नष्ट-भ्रष्ट न हो जावें॥५॥
युद्ध समय में न इधर-उधर खड़े, न नपुंसक, न हाथ जोड़े हुए, न जिसके शिर के बाल खुल गये हों, न बैठे हुए, न “मैं तेरे शरण में हू” ऐसे को॥६॥ न सोए, न मूर्च्छा को प्राप्त हुए, न नग्न हुए, न आयुध से रहित, न युद्ध करते हुओं को देखनेवालों, [न] युद्ध न करते हुए, न शत्रु के साथी॥७॥ न आयुध के प्रहार से पीड़ा को प्राप्त हुए, न दुःखी, न अत्यन्त घायल, न डरे हुए और न पलायन करते हुए पुरुष को सत्पुरुषों के धर्म का स्मरण करते हुए योद्धा लोग कभी मारें; किन्तु उनको पकड़ कर जो अच्छे हों बन्धीगृह में रखे और भोजन-आच्छादन यथावत् देवे, और जो घायल हुए हों, उनकी औषधादि विधिपूर्वक करे। न उनको चिड़ावे, न दुःख देवे। जो उनके योग्य काम हो करावे। विशेष इसपर ध्यान रक्खे कि स्त्री, बालक, वृद्ध और आतुर तथा शोकयुक्त पुरुषों पर शस्त्र कभी न चलावे। उनके लड़केबालों को अपने सन्तानों के सदृश पाले और स्त्रियों को भी पाले। उनको स्वसन्तान, मा, बहिन और कन्या के समान समझे, कभी विषयासक्ति की दृष्टि से भी न देखे। जब राज्य अच्छे प्रकार जम जाय और जिनमें पुनः युद्ध करने की शङ्का न हो, उनको सत्कारपूर्वक छोड़कर अपने-अपने घर वा देश को भेज देवे और जिनसे भविष्यत् काल में विघ्न होना सम्भव हो, उनको सदा कारागार में भी रक्खे॥८॥
और जो पलायन अर्थात् भागा और डरा हुआ भृत्य शत्रुओं से मारा जाय; वह उसके स्वामी के अपराध को प्राप्त होकर दण्डनीय होवे॥९॥
और जो उसकी प्रतिष्ठा है, जिससे इस लोक और परलोक में सुख होने वाला था; उसको उसका स्वामी [प्राप्त] होवे जो भागा हुआ मारा जाय, उसका सब पुण्यफल उसके स्वामी को प्राप्त होता है [और भागे हुये की जो प्रतिष्ठा है] वह सब नष्ट हो जाय। और उस प्रतिष्ठा को वह प्राप्त हो, जिसने धर्म से यथावत् युद्ध किया हो॥१०॥
इस व्यवस्था को कभी न तोड़े कि जो-जो लड़ाई में जिस सिपाही ने रथ, घोड़े, हाथी, छत्र, धन, धान्य, अन्य गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तैल आदि के कुप्पे जीते हों, वही उसका ग्रहण करे॥११॥
परन्तु सेनास्थजन भी उन जीते हुए पदार्थों में से सोलहवां भाग राजा को देवें और राजा भी सेनास्थ योद्धाओं को उस धन में से जो कि सबने मिलकर जीता हो, सोलहवां भाग अवश्य देवे। और जो कोई युद्ध में मर गया हो, उसकी स्त्री और सन्तान को उसका भाग देवे और उसकी स्त्री तथा असमर्थ लड़कों का यथावत् पालन करे। जब उसके लड़के समर्थ हो जायें तब उनको यथायोग्य अधिकार देवे। जो कोई अपने राज्य की रक्षा, वृद्धि, प्रतिष्ठा, विजय और आनन्दवृद्धि की इच्छा रखता हो, वह इस मर्यादा का उल्लङ्घन कभी न करे॥१२॥
अलब्धं चैव लिप्सेत लब्धं रक्षेत्प्रयत्नतः।
रक्षितं वर्द्धयेच्चैव वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्॥१॥
[एतच्चतुर्विधं विद्यात् पुरुषार्थप्रयोजनम्।
अस्य नित्यमनुष्ठानं सम्यक्कुर्यादतन्द्रितः॥२॥]
अलब्धमिच्छेद्दण्डेन लब्धं रक्षेदवेक्षया।
रक्षितं वर्द्धयेद् वृद्ध्या वृद्धं दानेन निःक्षिपेत्॥३॥
अमाययैव वर्तेत न कथञ्चन मायया।
बुध्येतारिप्रयुक्तां च मायां नित्यं स्वसंवृतः॥४॥
नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु।
गूहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः॥५॥
बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत्॥६॥
एवं विजयमानस्य येऽस्य स्युः परिपन्थिनः।
तानानयेद्वशं सर्वान् सामादिभिरुपक्रमैः॥७॥
[यदि ते तु न तिष्ठेयुरुपायैः प्रथमैस्त्रिभिः।
दण्डेनैव प्रसह्यैताँश्छनकैर्वशमानयेत्॥८॥]
यथोद्धरति निर्दाता कक्षं धान्यं च रक्षति।
तथा रक्षेन्नृपो राष्ट्रं हन्याच्च परिपन्थिनः॥९॥
मोहाद्राजा स्वराष्ट्रं यः कर्षयत्यनवेक्षया।
सोऽचिराद् भ्रश्यते राज्याज्जीविताच्च सबान्धवः॥१०॥
शरीरकर्षणात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्॥११॥
राष्ट्रस्य संग्रहे नित्यं विधानमिदमाचरेत्।
सुसंगृहीतराष्ट्रो हि पार्थिवः सुखमेधते॥१२॥
द्वयोस्त्रयाणां पञ्चानां मध्ये गुल्ममधिष्ठितम्।
तथा ग्रामशतानां च कुर्य्याद्राष्ट्रस्य संग्रहम्॥१३॥
ग्रामस्याधिपतिं कुर्य्याद्दशग्रामपतिं तथा।
विंशतीशं शतेशं च सहस्रपतिमेव च॥१४॥
ग्रामदोषान्त्समुत्पन्नान् ग्रामिकः शनकैः स्वयम्।
शंसेद् ग्रामदशेशाय दशेशो विंशतीशिने॥१५॥
विंशतीशस्तु तत्सर्वं शतेशाय निवेदयेत्।
शंसेद् ग्रामशतेशस्तु सहस्रपतये स्वयम्॥१६॥
तेषां ग्राम्याणि कार्याणि पृथक्कार्याणि चैव हि।
राज्ञोऽन्यः सचिवः स्निग्धस्तानि पश्येदतन्द्रितः॥१७॥
नगरे नगरे चैकं कुर्यात्सर्वार्थचिन्तकम्।
उच्चैः स्थानं घोररूपं नक्षत्राणामिव ग्रहम्॥१८॥
स ताननुपरिक्रामेत्सर्वानेव सदा स्वयम्।
तेषां वृत्तं परिणयेत्सम्यग्राष्ट्रेषु तच्चरैः॥१९॥
राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्या भवन्ति प्रायेण तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः॥२०॥
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्॥२१॥
—मनु॰ ७। [९९-[१००], १०१, १०४-१०७-[१०८],
११०-११७, १२०-१२४]॥
राजा और राजसभा अलब्ध की प्राप्ति की इच्छा, प्राप्त की प्रयत्न से रक्षा करे; रक्षित को बढ़ावे और बढ़े हुए धन को वेदविद्या, धर्म के प्रचारक, विद्यार्थी, वेदमार्गोपदेशक तथा असमर्थ अनाथों के पालन में लगावे॥१॥
इस चार प्रकार के ‘पुरुषार्थ’ के प्रयोजन को जाने और आलस्य छोड़कर इसका भलीभाँति नित्य अनुष्ठान करे॥२॥
दण्ड से अप्राप्त के प्राप्ति की इच्छा, नित्य देखने से प्राप्त की रक्षा, रक्षित को वृद्धि अर्थात् ब्याजादि से बढ़ावे और बढ़े हुए धन को पूर्वोक्त मार्ग में नित्य व्यय करे॥३॥
कदापि किसी के साथ छल से न वर्ते किन्तु निष्कपट होकर सबसे वर्त्ताव रक्खे और नित्यप्रति अपनी रक्षा करके, शत्रु के किये हुए छल को जानके निवृत्त करे॥४॥
कोई शत्रु अपने छिद्र अर्थात् निर्बलता को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अङ्गों को गुप्त रखता है, वैसे शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे॥५॥
जैसे बगुला मच्छी पकड़ने को ध्यानावस्थित होकर ताकता है, वैसे अर्थसंग्रह का विचार किया करे, जिस प्रकार द्रव्य और बल की वृद्धि हो। शत्रु को जीतने के लिये सिंह के समान पराक्रम करे, चीता के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप में आये बलवान् शत्रुओं से सस्सा के समान दूर भाग जाय और पश्चात् उनको छल से पकड़े॥६॥
इस प्रकार विजय करनेवाले सभापति के राज्य में जो परिपन्थी अर्थात् डाकू-लुटेरे हों, उनको (साम) अर्थात् मिला लेना, (दाम) कुछ देकर (भेद) अर्थात् फोड़-तोड़ करके वश में करे॥७॥
और जो इनसे वश में न हो तो अतिकठिन दण्ड से वश में करे॥८॥
जैसे धान्य का निकालने वाला छिलकों को अलगकर धान्य की रक्षा करता अर्थात् टूटने नहीं देता है, वैसे राजा, डाकू-चोरों को मारे और राज्य की रक्षा करे॥९॥
जो राजा मोह से, अविचार से अपने राज्य को दुर्बल करता है, वह राज्य और अपने बन्धुसहित जीवने से शीघ्र भ्रष्ट हो जाता है॥१०॥
जैसे प्राणियों के प्राण शरीर को कृश करने से क्षीण हो जाते हैं, वैसे प्रजा को दुर्बल करने से राजाओं के ‘प्राण’ अर्थात् बलादि, बन्धुसहित नष्ट हो जाते हैं॥११॥
इसलिये राजा और राजसभा राजकार्य्य की सिद्धि के लिये ऐसा यत्न करें जिससे राजकार्य्य यथावत् सिद्ध हों। जो राजा राज्यपालन में तत्पर रहता है, उसको सुख सदा बढ़ता जाता है॥१२॥
इसलिये दो तीन, पांच और सौ ग्रामों के बीच में एक राज-स्थान रक्खे, जिसमें यथायोग्य भृत्य और कामदार रखके सब राज्य के कार्य पूरे करे॥१३॥
एक-एक ग्राम में एक-एक पुरुष रक्खे, उन्हीं दश ग्रामों के ऊपर दूसरा, उन्हीं बीस ग्रामों के ऊपर तीसरा, उन्हीं सौ ग्रामों के ऊपर चौथा और उन्हीं सहस्र ग्रामों के ऊपर पांचवां पुरुष रक्खे। अर्थात् जैसे आजकाल एक ग्राम में एक पटवारी, उन्हीं दश ग्रामों में एक थाना और उन दो थानों पर एक बड़ा थाना और उन पांचों थानों पर एक तहसील और दश तहसीलों पर एक ज़िला नियत किया है, वह यही अपने मनु आदि धर्मशास्त्र से राजनीति का प्रकार लिया है॥१४॥
इसी प्रकार प्रबन्ध करके आज्ञा देवे कि वह एक-एक ग्रामों का पति ग्रामों में नित्यप्रति जो-जो दोष उत्पन्न हों, उनको गुप्तता से दश ग्राम के पति को विदित कर दे और वह दश ग्रामाधिपति उसी प्रकार बीस ग्राम के स्वामी को दश ग्रामों का वर्त्तमान नित्यप्रति जना देवे॥१५॥
और बीस ग्रामों के अधिपति बीस ग्रामों के वर्त्तमान को शतग्रामाधिपति को नित्यप्रति निवेदन करें, वैसे ही सौ ग्रामों के पति सौ ग्रामों के वर्त्तमान को आप सहस्राधिपति अर्थात् हजार ग्राम के स्वामी को प्रतिदिन जनाया करें। और दस-दस ग्राम के दोनों अधिपति बीस ग्राम के स्वामी को और बीस-बीस ग्राम के पांच अधिपति सौ ग्राम के अध्यक्ष को और सौ-सौ ग्राम के दश अधिपति सहस्रग्रामों के अधिष्ठाता को दिन-दिन का वर्त्तमान जनावें। और वे सहस्र-सहस्र के दश अधिपति दशसहस्र के अधिपति को और वे दश-दश सहस्र के दश अधिपति लक्षग्रामों की राजसभा को प्रतिदिन का वर्त्तमान जनाया करें और वे सब राजसभा महाराजसभा अर्थात् सार्वभौमचक्रवर्त्ति-महाराजसभा में सब भूगोल का वर्त्तमान जनाया करें॥१६॥
और एक-एक दश-दश सहस्र ग्रामों पर दो सभापति वैसे करें जिनमें एक राजसभा में और दूसरा अध्यक्ष आलस्य छोड़कर सब न्यायाधीशादि राजपुरुषों के कामों को सदा घूमकर देखते रहैं॥१७॥
बड़े-बड़े नगरों में एक-एक विचार करने वाली सभा का सुन्दर उच्च और विशाल जैसा कि चन्द्रमा है, वैसा घर एक-एक बनावें, उसमें बड़े-बड़े विद्यावृद्ध कि जिन्होंने विद्या से सब प्रकार की परीक्षा की हो, वे बैठकर विचार किया करें। जिन नियमों से राजा और प्रजा की उन्नति हो, वैसे-वैसे नियम और विद्या प्रकाशित किया करें॥१८॥
जो नित्य घूमनेवाला सभापति हो, उसके आधीन सब गुप्तचर अर्थात् दूतों को रक्खे जो राजपुरुष और प्रजापुरुषों के साथ नित्य सम्बन्ध रखते हों और वे भिन्न-भिन्न जाति के रहैं, उनसे सब राज और प्रजापुरुषों के सब दोष और गुण गुप्तरीति से जाना करे, जिनका अपराध हो, उनको दण्ड और जिनका गुण हो, उनकी प्रतिष्ठा सदा किया करे॥१९॥
राजा जिनको प्रजा की रक्षा का अधिकार देवे, वे धार्मिक, सुपरीक्षित, विद्वान्, कुलीन हों, उनके आधीन प्रायः शठ और परपदार्थ हरनेवाले चोर-डाकुओं को भी नौकर रख के, उनको दुष्टकर्मं से बचाने के लिये राज के नौकर करके, उन्हीं रक्षा करने वाले विद्वानों के स्वाधीन करके, उनसे इस प्रजा की रक्षा यथावत् करे॥२०॥
जो राजपुरुष अन्याय से वादी-प्रतिवादी से गुप्त धन लेके पक्षपात से अन्याय करें, उनका सर्वस्वहरण करके यथायोग्य दण्ड देकर ऐसे देश में रक्खे कि पुनः वे वहां से लौटकर न आ सकें और इस बात को देख-सुन के दूसरे राजपुरुष भी इस दुष्ट काम से बचे रहैं। यदि उसको दण्ड न दिया जाये तो उसको देख के अन्य राजपुरुष भी ऐसे दुष्ट काम [करेंगे।] परन्तु जितने से उन राजपुरुषों का योगक्षेम भलीभाँति हों और जिससे वे धनाढ्य भी हों, उतना धन वा भूमि राज की ओर से मासिक वा एक वार मिला करे और जब वृद्ध हों, उनको भी आधा मिला करे परन्तु यह ध्यान में रक्खे कि जब तक वे जियें तब तक वह जीविका बनी रहै, पश्चात् नहीं, परन्तु इनके सन्तानों का सत्कार वा नौकरी उनके गुण के अनुसार अवश्य देवे। और जिसके बालक जब तक असमर्थ हों और उनकी स्त्री जीती हो तो उस के निर्वाहार्थ राज की ओर से यथायोग्य, पालन के लिये धन मिला करे। परन्तु जो उसकी स्त्री वा लड़के कुकर्मी हो जायें तो कुछ भी न मिले, ऐसी नीति राजा बराबर रक्खे॥२१॥
यथा फलेन युज्येत राजा कर्त्ता च कर्मणाम्।
तथाऽवेक्ष्य नृपो राष्ट्रे कल्पयेत्सततं करान्॥१॥
यथाऽल्पाऽल्पमदन्त्याद्यं वार्य्योकोवत्सषट्पदाः।
तथाऽल्पाऽल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्राद्राज्ञाब्दिकः करः॥२॥
नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णया।
उच्छिन्दन्ह्यात्मनो मूलमात्मानं ताँश्च पीडयेत्॥३॥
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात् कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः॥४॥
एवं सर्वं विधायेदमितिकर्त्तव्यमात्मनः।
युक्तश्चैवाप्रमत्तश्च परिरक्षेदिमाः प्रजाः॥५॥
विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद् ध्रियन्ते दस्युभिः प्रजाः।
सम्पश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति॥६॥
क्षत्रियस्य परो धर्मः प्रजानामेव पालनम्।
निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते॥७॥
—मनु॰ अ॰ ७। [१२८-१२९, १३९-१४०, १४२-१४४]॥
जैसे राजा और कर्मों का कर्त्ता राजपुरुष वा प्रजाजन सुखरूप फल से युक्त होवे, वैसे विचार करके राजा तथा राजसभा राज्य में ‘कर’ स्थापन करे॥१॥
जैसे जोंक, बछड़ा और भमरा थोड़े-थोड़े भोग्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं, वैसे राजा प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर लेवे॥२॥
अतिलोभ से अपने वा दूसरों के सुख के मूल को उच्छिन्न अर्थात् नष्ट कदापि न करे क्योंकि जो व्यवहार और सुख के मूल का छेदन करता है, वह अपने और उनको पीड़ा ही देता है॥३॥
जो महीपति कार्य्य को देख कर तीक्ष्ण और कोमल भी होवे, वह दुष्टों पर तीक्ष्ण और श्रेष्ठों पर कोमल रहने से राजा अतिमाननीय होता है॥४॥
इस प्रकार सब राज्य का प्रबन्ध करके सदा इस में युक्त और प्रमादरहित होकर अपनी प्रजा का पालन निरन्तर करे॥५॥
जिस भृत्यसहित देखते हुए राजा के राज्य से डाकू लोग रोती विलाप करती प्रजा के पदार्थ और प्राणों को हरते रहते हैं, वह जानो भृत्य, अमात्यसहित मृतक है जीता नहीं, और महादुःख को पानेवाला है॥६॥
इसलिये राजाओं का प्रजा का पालन ही करना परमधर्म है। और जो मनुस्मृति के सप्तमाध्याय में ‘कर’ लेना लिखा है और जैसा सभा नियत करे, उसका भोक्ता राजा धर्म से युक्त होकर सुख पाता है, इससे विपरीत दुःख को प्राप्त होता है॥७॥
उत्थाय पश्चिमे यामे कृतशौचः समाहितः।
हुताग्निर्ब्राह्मणाँश्चार्च्य प्रविशेत्स शुभां सभाम्॥१॥
तत्र स्थितः प्रजाः सर्वाः प्रतिनन्द्य विसर्जयेत्।
विसृज्य च प्रजाः सर्वा मन्त्रयेत्सह मन्त्रिभिः॥२॥
गिरिपृष्ठं समारुह्य प्रासादं वा रहोगतः।
अरण्ये निःशलाके वा मन्त्रयेदविभावितः॥३॥
यस्य मन्त्रं न जानन्ति समागम्य पृथग्जनाः।
स कृत्स्नां पृथिवीं भुङ्क्ते कोशहीनोऽपि पार्थिवः॥४॥
—मनु॰ अ॰ ७ [१४५-१४८]॥
जब पिछली प्रहर रात्रि रहै तब उठ शौच और सावधान होकर परमेश्वर का ध्यान, अग्निहोत्र, धार्मिक विद्वानों का सत्कार और घूम, भोजन करके भीतर सभा में प्रवेश करे॥१॥
वहाँ खड़ा रहकर जो प्रजाजन उपस्थित हों, उनको मान्य दे, और उनको छोड़कर, मुख्यमन्त्री के साथ राज्यव्यवस्था का विचार करे ॥२॥
पश्चात् उसके साथ घूमने को चला जाय, पर्वत के शिखर अथवा एकान्त घर वा जङ्गल जिसमें एक शलाका भी न हो वैसे एकान्त स्थान (मैदान) में बैठकर विरुद्ध भावना को छोड़ मंत्री के साथ विचार करे॥३॥
जिस राजा के गूढ़ विचार को अन्य जन मिलकर नहीं जान सकते अर्थात् जिसका विचार गम्भीर शुद्ध परोपकारार्थ सदा गुप्त रहै, वह धनहीन भी राजा सब पृथिवी का राज्य करने में समर्थ होता है, इसलिये अपने मन से एक भी काम न करे कि जब तक सभासदों की अनुमति न हो॥४॥
आसनं चैव यानं च सन्धिं विग्रहमेव च।
कार्यं वीक्ष्य प्रयुञ्जीत द्वैधं संश्रयमेव च॥१॥
सन्धिं तु द्विविधं विद्याद्राजा विग्रहमेव च।
उभे यानासने चैव द्विविधः संश्रयः स्मृतः॥२॥
समानयानकर्मा च विपरीतस्तथैव च।
तदा त्वायतिसंयुक्तः सन्धिर्ज्ञेयो द्विलक्षणः॥३॥
स्वयंकृतश्च कार्यार्थमकाले काल एव वा।
मित्रस्य चैवापकृते द्विविधो विग्रहः स्मृतः॥४॥
एकाकिनश्चात्ययिके कार्ये प्राप्ते यदृच्छया।
संहतस्य च मित्रेण द्विविधं यानमुच्यते॥५॥
क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात्पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्॥६॥
बलस्य स्वामिनश्चैव स्थितिः कार्यार्थसिद्धये।
द्विविधं कीर्त्यते द्वैधं षाड्गुण्यगुणवेदिभिः॥७॥
अर्थसम्पादनार्थं च पीड्यमानः स शत्रुभिः।
साधुषु व्यपदेशार्थं द्विविधः संश्रयः स्मृतः॥८॥
यदावगच्छेदायत्यामाधिक्यं ध्रुवमात्मनः।
तदात्वे चाल्पिकां पीडां तदा सन्धिं समाश्रयेत्॥९॥
यदा प्रहृष्टा मन्येत सर्वास्तु प्रकृतीर्भृशम्।
अत्युच्छ्रितं तथात्मानं तदा कुर्वीत विग्रहम्॥१०॥
यदा मन्येत भावेन हृष्टं पुष्टं बलं स्वकम्।
परस्य विपरीतं च तदा यायाद्रिपुं प्रति॥११॥
यदा तु स्यात्परिक्षीणो वाहनेन बलेन च।
तदासीत प्रयत्नेन शनकैः सान्त्वयन्नरीन्॥१२॥
मन्येतारिं यदा राजा सर्वथा बलवत्तरम्।
तदा द्विधा बलं कृत्वा साधयेत्कार्य्यमात्मनः॥१३॥
यदा परबलानां तु गमनीयतमो भवेत्।
तदा तु संश्रयेत् क्षिप्रं धार्मिकं बलिनं नृपम्॥१४॥
निग्रहं प्रकृतीनां च कुर्याद् योऽरिबलस्य च।
उपसेवेत तं नित्यं सर्वयत्नैर्गुरुं यथा॥१५॥
यदि तत्रापि सम्पश्येद् दोषं संश्रयकारितम्।
सुयुद्धमेव तत्राऽपि निर्विशङ्कः समाचरेत्॥१६॥
—मनु॰ [७।१६१-१७६]॥
सब राजादि राजपुरुषों को यह बात लक्ष्य में रखने योग्य है—जो (आसन) स्थिरता, (यान) शत्रु से लड़ने के लिये जाना, (सन्धि) उनसे मेल कर लेना, (विग्रह) दुष्ट शत्रुओं से लड़ाई करना, (द्वैध॰) दो प्रकार की सेना करके स्वविजय कर लेना, (संश्रय) और निर्बलता में दूसरे प्रबल राजा का आश्रय लेना, ये छः प्रकार के कर्म यथायोग्य कार्य्य को विचार कर उसमें युक्त करना चाहिये॥१॥
राजा जो सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय दो-दो प्रकार के होते है, उनको यथावत् जाने॥२॥
जब (सन्धि) अर्थात् शत्रु से मेल करना हो तब उसके तुल्य सवारी और कर्म करे अथवा उससे विपरीतता करे, परन्तु वर्त्तमान और भविष्यत् में करने के काम बराबर करता जाय, यह दो प्रकार का मेल कहाता है॥३॥
(विग्रह) कार्य्य सिद्धि के लिये उचित समय वा अनुचित समय में स्वयं किया वा मित्र के अपराध करने वाले शत्रु के साथ, विरोध दो प्रकार से करना चाहिये॥४॥
(यान) अकस्मात् कोई कार्य्य प्राप्त होने में एकाकी वा मित्र के साथ मिल के शत्रु की ओर जाना, यह दो प्रकार का ‘गमन’ कहाता है॥५॥
स्वयं किसी प्रकार क्रम से क्षीण होजाय अर्थात् निर्बल हो जाय, अथवा मित्र के रोकने से अपने स्थान में बैठ रहना, यह दो प्रकार का ‘आसन’ कहाता है॥६॥
कार्यसिद्धि के लिये सेनापति और सेना के दो विभाग करके विजय करना, दो प्रकार का ‘द्वैध’ कहाता है॥७॥
एक किसी अर्थ की सिद्धि के लिये किसी बलवान् राजा वा किसी महात्मा का शरण लेना, जिससे शत्रु से पीडित न हो, इसलिये दो प्रकार का आश्रय लेना कहाता है॥८॥
जब यह जान ले कि इस समय युद्ध करने से थोड़ी पीड़ा प्राप्त होगी, और पश्चात् करने से अपनी वृद्धि और विजय अवश्य होगा, तब शत्रु से मेल करके उचित समय तक धीरज करे॥९॥
जब अपनी सब प्रजा वा सेना अत्यन्त प्रसन्न उन्नतिशील, और श्रेष्ठ जाने, वैसे अपने को भी समझे, तभी शत्रु से विग्रह=युद्ध कर लेवे॥१०॥
जब अपने बल अर्थात् सेना को हर्ष और पुष्टियुक्त प्रसन्न भाव से जाने, और शत्रु का बल अपने से विपरीत निर्बल हो जावे, तब शत्रु की ओर युद्ध करने के लिये जावे॥११॥
जब सेना बल वाहन से क्षीण हो जाय तब शत्रुओं को धीरे-धीरे प्रयत्न से शान्त करता हुआ अपने स्थान में बैठा रहै॥१२॥
जब राजा शत्रु को अत्यन्त बलवान् जाने तब द्विगुणा वा दो प्रकार की सेना करके अपना कार्य सिद्ध करे॥१३॥
जब आप समझ लेवे कि अब शीघ्र शत्रुओं की चढ़ाई मुझ पर होगी, तभी किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय शीघ्र ले लेवे॥१४॥
जो प्रजा और अपनी सेना और शत्रु के बल का निग्रह करे अर्थात् रोके, उसकी सेवा सब यत्नों से गुरु के सदृश नित्य किया करे॥१५॥
जिसका आश्रय लेवे, उस सेवित पुरुष के कर्मों में दोष देखे तो वहां भी अच्छे प्रकार युद्ध ही को निःशङ्क होकर करे॥१६॥
जो धार्मिक राजा हो, उससे विरोध कभी न करे किन्तु उससे सदा मेल रक्खे और जो दुष्ट प्रबल हो, उसी के जीतने के लिये ये पूर्वोक्त प्रयोग करना उचित है।
सर्वोपायैस्तथा कुर्यान्नीतिज्ञः पृथिवीपतिः।
यथास्याभ्यधिका न स्युर्मित्रोदासीनशत्रवः॥१॥
आयतिं सर्वकार्याणां तदात्वं च विचारयेत्।
अतीतानां च सर्वेषां गुणदोषौ च तत्त्वतः॥२॥
आयत्यां गुणदोषज्ञस्तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः।
अतीते कार्य्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते॥३॥
यथैनं नाभिसंदध्युर्मित्रोदासीनशत्रवः।
तथा सर्वं संविदध्यादेष सामासिको नयः॥४॥
—मनु॰ ७। [१७७-१८०]॥
नीति का जानने वाला पृथिवीपति राजा जिस प्रकार इसके मित्र उदासीन (मध्यस्थ) और शत्रु अधिक न हों, ऐसे सब उपायों से वर्ते॥१॥
सब कार्य्यों का वर्त्तमान में कर्त्तव्य, और भविष्यत् में जो-जो करना चाहिये, और जो काम कर चुके उन सब के यथार्थता से गुण-दोषों को विचारे॥२॥
पश्चात् दोषों के निवारण और गुणों की स्थिरता में यत्न करे। जो राजा भविष्यत् अर्थात् आगे करने वाले कर्मों में गुण-दोषों का ज्ञाता, वर्त्तमान में तुरन्त निश्चय का कर्त्ता, और किये हुए कार्यों में शेष कर्त्तव्य को जानता है, वह शत्रुओं से पराजय को प्राप्त कभी नहीं होता॥३॥
सब प्रकार से राजपुरुष, विशेष सभापति राजा ऐसा प्रयत्न करे कि जिस प्रकार राजादि जनों के मित्र, उदासीन और शत्रु वश में करके अन्यथा न करावे, ऐसे मोह में कभी न फसे, यही संक्षेप से ‘विनय’ अर्थात् राजनीति कहाती है॥४॥
कृत्वा विधानं मूले तु यात्रिकं च यथाविधि।
उपगृह्यास्पदं चैव चारान् सम्यग्विधाय च॥१॥
संशोध्य त्रिविधं मार्गं षड्विधं च बलं स्वकम्।
सांपरायिककल्पेन यायादरिपुरं शनैः॥२॥
शत्रुसेविनि मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत्।
गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरो रिपुः॥३॥
दण्डव्यूहेन तन्मार्गं यायात्तु शकटेन वा।
वराहमकराभ्यां वा सूच्या वा गरुडेन वा॥४॥
यतश्च भयमाशङ्केत् ततो विस्तारयेद् बलम्।
पद्मेन चैव व्यूहेन निविशेत सदा स्वयम्॥५॥
सेनापतिबलाध्यक्षौ सर्वदिक्षु निवेशयेत्।
यतश्च भयमाशङ्केत् प्राचीं तां कल्पयेद्दिशम्॥६॥
गुल्मांश्च स्थापयेदाप्तान् कृतसंज्ञान् समन्ततः।
स्थाने युद्धे च कुशलानभीरूनविकारिणः॥७॥
संहतान् योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद् बहून्।
सूच्या वज्रेण चैवैतान् व्यूहेन व्यूह्य योधयेत्॥८॥
स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौद्विपैस्तथा।
वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्मायुधैः स्थले॥९॥
प्रहर्षयेद् बलं व्यूह्य ताँश्च सम्यक् परीक्षयेत्।
चेष्टाश्चैव विजानीयादरीन् योधयतामपि॥१०॥
उपरुध्यारिमासीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत्।
दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्॥११॥
भिन्द्याच्चैव तडागानि प्राकारपरिखास्तथा।
समवस्कन्दयेच्चैनं रात्रौ वित्रासयेत्तथा॥१२॥
प्रमाणानि च कुर्वीत तेषां धर्म्यान्यथोदितान्।
रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह॥१३॥
आदानमप्रियकरं दानञ्च प्रियकारकम्।
अभीप्सितानामर्थानां काले युक्तं प्रशस्यते॥१४॥
—मनु॰ ७ [१८४-१९२, १९४-१९६, २०३-२०४]॥
जब राजा शत्रुओं के साथ युद्ध करने को जावे तब अपने राज्य की रक्षा का प्रबन्ध और यात्रा की सब सामग्री यथाविधि करके, सब सेना, यान, वाहन, शस्त्रास्त्रादि पूर्ण लेकर, सर्वत्र दूतों अर्थात् चारों ओर के समाचारों को देने वाले पुरुषों को गुप्त स्थापन करके, शत्रुओं की ओर युद्ध करने को जावे॥१॥
तीन प्रकार के मार्ग अर्थात् एक स्थल (भूमि) में, दूसरा जल समुद्र, नदियों में, तीसरा आकाशमार्गों को शुद्ध बनाकर; भूमिमार्ग में रथ, अश्व, हाथी; जल में नौका और आकाश में विमानादि यानों से जावे। और पैदल, रथ, हाथी, घोड़े, शस्त्र, अस्त्र और खानपानादि सामग्री को यथावत् साथ ले बलयुक्त पूर्ण करके किसी निमित्त को प्रसिद्ध करके शत्रु के नगर के समीप धीरे-धीरे जावे॥२॥
जो भीतर से शत्रु से मिला हो, और अपने साथ भी ऊपर से मित्रता रक्खे, गुप्तता से शत्रु को भेद देवे, उसके आने-जाने में, उससे बात करने में अत्यन्त सावधानी रक्खे क्योंकि भीतर शत्रु ऊपर मित्र पुरुष को बड़ा शत्रु समझना चाहिये॥३॥
सब राजपुरुषों को युद्ध करने की विद्या सिखावे और आप सीखे, तथा अन्य प्रजाजनों को सिखावे। जो पूर्व शिक्षित योद्धा होते हैं, वे ही अच्छे प्रकार लड़-लड़ा जानते हैं। जब शिक्षा करे तब (दण्डव्यूह) दण्डा के समान सेना को चलावे, (शकट॰) जैसा शकट अर्थात् गाड़ी के समान, (वराह॰) जैसे सूअर एक दूसरे के पीछे दौड़ते जाते और कभी-कभी सब मिलकर झुण्ड हो जाते हैं, वैसे (मकर॰) जैसे मगर पानी में चलते हैं, वैसे सेना को बनावे, (सूचीव्यूह) जैसे सूई का अग्रभाग सूक्ष्म पश्चात् स्थूल और उससे सूत्र स्थूल होता है, वैसी शिक्षा से सेना को बनावे, और जैसे नीलकण्ठ ऊपर नीचे झपट मारता है, इस प्रकार सेना को बना लड़ावे॥४॥
जिधर से भय विदित हो उसी ओर सेना को फैलावे, सब सेना के पतियों को चारों ओर रखके (पद्मव्यूह) अर्थात् पद्म के आकार चारों ओर सेनाओं को रखके मध्य में आप रहै॥५॥
सेनापति और बलाध्यक्ष अर्थात् आज्ञा का देने और सेना के साथ लड़ने-लड़ानेवाले वीरों को आठों दिशाओं में रक्खे। जिस ओर से शत्रु से लड़ाई होती हो, उसी ओर सब सेना का मुख करावे, परन्तु दूसरी ओर भी पक्का प्रबन्ध रक्खे। नहीं तो पीछे वा पार्श्व से शत्रु की घात होने का सम्भव है॥६॥
जो गुल्म अर्थात् दृढ़ स्तम्भों के तुल्य युद्धविद्या से सुशिक्षित, धार्मिक, स्थित होने और युद्ध करने में चतुर, भयरहित, और जिनके मन में किसी प्रकार का विकार न हो, उनको चारों ओर रक्खे॥७॥
जो थोड़े पुरुषों से बहुतों के साथयुद्ध करना हो तो मिलकर लड़ावें और काम पड़े तो उन्हीं को झट फैला दे। जब नगर दुर्ग वा शत्रु की सेना में प्रविष्ट होकर युद्ध करना हो तब ‘सूचीव्यूह’ अथवा ‘वज्रव्यूह’ जैसा दुधारा खड्ग, दोनों ओर युद्ध करते जायँ और प्रविष्ट भी होते चलें वैसे अनेक प्रकार के व्यूह अर्थात् सेना को बनाकर लड़ावें। जो सामने शतघ्नी तोप, वा (भुशुण्डी) बन्दूकें छूट रही हों तो ‘सर्पव्यूह’ अर्थात् सर्प के तुल्य सोते-सोते चले जायें, जब तोपों के पास पहुंचें तब उनको मार वा पकड़ तोपों का मुख शत्रुओं की ओर फेर उन्हीं तोपों और बन्दूकों से उन को मारें अथवा वृद्ध पुरुषों को तोप के मुख के सामने घोड़े पर सवार करा दौड़ावें और बीच में अच्छे सवार रहैं। एक वार धावा कर शत्रु की सेना को छिन्न-भिन्न कर पकड़ लें अथवा भगा दें॥८॥
जो समभूमि में युद्ध करना हो तो रथ, घोड़े और पदातियों से, और जो समुद्र में युद्ध करना हो तो नौका; और थोड़े जल में हाथियों पर; वृक्ष और झाड़ी में बाण; तथा स्थल बालू में तलवार और ढाल से युद्ध करें-करावें॥९॥
जिस समय युद्ध होता हो, उस समय लड़नेवालों को उत्साहित और हर्षित करें। और जब युद्ध बन्ध हो जाय तब जिससे शौर्य और युद्ध में उत्साह हो, वैसे वक्तृत्वों से सब के चित्त को बढ़ावे। अपने से भी अधिक लड़ने वालों को खान-पान, अस्त्र-शस्त्र-सहाय और औषधादि से प्रसन्न रक्खें। व्यूह से विना लड़ाई न करे, न करावे, लड़ती हुई अपनी सेना की चेष्टा को देखा करे कि ठीक-ठीक लड़ती है, वा कपट रखती है॥१०॥
किसी समय उचित समझे तो शत्रु को चारों ओर से घेर कर रोक रक्खे और इसके राज्य को पीडित कर, शत्रु के चारा, अन्न, जल, और इन्धन को दूषित, नष्ट कर दे॥११॥
शत्रु के तालाब, नगर के प्रकोट और खाई को तोड़-फोड़ दे, रात्रि में उनको (त्रास) भय देकर जीतने का उपाय करे॥१२॥
जीत कर उनके साथ प्रमाण अर्थात् प्रतिज्ञादि लिखा लेवे और जो उचित समझे तो उसी के वंशस्थ किसी धार्मिक पुरुष को राजा करदे और उससे लिखवा लेवे कि तुमको हमारी आज्ञा के अनुकूल अर्थात् जैसी धर्मयुक्त राजनीति है, उसके अनुसार चल के न्याय से प्रजा का पालन करना होगा, ऐसे उपदेश करे और ऐसे पुरुष उनके पास रक्खे कि जिससे पुनः उपद्रव न हो। और जो हार जाय उसका सत्कार प्रधान पुरुषों के साथ मिलकर रत्नादि उत्तम पदार्थों के दान से करे और ऐसा न करे कि जिससे उसका योगक्षेम भी न हो। जो उसको कैद करे तो भी उस राजा का सत्कार यथायोग्य रक्खे। जिससे वह हारने के शोक से रहित होकर आनन्द में रहे॥१३॥
क्योंकि संसार में दूसरे का पदार्थ ग्रहण करना अप्रीति और देना प्रीति का कारण है। और विशेष करके समय पर उचित क्रिया करना और उस पराजित के मनोवाञ्छित पदार्थों का देना बहुत उत्तम है और कभी उसको चिड़ावे नहीं, न ठट्ठा करे, न उसके सामने “हमने तुझको पराजित किया है” ऐसा कहै। किन्तु “आप हमारे भाई हैं” इत्यादि मान्य प्रतिष्ठा सदा रक्खे॥१४॥
हिरण्यभूमिसम्प्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते।
यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम्॥१॥
धर्मज्ञं च कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिमेव च।
अनुरक्तं स्थिरारम्भं लघुमित्रं प्रशस्यते॥२॥
प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च।
कृतज्ञं धृतिमन्तञ्च कष्टमाहुररिं बुधाः॥३॥
आर्य्यता पुरुषज्ञानं शौर्य्यं करुणवेदिता।
स्थौललक्ष्यं च सततमुदासीनगुणोदयः॥४॥
—मनु॰ [७।२०८-२११]
मित्र का लक्षण—राजा सुवर्ण और भूमि की प्राप्ति से वैसे नहीं बढ़ता कि जैसे निश्चल प्रेमयुक्त भविष्यत् की बातों को सोचने और कार्य सिद्ध करनेवाले समर्थ मित्र अथवा दुर्बल मित्र को भी प्राप्त होके बढ़ता है॥१॥
धर्म को जानने, ‘कृतज्ञ’ किये हुए उपकार को सदा मानने वाले, प्रसन्नस्वभाव, अनुरागी, स्थिरारम्भी, लघु छोटे भी मित्र को प्राप्त होकर प्रशंसित होता है॥२॥
सदा इस बात को दृढ़ रक्खे कि बुद्धिमान्, कुलीन, शूरवीर, चतुर, दाता, किये हुए को जाननेहारे और धैर्यवान् पुरुष को शत्रु कभी न बनावे; क्योंकि जो ऐसे को शत्रु बनावेगा, वह दुःख पावेगा॥३॥
उदासीन का लक्षण—जिसमें प्रशंसित गुणयुक्त, अच्छे-बुरे मनुष्यों का ज्ञान, शूरवीरता और करुणा भी; स्थूललक्ष्य अर्थात् ऊपर-ऊपर की बातों को निरन्तर सुनाया करे, वह ‘उदासीन’ कहाता है॥४॥
एवं सर्वमिदं राजा सह सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः।
व्यायाम्याप्लुत्य मध्याह्ने भोक्तुमन्तःपुरं विशेत्॥१॥
मनु॰ [७।२१६]॥
पूर्वोक्त प्रातःकाल समय उठ, शौचादि सन्ध्योपासन अग्निहोत्र कर वा करा, सब मन्त्रियों से विचार कर, सेना में जा, सब भृत्य और सेनाध्यक्षों के साथ मिल, उनको हर्षित कर, नाना प्रकार की व्यूहशिक्षा अर्थात् कवायद कर करा, सब घोड़े, हाथी, गाय आदि [का] स्थान, शस्त्र और अस्त्र का कोश तथा वैद्यालय, धन के कोशों को देख, सब पर दृष्टि नित्यप्रति देकर जो कुछ उनमें खोट हो उनको निकाल, व्यायामशाला में जा व्यायाम करके, भोजन के लिये ‘अन्तःपुर’ अर्थात् पत्नी आदि के निवासस्थान में प्रवेश करे। और भोजन सुपरीक्षित, बुद्धिबलपराक्रमवर्द्धक, रोगविनाशक, अनेक प्रकार के अन्न-व्यञ्जन पान आदि सुगन्धित मिष्टादि अनेक रसयुक्त उत्तम करे कि जिससे सदा सुखी रहै। इस प्रकार सब राज्य के कार्यों की उन्नति किया करे।
प्रजा से कर लेने का प्रकार—
पञ्चाशद्भाग आदेयो राज्ञा पशुहिरण्ययोः।
धान्यानामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा॥
—मनु॰ अ॰ ७। [१३०]
व्यापार करनेवाले वा शिल्पी को सुवर्ण और चांदी का जितना लाभ हो उसमें से पचासवां भाग, चावल आदि अन्नों में छठा, आठवां वा बारहवां भाग लिया करे और जो धन लेवे तो भी उस प्रकार से लेवे कि जिससे किसान आदि खाने-पीने और धन से रहित होकर दुःख न पावें। क्योंकि प्रजा के धनाढ्य, आरोग्य, खान-पान आदि से सम्पन्न रहने पर राजा की बड़ी उन्नति होती है। प्रजा को अपने सन्तान के सदृश सुख देवे और प्रजा अपने पिता के सदृश राजा और राजपुरुषों को जाने। यह बात ठीक है कि राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करने वाले हैं और राजा उनका रक्षक है। जो प्रजा न हो तो राजा किसका? और राजा न हो तो प्रजा किसकी कहावे? दोनों अपने-अपने काम में स्वतन्त्र और मिले हुए काम में प्रीति से परतन्त्र रहैं। प्रजा की साधारण सम्मति के विरुद्ध राजा वा राजपुरुष न हों, राजा की आज्ञा के विरुद्ध राजपुरुष वा प्रजा न चले, यह राज का राजकीय निज काम अर्थात् जिसको ‘पोलिटिकल’ कहते हैं, संक्षेप से कह दिया।
जो विशेष देखना चाहै, वह वेद और मनुस्मृति आदि शास्त्रों में देख कर निश्चय करे। और जो प्रजा का न्याय करना है, वह व्यवहार मनुस्मृति के अष्टम और नवमाध्याय आदि की रीति से करना चाहिये। परन्तु यहां भी संक्षेप से लिखते हैं—
प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः।
अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक् पृथक्॥१॥
तेषामाद्यमृणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः।
संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च॥२॥
वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः।
क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः॥३॥
सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके।
स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसङ्ग्रहणमेव च॥४॥
स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतमाह्वय एव च।
पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥५॥
तेषु स्थानेषु भूयिष्ठं विवादं चरतां नर्णिांम्।
धर्मं शाश्वतमाश्रित्य कुर्यात्कार्यविनिर्णयम्॥६॥
धर्मो विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते।
शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः॥७॥
सभां वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समञ्जसम्।
अब्रुवन्विब्रुवन्वापि नरो भवति किल्विषी॥८॥
यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः॥९॥
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥१०॥
वृषो हि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम्।
वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्॥११॥
एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति॥१२॥
पादोऽधर्मस्य कर्त्तारं पादः साक्षिणमृच्छति।
पादः सभासदः सर्वान् पादो राजानमृच्छति॥१३॥
राजा भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः।
एनो गच्छति कर्त्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते॥१४॥
—मनु॰ ८। [३-८, १२-१९]॥
सभा राजा और राजपुरुष सब लोग देशाचार और शास्त्रव्यवहार हेतुओं से निम्नलिखित अठारह विवादास्पद मार्गों में विवादयुक्त कर्मों का निर्णय प्रतिदिन किया करें। और जो-जो नियम शास्त्रोक्त न पावें और उनके होने की आवश्यकता जानें तो उत्तमोत्तम नियम बांधें कि जिससे राजा और प्रजा की उन्नति हो॥१॥
अठारह मार्ग ये हैं—उनमें से १—(ऋणादान) किसी से ऋण लेने-देने में विवाद। २—(निक्षेप) धरावट अर्थात् किसी ने किसी के पास पदार्थ धरा हो और मांगे पर न देना। ३—(अस्वामिविक्रयः) दूसरे के पदार्थ को दूसरा बेच लेवे। ४—(संभूय च समुत्थानम्) मिल-मिला के किसी पर अत्याचार करना। ५—(दत्तस्यानपकर्म च) दिये हुए पदार्थ का न देना॥२॥
६—(वेतनस्यैव चादानम्) वेतन अर्थात् किसी की नौकरी में से ले लेना वा कम देना अथवा न देना। ७—(संविदश्च व्यतिक्रमः) प्रतिज्ञा से विरुद्ध वर्त्तना। ८—(क्रयविक्रयानुशय) अर्थात् लेन-देन में झगड़ा होना। ९—[(विवादः स्वामिपालयोः)] पशु के स्वामी और पालने वाले का झगड़ा॥३॥
१०—सीमा का विवाद। ११—किसी को कठोर दण्ड देना। १२—कठोर वाणी का बोलना। १३—चोरी वा डाका मारना। १४—किसी काम को बलात्कार से करना। १५—किसी की स्त्री वा पुरुष का व्यभिचार होना॥४॥
१६—स्त्री और पुरुष के धर्म में व्यतिक्रम होना। १७—(विभाग) अर्थात् दायभाग में वाद उठना। १८—द्यूत अर्थात् जड़पदार्थ और समाह्वय अर्थात् चेतन को दाव में धर के जुआ खेलना। ये अठारह प्रकार के परस्पर विरुद्ध व्यवहार के स्थान हैं॥५॥
इन व्यवहारों में बहुत से विवाद करने वाले पुरुषों के न्याय को सनातनधर्म के आश्रय करके किया करे, अर्थात् किसी का पक्षपात कभी न करे॥६॥
जिस सभा में अधर्म से घायल होकर धर्म उपस्थित होता है; जो उसका शल्य अर्थात् तीरवत् धर्म के कलङ्क अधर्म का छेदन नहीं करते, अर्थात् धर्मी को मान, अधर्मी को दण्ड नहीं मिलता, उस सभा में जितने सभासद् हैं, वे सब घायल के समान समझे जाते हैं॥७॥
धार्मिक मनुष्य को योग्य है कि सभा में कभी प्रवेश न करे, और जो प्रवेश किया हो तो सत्य ही बोले; जो कोई सभा में अन्याय होते हुए को देखकर मौन रहे, अथवा सत्य न्याय के विरुद्ध बोले, वह महापापी होता है॥८॥
जिस सभा में अधर्म से धर्म, असत्य से सत्य; सब सभासदों के देखते हुए मारा जाता है, उस सभा में सब मृतक के समान हैं, जानो उनमें कोई भी नहीं जीता॥९॥
मरा हुआ धर्म मारनेवाले का नाश, और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है; इसलिये धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी भी हमको न मार डाले॥१०॥
जो सब ऐश्वर्यों के देने और सुखों की वर्षा करने वाला धर्म है, उसका लोप करता है; उसी को विद्वान् लोग ‘वृषल’ अर्थात् शूद्र और नीच जानते हैं, इसलिये किसी मनुष्य को धर्म का लोप करना उचित नहीं॥११॥
इस संसार में एक धर्म ही सुहृद् है, जो मृत्यु के पश्चात् भी साथ चलता है; और सब पदार्थ वा संगी, शरीर के नाश के साथ ही नाश को प्राप्त होते हैं, अर्थात् सबका संग छूट जाता है परन्तु धर्म का संग कभी नहीं छूटता॥१२॥
जब राजसभा में पक्षपात से अन्याय किया जाता है, वहां अधर्म के चार विभाग हो जाते हैं। उनमें से एक अधर्म के कर्त्ता, दूसरा साक्षी; तीसरा सभासदों और चौथा पाद अधर्मी सभा के सभापति राजा को प्राप्त होता है॥१३॥
जिस सभा में निन्दा के योग्य की निन्दा, स्तुति के योग्य की स्तुति, दण्ड के योग्य को दण्ड और मान्य के योग्य का मान्य होता है, वहां राजा और सब सभासद् पाप से रहित और पवित्र हो जाते हैं, पाप के कर्त्ता ही को पाप प्राप्त होता है॥१४॥
अब साक्षी कैसे करने चाहियें—
आप्ताः सर्वेषु वर्णेषु कार्य्याः कार्येषु साक्षिणः।
सर्वधर्मविदोऽलुब्धा विपरीतांस्तु वर्जयेत्॥१॥
स्त्रिणां साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युर्द्विजानां सदृशा द्विजाः।
शूद्राश्च सन्तः शूद्राणामन्त्यानामन्त्ययोनयः॥२॥
साहसेषु च सर्वेषु स्तेयसङ्ग्रहणेषु च।
वाग्दण्डयोश्च पारुष्ये न परीक्षेत साक्षिणः॥३॥
बहुत्वं परिगृह्णीयात् साक्षिद्वैधे नराधिपः।
समेषु तु गुणोत्कृष्टान् गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान्॥४॥
समक्षदर्शनात्साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति।
तत्र सत्यं ब्रुवन्साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते॥५॥
साक्षी दृष्टश्रुतादन्यद्विब्रुवन्नार्य्यसंसदि।
अवाङ्नरकमभ्येति प्रेत्य स्वर्गाच्च हीयते॥६॥
स्वभावेनैव यद् ब्रूयुस्तद् ग्राह्यं व्यावहारिकम्।
अतो यदन्यद्विब्रूयुर्धर्मार्थं तदपार्थकम्॥७॥
सभान्तः साक्षिणः प्राप्तानर्थिप्रत्यर्थिसन्निधौ।
प्राड्विवाकोऽनुयुञ्जीत विधिनाऽनेन सान्त्वयन्॥८॥
यद् द्वयोरनयोर्वेत्थ कार्येऽस्मिँश्चेष्टितं मिथः।
तद् ब्रूत सर्वं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता॥९॥
सत्यं साक्ष्ये ब्रुवन्साक्षी लोकानाप्नोति पुष्कलान्।
इह चानुत्तमां कीर्त्तिं वागेषा ब्रह्मपूजिता॥१०॥
सत्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्द्धते।
तस्मात्सत्यं हि वक्तव्यं सर्ववर्णेषु साक्षिभिः॥११॥
आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः।
मावमंस्थाः स्वमात्मानं नॄणां साक्षिणमुत्तमम्॥१२॥
यस्य विद्वान् हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङ्कते।
तस्मान्न देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः॥१३॥
एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्त्वं कल्याण मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येषः पुण्यपापेक्षिता मुनिः॥१४॥
—मनु॰ [८।६३, ६८, ७२-७५, ७८-८१, ८३-८४, ९६, ९१]
सब वर्णों में धार्मिक, विद्वान्, निष्कपटी, सब प्रकार धर्म को जाननेवाले, लोभरहित, सत्यवादियों को न्यायव्यवस्था में साक्षी करे, इनसे विपरीतों को कभी न करे॥१॥
स्त्रियों की साक्षी स्त्री, द्विजों के द्विज; शूद्रों के शूद्र और अन्त्यजों के अन्त्यज साक्षी हों॥२॥
जितने बलात्कार काम, चोरी, व्यभिचार; कठोर वचन, दण्डनिपातन रूप अपराध हैं, उन में साक्षी की विशेष परीक्षा न करे। और अत्यावश्यक भी न समझे, क्योंकि ये काम सब गुप्त होते हैं॥३॥
दोनों ओर के साक्षियों में से बहुपक्षानुसार, तुल्य साक्षियों में उत्तम गुणी पुरुष की साक्षी के अनुकूल, और दोनों के साक्षी उत्तम गुणी और तुल्य हों तो ‘द्विजोत्तम’ अर्थात् ऋषि, महर्षि और यतियों की साक्षी के अनुसार न्याय करे॥४॥
दो प्रकार से साक्षी होना सिद्ध होता है—एक साक्षात् देखने और दूसरा सुनने से; जब सभा में पूछें तब जो साक्षी सत्य बोलें वे धर्महीन और दण्ड के योग्य न होवें और जो साक्षी मिथ्या बोलें, वे यथायोग्य दण्डनीय हों॥५॥
जो राजसभा वा किसी उत्तम पुरुषों की सभा में साक्षी देखने और सुनने से विरुद्ध बोले; तो वह (अवाङ्नरक) अर्थात् जिह्वा के छेदन से दुःखरूप नरक को वर्त्तमान समय में प्राप्त होवे, और मरे पश्चात् सुख से हीन हो जाय॥६॥
साक्षी के उस वचन को मानना कि जो स्वभाव ही से व्यवहार-सम्बन्धी वचन बोले; इससे भिन्न सिखाये हुए जो-जो वचन बोले, उस-उसको न्यायाधीश व्यर्थ समझे॥७॥
अर्थी (वादी) और प्रत्यर्थी (प्रतिवादी) के सामने सभा के समीप प्राप्त हुए साक्षियों को शान्तिपूर्वक न्यायाधीश और प्राड्विवाक अर्थात् वकील वा बैरिस्टर इस प्रकार से पूछें॥८॥
—हे साक्षिलोगो! इस कार्य्य में इन दोनों के परस्पर कर्मों में जो तुम जानते हो; उसको सत्य के साथ बोलो, क्योंकि तुम्हारी इस कार्य्य में साक्षिता है॥९॥
क्योंकि जो साक्षी सत्य बोलता है, वह जन्मान्तर में उत्तम जन्म और उत्तम लोकान्तरों में जन्म को प्राप्त होके सुख भोगता है; इस जन्म वा परजन्म में उत्तम कीर्ति को प्राप्त होता है, क्योंकि जो यह वाणी है, वही वेदों में सत्कार और तिरस्कार का कारण लिखी है। जो सत्य बोलता है वह प्रतिष्ठित और मिथ्यावादी निन्दित होता है॥१०॥
सत्य बोलने से साक्षी पवित्र होता, और सत्य ही बोलने से धर्म बढ़ता है; इससे सब वर्णों में साक्षियों को, सत्य ही बोलना योग्य है॥११॥
आत्मा का साक्षी आत्मा, और आत्मा की गति आत्मा है; इसको जान के हे पुरुष! तू सब मनुष्यों के उत्तम साक्षी अपने आत्मा का अपमान मत कर अर्थात् यही सत्यभाषण है कि जो तेरे आत्मा, मन, और वाणी में एक सी बात है, वह सत्य और जो इससे विपरीत है वह मिथ्याभाषण है॥१२॥
जिस बोलते हुए पुरुष का विद्वान् ‘क्षेत्रज्ञ’ अर्थात् शरीर का जाननेहारा आत्मा भीतर शङ्का को प्राप्त नहीं होता; उससे भिन्न विद्वान् लोग किसी को उत्तम पुरुष नहीं जानते॥१३॥
हे कल्याण की इच्छा करने वाले पुरुष! जो तू “मैं अकेला हूं” इस प्रकार अपने आत्मा को समझता है, सो ठीक नहीं है, किन्तु जो दूसरा यह तेरे हृदय में अन्तर्यामी परमेश्वर पुण्य-पाप का देखने वाला मुनि स्थित है, उस से डरकर सदा सत्य बोला कर॥१४॥
लोभान्मोहाद्भयान्मैत्रात्कामात्क्रोधात्तथैव च।
अज्ञानाद् बालभावाच्च साक्ष्यं वितथमुच्यते॥१॥
एषामन्यतमे स्थाने यः साक्ष्यमनृतं वदेत्।
तस्य दण्डविशेषाँस्तु प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः॥२॥
लोभात्सहस्रं दण्ड्यस्तु मोहात्पूर्वन्तु साहसम्।
भयाद् द्वौ मध्यमौ दण्ड्यौ मैत्रात्पूर्वं चतुर्गुणम्॥३॥
कामाद्दशगुणं पूर्वं क्रोधात्तु त्रिगुणं परम्।
अज्ञानाद् द्वे शते पूर्णे बालिश्याच्छतमेव तु॥४॥
उपस्थमुदरं जिह्वा हस्तौ पादौ च पञ्चमम्।
चक्षुर्नासा च कर्णौ च धनं देहस्तथैव च॥५॥
अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्त्वतः।
साराऽपराधौ चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत्॥६॥
अधर्मदण्डनं लोके यशोघ्नं कीर्त्तिनाशनम्।
अस्वर्ग्यञ्च परत्रापि तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥७॥
अदण्ड्यान्दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन्।
अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति॥८॥
वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दण्डं तदनन्तरम्।
तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्॥९॥
—मनु॰ ८। [११८-१२१, १२५-१२९]॥
जो लोभ, मोह, भय, मित्रता, काम, क्रोध, अज्ञान और बालकपन से साक्षी कहे वह सभी मिथ्या समझा जावे॥१॥
इन से भिन्न स्थान में साक्षी झूठ बोले उसको वक्ष्यमाण अनेकविध दण्ड किया करे॥२॥
जो लोभ से झूठी साक्षी देवे तो उससे १५॥=) पन्द्रह रुपये दस आने दण्ड लेवे, और मोह से झूठी साक्षी देवे उससे ३=) तीन रुपये दो आने दण्ड लेवे, जो भय से मिथ्या साक्षी देवे उससे ६।) सवा छः रुपये दण्ड लेवे, जो मित्रता से झूठी साक्षी देवे उससे १२॥) साढ़े बारह रुपये दण्ड लेवे॥३॥
जो कामना से मिथ्या साक्षी देवे तो उससे २५) पच्चीस रुपये दण्ड लेवे और जो क्रोध से मिथ्या साक्षी दे तो उससे ४६॥।=) छयालीस रुपये चौदह आने दण्ड लेवे, अज्ञान से मिथ्या साक्षी देवे तो उससे ६।) सवा छः रुपये दण्ड लेवे और बालकपन से मिथ्या साक्षी देवे तो १॥-) एक रुपया नौ आने दण्ड लेवे॥४॥
दण्ड के उपस्थेन्द्रिय, उदर, जिह्वा, हाथ, पग, आंख, नाक, कान, धन और देह ये दश स्थान हैं कि जिन पर दण्ड दिया जाता है॥५॥
परन्तु जो-जो दण्ड लिखा है और लिखेंगे, जैसे लोभ से झूठी साक्षी देने में पन्द्रह रुपये दस आने दण्ड लिखा है परन्तु जो वह अत्यन्त निर्धन हो तो उससे कम और जो धनाढ्य हो तो उससे दूना, तिगुना और चौगुना तक भी ले लेवे। अर्थात् जैसा देश, जैसा काल, जैसा पुरुष हो, उसका जैसा अपराध हो, वैसा ही दण्ड करे॥६॥
क्योंकि इस संसार में जो अधर्म से दण्ड करना है, वह पूर्व प्रतिष्ठा, वर्त्तमान और भविष्यत् में होने वाली कीर्ति का नाश करनेहारा है; और परजन्म में भी दुःखदायक होता है, इसलिये अधर्मयुक्त दण्ड किसी पर न करे॥७॥
जो राजा दण्डनीयों को न दण्ड और अदण्डनीयों को दण्ड देता है अर्थात् दण्ड देने योग्य को छोड़ देता और जिसको दण्ड न देना चाहिए उसको दण्ड देता है वह जीता हुआ बड़ी निन्दा को और मरे पीछे बड़े दुःख को प्राप्त होता है, इसलिए जो अपराध करे उसको सदा दण्ड देवे और अनपराधी को दण्ड कभी न देवे॥८॥
प्रथम वाणी का दण्ड अर्थात् उसकी ‘निन्दा’, दूसरा ‘धिक्’ अर्थात् तुझको धिक्कार है कि तूने ऐसा बुरा काम क्यों किया? तीसरा ‘धनदण्ड’ अर्थात् उससे ‘धन लेना’ और ‘वध’ दण्ड अर्थात् उसको कोड़ा वा बेंत से मारना वा शिर काट देना॥९॥
येन येन यथाङ्गेन स्तेनो नृषु विचेष्टेते।
तत्तदेव हरेदस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः॥१॥
पिताचार्य्यः सुहृन्माता भार्य्या पुत्रः पुरोहितः।
नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥२॥
कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥३॥
अष्टापाद्यन्तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्।
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च॥४॥
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिस्तद्दोषगुणविद्धि सः॥५॥
ऐन्द्रं स्थानमभिप्रेप्सुर्यशश्चाक्षयमव्ययम्।
नोपेक्षेत क्षणमपि राजा साहसिकं नरम्॥६॥
वाग्दुष्टात्तस्कराच्चैव दण्डेनैव च हिंसतः।
साहसस्य नरः कर्त्ता विज्ञेयः पापकृत्तमः॥७॥
साहसे वर्त्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः।
स विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति॥८॥
न मित्रकारणाद्राजा विपुलाद्वा धनागमात्।
समुत्सृजेत् साहसिकान्सर्वभूतभयावहान्॥९॥
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्॥१०॥
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।
प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तन्मन्युमृच्छति॥११॥
यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक्।
न साहसिकदण्डघ्नौ स राजा शक्रलोकभाक्॥१२॥
—मनु॰ [८।३३४-३३८, ३४४-३४७, ३५०-३५१, ३८६]
चोर जिस प्रकार जिस-जिस अङ्ग से मनुष्यों में विरुद्ध चेष्टा करता है; उस-उस अङ्ग को सबकी शिक्षा के लिये राजा हरण अर्थात् छेदन कर दे॥१॥
चाहे पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित क्यों न हो; जो स्वधर्म में स्थित नहीं रहता, वह राजा का अदण्ड्य नहीं होता। अर्थात् जब वह न्यायासन पर बैठ न्याय करे तब किसी का पक्षपात न करे किन्तु यथायोग्य दण्ड देवे॥२॥
जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दण्ड हो; उसी अपराध में राजा पर सहस्र पैसा दण्ड होवे। अर्थात् साधारण मनुष्य से राजा पर सहस्र गुणा दण्ड होना चाहिये॥ ३॥
दीवान अर्थात् राजा के मन्त्री को आठ सौ गुणा, उससे न्योक को सात सौ गुणा, उससे न्यून को छः सौ गुणा वैसे ही उतरते-उतरते एक भृत्य अर्थात् चपरासी जो कि छोटे से छोटा राजपुरुष हो, उसको आठ-गुणे से कम दण्ड न होना चाहिये। क्योंकि यदि प्रजापुरुष से राजपुरुषों को अधिक दण्ड न होवे तो राजपुरुष प्रजापुरुषों का नाश कर देवें। जैसे सिंह अधिक और बकरी थोड़े-से ही दण्ड से वश में आ जाती है, इसलिये राजा से लेकर छोटे-से-छोटे भृत्य तक राजपुरुषों को अपराध में प्रजा से अधिक दण्ड होना चाहिये।
वैसे ही जो कुछ विवेकी होकर चोरी करे, उस शूद्र को चोरी से आठ गुणा, वैश्य को सोलह गुणा, क्षत्रिय को बत्तीस गुणा॥४॥
ब्राह्मण को चौंसठ गुणा वा सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाईस गुणा दण्ड होना चाहिये। अर्थात् जिसका जितना ज्ञान और प्रतिष्ठा अधिक हो, उसको अपराध में उतना अधिक दण्ड होना चाहिये॥५॥
राज्य के अधिकारी, धर्म्म और ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाला राजा बलात्कार-काम करने वाले डाकुओं को दण्ड देने में एक क्षण भी देर न करे॥६॥
साहसिक पुरुष का लक्षण—
दुष्ट वचन बोलने, चोरी करने, विना अपराध से दण्ड देने वाले से भी साहस बलात्कार-काम करने वाला अतीव पापी दुष्ट है॥७॥
जो राजा साहस में वर्त्तमान पुरुष को न दण्ड देकर सहन करता है, वह राजा शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है और राज्य में द्वेष उठता है॥८॥
न मित्रता, न पुष्कल धन की प्राप्ति से भी, राजा सब प्राणियों को दुःख देने वाले साहसिक मनुष्य को बंधन-छेदन किये विना कभी न छोड़े॥९॥
चाहे गुरु हो, चाहे पुत्रादि बालक हों, चाहे पिता आदि वृद्ध, चाहे ब्राह्मण और चाहे बहुत शास्त्रों का श्रोता क्यों न हो; जो धर्म को छोड़ अधर्म में वर्त्तमान दूसरे को विना अपराध मारनेवाले हैं, उनको विना विचारे मार डालना, अर्थात् मार के पश्चात् विचार करना चाहिये॥१०॥
दुष्ट पुरुषों के मारने में हन्ता को पाप नहीं होता; चाहे प्रसिद्ध मारे चाहे अप्रसिद्ध, क्योंकि क्रोधी को क्रोध से मारना जानो क्रोध से क्रोध की लड़ाई है॥११॥
जिस राजा के राज्य में न चोर, न परस्त्रीगामी, न दुष्ट वचन का बोलनेहारा, न साहसिक डाकू, और ‘न दण्डघ्न’ अर्थात् राजा की आज्ञा का भङ्ग करने वाला नहीं है, वह राजा अतीव श्रेष्ठ है॥१२॥
भर्त्तारं लङ्घयेद्या स्त्री स्वज्ञातिगुणदर्पिता।
तां श्वभिः खादयेद्राजा संस्थाने बहुसंस्थिते॥१॥
पुमांसं दाहयेत्पापं शयने तप्त आयसे।
अभ्यादध्युश्च काष्ठानि तत्र दह्येत पापकृत्॥२॥
दीर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं तरो भवेत्।
नदीतीरेषु तद्विद्यात् समुद्रे नास्ति लक्षणम्॥३॥
अहन्यहन्यवेक्षेत कर्मान्तान्वाहनानि च।
आयव्ययौ च नियतावाकरान्कोषमेव च॥४॥
एवं सर्वानिमान् राजा व्यवहारान्समापयन्।
व्यपोह्य किल्विषं सर्वं प्राप्नोति परमां गतिम्॥५॥
—मनु॰ [८।३७१-३७२, ४०६, ४१९-४२०]॥
जो स्त्री अपनी जाति गुण के घमण्ड से पति को छोड़ व्यभिचार करे, उसको बहुत स्त्री और पुरुषों के सामने जीती [हुई को] कुत्तों से राजा कटवा कर मरवा डाले॥१॥
और उसी प्रकार अपनी स्त्री को छोड़ के परस्त्री वा वेश्यागमन करे, उस पापी को लोहे के पर्यङ्क (पलंग) को अग्नि से तपा, लाल सुर्ख कर उस पर सुला के, जीते को बहुत पुरुषों के सम्मुख भस्म कर देवे॥२॥
प्रश्न—जो राजा वा राणी अथवा न्यायाधीश वा उसकी स्त्री व्याभिचार आदि कुकर्म करें तो उनको कौन दण्ड देवे?
उत्तर—सभा। अर्थात् उनको तो प्रजापुरुषों से भी अधिक दण्ड होना चाहिये।
प्रश्न—राजादि उनसे दण्ड क्यों ग्रहण करेंगे?
उत्तर—राजा भी एक पुण्यात्मा भाग्यशाली मनुष्य है। जब उसी को दण्ड न दिया जाय और वह दण्ड ग्रहण न करे तो दूसरे मनुष्य दण्ड को क्यों मानेंगे? और जब सब प्रजा और प्रधान राज्याधिकारी और सभा धार्मिकता से दण्ड देना चाहैं तो अकेला राजा क्या कर सकता है! जो ऐसी व्यवस्था न हो तो राजा प्रधान और सब समर्थ पुरुष अन्याय में डूबकर न्याय-धर्म को डुबा कर सब प्रजा का नाश कर आप भी नष्ट हो जांय। अर्थात् उस श्लोक के अर्थ का स्मरण करो कि न्याययुक्त दण्ड ही का नाम राजा और धर्म है, जो उसका लोप करता है, उससे नीच पुरुष दूसरा कौन होगा!
प्रश्न—ऐसा करड़ा दण्ड होना उचित नहीं, क्योंकि मनुष्य किसी अङ्ग का बनानेहारा और जिलानेवाला नहीं है, इसलिये ऐसा दण्ड न देना चाहिये?
उत्तर—जो इसको करड़ा दण्ड जानते हैं, वे राजनीति को नहीं समझते, क्योंकि एक को इस प्रकार दण्ड होने से सब लोग बुरे काम करने से अलग रहेंगे और बुरे काम को छोड़ कर धर्ममार्ग में स्थित रहेंगे। इससे सच पूछो तो यही है कि एक राई भर भी यह दण्ड सब के भाग में न आवेगा। और जो सुगम दण्ड दिया जाय तो दुष्ट काम बहुत बढ़कर होने लगें। जिसको तुम सुगम दण्ड कहते हो वह करोड़ों गुणा अधिक होने से करोड़ों गुणा कठिन होता है, क्योंकि जब बहुत मनुष्य दुष्ट कर्म करेंगे तब थोड़ा-थोड़ा दण्ड भी देना पड़ेगा। अर्थात् जैसे एक को मनभर दण्ड हुआ और दूसरे को पाव-पावभर तो पावभर अधिक एक मन दण्ड होता है तो प्रत्येक मनुष्य के भाग में आधपाव बीससेर दण्ड होता है, और ऐसे सुगम दण्ड को दुष्ट लोग क्या समझते हैं? जैसे एक को एक मन और १००० (सहस्र) मनुष्यों को पाव-पाव दण्ड हुआ तो ६।ऽ सवा छः मन मनुष्य जाति पर दण्ड होने से अधिक और यही करड़ा, तथा वह एक मन दण्ड न्यून और सुगम होता है।
लम्बे मार्ग में समुद्र की खाड़ियां वा नदी तथा बड़े नदों में जितना लम्बा देश हो, उतना ‘कर’ स्थापन करे और महासमुद्र में निश्चित ‘कर’ स्थापन नहीं हो सकता किन्तु जैसा अनुकूल देखे कि जिससे राजा और बड़े-बड़े नौकाओं के समुद्र में चलानेवाले दोनों लाभयुक्त हों, वैसी व्यवस्था करे। परन्तु यह ध्यान में रखना चाहिये कि जो कहते हैं कि प्रथम जहाज नहीं चलते थे, वे झूठे हैं। और देश-देशान्तर द्वीप-द्वीपान्तरों में नौका से जानेवाले अपने प्रजास्थ पुरुषों की सर्वत्र रक्षा कर उनको किसी प्रकार का दुःख न होने देवे॥३॥
[राजा प्रतिदिन कर्मों की समाप्तियों को, हाथी-घोड़े आदि वाहनों को, नियत आय और व्यय (आकर) रत्नादिकों की खानें और (कोष) खजाने को देखा करे॥४॥]
राजा इस प्रकार सब व्यवहारों को यथावत् समाप्त करता-कराता हुआ सब पापों को छुड़ा के परमगति मोक्ष को प्राप्त होता है॥५॥
प्रश्न—संस्कृत में पूरी राजनीति है वा अधूरी?
उत्तर—पूरी है। क्योंकि जो-जो भूगोल में राजनीति चली और चलेगी वह-वह सब संस्कृत विद्या से ली है। और जिनका प्रत्यक्ष लेख नहीं है, उनके लिये—
प्रत्यहं लोकदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः॥
—मनु॰ [८।३]॥
जो-जो नियम राजा और प्रजा के सुखकारक और धर्मयुक्त समझें, उन-उन नियमों को पूर्ण विद्वानों की राजसभा बांधा करे। परन्तु इस पर नित्य ध्यान रक्खे जहां तक बन सके, वहां तक बाल्यावस्था में और दोनों की प्रसन्नता के विना विवाह न करना, न कराना, न करने देना। ब्रह्मचर्य का यथायोग्य सेवन करना-कराना। व्यभिचार और बहुविवाह को बन्ध करें कि जिससे शरीर और आत्मा में पूर्ण बल सदा रहे। क्योंकि जो केवल आत्मा का बल अर्थात् विद्या ज्ञान बढ़ाये जांय और शरीर का बल नहीं [तो] एक शरीर से बली सैकड़ों विद्वानों को जीत सकता है। और जो शरीर ही का बल बढ़ाया जाय, आत्मा का नहीं, तो भी राज्य की उत्तम व्यवस्था विना विद्या के कभी नहीं हो सकती। विना व्यवस्था के सब आपस में ही फूट, विरोध और लड़ाई करके नष्ट-भ्रष्ट हो जांय। इसलिये शरीर और आत्मा के बल को सदा बढ़ाते रहना चाहिये। जैसा बल और बुद्धि का नाशक व्यवहार व्यभिचार और अतिविषयासक्ति है, वैसा और कोई भी नहीं। विशेषकर क्षत्रियों को दृढ़ाङ्ग और बलयुक्त होना चाहिये। क्योंकि जब वे ही विषयासक्त होंगे तो राजधर्म नष्ट ही हो जायगा।
और इसपर भी ध्यान रक्खें कि ‘यथा राजा तथा प्रजाः’ [चाणक्यनीति १३.८] जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है। इसलिये राजा और राजपुरुषों को अति उचित है कि कभी दुष्टाचार न करें, किन्तु सब दिन धर्म न्याय से वर्त्तकर सब के सुधार का दृष्टान्त बनें।
यह संक्षेप से राजधर्म का वर्णन यहां किया गया है। विशेष वेद, मनुस्मृति के सप्तम-अष्टम और नवम अध्याय, शुक्रनीति, विदुरप्रजागर और महाभारत शान्तिपर्व के राजधर्म और आपद्धर्म आदि पुस्तकों में देखकर पूर्ण राजनीति को धारण कर माण्डलिक अथवा सार्वभौम चक्रवर्त्ती राज्य करें। और यही समझें कि—
वयं प्रजापतेः प्रजाऽअभूम
—यह यजुर्वेद [१८।२९] का वचन है।
हम ‘प्रजापति’ अर्थात् परमेश्वर की प्रजा और परमात्मा हमारा राजा और हम उसके किंकर भृत्यवत् हैं। वह कृपा करके अपनी सृष्टि में हम को राज्याधिकारी करे और हमारे हाथ से अपने सत्य-न्याय की प्रवृत्ति करावे। अब आगे ईश्वर और वेदविषय में लिखा जायगा।
इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे
सुभाषाविभूषिते राजधर्मविषये
षष्ठः समुल्लासः सम्पूर्णः॥६॥